इस अवसर पर विमल कुमार का यह आलेख कि इसे बस आरम्भ समझा जाए.
वैचारिक संकीर्णता के खिलाफ थे राहुल सांकृत्यायन
विमल कुमार
“इस्लाम को भारतीय बनना चाहिए– उसका भारतीयता के प्रति यह विद्वेष सदियों से चला आया है. किन्तु नवीन भारत में कोई भी धर्म भारतीयता को पूर्णतया स्वीकार किये बिना फल फूल नहीं सकता. इसाई, पारसियों और बौद्धों को भारतीयता से ऐतराज नहीं, फिर इस्लाम ही क्यों ? इस्लाम की आत्मरक्षा के लिए भी आवश्यक है कि वह उसी तरह हिन्दुस्तान की सभ्यता, साहित्य, इतिहास, वेशभूषा, मनोभाव के साथ समझौता करे जैसे उसने तुर्की, ईरान और सोवियत मध्य एशिया के प्रजातंत्रों में किया है.”
“सारे संघ की राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि हिंदी ही होनी चाहिए. उर्दू भाषा और लिपि के लिए वहां कोई स्थान नहीं है.”
राहुल सांकृत्यायन
ये दोनों उद्धरण महापंडित राहुल संकृत्यायन के हैं जो उन्होंने १९४७ के दिसंबर में मुम्बई में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन में अपने भाषण में सभापति के रूप में दिए थे. यह भाषण पहले ही छप चुका था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने पहले ही पढ़ लिया था और उन्होंने इस पर आपत्ति व्यक्त की थी. वे चाहते थे कि इस अंश को हटा लिया जाये लेकिन राहुल जी इसके लिए तैयार नहीं थे. इस मुद्दे पर उनका पार्टी से सम्बन्ध विच्छेद तक हो गया.
राहुल जी के जीवनीकार गुणाकर मुले ने लिखा कि राहुल जी लेखकीय अभिव्यक्ति की आज़ादी के समर्थक और वामपंथी संकीर्णता के विरोधी थे. लेकिन आज़ादी के बाद उन्हें रामविलास शर्मा की तीखी आलोचना का शिकार होना पडा था जिससे वे मर्माहत हुए थे.
आज नौ अप्रैल है. महापंडित राहुल संकृत्यायन की १२५ वीं जयन्ती हैं. किसी भाषा और साहित्य में राहुल जैसे लेखक विरले ही होते हैं. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज उनकी इस १२५ वीं जयन्ती को वाम लेखक संगठनों द्वारा जिस तरह एकजुट होकर एक मंच पर संयुक्त रूप से मनाया जाना चाहिए था और राष्ट्रीय स्तर पर विशाल आयोजन होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. प्रगतिशील लेखक संघ ने बेगुसराय में स्थानीय स्तर पर जरुर आयोजन किया है और उनके ननिहाल पन्दहा और गाँव कनैला में आयोजन जरुर स्थानीय स्तर पर हुए, लेकिन राहुल जी के विराट व्यक्तित्व और अवदान को देखते हुए यह उनके अनुरूप नहीं कहा जा सकता है.
देश की राजधानी दिल्ली जो लेखकों का गढ़ है और जहाँ साहित्य अकादमी और हिन्दी अकादमी जैसे संस्थान हैं, तथा तीन वाम लेखक संगठन हैं, वहां राहुल जी की १२५ वीं जयन्ती का अलक्षित रह जाना बहुत चिंता की बात है. क्या हम इतने आत्ममुग्ध और आत्मलीन हो गए हैं कि राहुल जी के लिए एक राष्ट्रीय स्तर पर आयोजन नहीं कर सकते. भारतीय ज्ञानपीठ के लीलाधर मंडलोई, बी.एच.यू की चन्द्रकला त्रिपाठी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति गिरीश्वर मिश्र ने जरुर अपनी संवेदनशीलता दिखाई है और राहुल जी की १२५वीं जयन्ती का सूत्रपात कर दिया है. ज्ञानोदय और आजकल पत्रिकाओं ने विशेष अंक निकाल कर नवजागरण के पुनर्पाठ पर बहस शुरू की है.
