‘At the end of my suffering
Louise Glück
समकालीन कवियों पर आधारित स्तम्भ ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत आपने निम्न कवियों की कविताएं पढ़ीं और जाना कि वे कविताएं क्यों लिखते हैं.
आशुतोष दुबे/ अनिरुद्ध उमट/ रुस्तम/ कृष्ण कल्पित/ अम्बर पाण्डेय/ संजय कुंदन/ तेजी ग्रोवर/ लवली गोस्वामी / अनुराधा सिंह/ बाबुषा कोहली. अब इस श्रृंखला में पढ़ते हैं– सविता सिंह को.
सविता सिंह हिंदी की महत्वपूर्ण कवयित्री हैं और स्त्रीवादी आलोचना के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं. उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हैं.
सविता सिंह का वक्तव्य जहाँ स्त्री-लेखन को समझने का सूत्र देता है वहीं उनकी कविताएँ ख़ुद उनके कवि-व्यक्तित्व के अगले पड़ाव की सूचना देती हैं. ये कविताएँ ‘जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है’ (अज्ञेय) की तरह नहीं है. इसमें स्त्री प्रेम करती है. वह क्रिया है. और यहाँ आपको प्रेम और प्रेम का अंतर साफ़ दिखता है.
सघन, ऐन्द्रिय, उदात्त और मुक्तिकामी जैसा कि उसे होना चाहिए.
प्रस्तुत है.
मैं कविता क्यों लिखती हूँ ?
सविता सिंह
अक्सर कवियों से सवाल पूछे जाते हैं कि वे कविताएं कैसे लिखती/लिखते हैं. यहाँ सवाल यह है कि क्यों लिखते हैं?
मैं निकल आयी हूँ तुम्हारे साथ मेरी कविता
इतनी दूर अपनी परिचित दुनिया से
कि अब अतार्किक लगता है डरना भी
इसकी अपरिचित दुर्गमता से
_ _ _
एक गरम नदी के किनारे खड़े होना है
तुम्हें लिखना मेरी कविता
उस दृश्य को देखना
जहां अनभिज्ञता के शव आते हैं
अपनी मासूमियत छोड़ने
पहनने कठोर ज्ञान के परिधान\’ (स्वप्न समय )
एक सूखे पत्ते की तरह कविता के तूफान में खड़खड़ाती मैं कहीं भी जा सकती हूँ. संसार की कुरूपता से उबरने का यह एक सुनहरा मौका हो सकता है. कविता कुछ इस तरह हमारे आत्म से बंधी या लिपटी रहती है कि उसका अपना रहस्य भी हमारा ही होता है. परन्तु इसकी एक शर्त है, कविता तभी आपके आत्म का रहस्य खोल सकती है जब आप वैसे समाज की रचना करने के लिए प्रतिबद्ध हों जिसमें मनुष्य की स्वायत्तता को नष्ट न किया जाए.
कविता दरअसल एक सामाजिक जीव है मनुष्यों की तरह ही. इतना तो हम जानते ही हैं कि व्यक्ति से कहीं महत्वपूर्ण वह समाज है जिसमें व्यक्ति, व्यक्ति होता है या बनता है. क्या इसका मतलब यह है कि कविता को पाना अपनी सच्ची सामाजिकता को पाना है?
मेरे लिए कविता एक स्त्री की तरह है जो तमाम पितृसत्तात्मक प्रहारों से अभी पूरी तरह से घायल नहीं हुई है और वह अपनी जाति, यानी दबे कुचले मनुष्यों के काम आना चाहती है. कविता भाषा की ऐसी चेतना है जिसकी स्मृति में सदियों-सदियों की बातें संचित हैं. इसे पितृसत्ता की क्रूरता, खासकर स्त्रियों के प्रति अपनायी गई क्रूरता, समय-खंड की एक विकृति भर ही लगती है और उसके पास मनुष्य के लिए एक भविष्य भी संचित है जिधर वह हमें ले जा सकती है. मेरे लिए कविता लिखना उस भविष्य को पाने की उम्मीद और आकांक्षा से आलोकित किसी रात की तरफ़ जाने जैसा है.
