• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मैनेजर पाण्डेय की उपस्थिति: प्रज्ञा पाठक और दयाशंकर शरण

मैनेजर पाण्डेय की उपस्थिति: प्रज्ञा पाठक और दयाशंकर शरण

  हीरा पायो गांठ गठियायो                                         प्रज्ञा पाठक (प्रज्ञा पाठक)    मैंने सर को पहली बार सन 1992 के अगस्त में देखा था.इसी वर्ष मेरा प्रवेश एम. फिल. में हुआ था. उनसे परिचित होने की शुरुआत 1989-90 […]

by arun dev
September 24, 2020
in संस्मरण
A A
मैनेजर पाण्डेय की उपस्थिति: प्रज्ञा पाठक और दयाशंकर शरण
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

 

हीरा पायो गांठ गठियायो                                        

प्रज्ञा पाठक

(प्रज्ञा पाठक)
 

 मैंने सर को पहली बार सन 1992 के अगस्त में देखा था.इसी वर्ष मेरा प्रवेश एम. फिल. में हुआ था. उनसे परिचित होने की शुरुआत 1989-90 के सत्र में बसंत कालेज, राजघाट की विद्यार्थी के रुप में संध्या दीदी के अध्यापकत्व में हो चुकी थी.सच पूछा जाए तो जेएनयू आने तक मेरी जानकारी वहां के बारे में बहुत सीमित थी पर लक्ष्य बहुत साफ था– वहाँ प्रो. मैनेजर पाण्डेय हैं जो उपन्यास पर रिसर्च कराते हैं. मुझे उन्हीं के साथ काम करना है.यह बात पहली ही मुलाकात में सर को बताई थी कि मैं उनके साथ काम करने का इरादा लेकर ही आई हूं.उस समय अक्ल ही उतनी थी, यह कहाँ पता था कि यहां हर सेशन के आरंभ में मेरे जैसे नए रंगरूट आते हैं और इसी प्रकार की बातें बनाते हैं.

आज पीछे मुड़कर देखने पर यह लम्बा समय मैंने ही जिया है यह विश्वास ही नहीं होता.यह दीर्घ अवधि सर से सीखते-जानते हुए बीती है. कई पुराने जेएनयू वाले थाह लेते हुए पूछते हैं-  सर से कब बात हुई ? कहती हूं अभी बीते पुस्तक मेले में मुलाकात हुई थी या पिछले चार-छह महीने पहले दिल्ली गए थे तो मिले थे. ओह! आप तो निरंतर संपर्क में हैं.कहना चाहती हूं- जितना संपर्क में होना चाहिए नहीं हूं, पर कहती नहीं हूं.पिछली किसी मुलाकात में अतवीर से उन्होंने कहा- आपके विद्यार्थियों के लिए ईपीडब्ल्यू के पुराने अंकों का उपयोग हो, तो मेरे पास पुराने अंक रखे हैं ले जाइएगा. 

अगली यात्रा में ले जाना सुनिश्चित हुआ और तब से उनके पास जा ही नहीं सके हैं.एक मुलाकात में उन्होंने बताया कि हाई ब्लडप्रेशर में नमक का परहेज करते हुए वे आयोडीन की कमी का शिकार होकर गंभीर रूप से अस्वस्थ हुए.ऐसे किसी प्रसंग में अपने ऊपर इतनी झुंझलाहट होती है कि क्या कहें ! ऐसा भी क्या ‘दुनिया धंधा’.इन वर्षों में संपर्क का जो नैरन्तर्य (जैसा भी हो) बन पाया उसमें उनकी भूमिका मुझसे कहीं ज्यादा है यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं.

लाकडाउन के तीन-साढ़े तीन महीने बीत गए.एक दिन उनका फोन आया- तुम कहां हो? सब ठीक है? मेरे जवाब में कुछ निराशा रही होगी तो उन्होंने कहा ‘अरे! ये समय भी बीतेगा जी!’ बीते वर्षों में एक शाम फोन आया- ‘मैं देहरादून से लौट रहा हूं, ट्रेन में हूं. मेरठ दिखाई दिया तो सोचा तुमसे बात कर लूं’. हमने नाराजगी दिखाई कि देहरादून से चलते हुए फोन कर देते तो कम-से-कम हम स्टेशन पर आके मिल लेते. ‘अरे! जब मेरठ दिखा तभी न समझ में आया जी’.