राहुल जी के योगदान को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु जानते थे. शायद यही कारण है कि १९३७ में इलाहाबाद के एक समारोह में जिसमे राहुल जी को हमारी कमजोरियां विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था, नेहरु जी ने समारोह के सभापति के रूप में कहा था कि राहुल जी जैसे आदमी विश्वविद्यालय की दुनिया में क्यों नहीं होते. नेहरु जी राहुल जी की विद्वता को बखूबी जानते थे और उनकी किताब मध्य एशिया का इतिहास के मुरीद थे जिस पर राहुल जी को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था. लेकिन यह दुर्भाग्य है कि आज का राजनीतिक नेतृत्त्व राहुल जी के योगदान से पूरी तरह परिचित नहीं है और अगर परिचित है तो उनके प्रति वह सम्मान व्यक्त नहीं करना चाहता, शायद यही कारण है कि पिछले एक साल से सरकार के पास यह प्रस्ताव लंबित है कि राहुल जी की १२५ वीं जयन्ती देश भर में राष्ट्रीय स्तर पर बनाई जाए. यूँ तो मौजूदा सरकार खुद को हिन्दी प्रेमी कहती है पर चार सालों में कोई ऐसा कदम या निर्णय नज़र नहीं आता जिसमे हिन्दी के भविष्य को लेकर उम्मीद बंधे.

बहरहाल, राहुल जी जैसे व्यक्तित्व की १२५ वीं जयन्ती मानाने के लिए देश के नेतृत्त्व को साल भर प्रस्ताव पर विचार करना पड़े या उस पर तनिक ध्यान न दिया जाये या उसे गंभीरता से न लिया जाये तो यह जरुर कहा जा सकता है कि सत्ता और साहित्यकार का रिश्ता बहुत मधुर नहीं है. ख़ासकर अवार्ड वापसी की घटना के बाद हिन्दी के लेखकों से सत्ता के रिश्ते और बिगड़ गए हैं. वैसे तो यह भी कहा जा सकता है कि सत्ता विशेषकर मौजूदा सत्ता से साहित्यकारों विशेषकर प्रगतिशील लेखकों के सम्बन्ध कभी मधुर नहीं रहे. राहुल जी एक प्रगतिशील लेखक थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी में थे, आज़ादी की लडाई में चार बार जेल गए थे. किसान आन्दोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया था. देशरत्न राजेंद्र प्रसाद के साथ किसानों के आन्दोलन को संबोधित किया था. ऐसे राहुल क्या वर्तमान सरकार के लिए वैचारिक रूप से अनुकूल नहीं हैं ? क्या इसीलिए सरकार को कोई निर्णय लेने में हिचक हो रही है या उनको लेकर बेरुखी का भाव है.
यह बेरुखी कांग्रेस के ज़माने में भी रही है. यही कारण है कि कांग्रेस यू.पी.ए. के कार्यकाल में महावीरप्रसाद द्विवेदी की 150 वीं जयन्ती धूमधाम से मनाने के लिए आगे नहीं आती. यहाँ तक कि एक डाक टिकट भी जारी नहीं हुआ उस वर्ष. द्विवेदी जी हिन्दी नवजागरण के सबसे बड़े नायक हैं. बीसवीं सदी के हिन्दी के पहले प्रकाश स्तम्भ. वे राय बरेली इलाके के थे जो इंदिरा जी, सोनिया जी का चुनाव क्षेत्र रहा है. द्विवेदी जी ने हिन्दी की जो सेवा की उसका शतांश भी पिछले राजनीतिक नेतृव ने नहीं चुकाया है. दरअसल किसी भी सत्ता और सरकार के लिए हिन्दी से कोई आत्मीय मानवीय एवं अन्तरंग सम्बन्ध नहीं रहा. आजादी के बाद भी भाषा की गुलामी जारी रही और भारतीय नौकरशाहों में तथा राजनीतिक नेतृव में वह संवेदनशीलता नहीं रही जो हिन्दी की इस आत्मा को पहचाने, उसके लिए कुछ करें.