मुझे लगता है कविता स्त्री की तरह ही पितृसत्ता से लड़ सकती है, इसे गिरा सकती है- आखिर यह एक सिंबॉलिक ऑर्डर ही तो है- भाषा की ही ईंटों से निर्मित. वह एक रात ही तो है स्त्री भाषा की तरह, और कविता से ज्यादा कौन भाषा में रहता है! लिखना स्त्री के लिए मुक्ति का एक रास्ता है, इसी भाषा में इसका अवचेतन अवस्तिथ है जहां उस पर किए गए सारे आघातों, उनके घावों के दस्तावेज़ सुरक्षित है. इसलिए ही भाषा में स्त्री अपने सबसे करीब होती है. वह यहाँ अपनी तरह होती है; यहाँ कुछ भी झुठलाया नहीं जा सकता, सब कुछ टंकित है यहाँ, सारे दर्द, सारे पराजय, विजय की कामना- सारा का सारा समाज.
वह समय भी संचित है जहाँ वह कभी किसी मालिक के अधीन नहीं थी. उस बेहतर रात को और कौन जानता है, वह आने वाले समय के उस इतिहास खंड को भी जानती है जिसमें वह एक साथ सामाजिक, स्वतंत्र और लैंगिक रूप से स्वायत्त रही होगी. यहाँ, अपनी भाषा में वह दोबारा जानेगी स्त्री होने का अर्थ क्या है, यानी उसकी योनि किस सृष्टि का द्वार है?
वह क्या जन्म दे सकती है और क्या पाल सकती है ?’
अपने इसी भावी स्वरूप को पाने के लिए मैं कविता लिखती हूँ जो एक समझ की तरह मेरे साथ तो है ही, एक स्त्री की तरह मेरी प्रेमिका भी है. प्रेम में क्या कुछ संभव नहीं हो सकता- एक नयी स्त्री भी जिसे पितृसत्ता की कोई दरकार नहीं, न उस भाषा की जिसमें उसके उत्पीड़न के सारे औज़ार पुरुष चेतना के रूप में स्थित हैं. मैं कविता लिखती हूँ उस कविता को पाने के लिए जो मैं हूँ या हो सकती हूँ- प्रेम करती एक स्त्री जो संसार को सुंदर बनाना चाहती है. अपने भीतर किसी तरह बची अच्छाइयों से एक ऐसा समाज बनाना चाहती है जिसमें समानता का अर्थ भिन्नता भी हो, जिसमें कोई स्त्री या लड़की इसलिए बलत्कृत न होती हो क्योंकि वह एक जाति की है, यानी दलित स्त्री, जिसके मेरुदंड को तोड़ दिया जाता है, जीभ काट ली जाती है जिसका अर्थ है कि वह उठ न सके, बोल न सके. ऐसी नृशंस व्यवस्था के खिलाफ मेरी कविता मुझे शक्ति देती है कि इस पितृसत्ता को पूरी तरह से नकार दूँ और इसे किसी रूप में जायज़ न ठहराऊँ.
मेरी कविता उन स्त्रियों से भी वार्तालाप करती है जो इस पितृसत्ता का सह-उत्पादन करती हैं और नृशंस पुरुषों को अपनी खोह में जगह देती हैं, उन्हें बचाती हैं और उनके साथ हंसी-मज़ाक का जीवन बिताती हैं. हो सकता है इसी से उनकी चेतना बदले.
कविता प्रतिरोध की भाषा की अनन्य रात्रि-प्रहरी है, इसके साथ मैंने कितनी ही यात्राएं की हैं, नींद में, सपने में, रात में. वह मेरी है जैसे रात, नींद और सपने- जैसे अलिशा, मनीषा और ऐसी कितनी ही निर्भयाएं.
यहाँ प्रस्तुत कविताएं उस भविष्य की आभा की कविताएं हैं जिसमें स्त्री प्रेम करती हुई दिख सकती है. यह वैसी एकाकार की स्थिति हो सकती है जिसे हिंसा भंग न करती हो- एकाकार जिसमें मनुष्यों के साथ, और इसके अलावा भी, सारी कायनात शामिल हो- एक सहमति में कि संसार ऐसा ही होना चाहिए. अन्याय के लिए इस संसार में कोई जगह नहीं होगी, न ही इसको लेकर किसी की सहमति.