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक का कोई समय रहा होगा, सर मेरठ के किसी कालेज में पीएच.  डी. का वायवा लेने आए.पीएच. डी. वायवा के अनिवार्य एकेडमिक अनुष्ठान ‘लंच’ के लिए साफ इंकार करके आयोजकों को भौंचक्का छोड़ हमारे घर आए.एक बार रेखा (पाण्डेय जी की बेटी) और सर दोनों आए थे. रेखा जेएनयू के अपने घर के आम के पेड़ से तोड़ कर आम लाई थी हमारे लिए.

प्रो. मैनेजर पाण्डेय के चारों ओर एक आवरण है.प्रथम दृष्टया वे थोड़ा सख्त मालूम होते हैं पर उस सख्ती के भीतर की कोमलता और तरलता को आप महसूस कर सकेंगे यदि उनका सान्निध्य मिल सका तो. किसी भी विद्यार्थी के लिए उनके नजदीक पहुंचने का एक ही मंत्र है- सतत परिश्रम और अध्ययन.चतुराई और चटकपन उनके नजदीक नहीं पहुंचाते. बतौर विद्यार्थी श्रम करने की इच्छा और अभ्यास न हो तो उनके साथ काम करने की इच्छा रखना बेकार था.बिना मेहनत किए काम करने की इच्छा रखने वाले शोधार्थी पर उनको कहते सुना था – ‘चले आते हैं गाय की पूंछ पर रिसर्च करने’. आपको उनकी कितनी भी आत्मीयता हासिल हो, कुछ भी ऐसा किया जो उन्हें उचित नहीं लगा, खासतौर पर आपके पढ़ने-लिखने से जुड़ा मसला वे तत्काल अपनी नाराजगी अभिव्यक्त कर देंगे.

जब मैं जेएनयू से संबंधित अपनी समूची जानकारी का कोष सम्हाले कैम्पस पहुंची तो सीनियर्स, सहपाठी सबके पास उनसे जुड़ी सच्ची-झूठी कथाएं थीं. इतनी कि कोई नया विद्यार्थी चकरा ही जाए.इन दंतकथाओं के केंद्र में सर का गुस्सा रहताथा.मुझे बहुत बाद में किसी सहपाठी ने बताया कि उसे बहुत आश्चर्य और चिंता थी कि मैं सर के साथ काम कैसे कर पाऊंगी?

एम. फिल. करते हुए एक बार पढ़ाने के काम के प्रति अपने दुर्निवार आकर्षण के चलते मैंने बीए कर रहे विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम ले लिया.जोशो-खरोश से पढ़ाना शुरू किया इस बीच जब सर से मुलाकात हुई तो मैंने पाठ्यक्रम में मौजूद किसी पुस्तक को पढ़ाने के लिए उनसे कुछ संदर्भ पूछे. बस फिर क्या था, ठीक से डांट पड़ी कि ये सब करोगी तो अपना काम कैसे करोगी ? अब मेरी हालत खराब.दरअसल मैंने इस बारे में सर से बात ही नहीं की और पढ़ाना शुरू कर दिया था.धीरे-धीरे साहस बटोरा और उनको बताया कि मुझे शौक है पढ़ाने का और दूसरा मैं सिर्फ हफ्ते में एक दिन एक क्लास लूंगी. इस क्लास से मेरा काम प्रभावित नहीं होगा. बस मामले का पटाक्षेप हो गया.उनको मालूम था ठीक से डांटा है- ‘अच्छा, अच्छा तो मुझे क्या पता कि हफ्ते में एक दिन पढ़ाओगी.’

