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Home » मंजुला बिष्ट की कविताएँ

मंजुला बिष्ट की कविताएँ

मंजुला बिष्ट उदयपुर (राजस्थान) में रहती हैं, उनकी कविताएँ यत्र-तत्र प्रकाशित हो रहीं हैं. उनके पास पहाड़ की स्मृतियाँ हैं और समय के प्रश्न. उनकी कुछ कविताएँ आपके लिए.    मंजुला बिष्ट की कविताएँ                         __________________________________ स्त्री की व्यक्तिगत भाषा स्त्री ने जब अपनी भाषा चुनी तब […]

by arun dev
December 29, 2019
in कविता
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मंजुला बिष्ट उदयपुर (राजस्थान) में रहती हैं, उनकी कविताएँ यत्र-तत्र प्रकाशित हो रहीं हैं. उनके पास पहाड़ की स्मृतियाँ हैं और समय के प्रश्न. उनकी कुछ कविताएँ आपके लिए.
  
मंजुला बिष्ट की कविताएँ                        
__________________________________


स्त्री की व्यक्तिगत भाषा

स्त्री ने जब अपनी भाषा चुनी
तब कुछ आपत्तियां दर्ज़ हुई…
पहली आपत्ति दहलीज़ को थी
अब उसे एक नियत समय के बाद भी जागना था.
दूसरी आपत्ति मुख्य-द्वार को थी
उसे अब गाहे-बगाहे खटकाये जाने पर लोकलाज का भय था.
तीसरी पुरज़ोर आपत्ति माँ हव्वा को थी
अब उसकी नज़रें पहले सी स्वस्थ न रहीं थीं.
चौथी आपत्ति आस-पड़ोस को थी
वे अपनी बेटियों के पर निकलने के अंदेशे से शर्मिंदा थे.
पाँचवीं आपत्ति उन कविताओं को थी
जिनके भीतर स्त्री 
मात्र मांसल-वस्तु बनाकर धर दी गयी थी.
स्वयं भाषावली भी उधेड़बुन में थी ;
कि कहीं इतिहासकार उसे स्त्री को बरगलाने का दोषी न ठहरा दें….
तब से गली-मुहल्ला,आँगन व पंचायतों के निजी एकांत
अनवरत विरोध में है कि
स्त्री को अथाह प्रेम व चल-अचल सम्पति दे देनी थी
लेकिन उसकी व्यक्तिगत-भाषा नही ….!!

 मनचाहा इतिहास 

हर शहर में 
कुछ जगह जरूर ऐसी छूट गयी होंगी
जहाँ मनचाहा इतिहास लिखा जा सकता था.
वहाँ बोई जा सकती थी
क्षमाशीलता की ईख 
जिन्हें काटते हुए अंगुलियों में खरोंच कुछ कम होती!
वहाँ ज़िद इतनी कम हो सकती थी
कि विरोधों के सामंजस्य की एक संभावना 
किसी क्षत-विक्षत पौड़ी पर जरूर मिलती!
वहाँ किसी भटकते मासूम की पहचान 
किसी आततायी झुंड के लिये
उसके देह की सुरक्षा कर रहे धर्म-चिह्न नहीं
मात्र उसका अपना खोया \’पता\’ होता .
वहाँ किसी खिड़की पर बैठी ऊसरता से
जब दैनिक मुलाकात करने एक पेड़ आता
जो उसे यह नहीं बताता कि;
उसने भी अब अपने ही अंधकार में रहने की शिष्टता सीख ली है
क्योंकि उसकी देह-सीमा से बाहर के बहुत लोग संकीर्ण हो गए हैं.
लेकिन ..
इतिहास के हाथ में बारहमासी कनटोप था
जिसे गाहे-बगाहे कानों पर धर लेना 
उसे अडोल व दीर्घायु रखता आया है.
शहर की कुछ वैसी ही जगह
अभी तक \’वर्तमान\’ ही घोषित हैं
मगर कब तक……!!