साहित्य अकादेमी, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और ग्रन्थ अकादमियां सब कांग्रेस शासन की देन रहीं और वे आज़ादी के बाद धीरे- धीरे मरने लगीं. काशीनागरी प्रचारिणी आज जर्जर स्थिति में है. यह उस शहर की विरासत है जिसे टोकियो बनाने की बात जोर शोर से कही जा रही ही. वह शहर प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है. चार साल बीत गए लेकिन उस मृत संस्था को जीवित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया. उसी शहर में रायकृष्ण दास जैसा व्यक्तित्व हुआ जिसकी १२५ वीं जयेंती पिछले दिसम्बर में थी लेकिन प्रधानमंत्री को उनकी सुध कभी नहीं आयी. उनकी स्मृति में किसी समारोह का कोई उद्घाटन किया हो ऐसी खबर मीडिया में नहीं आयी. प्रधानमंत्री हिन्दी में ही भाषण देते हैं. कुछ लोग उनके भाषण की बहुत तारीफ़ भी करते हैं. लेकिन क्या उनका हिन्दी प्रेम केवल भाषण तक ही सीमित है या उनके इस प्रेम का कोई सार्थक अर्थ भी हैं. अगर होता तो वे रायकृष्ण दास को जरुर याद करते.
राय कृष्णदास का हिन्दी प्रेम देखिये कि उन्होंने १९३२ में ही बाबू श्यामसुंदर दास के साथ द्विवेदी जी को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने की योजना बनाई थी और १९४०-४२ में भारतीय कला पर हिन्दी में मौलिक ग्रन्थ लिखे. शायद मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व को राय कृष्णदास के योगदान के बारे में नहीं पता हो और अगर पता हो तो कुछ करने की इच्छाशक्ति नहीं हो. अगर इच्छा शक्ति होती तो वे कहते कि हमें राहुल जी पर गर्व है जो ३२ भाषाएँ जानते थे, जिन्होंने १४२ ग्रन्थ लिखे, कोष बनाये, एक लाख तिब्बती पांडुलिपियों को खुद लालटेन की रौशनी में कागज पर लिखकर सूची बद्ध किया. तब कंप्यूटर नहीं था. राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन भी नहीं था और तिब्बत में बल्ब की रौशनी भी नहीं थी. आजादी की लडाई में हिन्दी हिन्दुस्तानी के विवाद में राहुल जी हिन्दी के साथ थे और कम्युनिस्ट पार्टी की लाइन से अलग थे जिनके कारण उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया. हमारे देश में शुरू से ही वैचारिक स्वतन्त्रता की कमी व्यवहारिक स्तर पर दिखती है.
पार्टी और सत्ता दोनों वैचारिक स्वाधीनता के विरोधी रहे हैं. लेकिन लेखक को स्वतंत्रता चाहिए. उसे अपने युग का सच कहने के लिए स्पेस चाहिए. राहुल जी कांग्रेसी होते हुए भी कांग्रेस से लाभ नहीं उठा पाए. वामपंथी होते हुए पार्टी से हिन्दी और इस्लाम के सवाल पर उनके मतभेद हुए. उनका व्यक्तिगत सम्बन्ध राजेंद्र बाबू से था पर अपनी पत्नी के लिए कोलकत्ता विश्विद्यालय में लेक्चररशिप भी नहीं दिलवा सके. इसे विडंबना ही कहा जाये कि वे भारत में कहीं लेकचरार नहीं बन सके पर श्रीलंका और रूस की सरकारों ने उन्हें अतिथि प्रोफेसर बनाया. बाद में उन्हें जयप्रकाश नारायण, दिनकर और शिवपूजन सहाय के साथ भागलपुर विश्विद्यालय से मानद डी. लिट् की उपाधि मिली और जिस साल उनका निधन हुआ था, उस वर्ष उन्हें पद्मभूषण मिला जबकि उनसे काफी युवा दिनकर को पद्मभूषण मिल गया था. राहुल जी का अपने समय में सत्ता से बहुत मधुर रिश्ता कभी नहीं रहा यद्यपि उस दौर के सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते थे.