एम. फिल. के क्लास वर्क के दिनों में कई सहपाठी भारतीय भाषा केंद्र के अंदर दरवाजे की सीध में, वाटर कूलर के बगल की सीढ़ियों पर बैठे बतकुट्टस काट रहे थे.उन सीढ़ियों से पार विदेशी भाषाओं के विभाग थे और नीचे हमारे विभाग की कक्षाएं.पास ही सर का कमरा हुआ करता था. बंद था बाहर से. हमलोग लगे हुए थे मौज से बतियाने में. हमारे क्लासमेट थे राजेंद्र पाण्डेय.उन्हें हमलोग पाण्डेय जी कहा करते थे. रूपा गुप्ता और मैं दोनों मिलकर उस दिन चकल्लस काट रहे थे.आवाजों की पिच धीरे-धीरे बढ़ती गई. हमलोग क्या बात कर रहे थे याद नहीं पर पांडे जी, पांडे जी की ध्वनियां हवाओं में थीं. उनका हिमाचल प्रदेश में सेलेक्शन हो चुका था संभवतः वह ट्रीट के लिए बुलंद होती आवाजें थीं जिनको रोकना या थमना मुश्किल था.अचानक हमारी मौजूदगी से बमुश्किल चार फीट की दूरी वाला दरवाजा खुला और उसमें से निकल कर सर बाहर आए.वो क्लास पढ़ा रहे थे. तबीयत से डांट पड़ी. आप लोगों को यह नहीं पता कि यहां कक्षाएं होती हैं.हम लोगों को काटो तो खून नहीं. सबसे पहले होश में आई रूपा और उसके बाद हमारी सभा बरखास्त हुई.

सर निश्चित समय पर और नियमित क्लास लेते थे.शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उनकी क्लास नहीं हुई हो. सर लंच बाद कभी क्लास नहीं लेते थे. दो बार अपवाद स्वरूप उनकी लंच बाद और लम्बी कक्षाएं हुईं.जिनमें से एक सेमिनार पेपर के प्रेजेंटेशन के लिए थी. बड़े मजे की क्लास रही.हमने चाय भी पी बीच में, जिसका भुगतान उन्होंने ही किया.बता देना जरूरी है क्योंकि सब अपना-अपना भुगतान खुद करेंगे की व्यवस्था भी हमारी लम्बी कक्षाओं में चलती थी.गूढ़ सिद्धांतों को सहज उदाहरणों से बोधगम्य बना देना उनकी शिक्षण पद्धति का हिस्सा था.क्लास हमेशा‌ पूरी तैयारी से लेना उनका नियमित अभ्यास रहा.

नामवर जी के निर्मल वर्मा के साहित्य के प्रति प्रेम की चुटकी लेने से वे चूकते नहीं थे. उन्होंने हमें सेमिनार पेपर प्रस्तुत करने के लिए विषय दिया- उन्नीस सौ साठ के बाद के किसी उपन्यास का समाजशास्त्रीय अध्ययन.अब सबके पास खूब विस्तृत क्षेत्र था. हमारी इसी क्लास में ‘वर्दी वाला गुंडा’- वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास पर भी एक पेपर था. मेरी एक सहपाठी-‘एक चिथड़ा सुख’ पर पेपर प्रस्तुत करने वाली थी.सर ने आदतन चुटकी ली. हमलोग भी हंसे.  मेरी सहपाठी ने बहुत गंभीर मुद्रा में कहा- मैंने यह उपन्यास इसलिए चुना कि मुझे यह अपनी कहानी लगता है. अब सटपटाने की बारी सर की थी- अच्छा! अच्छा! चलो, पढ़ो.फिर सबने पेपर सुना, नामवर जी की कोई बात नहीं हुई.

यह लम्बी क्लास तो सचमुच स्मृतियों की धरोहर है.सर ने सिगरेट निकाली, सुलगाई. अमूमन वे पाइप पीते थे और घर पर. क्लास में पीते हमने कभी नहीं देखा था. शायद चार बजे के आसपास का कोई समय रहा होगा.उनको जानने वाले सभी लोग जानते हैं यह उनका आराम करने का समय होता है.अब सिगरेट की गंध और कमरे का सफोकेशन बर्दाश्त करना मुश्किल होता जा रहा था.मैं और रूपा अगल–बगल बैठे थे और दोनों को इस गंध से तगड़ा परहेज था.

पेपर प्रेजेंटेशन जारी था. कमरे में एक ही दरवाजा था वो भी बंद. अचानक रूपा का हाथ नाक पर गया और उंगलियां हिलीं.उन हिलती उंगलियों पर सर का ध्यान गया और एकदम से कुर्सी  से उठे- अच्छा, अच्छा. तत्काल क्लास से बाहर निकल गए और सिगरेट ख़त्म करके ही वापस आए. 