भोथरा-सुख

क्यों नहीं भोथरे हो जाते हैं
ये हथियार, बारूद व तीखें खंजर
जैसे हो गई है भोथरी
धूलभरे भकार में पड़ी हुई 
मेरी आमा की पसन्दीदा हँसिया!
पूछने पर मुस्काती आमा ने बताया था
कि अब कोई चेली-ब्वारी जंगल नहीं जाती 
एलपीजी घर-घर जो पहुंच गई है.
क्या अभी तक हम नहीं पहुंचा सकें हैं
रसद व सभी जरूरी चीजें
जो एक आदमी के जिंदा बने रहने को नितांत ज़रूरी हैं
जो ये हथियार अपने पैनेपन के लिए
बस्तियों पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं.
क्यों नहीं 
कोई आमा के पास बैठकर
अपने हथियार चलाने के कौशल को
भूलकर सुस्ताता है कुछ देर
और समझ लेता है 
एक हँसिया के भोथरे हो जाने के पीछे का निस्सीम-सुख
क्या हथियार थामे हाथ नहीं जानते हैं सच
कि हत्थे पर से नहीं मिटती है रक्तबीज-छाप
हथियारे की!
हथियारों से टपकती नफ़रतें
चूस लेती हैं सारा रक्त
राष्ट्र की रक्तवाहिनियों से;
हथियार अगर सन्तुष्ट होकर लुढ़क भी जाएं
एक खाये-अघाये जोंक की मानिंद
तो रक्तवाहिनियों में निर्वात भर जाता है
येन-केन प्रकारेण
अपने हथियारों के बाजार बढ़ाते देशों के लिए
आख़िर यह समझना इतना कठिन क्यों है कि
दुनिया के सारे हथियारों की अंतिम जगह
मेरी आमा का धूलभरा भकार है.

प्रेम के वंशज

अब तलक
प्रेम को तमाम प्रेमिल कविताओं ने नहीं
बल्कि प्रेम को उस एक कविता ने बचाया है
जो या तो कभी लिखी ही न जा सकी;
और यदि कभी लिख भी दी गयी हो
तो उसमें परिपूर्णता महसूस न हो सकी.
प्रेम में गुनगुनाये हुए बेसुरे गीतों को सहेजा है
बालियों के उन झुंडों ने
जिनमें कुछेक दाने हरे ही रह गये थे ;
और वे मौसम के पारायण पर
आगामी फसल की आद्रता सिद्ध हुए थे.
सृष्टि में हर पल उमगते प्रेम को 
सबसे अधिक उम्मीद से 
उन मधुमक्खियों ने देखा है;
जिन्होंने छत्तों से मधु के रीतने के बाद भी
फूलों को चूमना नहीं छोड़ा है.
प्रेम की मौन अभिव्यक्ति 
उन पिताओं के हिस्से में सबसे अधिक है
जिन्होंने गाहे-बगाहे व तीज-त्योहारों पर 
अपने चोर-पॉकेट की पूँजी
सबसे पहले सन्तति व पत्नी पर ख़र्च की
अंत में स्वयं पर (अगर सम्भव हुआ तो).
प्रेम के पूर्ण-योग्य वंशज वे सभी प्राण-शक्तियाँ हैं
जिन्होंने जब अपनी जगह छोड़ी थी..हमेशा के लिए!!
तब वहाँ के आभामंडल में इतना वैराग्य भरा था
कि किसी अन्य को 
उस जगह पर बगैर झाड़ू बुहारकर बैठने में
रत्ती भर भी हिचक नहीं हुई थी.

नाक़ाबिल प्रेमी

मौजूदा दौर में
जब सुबह घर से निकले लोगों का
शाम को सकुशल लौट आना
सर्वाधिक संदिग्ध होता जा रहा है!
प्रेम ही है 
जो हर सदी के यथार्थ को संत्रास बनने से रोक सकता है!
और
हमारे दौर का सबसे शर्मनाक पहलू यह भी है कि
हम इस अर्थ में पूर्ण-शिक्षित तो हो चुके हैं कि
जंगल में सर्वाधिक क़ाबिल ही जिंदा बचा रहेगा..
लेक़िन फ़िर भी 
हम अब तक 
प्रेम में इतने नाक़ाबिल क्यों साबित होते जा रहें हैं!
______________________
bistmanjula123@gmail.com
Tags: कवितामंजुला बिष्ट
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