आज लेखकों और सत्ता के बीच संवाद लगभग टूट गया है बल्कि दोनो में छत्तीस का आंकडा है, वैसे कुछ साहित्यकार वर्तमान सरकार से उसी तरह तालमेल जुटाने मे लगें हैं जैसे कांग्रेस के ज़माने में कुछ धर्मनिरपेक्ष और कलावादी लेखक. लेकिन उन्होंने राहुल जी की १२५ वीं जयन्ती मानाने के लिए सरकार पर कोई दबाव नहीं बनाया.
हिन्दी की लडाई अब जीतना मुश्किल है क्योंकि वह गुट और विचारधारा के कुचक्र में फंस चुकी है. अगर तीनों वाम लेखक संगठनों में एकता होती तो आज राष्ट्रीय स्तर पर धूमधाम से १२५ वीं जयन्ती मनाई जाती और राहुल जी की पुत्री को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उन्हें स्मरण नहीं करना पड़ता कि एक साल पहले हिन्दी के कई लेखकों ने उन्हें पत्र लिखकर १२५ वीं जयन्ती मानाने की मांग की थी, लेकिन एक साल में सरकार कोई निर्णय ही नहीं ले पायी. इस से पता चलता है कि पिछली सत्ताओं की तरह वर्तमान सत्ता में हिन्दी को लेकर कितना सच्चा प्रेम और गौरव का भाव है.
राहुल जी हिन्दी के बड़े प्रतीक हैं. प्रेमचंद्र और निराला की तरह. कई मायनों में उनसे भी बड़े प्रतीक. राहुल जी के लेखन और व्यक्तित्व में जो विविधता है और जितने जोखिम उन्होंने लिए हैं उतने किसी लेखक ने नहीं उठाये. सत्रह दिन में वे सिंह सेनापति उपन्यास लिख देते हैं तो बीस दिन में वोल्गा से गंगा जैसी कृति. इस से अनुमान लगाया जा सकता है कि उनमे कितनी सृजनात्मक ऊर्जा है. हालाँकि कई लोगों का यह मानना है कि राहुल जी के लेखन में प्रेमचंद और निराला की तरह गुणवत्ता नहीं क्योंकि वह एक्टिविस्ट लेखक हैं. हिन्दी में जो एक्टिविस्ट लेखक हुए हैं उनकी थोड़ी उपेक्षा हुई है मूल्याङ्कन में. राहुल के बाद बेनीपुरी दूसरे एक्टिविस्ट लेखक हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राहुल जी ने हिन्दी साहित्य में अपना जो योगदान दिया है वह अद्भुत है. अक्सर हम उन्हें यात्रा वृत्तान्तकार कहकर उनके योगदान को कम आंकते हैं. वह सत्य के यायावर थे. किसानों और देश की गरीब जनता के मुक्तिदाता थे. धर्म के पाखंड के विरोधी. समतामूलक समाज बनाने के स्वप्नदर्शी. भागो नहीं दुनिया को बदलने का नारा देने वाले क्रांतिदूत. इस क्रांतिदूत की १२५ वीं जयन्ती के लिए हिन्दी के युवा लेखक आगे आयें क्योंकि वही इसके रहनुमा हो सकते हैं.
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विमल कुमार:
(९-१२-१९६०) गंगाढ़ी, बक्सर
तीन कविता संग्रह प्रकाशित- सपने में एक औरत से बातचीत (१९९२), यह मुखौटा किसका है (२००२) और पानी का दुखड़ा(२००९) भारत भूषण अग्रवाल(१९८७), बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान,शरद बिल्लौरे सम्मान ,हिंदी अकादमी सम्मान सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित. रचनाओं के अंग्रेजी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद.
कहानी संग्रह कालगर्ल (२०१०)
एक उपन्यास चाँद @आसमान.काम.प्रकाशित
लेख संग्रह सत्ता समाज और बाज़ार (२००७)
व्यंग्य चोर पुराण (२००७)
पत्रकारिता.फिलहाल, यूनीवार्ता में विशेष संवाददाता
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