होली का मौका था. जेएनयू में अपने अध्यापकों के घर जाने की परम्परा थी. एक टोली उनसे मुलाकात करके भद्रता से अबीर-गुलाल का टीका-वीका लगाकर वापस लौटने को थी. उनका दरवाजा बंद हो चुका था.इतने में ही एक जांबाज, जुझारू टोली और आई, घंटी बजाई और सर दरवाजे पर प्रकट ही हुए कि ताली ठोंक के सवाल आया- ‘अय! हय! मैनेजर पांडे घर पर हैं क्या? ये रीता थी.हम लोग तो सन्नाटा खा गए. सेकेंड्स का वह समय कितना लम्बा खिंचा, कैसे बताएं.सन्नाटा टूटा सर की आवाज से- हां जी हैं. 

सर और हम-सब पेट पकड़–पकड़ कर हंसे. हंस-हंस के दोहरे हो गए उस दिन.वैसे हंसते हुए हमने सर को फिर कभी नहीं देखा. रीता का शुमार हमारी चेतना में संसार की सबसे साहसी लड़कियों में हो गया. एक बार शाम को उनके घर गए.उन्होंने दरवाजा खोला पर बात करने के मूड में दिख नहीं रहे थे.अब दरवाजा खोला था इसलिए अंदर तो हम गए.  टीवी खुला था और स्क्रीन पर स्टेफी ग्राफ खेलती हुई दिख रही थी. ये मार्टिना नवरातिलोवा के पराभव और स्टेफी के उदय काल का कोई समय था. हमने परिस्थिति भांपी और  छोटी सी बदमाशी की- अच्छा सर! आप मैच देख रहे हैं ? ये स्टेफी जितनी सुंदर है उतना ही अच्छा खेलती भी है.सर हंसे, थोड़ा सा शरमाए भी और कहा-हां, तुम ठीक कह रही हो. हम तुरंत ही लौट‌ लिए और बहुत दिनों तक इस परिस्थिति का मन ही मन मजा लिया.

टिहरी बांध के खिलाफ दीर्घकालीन उपवास करते हुए सुंदरलाल बहुगुणा वहां से उठा लिए गए और एम्स में भर्ता कर दिए गए. अब वे तो थे वार्ड में और दिल्ली के पर्यावरण प्रेमी लोगों का एक समूह दरी बिछाकर नीचे धरने पर. उसमें जेएनयू के विद्यार्थियों की संख्या सबसे ज्यादा थी.इन दिनों मैं सुबह ही एम्स चली जाती, दिन भर मौसाजी के साथ रहती शाम को लौटती.रात को उनके साथ राजीव भइया रहते. मैंने सर और प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल को घर पर जाकर इस बारे में बताया.एक दिन मैं कुछ देर से पहुंची तो भइया ने बताया आज जेएनयू से प्रो. मैनेजर पाण्डेय आए थे.

मैं अध्यापन करने रुड़की पहुंच चुकी थी.मेरी एक विद्यार्थी ने जेएनयू की प्रवेश परीक्षा दी. बहुत उत्साही बालिका थी.सर एक बार रुड़की आ चुके थे और उनके व्याख्यान के मुरीद हमारे कालेज के विद्यार्थी हो चुके थे.बालिका ने फोन करके उनसे परिणाम जानना चाहा. पता लगा उसका वेटिंग लिस्ट में हुआ है.जब बालिका ने हमें बताया तो मैं सशंकित- ऐसा तो कभी सुना न था.बालिका हमें आदेश दे गई थी कि अब आप सर से पता करते रहिएगा. हमने उसी दिन फोन खड़काया कि ये बालिका क्या कह रही थी कौन सी वेटिंग लिस्ट में उसका हुआ है? जवाब कतई अप्रत्याशित था-

‘देखो प्रज्ञा, तुम्हें तो पता है जेएनयू में कोई वेटिंग लिस्ट नहीं निकलती. अब उस लड़की ने इतनी मेहनत करके परीक्षा दी है.मैं कह देता तुम्हारा नहीं हुआ तो निराश हो जाती. दो -चार दिन बाद तुम धीरे से बता देना कि उसका नहीं हुआ’.