ऐसे हिंसक समय में एक स्त्री का प्रेम कविताएं लिखना प्रतिरोध की ही कविताएँ कही जा सकती हैं. इसलिए भी ऐसी कविताएँ अब मैं लिख रहीं हूँ. ऐसी कविता हिंसा को नकारती है और इतिहास के उस समय खंड को छोड़ना चाहती है जिसमें स्त्री को प्रेम के बदले प्रेम नहीं मिल सका. वह अब उस से निकलने की लालसा रखती है. कविता के जरिये एक स्त्री उस समय में उतरना चाहती है जो एक दरिया की तरह तो होगा लेकिन उसमें मगरमच्छ भी अपनी प्रकृति बदल चुके होंगे.
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सविता सिंह की कविताएँ
1.
तारों का पथ
हम चले जा रहे थे
एक अनजान रास्ते पर
जिसके बगल में पेड़ थे भी
तो कितने अजनबी
उनके पत्ते बैंगनी रंग के
उनके तने थे गहरे धानी
फूल थे किन्हीं डालों पर तो
ऐसे गुलाबी
जैसे हों वे हमारे आह्लाद के रंग
अभी प्रेम ही रंग रहा था
सारी कायनात को
सारा दृश्य उसी का रचा हुआ था
सारी-सृष्टि उसी को समर्पित
सारी देह उसी के बंधन में
यह तारों का पथ था
हम उसकी छिटकी रोशनी के
थे राही.
2.
द्रव्य
हमारे पास कहने को बहुत कम था
अभी हम भावों में थे
देह की थोड़ी हरकत भी
दूसरे को चकित कर रही थी
हम चौंकते थे एक दूसरे की
साँसों को बदलते महसूस करते हुए भी
एकाकार की ऐसी स्थिति थी
हम आहत होते किसी भी गति से
हम स्थिर थे
ऐसे ही रहना चाहते थे
हमारी मुस्कराहटें भी व्यवधान थीं
उसकी एक बहुत हल्की तरंग ही
चाहते थे भीतर
एक दूसरे के भीतर समाए
अभी हम कुछ नहीं चाहते थे
इसे हम कोई नाम भी नहीं देना चाहते थे
संभोग के परे की एक स्थिति थी
इसमें हम पहली बार गए थे
यहाँ यह कौन सी स्थिति थी
सोचना भी इसे भंग करने जैसा था
यह एक सिफर था
जिसमें हम थे, दो लोग
एक
कोई द्रव्य हममें उतर रहा था.
3.
धन्यवाद प्रेम
रात बीत चुकी थी
बाहर बैठे आसमान से थे हम
तारों को देख रहे थे
सारे तारे एक से नहीं
यह कह रहे थे
तभी एक तारा जगमगाया
तेज़ प्रकाश उजागर हुआ
हमने कहा यह हमारे लिए था
यह रौशनी हमारी थी
अपनी आँखों में उसे दिव्य ज्योति सा हमने भरा
आलिंगन बद्ध देर तक
जाने किसे धन्यवाद देते रहे.
4.
रेशम से
हमारे पास इस समय एक खुशी थी
हम खुश थे
साथ खड़े- खड़े फूलों को देखते हुए
इस पल कुछ तारे ही थे
जो हमें देखते थे
रात अभी-अभी उतरी थी
धरती पर सब कुछ जैसे हमारा था
ऐसा लगता था
हमें संतोष था
हमें कोई और नहीं देख रहा था
हम एक दूसरे को भी नहीं देख रहे थे
हम फूलों और तारों को देख रहे थे
हमारी साँसे ऐसी चल रही थी
जैसे वे एक दूसरे के सुनने भर के लिए थीं
हम जीवित थे तो सिर्फ
इस साथ होने की वजह से
हमारा प्रेम हल्की हवा सा था
वातावरण में बहता हुआ
हमें समय के महीन धागों से बांधता
हम अभी रेशम से थे
मुलायम और हल्के.
5.
प्रेमरत
अभी हमारे पास कहने को क्या था
हम तो भाषा में थे ही नहीं
हमारे पास महज़ अव्यक्त आवाज़ें थीं कुछ
शब्द दूर थे हमसे
फिर भी हम जानते थे कहना
चलो साथ लेटें
ओस भरी रात में इस तरह भीगे
जैसे भीगता है भीतर का सब कुछ
जब कोई दुराव नहीं होता
बाहर और भीतर का
चलो सब कुछ साथ लेकर
उसके परे चलें
यह क्या होता है इसे भी जाने
चलो हरी घास से पूछते हैं
या फिर तारों से ही
हमें ऐसे सोचते कब उसने देखा था
इतना कम आसक्त
प्रेमरत इतना
कब हमें पहली बार देखा था.