सर बनारस में पढ़े हैं और मेरा घर बनारस में  है. बनारस से उनका भी लगाव बहुत प्रगाढ़ है. एम.फिल. के लिए विषय इसी बनारस प्रेम के दायरे वाला बना.बालाबोधिनी पर.उस समय में बालाबोधिनी के अंकों को ढूंढना उम्मीद से ज्यादा मुश्किल रहा.पर काम हुआ.बहुत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हुआ. मुझे सामग्री ढूंढने में जो मशक्कत करनी पड़ी और लोगों का जो व्यवहार रहा उसपर सर को भी असंतोष रहा होगा. आठ-दस साल बाद कभी, किसी कार्यक्रम में भारतेंदु के परिवार के गिरीशचंद्र चौधरी जी को आड़े हाथों लिया कि जब हमारे विद्यार्थी आपके पास आते हैं तब तो आप सहयोग करते नहीं हैं.उसके बाद भी मल्लिका की रचना ‘कुमुदिनी’ को कथादेश में छपवाने का उपक्रम सर ने किया.वह छपी भी.यह प्रसंग मुझे सर ने नहीं बताया. रिफ्रेशर कोर्स के दौरान बीएचयू में स्वयं गिरीशचंद्र चौधरी जी ने बताया. जाहिर है उन्होंने पहचाना नहीं कि मैंने ही बालाबोधिनी पर शोध किया था.

स्त्री दर्पण पर पीएच. डी. करते हुए सामग्री संकलन के लिए दिल्ली, इलाहाबाद, भोपाल, बनारस खूब यात्राएं कीं. आज की तरह स्कैन करने और फोटो खींच सकने की सुविधा नहीं थी.हाथ से नोट करना और कुछेक पन्ने बहुत प्रयासों से फोटो स्टेट करवा पाना ही संभव था.सर ने हस्त लिखित शोध प्रबंध का एक-एक शब्द पढ़ा. उनका जांचने का तरीका अद्भुत था. चैप्टर के अंत में पेंसिल से लिखा हुआ होता था.मेरी थीसिस के तीसरे चैप्टर के अंत में ‘सरला एक विधवा की आत्मजीवनी’ के सभी अंकों को खोजने का निर्देश लिखा हुआ है. ‘सोच’ शब्द का व्यवहार स्त्रीलिंग के रूप में हुआ था.चैप्टर के पीछे लिख कर उन्होंने समझा दिया. जब ‘सरला एक विधवा की आत्मजीवनी’ के अंकों को खोज लिया तब उसकी भूमिका लिखने के प्रकरण में यह सर का ही आइडिया था कि मराठी और बांग्ला की आत्मकथाओं के बारे में लिखो.सामग्री कहां कहां मिल सकती है वे उसका पता बता देते थे, खोजना आपका काम.जब यह पता लगा कि उमा नेहरु सांसद रहीं थीं और मैंने सर को यह बताया तो संसद भवन जाकर उनके भाषणों की खोज करने का आइडिया भी उन्हीं का था.

इतने वर्षों के खोया पाया का हिसाब करने चलूं तो ऐसे गुरु के सानिध्य से बड़ी उपलब्धि क्या होगी. जब कहीं उलझे, उनकी सहायता की जरूरत हुई उन्होंने समाधान दिए.जब पहले विद्यार्थी को पीएच.  डी. के लिए रजिस्ट्रेशन करवाना था उनसे बारीकियां समझीं.पढ़ना तो कभी छूटा नहीं पर न लिखने के लिए वो जितना कह सकते हैं उन्होंने कहा.डांट कर, प्रोत्साहित करके, कुछ कहने से अपने को विड्रा करते हुए बताकर, हर तरीके से उन्होंने लगातार लिखने की दुनिया में मुझे सक्रिय रहने को प्रेरित किया है.क्या मैं अपने किसी विद्यार्थी के लिए इतना कर सकूंगी? हां, एक बात और साफ कर दूं  ऐसा नहीं है कि हमेशा उनसे डंटे ही हैं कभी–कभी डांट भी लेते हैं.संवेद पत्रिका ने सर पर अंक निकाला. जब हम तक अंक पहुंचा तो हमने उनको डांटा- विभाग में सबसे ज्यादा लड़कियों ने आपके साथ शोध किया है और इसमें एक भी लड़की का लेख नहीं है (जैसे उन्होंने मना किया हो) ये ठीक बात नहीं है. वे डंट लिये.अब इससे ज्यादा हम खुश न हों इसी में हमारी भलाई है.

पिछले साल उनके पास गई थी. उमा नेहरू पर किताब लगभग तैयार थी.एक शब्द परेशान किए हुए था ‘रैडिकल’. उमा नेहरू के संदर्भ में रैडिकल शब्द को ‘उग्र’ के अर्थ में लिया जाना मुझे परेशान किए हुए था. उन्होंने बताया मार्क्स ‘रैडिकल’ शब्द का प्रयोग ‘मूलगामी’ के अर्थ में करते हैं.

वाजिब तथ्यों के साथ किसी को भी चुनौती दे देने का साहस उन्होंने ही दिया था. अपने एम.फिल. के लघु शोध प्रबंध में ‘पूर्णप्रकाश-चंद्रप्रभा’ प्रसंग में हमने रामविलास शर्मा की स्थापना को ग़लत ठहराया था. पिद्दी न पिद्दी के शोरबे हम, पर सर ने यही कहा जो तथ्य है तुम वही रखो. एक बार फिर कुछ ऐसा ही प्रसंग आ अटका. खुद पर भरोसा नहीं था. लगा वे एक बार देख लें हम किसी जल्दबाजी में गलत निष्कर्ष पर तो नहीं पहुंचे हैं.यदि वे दिल्ली में हैं उन्होंने कभी भी कुछ पढ़ने और अपनी राय देने के लिए मुझे समय का अभाव नहीं बताया.

कहने को बहुत कुछ है स्मृतियों की रील चलती ही चली जाती है.उनके मेरे जैसे विद्यार्थी देश विदेश में हैं. सबके पास उनसे जुड़ी स्मृतियों की पूंजी है.

सर स्वस्थ और सक्रिय बने रहें.हम सब उन्हें याद करके, उनसे मिलकर, उनको पढ़कर समृद्ध होते रहें यही कामना है.

______________
prajnanas@gmail.com

दो

सीवान की कविता और मैनेजर पाण्डेय
दयाशंकर शरण

(दयाशंकर शरण)


सीवान जैसे छोटे शहर से सन् 1992 के आस-पास एक साहित्यिक पत्रिका निकलती थी जिसका नाम ‘अद्यतन‘ था. शुरू में यह कविताओं पर केन्द्रित दो चार पन्नों की एक बुलेटिन भर थी जिसनें बाद में बाकायदा एक पत्रिका का रूप ले लिया. इसके छह स्थाई सदस्यों में से एक मैं भी था. नियम से महीने में एकबार किसी-न-किसी के यहाँ गोष्ठी होती और साल में एक दो अंक भी प्रकाशित हो जाते. इसी क्रम में एकदिन हमलोगों में सबसे उम्रदराज और गुरु सरीखे बालेश्वर सिंह ने हमें बताया कि मैनेजर पाण्डेय जी ‘अद्यतन‘ की गोष्ठी में आने वाले हैं और यह एक बहुत बड़ी बात है कि एक इतना बड़ा आलोचक हम जैसे नये लोगों के बीच आ रहे हैं.

तब बालेश्वर सर हमारे बीच सत्तर साल के होकर भी सबसे अधिक ऊर्जावान दीखते थे और हम मज़ाक-मज़ाक में उन्हें युवा-बुजुर्ग भी कहा करते थे. ‘अद्यतन‘ पत्रिका एक तरह से उन्हीं की देन थी. यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि उनके बीमार होते ही, इसकी गति भी थम गयी और उनके जाते ही, यह भी चली गयी. मैनेजर पाण्डेय जी के साथ गोष्ठी की वो शाम हम सभी के लिए एक बहुत ही यादगार शाम बनकर रह गयी. विषय ठीक से याद तो नहीं आ रहा लेकिन वह शायद समकालीन कविता पर ही केन्द्रित था. मैं पूरा समय मंत्रमुग्ध भाव से उन्हें सुनता-गुनता रहा. उनकी कही हुई कुछ पंक्तियाँ कानों में अब भी गूंजती हैं-

‘जो कविता कालजीवी होती है वही कालजयी भी होती है’.

‘कविता मनुष्यता की मातृभाषा है’,

जबतक बालेश्वर सर स्वस्थ रहे हमें पाण्डेय जी का सान्निध्य समय-समय पर मिलता रहा. वह जब भी दिल्ली से अपने गाँव- लोहटी आते, जो सीवान से महज कुछ किलोमीटर के फासले पर ही है, लौटते वक्त हमारे बीच भी होते. यह पाण्डेय जी की सहृदयता और शख्सियत का जादू था जो उन दिनों हमपर सर चढ़कर बोल रहा था. मुझे याद है गर्मियों के दिन थे, लू चल रही थी और हमलोग पाण्डेय जी को लेने स्टेशन गये थे. गोष्ठी शाम को होनी थी लेकिन मैं दो घंटे पहले से हाजिर था. लू की परवाह न करते हुए इतनी सारी दौड़-धूप. मुझपर उन दिनों एक अजीब नशा था, अब सोचकर हैरत होती है. शाम की गोष्ठी में हाशिये की कविता की सृजनात्मकता, सीमा और उसकी संभावनाओं के संदर्भ में उसके विभिन्न आयामों और प्रवृत्तियों पर विशद चर्चा करते हुए पाण्डेय जी ने सीवान के कवियों पर केन्द्रित एक संग्रह के प्रकाशन की बात रख दी.