6.
छिपा हुआ जल
पत्तों की नसों में बहता हुआ जल
पृथ्वी का छिपा हुआ जल है
उसके चेहरे पर उतरी आभा जैसे
पिछले जीवन की उबासियों से
बच कर आया लास्य
अछोर क्षितिज पर ठहरी लाली
आकाश का बुझा हुआ ताप
सुस्ताती पृथ्वी का छोड़ा हुआ रंग
उसकी आँखों में उतरा नेह
मेरी आँखों में सुरक्षित रखने की आकांक्षा जैसे
बहुत कुछ बचा-खुचा छिपा उजागर
उसी प्रछन्न के लिए था
जो उजागर हो कर भी नहीं है
उसके हाथ मेरे बालों में फिरें
ऐसी प्रतीक्षा करती हुई
इस साँझ को आज मैं जाने दूँगी.
7.
अनासक्त
अनासक्त एक दूसरे को जानें हम
जैसे दोपहर धूप को
चिड़ियों के पंखों में छिपे
बेशुमार छोटे पंखों को
आज जानने का दिन बनाए
उन सारी चीजों को
जिन्हें हम जानते रहे हैं
अनासक्त,
आसक्त एक दूसरे से
जैसे ‘मछलियां लहरों’ से
आँखें अपनी रोशनी से
हृदय धड़कन से अपने
एक दूसरे से दिल की बातें कहें
और इसके बाद भी बचे रहें.
8.
रोशनी
खड़े-खड़े एक दूसरे की आँखों में देखते हुए
हम उतर जाएंगे ऐसे समुंदर में
ज्वारभाटाएँ जहां इंतज़ार करती हैं
प्राणदायिनी हवा का
अपने जीवों के लिए
खड़े-खड़े ही हाथों में थामे हाथ
हम चलें जाएंगे उस घाटी में
रिहाइश है फूलों और तितलियों की जहां
जहाँ भँवरों, गवरैलों, बीरबहूटियों से
हमें याद आएगा
हम यहाँ कब आए थे पहले
और यह भी कि हम कौन थे
इन सबों में से किन की तरह
और कब
एक दूसरे की आँखों में झाँकते हुए
हम याद कर लेंगे अपने पिछले जन्मो को
प्रेम का सिलसिला कुछ ऐसा ही अटूट है
उसकी आभा फैली किसी रहस्य सी
हमें हमेशा घेरे ही रहती है
और हम समझ नहीं पाते यह कैसी दमक है
और किस रोशनी की
जो हमें यूं पराजित करती रहती है.
9.
कृति
कब झुके तारे
कब आसमान अपना हुआ
कब चाँद आँखों में झांक गया
कब सूरज अपना रथ
मेरे दरवाज़े पर छोड़ गया
पता नहीं चला
पता चला तो उसके गर्म होंठ
मेरे माथे पर
उसके हाथ हवा में मुझे उठाए हुए
कहते
सृष्टि की अप्रतिम कृति
मेरी बाँहों में समाओ
रहो मेरी साँसों में
मेरे हृदय को अपना आवास बनाओ.
10.
जब लौटेगा चाँद
चाँद के लौटने तक
फैसला हो चुका होगा
कितना मिटना है आज रात
कितना बचना
कितनी सांसें खोनी होंगी
कितनी बचानी
चाँद लौटेगा जब दूसरी रात
कई चीज़ें एक दूसरे की हो चुकी होंगी
कई लोग हमारी ही तरह
कुछ पा चुके होंगे
कितनी ज़िंदगियाँ बदली होंगी
इन्हीं दो रातों के दरमियान
कितने तारे अपना नाम बता चुके होंगे
कितने ही लोग एक दूसरे को
इन नामों से बुला रहें होंगे
तीसरी रात जब लौटेगा चाँद
हमें याद नहीं रहेगा
हम कौन थे इससे पहले.
11.
वासना
मेरी कामना
मिलाओ उस वासना से
जिसे ईश्वर भी नहीं जानता
जो अबतक बाक़ी है
सारे संभोग के बावजूद
हवा का हवा संग
फूलों का फूलों संग
साँझ का रात संग
दिखाओ वह चुम्बन
जिसे सृष्टि ने प्रकृति को लिया होगा
और सब कुछ हरा नीला हो गया होगा.
—
Prof. Savita Singh