अब अंधे को क्या चाहिए दो आँखें, हमारे लिए यह बहुत बड़ी बात थी. और इसके कुछ महीनों बाद ही किताबघर से पाण्डेय जी के संपादन में उनकी एक लंबी भूमिका के साथ यह काव्य संग्रह- ‘सीवान की कविता‘, शीर्षक से छप कर हमारे बीच आ गयी. इस संग्रह में शामिल होने वाले छह कवि वही थे जो अद्यतन के थे,यथा- बालेश्वर सिंह, ब्रजनंदन किशोर, तैयब हुसैन, सत्य प्रकाश, मनोज कुमार वर्मा और मैं. उन दिनों की पत्र-पत्रिकाओं में इस किताब की खासी चर्चा और समीक्षा भी हुई. लेकिन अब इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं होती, कारण चाहे जो रहे हों. इन कविताओं की तरह आज के इस दौर में जब कला और साहित्य की सारी विधाएँ भी हाशिए पर धकेली जा रही हों, तो फिर किससे फरियाद और शिकवा-शिकायत. इसकी कुछ धमक उनकी लिखी भूमिका में भी सुनाई पड़ती है. यह भी हमारा सौभाग्य ही था कि ‘सीवान की कविता‘ का लोकार्पण पाण्डेय जी की उपस्थिति में हिन्दी के मूर्धन्य कवि केदारनाथ सिंह के हाथों हुआ. यह 1997 के आस-पास की बात है.

उनकी कही दो बातें मुझे अब भी याद है कि 

अच्छी कविताएं अपने को बार-बार पढ़े जानें की मांग करती हैं और दूसरी यह कि पूरी दुनिया के साहित्य में अपनी जड़ों की तरफ वापसी हो रही है;  साहित्य अपनी मातृ भाषा में लिखा जा रहा है. उनका संकेत भोजपुरी की तरफ था.

इस किताब और पत्रिका की वजह से साहित्यिक हलके में हमारी कुछ पहचान भी बनी. इन गोष्ठियों का मुसलसल सिलसिला 2003 तक कभी तेज और कभी मंथर गति से चलता रहा. आज पाण्डेय जी उम्र के अस्सीवें वर्ष में हैं, उनदिनों लगभग पचपन-साठ के बीच रहे होंगे. मैं बैंक की नौकरी करते हुए 2004 में प्रोमोशन के बाद सीवान और साहित्य दोनों से कट गया. 2010 में बालेश्वर सर भी नहीं रहे. बीच-बीच में उनके अस्वस्थ होने की खबरें भी आती रहीं लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि सीवान छोड़ने के बाद फिर उनसे कभी मिल नहीं पाया. एक मुद्दत से पाण्डेय सर से भी मुलाकात नहीं है, उनको कभी-कभार फेसबुक पर किसी विषय पर बोलते देख-सुन लेता हूँ.

उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई !

_________

mukuldssharan@gmail.com

Tags: दयाशंकर शरणप्रज्ञा पाठकमैनेजर पाण्डेय
ShareTweetSend
Previous Post

मैनेजर पाण्डेय : आलोचना की विवेकपूर्ण यात्रा : कमलानंद झा

Next Post

मैनेजर पाण्डेय : ‘बतकही’ से ‘साधना’ तक : रविभूषण

Related Posts

दारा शुकोह : रविभूषण
आलोचना

दारा शुकोह : रविभूषण

मैनेजर पाण्डेय: अशोक वाजपेयी
आलेख

मैनेजर पाण्डेय: अशोक वाजपेयी

मैनेजर पाण्डेय की दृष्टि में लोकतंत्र:  रविभूषण
समाज

मैनेजर पाण्डेय की दृष्टि में लोकतंत्र: रविभूषण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक