मैनेजर पाण्डेय की दृष्टि में लोकतंत्ररविभूषण |
नवउदारदवादी अर्थ-व्यवस्था और भूमंडलीकरण के बाद भारत पहले की तरह नहीं रहा. तीस वर्ष पहले के और आज के भारत में बहुत अन्तर है. बहुत कुछ बदल चुका है. जो कुछ शेष है, उसे भी बदला जा रहा है. भूमंडलीकरण पूंजी का भूमंडीकरण है. तीस वर्ष पहले पूंजीवाद का जो रूप-स्वरूप था उसमें काफी बदलाव आ गया है. उस समय क्रोनी या याराना पूंजीवाद की अधिक चर्चा नहीं थी. डिजिटल कैपिटलिज्म बाद का है. तब पूंजी कम शरारती और उच्छृंखल थी, जो बाद में लफंगी, उन्मादी और बेशर्म हो चुकी है.
अर्थशास्त्र में इसका कोई उल्लेख नहीं है, पर इसके स्वभाव, चाल-चलन, प्रभावादि को ध्यान में रखकर ऐसा कहना गलत नहीं है. इस पूंजी की गिरफ्त में सूक्ष्मातिसूमक्ष्म रूप में हम सब आ चुके हैं. शब्द, भाषा, साहित्य, संस्कृति सब पर, कम ही सही, यह प्रवेश कर रही है. इसने भाषा को ही नहीं, देह-भाषा को भी प्रभावित किया है. अभी वह अपनी नग्नवावस्था में है, जिसे देखकर एक समूह मदहोश हो रहा है.
जो पूंजीवाद हमारी भाषा, बोली-बानी, खान-पान, वेश भूषा आचार-विचार सबको बदलने में तत्पर-सक्रिय हो, वह राजनीति को कैसे प्रभावित नहीं करेगा? तंत्र लोकतंत्र-सब उसकी गिरफ्त में आ चुके हैं, फँस चुके हैं. पहले जो ‘तंत्र’ कम ही सही, ‘लोक’ का माना-समझा जाता था, अब वह ‘लोक’ को किनारे कर चुका है, ‘जन’ को अपने से विलग कर चुका है. लोकतंत्र पर तीस वर्ष पहले जितनी पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुई थीं, उससे कई गुना अधिक पूंजीवाद के इस नये दौर में प्रकाशित हो रही हैं.
मैनेजर पाण्डेय केवल साहित्यालोचक नहीं हैं. वे सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचक भी हैं- ‘सभ्यता-समीक्षक’. उनकी चिन्ता में केवल कृति और कृतिकार ही नहीं, समय और समाज भी है. उनकी आलोचना सामाजिक-सांस्कृतिक है. कई दशक पहले से आलोचना के केन्द्र में ‘साहित्य’ से अधिक ‘संस्कृति’ है, जिसे उन्होंने ठीक ही आलोचना के क्षेत्र में एक ‘सांस्कृतिक मोड़’ कहा है. ‘संस्कृति’ अब स्वतंत्र नहीं है. उसे अर्थतंत्र ‘नियंत्रित, संचालित और अनुशासित’ कर रहा है. बाजार सर्वत्र फैल चुका है.
‘‘साहित्य की संस्कृति पर भी बाज़ार का गहरा असर है. ऐसी स्थिति में केवल साहित्यवादी आलोचना न तो समकालीन होगी, न सामाजिक.’’
(‘आलोचना की सामाजिकता’ की भूमिका)
‘आलोचना की सामाजिकता पाण्डेय जी का एक निबन्ध ही नहीं, एक पुस्तक भी है. हिन्दी में इस समय रचना और आलोचना का जो वातावरण है, उसमें कई ऐसे लेखक और आलोचक भी हैं, जिनकी चिन्ता में, वे जिस समय और समाज में रहकर लिख रहे हैं, वह समय और समाज कम है. आलोचनात्मक चेतना का विकास सामाजिक चेतना से जुड़ कर ही संभव है. रचना की समीक्षा में रचना में मौजूद समाज पर जो आलोचना ध्यान नहीं देती है, वह सार्थक आलोचना नहीं कही जा सकती. रचना में मौजूद समाज-संस्कृति की खोज, उसका विवेचन-विश्लेषण सार्थक-सुसंगत आलोचना के लिए अत्यावश्यक है.
’’आलोचना सामाजिक बनती है अपने समाज के मानस की रचनात्मक क्रियाशीलता की समग्रता के बोध और उसकी व्याख्या के माध्यम से… अब आलोचना संगति, सामंजस्य और सहमति की सेवा करके सार्थक नहीं हो सकती.’’ (वही, पृष्ठ 18)
आज आलोचक की भूमिका कहीं अधिक बड़ी है. उसे सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों से ही नहीं, राजनीतिक-आर्थिक प्रश्नों से भी टकराना होगा, देश और समाज के सामने जो आफतें खड़ी कर दी गयी हैं, उनसे न रचनाकार विमुख हो सकता है, न आलोचक. यह समय संवेदना, बुद्धि-विवेक, तर्क सबको निगल जाने का है. ऐसे समय में, सृजन विरोधी समय में एक लेखक और आलोचक का दायित्व पहले से अधिक है. वह रचना के विवेचन-विश्लेषण से ही संतुष्ट नहीं हो सकता. रचना के भीतर ही नहीं, बाहर भी जो स्वर, आवाजें और हलचलें हैं, उनसे वह अपने को अलग नहीं कर सकता. अपने समय और समाज में आज आलोचना को हस्तक्षेप करने की भी जरूरत है. वर्तमान का बोध जरूरी है और इस बोध से ही कोई आलोचक वर्तमान के प्रश्नों से जूझता है. भारतीय समाज में राजनीति और अर्थनीति ने जो कुछ किया है, उसकी समझ के बिना अब आलोचना संभव नहीं है. आलोचना को आज अन्य विषयों और अनुशासनों-ज्ञानानुशासनों से अधिक संगति बैठानी है.
आलोचना मैनेजर पाण्डेय के लिए ‘एक विचारधारात्मक गतिविधि’ है. आलोचना के ‘विचारधारात्मक प्रयोजन’ से उसके दो रूपों की चर्चा उन्होंने की है- ‘वर्चस्ववादी आलोचना और मुक्तिकामी आलोचना’ (वही, पृष्ठ 24) पाण्डेय जी की आलोचना मुक्तिकामी है. और वे हिन्दी के ‘मुक्तिकामी आलोचक’ हैं. रचना-मूल्यांकन के लिए उन्होंने जिस ‘मूल्य-चेतना’ की बात कही है, उसके लिए ‘सामाजिक चेतना’ का होना जरूरी है. ‘सामाजिक विवेक’ से रहित ‘आलोचनात्मक विवेक’ संभव नहीं है, जो आलोचना के लिए अनिवार्य है. ‘कलात्मक विवेक’ से कहीं अधिक ‘आलोचनात्मक विवेक’ जरूरी है, जिसके बिना ‘कृति की सामाजिक सार्थकता की पहचान’ नहीं हो सकती. आलोचना की साहित्यिकता से आलोचना की सामाजिकता कहीं अधिक अनिवार्य है.
‘‘आलोचना की सामाजिकता की चिन्ता असल में पूंजीवाद द्वारा प्रकृति और संस्कृति के निजीकरण के प्रयत्न के विरूद्ध प्रतिरोध की चिन्ता से जुड़ी हुई है.’’
(वही, भूमिका)
मार्क्सवादी आलोचक का पूंजीवाद विरोधी होना अनिवार्य है. सभी मार्क्सवादी आलोचक प्रगतिशील हैं, पर सभी प्रगतिशील आलोचक मार्क्सवादी नहीं हैं. हिन्दी में मार्क्सवाद के कुछ ऐसे भी अध्येता हैं, जिनके लिए रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय ‘मार्क्सवादी’ नहीं हैं. लखनवी अन्दाज़ में ही ऐसा कहा जा सकता है. मैनेजर पाण्डेय ने एक इंटरव्यू में कहा है कि वे आरम्भ से अब तक ‘अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता के साथ अपनी जमीन पर खड़े’ हैं. (बतकही, पृष्ठ 122)
आलोचक का दायित्व आज पहले से इसलिए अधिक बड़ा है. स्वाधीन भारत की राजनीति ने देश को जिस स्थिति में पहुँचा दिया है, उससे आलोचक आँख मूँद कर नहीं रह सकता. उससे यह अपेक्षा की जाती है कि देश में घट रही घटनाओं की अनदेखी न करे. वह रचना में रहे, पर रचना के बाहर भी रहे. बिना इसके ‘आलोचनात्मक चेतना’ और ‘विवेक-चेतना’ का विकास नहीं हो सकता.
‘‘आलोचनात्मक चेतना के निर्माण और विकास के लिए यह जरूरी है कि आलोचक अपने समाज की स्थितियों और उन स्थितियों में जीते-मरते मनुष्य की दशाओं के बारे में सजग और सचेत हो, वह अपने समय और समाज की सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं तथा सम्भावनाओं की जटिल समग्रताओं का बोध करे.’’
(साहित्य की सामाजिकता’, पृष्ठ 25)
सुविधा के लिए मैनेजर पाण्डेय के आलोचनात्मक लेखन को दो कालखण्डों- 1968-70 से 2000 और 2000 से अब तक, में विभाजित किया जा सकता है. दूसरे चरण के लेखन को बीसवीं सदी के अंतिम दशक में भी चिह्नित किया जा सकता है. यह समय उत्साहजनक नहीं, निराशाजनक है. पूंजी और पूंजीवाद इसी चरण में निरंकुश और बेलगाम हुआ है. नेहरू की नीति-अर्थनीति को बदलने, उलट देने का कार्य कांग्रेस ने मुख्य रूप से बीसवीं सदी के अंतिम दशक में किया. अपने एक इंटरव्यू में देश की निराशाजनक स्थिति के संबंध में पाण्डेय जी का कथन है –
‘‘निराशा की सबसे बड़ी स्थिति तो यही है कि देश में जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वातवरण है, वह लोकतंत्र विरोधी है. जिस लोकतंत्र में असहमति, आलोचना, मतभेद आदि की जगह न हो, वह सिर्फ दिखावे का लोकतंत्र होता है.’’
(बतकही, पृष्ठ 120)
पुरस्कार वापसी का आन्दोलन कवियों-लेखकों की लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता का ही उदाहरण था. पिछले आठ वर्ष में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जैसा संकट आया, वैसा आपातकाल के कुछ महीनों को छोड़कर कभी नहीं था. आज स्थिति यह है कि जो सरकार के अनुकूल या उसके पक्ष में नहीं है, वह राष्ट्रद्रोही है, ‘अर्बन नक्सल’ है. विरोधियों को चुन-चुन कर ठिकाने लगाया जा रहा है. देश के बौद्धिक और चिन्तनशील वर्ग के लिए यह एक भयावह स्थिति है. भारत में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और संयुक्त राज्य अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद दुनिया के इन दो बड़े लोकतान्त्रिक देशों में लोकतंत्र कहीं अधिक संकट में है. इस अवधि में इन दो देशों में लोकतंत्र संबंधी इतना अधिक लेखन-वाचन हुआ है, इतनी किताबें प्रकाशित हुई हैं और इतने अधिक लेखादि प्रकाशित हुए हैं की इनकी एक सूची बनाना भी कठिन है.
इक्कीसवीं सदी के लेखन में पाण्डेय जी की कई चिन्ताओं में से एक बड़ी चिंता लोकतंत्र की है. अपने दो निबन्धों- ‘गाँधी की दृष्टि में लोकतंत्र’ और ‘भारत में जनतन्त्र का सच’ (‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा’ में संकलित) में उन्होंने ‘लोकतंत्र’ और भारतीय लोकतंत्र की स्थिति पर विचार किया है.
‘उपन्यास और लोकतंत्र’ निबन्ध (2004 में लिखित और 2005 में ‘पहल’ में प्रकाशित) काफी चर्चित रहा है. इस निबन्ध में वे ‘उपन्यास और लोकतंत्र के संबंधों की सूक्ष्मताएँ’, पर प्रकाश डालते हैं. आपातकाल को उन्होंने ‘भारतीय लोकतंत्र के शरीर पर कोढ़ की तरह’ (‘संवाद-परिसंवाद’) माना है. उनके अलावा क्या किसी अन्य हिन्दी आलोचक ने लोकतंत्र को अपनी चिन्ता के केन्द्र में रखा है? दुनिया के सारे लोकतांत्रिक देश जिस संकट से गुजर रहे हैं उस समय एक भारतीय आलोचक का दायित्व बनता है कि वह रचना के भीतर और बाहर दोनों ही जगहों पर मौजूद लोकतंत्र संबंधी चिन्ताओं पर विचार करे.
लोकतंत्र पर हिन्दी और हिन्दीतर भाषाओं में और ‘डेमोक्रेसी’ पर अंग्रेजी में काफी कुछ कहा-लिखा जा रहा है. भारत में ही ‘न्यू सोशियोलिस्ट इनीसिएटिव’ के तहत ‘डेमोक्रेसी डायलाग्ज सीरीज’ में अठारह व्याख्यान हो चुके हैं. सुभाष गाताडे ‘लोकतंत्र संवाद श्रृंखला’ के अंतर्गत व्याख्यान के लिए प्रमुख व्यक्तियों को आमंत्रित कर रहे हैं. लोकतंत्र की रक्षा व्यक्ति और समाज की स्वतंत्रता की रक्षा है, अभिव्यक्ति की आज़ादी और संविधान की रक्षा है. पिछले कुछ वर्षों से लोकतंत्र, संविधान, नागरिकता, मानवाधिकार को लेकर काफी प्रदर्शन, आन्दोलन हुए हैं, लेखादि लिखे गये हैं, भाषण और वक्तव्य’- व्याख्यान दिये गये हैं. लोक-विमर्श में ये सब शामिल रहे हैं.
योगेन्द्र यादव की पुस्तक ‘मेकिंग सेंस ऑफ इंडियन डेमोक्रेसी’ (अगस्त 2020) की समीक्षा रामचन्द्र गुहा ने ‘द लाइफ़ एंड डेथ ऑफ इंडियन डेमोक्रेसी’ शीर्षक से की है. इस वर्ष नेहाल अहमद की पुस्तक प्रकाशित हुई है- ‘नथिंग विल बी फॉरगॉटेन: फ्रॉम जामिया टू शाहीनबाग’. देवाशीष राय चौधुरी और यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी में राजनीति के प्रोफेसर जॉन कीने की पुस्तक ‘टू किल ए डेमोक्रेसी: इंडियाज पैसेज टू डेस्पोटिज्म’ कुछ समय तक जिन कारणों से बाजार से गायब रही हो, पर अब वह उपलब्ध है.
पिछले वर्ष 2021 में ‘डेमोक्रेसी एंड फेक न्यूज’ पुस्तक प्रकाशित हुई थी. जोया हसन ने अभी ‘चैलेंज टू डेमोक्रेसी’ और आदित्य मुखर्जी ने ‘‘व्हेर आर वी: सेवेंटी फाइव इयर्स ऑफ इंडेपेडेंस’ पर ‘डेमोक्रेसी डायलॉग्स’ में व्याख्यान दिये हैं. ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में कुछ वर्षों से लोकतंत्र पर अनेक लेख प्रकाशित हो रहे हैं. पिछले अगस्त महीने में मैक्स फिशर का लेख ‘डेमोक्रेसी इज अंडर थ्रेट एक्रास द ग्लोब’ प्रकाशित हुआ है.
इस महीने ‘वाशिंगटन टाइम्स’ में वाशिंगटन टाइम्स के ऑम हॉवेल जूनियर की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है- ‘टू थर्ड्स ऑफ अमेरिकन वरी यू. एस. डेमोक्रेसी इज ऑन वर्ज ऑफ कोलैप्स’ (2 सितम्बर 2022) 2018 में स्टीवन लेवित्सकी एंड डेनिएल जिबलैट की पुस्तक आई थी- ‘हाउ डेमोक्रेसीज डाई: व्हाट हिस्ट्री रिवील्स अबाउट आवर फ्यूचर’.
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2017 के पहले सप्ताह में अपने विदाई-भाषण में लोकतंत्र को लेकर चिन्ताएँ प्रकट की थीं. अमरीकियों को उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा करने को कहा था. ठीक एक वर्ष बाद 12 जनवरी 2018 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने भी अपने ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस में देशवासियों से लोकतंत्र की रक्षा करने की बात कही थी. तीन वर्ष पहले रुचिर शर्मा की पुस्तक ‘डेमोक्रेसी ऑन द रोड: ए ट्वेंटी फाइव ईयर जर्नी थ्रो इंडिया’ प्रकाशित हुई थी.
स्वीडिश वी-डेम इंस्टीट्यूट की पिछले वर्ष (2021) की ‘डेमोक्रेसी रिपोर्ट’ में विश्व के अनेक देशों में निरंकुशता के ‘वायरल’ होने की बात कही गयी है. यह बताया गया है कि दुनिया की जनसंख्या के 68 प्रतिशत हिस्से पर एकतंत्र या निरंकुशता है.
2020 में विश्व नागरिक का लोकतांत्रिक ‘लेवल’ 1990 के समय का है. दुनिया के मात्र 8.4 प्रतिशत नागरिक ‘पूर्ण लोकतंत्र’ वाले देशों में रह रहे हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका 2016 में पूर्ण लोकतांत्रिक देशों की श्रेणी में था जो अब नहीं है. भारत और अमेरिका विश्व के दो सर्वप्रमुख लोकतांत्रिक देश हैं, जिनका स्थान अब दोष पूर्ण लोकतांत्रिक देशों में है.
क्रिस्टोफे जैफरले ने अपनी पुस्तक ‘मोदीज इण्डिया: हिन्दू नेशनलिज्म एंड द राइज आफॅ एथनिक डेमोक्रेसी’ (2021) में जिस जातीय लोकतंत्र’ (एथनिक डेमोक्रेसी) की बात कही है, उस पद का सर्वप्रथम प्रयोग स्पैनिश समाजशास्त्री, तुलनात्मक राजनीति के विशेषज्ञ, येल यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान के स्टर्लिंग प्रोफेसर एमेरिटस जुआन जोजे लिंक (24.12.1926-1.10.2013) ने 1975 में किया और चौदह वर्ष बाद 1989 में यूनिवर्सिटी ऑफ हाइफा (इजरायल) के समाज शास्त्र के प्रोफेसर, तुलनात्मक जातीय संबंधों के विशेषज्ञ सैमी स्मूहा ने ‘द मॉडेल ऑफ एथनिक डेमोक्रेसी’ पर विचार किया और उसके सार तत्वों में आठ विशेषताएं बताई.
‘जातीय लोकतंत्र’ के साथ ‘हेरेनवोल्क लोकतंत्र’ की भी बात कही जाती है. जो सरकार बनाने की वह प्रणाली है, जिसमें एक विशिष्ट जातीय समूह की प्रमुख रहता है और अन्य समूहों की भागीदारी नहीं होती. ‘हेरेनवोल्क’ एक जर्मन शब्द है, जिसका अर्थ ‘मास्टर रेस’ है. उन्नीसवीं शताब्दी में ‘यूरोपीय लोगों की नस्लीय श्रेष्ठता’ को महत्व देकर उपनिवेशवाद को सही ठहराया जाता था. इसका पहला प्रयोग वाशिंगटन विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र एवं नृविज्ञान के एमेरिटस प्रोफेसर पियरे वैन डेन बर्धे (1933-2019) ने अपनी पुस्तक ‘रेस एंड रेसिज्म: कम्परेटिव पर्सवेंक्टिव’ (1967) में किया. इस विचारधारा के अनुसार अश्वेतों को ‘गैर नागरिक’ ही नहीं, ‘नागरिक विरोधी’ भी कहा गया था.
इतने विस्तार के साथ यह सब लिखने की जरूरत केवल इसलिए हुई कि हिन्दी में लोकतंत्र को लेकर आज अधिक आलोचक चिन्तित नहीं हैं. मैनेजर पाण्डेय के अतिरिक्त इस समय और कोई दिखाई नहीं देता. हिन्दी में ‘डेमोक्रेसी’ के लिए जो तीन शब्द- लोकतंन्त्र, प्रजातन्त्र और जनतन्त्र प्रचलित हैं, उन सबके ऐतिहासिक संदर्भों का वे उल्लेख करते हैं. ‘लोकतंत्र’ के ‘लोक’ को उन्होंने ‘अत्यन्त प्राचीन’, ‘जनपदों के युग का’ कहा है, जो ‘परलोक का विरोधी और गाँवों में रहने वालों का सूचक’ है. ‘प्रजातन्त्र’ उनके अनुसार ‘सामन्ती युग से जुड़ा’ है और ‘राजतन्त्र का विरोधी’ है. ‘जनतन्त्र’ इन दोनों के बाद का शब्द है. ‘जन’ शब्द प्राचीन है, जिससे ‘जनपद’ बना, पर यह ‘जन’ ‘आधुनिक युग में शासित, शोषित और दमित जनता का सूचक’ है. ‘जनतन्त्र’ जनता की वह शासन-व्यवस्था है, जो ‘‘जनता की हो, जनता के लिए हो और जनता द्वारा संचालित” हो.
पाण्डेय जी ने ‘डेमोक्रेसी’ के लिए ‘लोकतंत्र’ और ‘जनतन्त्र’ दोनों का प्रयोग किया है. उनके एक निबन्ध का शीर्षक है– ‘गाँधी की दृष्टि में लोकतंत्र’ और दूसरे निबन्ध में ‘लोक’ के स्थान पर ‘जन’ है – ‘भारत में जनतन्त्र का सच’. उनके लिए ‘लोक’ और ‘जन’ दोनों महत्वपूर्ण हैं. रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी की चिन्ता में ‘लोक’ था. स्वाधीन भारत में ‘लोक’ के स्थान पर ‘जन’ का अधिक प्रचलन हुआ. ‘लोक’ को पाण्डेय जी ने अपनी विशिष्ट शैली में एक ‘सरकारी शब्द’ कहा है- ‘‘विश्वास न हो तो ‘लोक सेवा आयोग’ और ‘लोक निर्माण विभाग’ को याद कीजिए.’’
वे ‘लोकतंत्र’ और ‘जनतन्त्र’ का अन्तर इस प्रकार करते हैं-
‘‘जनतन्त्र में जनता मूर्त रूप में मौजूद होती है, जबकि लोकतंत्र में अमूर्त रूप में, यही नहीं, ‘लोक’ में सभी वर्गों, स्तरों और स्थितियों के मनुष्यों का समावेश होता है, जो शासन-व्यवस्था में अपने वर्गों, स्तरों और स्थितियों के अनुकूल स्थान हासिल करते और पाते हैं.’’
(भारत में जनतन्त्र का सच’, ‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा’, 2013, पृष्ठ 201)
लोकतंत्र एक शासन-प्रणाली है, जिसे अन्य शासन प्रणालियों से श्रेष्ठ माना गया है. जनतन्त्र के तीन लक्षणों- स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा का संबंध फ्रांस की क्रान्ति से है. फ्रांसीसी क्रान्ति (5.5.1789-9.11.1799) के दौरान यह नारा 1790 में फ्रांसीसी वकील, राजनीतिज्ञ और रूसो (28.6.1712-2.7.1778) के अनन्य भक्त मैक्सिमिललिन डी राबस्पिएरे (6.5.1758-28.7.1794) ने दिया था. फ्रांसीसी क्रान्ति ने इतिहास की दिशा बदल दी. निरेपक्ष राजतन्त्र इस क्रान्ति के बाद ही समाप्त हुआ और नये गणतन्त्र एवं उदार लोकतंत्र का आरम्भ हुआ. लोकतंत्र में स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारा जरूरी है. जहाँ ये न हों, उस ‘‘देश के समाज और शासन-व्यवस्था को… जनतान्त्रिक कहना जनतन्त्र का मजाक उड़ाना है’’ (वही) भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश कहा जाता है. क्या इस देश में लोकतंत्र के ये तीनों लक्षण मौजूद हैं? आज़ादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर यह सवाल करना जरूरी है कि क्या सचमुच भारत एक लोकतांत्रिक देश है? गाँधी (2.10.1869-30.1.1948) ने ‘हिन्द स्वराज’ (1909) में ब्रिटिश संसद को ‘बाँझ और वेश्या’ कहा था. मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है-
‘‘भारतीय संसद के सदस्यों ने अपने आचरण से गाँधी की आलोचनाओं को सही साबित किया है. जिस संसद के सदस्य खरीदे और बेचे जाते हों, जैसा कि अविश्वास पर मतदान के समय संसद में हुआ था, या जिस संसद के सदस्य रुपये लेकर सवाल पूछते हों, उसे वेश्या क्यों न कहा जाय?’’
(‘गाँधी की दृष्टि में लोकतंत्र’, ‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा’, पृष्ठ 173)
वे धूमिल को उद्धृत करते हैं, जिन्होंने ‘संसद’ को ‘तेली की ऐसी घानी’ कहा था, ‘जिसमें आधा तेल और आधा पानी है’. अब तेल की वहाँ मुश्किल से कुछ बूंदें दिखाई देती हों. कविताओं और उपन्यासों की आलोचना में भी अनेक स्थलों पर उन्होंने ‘लोकतंत्र’ की चर्चा की है. महेश नारायण (1858-1907) की ‘स्वप्न’ कविता (1881) ‘हिन्दी की पहली आधुनिक कविता’ है, जिसमें उन्होंने ‘अंग्रेजी राज के लोकतंत्र संबंधी दावों के झूठ का पर्दाफाश’ देखा है और ये पंक्तियाँ उद्धृत की हैं-
‘‘समाचार पत्र याँ के होंगे स्वाधीन?
जबां उनकी काहे गयी होगी छीन?
देशी ‘समाचार पत्र हैं वाँ भी पर बन्द है इनकी स्वाधीन छपाई’’
(‘हिन्दी कविता का अतीत और वर्तमान’, 2013 पृष्ठ 60-61)
धूमिल (9.11.1936-10.2.1975) पर लिखे अपने लेख ‘धूमिल: भाषा की रात में मनुष्य’ में पाण्डेय जी ने शब्दों के बदल दिये जाने वाले अर्थ में ‘लोकतंत्र’ को भी लिया है. लिखा है –
‘आप ‘लोकतंत्र’ को लीजिए. इस देश की जनता लम्बे काल से लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रही है. संघर्ष पहले विदेशी शासकों से था. अब देशी शासकों से है. अब एक नयी स्थिति सामने आयी है. आसाम की जनता केन्द्रीय सरकार के लोकतंत्र से त्रस्त है. क्या दिल्ली की सरकार और आसाम की जनता के लिए लोकतंत्र का अर्थ एक ही है? भाषा की रात के अंधेरे में जनतन्त्र का अर्थ वनतन्त्र हो जाता है.’’ (वही, पृष्ठ 145) ‘भाषा की राजनीति’ निबन्ध में शासक-वर्ग द्वारा भाषा-व्यवस्था के निर्माण पर वे प्रकाश डालते हैं, जिसमें ‘‘शब्द के अर्थ को भ्रष्ट करने और बदलने की प्रक्रिया चलती है. हमारे यहाँ समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, आज़ादी, जनतन्त्र आदि इस प्रक्रिया के शिकार हुए हैं.’’ (वही, पृष्ठ 195)
‘लोकतंत्र’ महज एक शब्द नहीं है. शासक वर्ग इसके इतिहास-सम्मत अर्थ को बदल कर, उस अर्थ के पीछे की धारणा को छोड़कर और उस धारणा के आधारभूत यथार्थ को झुठला कर’ इसका प्रयोग करता है. एक सजग एवं तत्वान्वेषी आलोचक ही शब्द और उसके प्रयोग को इस प्रकार देखता है. पाण्डेय जी ‘शब्द की विश्वसनीयता’ को अर्थ की विश्वसनीयता से ही नहीं, कर्म की विश्वसनीयता से भी जोड़ते हैं, जिन्हें हम सत्तर के दशक के उनके निबन्ध ‘शब्द और कर्म’ में पहली बार देखते हैं.
‘‘मनुष्य के जीवन-व्यवहार, अनुभव, चिन्तन और सृजन का कर्म ही शब्द की शक्ति का मूल स्रोत है. जहाँ कर्म अविश्वसनीय होता है, वहीं उससे जुड़े शब्द भी अविश्वसनीय होने लगते हैं.’’
(‘राजनीति की भाषा’, हिन्दी कविता का अतीत और वर्तमान’, पृष्ठ 197)
मैनेजर पाण्डेय लोकतंत्र को महज ‘एक राजनीतिक-व्यवस्था और शासन-पद्धति’ नहीं मानते. अधिकांश राजनीति विज्ञानी और समाजशास्त्रियों के लिए लोकतंत्र का यही अर्थ है. पाण्डेय जी की विशेषता यह है कि वे व्यापक रूप से इस पर विचार करते हैं. ‘लोकतंत्र की मानसिकता’ की बात करने वाले बहुत कम है –
‘‘लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक व्यवस्था और शासन-पद्धति ही नहीं है, वह एक ऐसी मानसिकता भी है, जो सहिष्णुता की संस्कृति, दूसरों का सम्मान, दूसरों के अन्तरों का स्वीकार, विचारों की अनेकता का आदर, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वतन्त्रता की तत्परता विकसित करती है.’’
(‘उपन्यास और लोकतंत्र’, पृष्ठ 27)
‘उपन्यास और लोकतंत्र’ निबन्ध उपन्यास, लोकतंत्र और इन दोनों के बीच के संबंध को समझने के लिए अधिक महत्वपूर्ण है. ‘‘लोकतंत्र में अनेकता, अनेकरूपता, विविधता और बहुवचनता का स्वीकार होता है, जो उपन्यास की संरचना की भी बुनियादी विशेषताएँ हैं.’’ (वही)
दो)
लोकतंत्र बहुत कम आलोचकों की चिन्ता के केन्द्र में है. मैनेजर पाण्डेय ने उपन्यास के साथ उसका संबंध स्थापित करने के साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था, शासन-पद्धति पर भी विचार किया है. इस समय ‘लोकतंत्र’ पर विचार इसलिए भी जरूरी है कि सबकुछ छिन्न-भिन्न हो रहा है. संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में भी लोकतंत्र खतरे में है. अभी ‘द न्यूयार्क टाइम्स’ में डेविड लियोनहार्ड (‘द न्यूयार्क टाइम्स’ के वरिष्ठ लेखक) ने ‘ए क्राइसिस कमिंग’: द ट्वीन थ्रेट्स टू अमेरिकन डेमोक्रेसी’ में, अमेरिकी लोकतंत्र के खतरों पर विचार किया है. इतिहासकार और लोकतंत्र विशेषज्ञ ‘लोकतंत्र’ को लेकर आज कहीं अधिक चिन्तित हैं. क्विनीपैक यूनिवर्सिटी (1929 में स्थापित) के हाल के एक सर्वे में 69 प्रतिशत डेमोक्रेट समर्थकों और रिपब्लिकन समर्थकों ने अमेरिकी लोकतंत्र पर अधिक खतरे की बात कही है. स्थिति अमेरिका और भारत में कहीं अधिक विस्फोटक है.
स्वाधीन भारत में कवियों-कथाकारों ने पचास के दशक से ही लोकतंत्र को लेकर चिन्ताएँ प्रकट की थीं, पर ऐसे रचनाकारों को केन्द्र में रखकर भारतीय लोकतंत्र पर शायद ही किसी आलोचक ने अधिक ध्यान दिया हो. कविता के जो विशेषज्ञ हैं, उन्होंने भी नागार्जुन, रघुवीर सहाय, धूमिल एवं अन्य प्रमुख कवियों की कविताओं में लोकतंत्र संबंधी उनके चिंताओं पर अधिक विचार नहीं किया है. नागार्जुन ने बहुत पहले लिखा था – ‘भरत भूमि में प्रजातन्त्र का बुरा हाल है’ और रघुवीर सहाय की यह काव्य-पंक्ति किसे याद नहीं है – ‘लोकतंत्र का अन्तिम क्षण है, कहकर आप हँसे’.
यह इन्दिरा गाँधी का समय था, जब हिन्दी के कविता लोकतंत्र की असलियत बेचैनी से हमें दिखा रहे थे. मैनेजर पाण्डेय अकेले ऐसे आलोचक हैं, जिन्होंने अनेक स्थलों पर अपने विचार व्यक्त किये हैं, और अपनी चिन्ताएँ भी प्रकट की हैं. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा-
‘‘इस देश में लोकतंत्र केवल चुनाव तक सीमित रह गया है और चुनाव पर धनबल तथा बाहुबल का कब्जा हो गया है. भारत की केन्द्रीय सरकार और राज्यों की सरकारें भी विरोध को अपराध मानने लगी हैं. जो व्यवस्था विरोध को अपराध समझती है, वह लोकतान्त्रिक कैसे हो सकती है?’’
(संवाद-परिसंवाद, पृष्ठ 107)
लोकतान्त्रिक चेतना को नष्ट करने का कार्य नेताओं और राजनीतिज्ञों ने किया है. उसे जगाने का काम कवियों-लेखकों ने किया है- उपन्यासकारों ने सर्वाधिक. पाण्डेय जी लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ को सामने रखते हैं और अनेक उपन्यासों के अनेक स्थलों के उदाहरणों से उपन्यासकारों की इससे जुड़ी चिन्ताओं से हमें अवगत कराते हैं. उनकी आलोचना में यह इसलिए प्रमुख है क्योंकि हमारी लोकतान्त्रिक चेतना नष्ट हो रही है. लोकतंत्र का अस्तित्व, उसके गुण-व्यवहार सब पर उन्होंने विचार किया है. लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए ‘‘समता का बोध, उसकी चेतना तथा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तरों पर समता की उपस्थिति’’ जरूरी है. जनतन्त्र के तीन लक्षणों में ‘समानता’ उनके अनुसार ‘सबसे महत्वपूर्ण’ है और शेष दो- ‘स्वतंत्रता’ और ‘भाईचारा’ का यह पोषक है, जिसके ‘‘अभाव में या कम होने की स्थिति में न स्वतंत्रता सार्थक हो सकती है और न भाईचारा संभव होता है.’’ (‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा’, पृष्ठ 201)
‘समानता’ को वास्तविकता के रूप में सामान्यतः जिस तरह ग्रहण किया जाता है, उसे केवल उस रूप में न देखकर वे ‘भाव और विचार के रूप में भी’ देखते हैं. जो पूंजीवादी लोकतंत्र में संभव नहीं है.
‘‘पूंजीवादी लोकतंत्र में झूठ और लूट की स्वतंत्रता होती है और लुटेरों के बीच भाईचारा भी होता है.’’ (वही)
भारत में गोएबल्स (29.10.1897-1.5.1947) के समर्थकों और शिष्यों (संतानों की भी) की संख्या बढ़ चुकी है. भारत की आज़ादी के तीन महीने पहले गोएबल्स का निधन हुआ था. वह सौ बार झूठ बोलकर उसके सच बन जाने में विश्वास रखता था. विदेशी लुटेरे भारत छोड़कर कब के चले गये, पर स्वाधीन भारत में लुटेरों की संख्या बढ़ती गयी है. पाण्डेय जी ने सर्वत्र पूंजीवादी लोकतंत्र की बात की है. स्वाधीन भारत के 75 वर्ष में पूंजीवाद ने यहाँ कई रूप बदले. समानता के स्थान पर असमानता में काफी वृद्धि हुई है. समानता का अभाव सबसे बड़ा अभाव है. इस अभाव में बहुसंख्यक जनता वास्तविक स्वतंत्रता और भाईचारे से वंचित रहती है. अनेक उदाहरणों से पाण्डेय जी ने भारतीय लोकतंत्र से लोकतंत्र के तीनों लक्षणों के गाायब होने की बात कही है. अब भारतीय लोकतंत्र वचन में है, कर्म में नहीं, लिफाफे में है, मजमून में नहीं, रूप में है, अन्तर्वस्तु में नहीं, कागज पर है, व्यवहार में नहीं. वे जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के साथ दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासियों और किसानों के साथ सत्ता-व्यवस्था और सरकारों के सुलूक देखकर यह सवाल करते हैं कि हमारे देश की व्यवस्था लोकतांत्रिक है या अलोकतान्त्रिक?
‘भारत में जनतन्त्र का सच’ विस्तार से सामने रख कर उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचक की भूमिका का सही अर्थों में निर्वाह किया है. आज हिन्दी में आलोचक कम नहीं है, पर वे अपने समय और समाज के बड़े सवालों से सांसों के स्तर पर बहुत कम जुड़ते हैं. लोकतंत्र में जनता भयग्रस्त नहीं, भय-मुक्त होती है, वहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित नहीं की जाती. असहमति और विरोध-प्रतिरोध के बिना लोकतंत्र ‘वेंटिलेटर’ पर होता है. वास्तविक लोकतंत्र में जनता का कल्याण होता है, न कि पूंजीपतियों- कॉरपोरेटों का. सरकार जनता के मतों से बनती है, पर वह उसके हित में कार्य न कर पूंजीपतियों और कॉरपोरेटों के हितों में कार्य करती है. चुनाव के जरिये सरकारे बनती हैं. लोकतंत्र के नाम पर संसद-विधानसभा से लेकर ग्राम पंचायत, कॉरपोरेशंस-म्युनिसिपैलिटी तक जितने चुनाव होते हैं, जनता सबको देख-समझ चुकी है. नागार्जुन ने सत्तर के दशक के आरम्भ में ही, जब इन्दिरा गाँधी प्रधानमंत्री थी, कविता लिखी थी – ‘अब तो बन्द करो हे देवि! यह चुनाव का प्रहसन ‘‘सारे चुनाव धन बल, बाहुबल, जातिगत गठजोड़ और धर्म की मदद से लड़े और जीते जाते हैं, इसलिए भारत के लोकतंत्र की राजनीति में अपराधियों का बोलबाला दिखाई देता है… यही कारण है कि धीरे-धीरे भारत की जनता वर्तमान लोकतंत्र और उसकी चुनावी राजनीति से ऊब रही है, चुनावी दंगल के पहलवानों की राजनीति में उसका विश्वास अन्त के करीब है.’’ (वही पृष्ठ 203)
इसी कारण ‘लोकतंत्र’ के स्थान पर पाण्डेय जी ने कई स्थलों पर ‘लूट तंत्र’, ‘दल तंत्र’ आदि का प्रयोग किया है. राजनीतिक दलों पर आधारित भारत के संसदीय लोकतंत्र पर विचार करते हुए उन्होंने ‘अधिकांश राजनीतिक दलों के गठन, ढाँचे, चरित्र और व्यवहार पर ध्यान’ दिया है और यह ठीक कहा है – ‘‘उनमें कहीं भी लोकतंत्र नहीं है.’’
अब स्थिति यह है कि राजनीतिक दलों में ‘आन्तरिक लोकतंत्र’ नहीं है और न उनमें लोकतंत्र के प्रति कोई सम्मान-भाव है. ऐसी दशा में लोकतंत्र के रक्षण की बात तो दूर, सब कुछ कम, कुछ ज्यादा, लोकतंत्र का भक्षण ही कर रहे हैं. वे लोकतंत्र का विनाश-सत्यानाश कर रहे हैं, जबकि उन्हें इसका विकास और उन्नयन करना था. ‘‘सरकार के लिए देश के विकास का अर्थ है पूंजी, पूंजीवाद और पूंजीपतियों का विकास और उस विकास में बाधक किसानों, मजदूरों और आदिवासियों का दमन, जिसे अमित भादुड़ी ‘विकास का आतंकवाद’ कहते हैं. इससे जनता में वह डर पैदा होता है, जो जनतन्त्र का दुश्मन है…. पिछले बीस वर्षों से जितनी तेजी से भारत में बुर्जुआ सभ्यता आ रही है, उतनी ही तेजी से भारतीय लोकतंत्र में पाखण्ड और बर्बरता का विस्तार हो रहा है.’’ (वही, पृष्ठ 202)
भारतीय संविधान की ‘प्रस्तावना’ में भारत को ‘लोकतान्त्रिक गणराज्य’ कहा गया है, पर ‘भारत में लोकतंत्र का कोई बुनियादी लक्षण विकसित नहीं हुआ.’ भारतीय लोकतंत्र पाण्डेय जी के अनुसार ‘‘राजनीति में रूपवाद का एक अच्छा उदाहरण है.’’(वही पृष्ठ 203)
लोकतंत्र पर विचार के साथ-साथ भ्रष्टाचार, लूट तंत्र, कानून के शासन की कमजोरी सब पर उनका ध्यान है. वे मतदान को कानूनन अनिवार्य बनाये जाने के पक्ष में नहीं है.
‘‘अगर ऐसा हुआ तो यह झूठे लोकतंत्र को जनता पर थोपना होगा.’’ (वही) वे जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाये जाने के पक्ष में हैं. अन्ना-आन्दोलन से अब तक भ्रष्टाचार सुर्खियों में रहा है. भ्रष्टाचार पर जो लोग बोलते हैं, वे लोकतंत्र पर अधिक बातें नहीं करते. भ्रष्टाचार लोकतंत्र का दुश्मन है जो ‘ब्रिटिश राज से सत्ता हस्तान्तरित होने के समय विरासत’ में प्राप्त हुआ है. उच्च तकनीक के समर्थक-प्रशंसक भ्रष्टाचार को उच्च तकनीक से नहीं जोड़ते. इन दोनों के संबंध की पाण्डेय जी ने अनदेखी नहीं की है. ‘लोकतंत्र’ को ‘लूट तन्त्र’ और ‘झूठ तन्त्र’ पहली बार उन्होंने ही कहा है. वे ‘लूट तन्त्र’ को नव उदार पूंजीवाद से जोड़ते हैं-
‘‘हाल के दशकों में भारत में पूंजीवाद के बेरोकटोक विस्तार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आने के साथ लोकतंत्र के नाम पर जो लूट तन्त्र स्थापित हुआ है, उसमें भ्रष्टाचार सर्वव्यापी हो गया है.’’ (वही, पृष्ठ 204)
मैनेजर पाण्डेय न अर्थशास्त्री हैं, न राजनीतिविज्ञानी और समाजशास्त्री, पर अर्थशास्त्र, राजनीति और समाज के संबंध में उनके सोच-विचार किसी से कम नहीं हैं. उनके पास तर्क है, तथ्य है, सूचनाएँ हैं, गहरी मानवीय संवेदना, पुष्ट आलोचनात्मक विवेक और सम्पन्न विचार-दृष्टि है. भ्रष्टाचार उनके अनुसार ‘लोकतंत्र को नष्ट-भ्रष्ट करने वाला रोग’ है. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान (8.4.1938-18.8.2018) को उन्होंने उद्धृत किया है –
‘‘भ्रष्टाचार लोकतंत्र और कानून के शासन को कमजोर बनाता है, बाजार को विकृत करता है, जीवन की गुणवत्ता का नाश करता है और मानवीय सुरक्षा के लिए खतरनाक संगठित अपराध तथा आतंकवाद को बढ़ावा देता है.’’ (वही, पृष्ठ 205)
जनतन्त्र-संबंधी एक बड़ा प्रश्न उनके समक्ष है –
‘‘जनतन्त्र में जनता की आकांक्षा अधिक महत्वपूर्ण है या उसके चुने हुए प्रतिनिधि की?’’
क्या संसद ‘परम स्वतन्त्र’ है? क्या संसद जनता से ऊपर है? जन प्रतिनिधि बड़ा है या वह जनता बड़ी है, जिसने उसे निर्वाचित किया है? ये सभी प्रश्न जनतंत्र से जुड़े प्रश्न है. ‘‘जनता की आकांक्षा की उपेक्षा जनतंत्र की उपेक्षा है, जिसकी रक्षा ही संसद का दायित्व है.’’ (वही) जनता आज कहीं अधिक उपेक्षित है और भारतीय जनतन्त्र एक उपेक्षित जनतन्त्र है. गाँधी को मैनेजर पाण्डेय ने ‘लोकतंत्र का मूलगामी आलोचक’ कहा है. गाँधी के इस पक्ष की अधिक चर्चा नहीं हुई है. अपने निबन्ध ‘गाँधी की दृष्टि में लोकतंत्र’ में उन्होंने लोकतंत्र के अन्य आलोचकों से गाँधी का अन्तर स्पष्ट किया है. गाँधी लोकतंत्र के मूल तक जाने के कारण ‘लोकतंत्र के मूलगामी आलोचक’ हैं. वे ‘‘लोकतंत्र की आलोचना करते समय मनुष्य के अतीत, वर्तमान और भविष्य को ध्यान में रखते हैं.’’ (वही, पृष्ठ 174)
लोकतंत्र के संबंध में गांधी के विचारों से उनकी सहमति है. भारतीय लोकतंत्र गाँधी की कसौटी पर कसे जाने के बाद ‘नाम मात्र के लिए लोकतन्त्रात्मक’ कहा जाएगा. गाँधी के यहाँ राजनीति से कहीं अधिक महत्व समाज और नैतिकता का है. आज लोकतंत्र सामाजिक-नैतिक व्यवस्था की कौन कहे, सही अर्थों में राजनीतिक व्यवस्था भी नहीं है. उनभिू (उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण) के आगमन और उसके साथ कॉरपोरेटों के फुलने-फलने और अब लगभग एक दशक से कॉरपोरेट-धर्म की जुगलबन्दी के बाद सारा दृश्य बदल चुका है. लोकतंत्र की शक्ल आज भिन्न है.
‘‘भारत का वर्तमान लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, नैतिक उत्थान और मानवीय यातना की कोई चिन्ता नहीं करता. आज के भारतीय लोकतंत्र में केवल पूंजीवाद के प्रसार की चिन्ता है, समाज में लोकतंत्र के विकास की, जनता के स्वतन्त्र रूप में जीने, सोचने और कुछ कहने के अधिकारों की नहीं. (वही, पृष्ठ 174-75) संविधान की चिन्ता सरकारों को नहीं है. वहाँ भारत को ‘एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य’ कहा गया है पर वास्तविकता इसके विपरीत है. भारत वास्तविक अर्थों में न अब ‘धर्मनिरपेक्ष’ है और न ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’.
“यहाँ कुछ लोगों के लिए जो लोकतंत्र है, वही दूसरों के लिए दमनकारी सत्ता है.’’ (वही, पृष्ठ 175). भारत में लोकतंत्र लोकतंत्र की उपेक्षा कर रहा है. वह गाँधी की आकांक्षा का लोकतंत्र नहीं है.
‘‘गाँधी की दृष्टि में लोकतंत्र का आधार है लोकमत. लोक की भावना और समझ की परवाह करने वाले शासन की प्रक्रिया में लोकतंत्र का ध्यान रखा जाता है, केवल विशेषज्ञों की राय का नहीं.’’ (वही)
मैनेजर पाण्डेय लोकतंत्र को महज ‘एक शासन-पद्धति’ के रूप में न देखकर ‘भावना’ में भी देखते हैं. वह एक जीवन-पद्धति है, एक विचार-पद्धति भी. पूंजीवाद ने जिस ‘उन्मादी व्यक्तिवाद’ को जन्म दिया है, वह लोकतंत्र के लिए खतरा है.
“अब सामूहिकता को महत्व प्रदान करने वाली राष्ट्र, राज्य, वर्ग और विचारधारा जैसी अवधारणाएँ अपना अर्थ खो रही हैं. जाहिर है कि सामूहिकता या सामूहिक चेतना के अभाव में लोकतान्त्रिक भावना विकसित नहीं हो सकती.’’
(वही, पृष्ठ 176)
उनका ध्यान आज की उस पूंजीवाद पर है, जिसके बिना आज कोई विचार संभव नहीं है.
मैनेजर पाण्डेय की चिन्ता में आज का समय, पूंजीवाद और लोकतंत्र है वे उपन्यासों पर लिखते हुए वहाँ मौजूद लोकतांत्रिक मूल्यों, लोकतंत्र आदि पर दृष्टि डालना नहीं भूलते. उन्होंने स्पैनिश उपन्यासकार, सर्वान्तीज (29.9.1547-22.4.1616) के ‘दोन किखोते’ (स्पैनिश में 1605 में पहले भाग, 1615 में दूसरा भाग और अंग्रेजी में दोनों भाग क्रमशः 1612, 1620 में प्रकाशित) में ‘गरीबों के प्रति एक लोकतान्त्रिक भावना’ देखी है, ‘प्रेमचन्द के उपन्यासों में वर्तमान के बोध के आधार पर भारत में लोकतंत्र के भविष्य की संभावनाओं और संदेहों की अभिव्यक्ति’ पर ध्यान दिया है, रेणु के ‘मैला आँचल’ के अंत में बावनदास की हत्या के माध्यम से उपन्यासकार द्वारा दिये गये इस ‘स्पष्ट संकेत’ पर विचार किया है कि ‘‘स्वतन्त्र भारत में कैसी सत्ता, कैसी राजनीति और कैसा लोकतंत्र स्थापित हो रहा है.’’ (‘उपन्यास और लोकतंत्र’, पृष्ठ 33).
बावन दास की हत्या ईमानदारी और सच्चाई की हत्या थी. इसके बाद ‘‘जो लोकतंन्त्र कायम हुआ, वह लूटतन्त्र के रूप में आज हमारे सामने हैं.’’ (वही) जहाँ कहीं आलोचनात्मक चेतना, विवेक-चेतना नहीं है, वहाँ लोकतान्त्रिक चेतना भी नहीं है. मदन मोहन के उपन्यास ‘जहाँ एक जंगल था’ की समीक्षा में पाण्डेय जी ने लिखा है- ‘‘समकालीन हिन्दी उपन्यास में जंगल एक रूपक बन गया है आज के भारतीय समाज की तथाकथित लोकतान्त्रिक व्यवस्था का.’’ (वही, पृष्ठ 234)
संजीव के उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ में भी जंगल ‘भारतीय समाज की तथाकथित लोकतान्त्रिक व्यवस्था’ का रूपक है. भारतीय लोकतंत्र में ‘लोक’ पर तन्त्र हावी है. कहा जाना चाहिए कि अब ‘लोक’ ‘तन्त्र’ के अधीन हो रहा है, जिसके खिलाफ बगावत के स्वर फूट रहे हैं. शाम अजीमाबादी के उपन्यास ‘पीर अली’ में वे ‘आज़ादी के बाद देश की शासन-व्यवस्था की चिन्ता और उसकी एक रूपरेखा’ को चिह्नित करते हैं. जहाँ ‘एकाधिकारी पूंजीवाद’ होगा, वहाँ लोकतंत्र घायल और लहूलुहान होगा. रणेन्द्र के उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ की समीक्षा में भूमंडलीकरण, राष्ट्र-राज्य की हिंसा, एकाधिकारी पूंजीवाद सब पर उन्होंने विचार
किया है, जो लोकतंत्र का नाश करते हैं. उन्होंने भाषा के लोकतंत्र की ओर भी ध्यान दिलाया है.
पूंजीवादी लोकतंत्र के आदर्श और यथार्थ में अन्तर है. आदर्श रूप अब्राहम लिंकन (अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति- 12.2.1809-15.4.1865) के इन शब्दों में है कि लोकतंत्र ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन’ है. लिंकन की हत्या की गयी. लोकतंत्र का यथार्थ रूप ‘जॉर्ज डब्ल्यू बुश’ (6.7.1946) के समय में प्रकट हुआ, जिसने दूसरे देशों में हत्याएँ करायीं. लोकतंत्र के सभी प्रकारों में अब ‘पूंजीवादी लोकतंत्र’ ही प्रमुख है, पर ‘‘पूंजीवादी लोकतंत्र में समानता की न तो कल्पना होती है और न संभावना”. पूंजीवाद की कई विकास-अवस्थाएँ हैं. आज भारत और पूरी दुनिया में आतंककारी पूंजीवाद है, जिसके आतंक से कुछ भी नहीं बच रहा है- न विधायिका, न कार्यपालिका, न न्यायपालिका और न प्रेस.
मैनेजर पाण्डेय ने अल सल्वाडोर के प्रसिद्ध कवि और ‘लैटिन अमेरिका के सबसे सम्मोहक कवियों में से एक ‘रोके एंटोनियो डाल्टन गार्सिया’, (14.5.1934-10.5.1975) जिन्हें रोक डाल्टन के नाम से जाना जाता है, की कविता ‘चोर बाज़ार में जनता की सम्पत्ति का बँटवारा’ का हिन्दी अनुवाद अपने निबन्ध ‘भारत मे जनतंत्र का सच’ के अन्त में प्रस्तुत किया है, जिसे पूरा उद्धृत करना अपने देश के लोकतंत्र को समझने में सहायक हो सकता है –
‘‘उन्होंने हमें बताया कि पहली शक्ति है
कार्यपालिका शक्ति
और विधायी शक्ति दूसरी शक्ति है
जिसे ठगों के गिरोह ने
सत्ता पक्ष और विपक्ष में बाँट रखा है
और चरित्र भ्रष्ट हो चुका
(फिर भी मानवीय) सुप्रीम कोर्ट
तीसरी शक्ति है.
अखबारों, रेडियो और टीवी ने खुद को
चौथी शक्ति का दर्जा दे रखा है और वाकई
वे बाकी तीनों शक्तियों के हाथ में हाथ डाले चलते हैं.
अब वे हमें यह भी बता रहे हैं कि
नयी लहर वाले युवा पाँचवीं शक्ति हैं
और वे हमें यह भी भरोसा दिलाते हैं कि
सभी चीजों और शक्तियों के ऊपर ईश्वर की महान शक्ति है.
और अब चूँकि सभी शक्तियों का बँटवारा हो चुका है
वे निष्कर्ष रूप में हमें यह बताते हैं
किसी और के लिए कोई शक्ति नहीं बची है
और अगर कोई कुछ और सोचता है
तो उसके लिए फौज और नेशनल गार्ड हैं.’’
इस अस्वस्थ समय में हिन्दी के सुप्रसिद्ध प्रतिबद्ध मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय का स्वस्थ और दीर्घायु होना बेहद जरूरी है. आज उनकी जन्म तिथि है और हजारों शिष्यों, शुभैषियों, मित्रों एवं आत्मीय जनों की उनके लिए अशेष मंगलकामनाएँ हैं.
रविभूषण १७ दिसम्बर 1946, मुजफ्फ़रपुर (बिहार)
वरिष्ठ आलोचक-विचारक
रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें आदि प्रकाशित.
साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रचुर लेखन
राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त.
ravibhushan1408@gmail.com
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पांडेय जी को बधाई।आलोचना की दुनिया से अपरिचित हूं फिर भी आलोचना समय के सुंदर चित्रों को गहरी अंतर्दृष्टि के साथ उकेरा गया है यहां।कहे अनकहे के बीच पांडेय जी के व्यापक सोच, चिंतन और अध्ययन की रेंज की झलक झलकाते हुए।। बूंद में समुद्र ।
पिछले सालों में रविभूषण जी की एक किताब पढ़ी थी ‘वैकल्पिक भारत की तलाश ‘ । उस किताब में भी भारत के लोकतंत्र पर उनकी चिंताएं और विचार सामने आए थे । दरअसल जिन दस्तवेज़ों , लेखों आदि का जिक्र वे मैनेजर पांडेय के बहाने कर रहे हैं , उनकी प्रमाणिकता को देखते हुए प्रबुद्ध पाठक उनकी इस रचना से समृद्ध होगा , यह विश्वास किया जा सकता है । उनके इस विस्तृत लेख को पढ़ने के लिये जिस विजडम की ज़रूरत है उसे पा लेने का आग्रह भी यह लेख अपने सृजनात्मक विवेक के साथ करता है । एक मुक्कमल बहस इस लेख पर होनी चाहिए , ऐसा मेरा विश्वास है क्योंकि जो खतरनाक समय , खास कर पिछले आठ वर्षों का , में हम जी रहे हैं , उसकी सघन परतों को अभी न खोल सके तो देर हो जायेगी ।
अच्छा आलेख है। सारगर्भित और पठनीय।
इस सुचिंतित,सारगर्भित और विचारोत्तेजक आलेख के लिए आदरणीय रविभूषण जी को साधुवाद।
रवि भूषण द्वारा प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय के विचारों की निष्पत्तियों से सहमत हूँ । याराना पूँजीवाद लफ़ंगा हो गया है । विधायिका और कार्यपालिका के वर्चस्व ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है ।
न्यायपालिका से आशा बढ़ी है । मैनेजर पांडेय ने यहाँ के तंत्र को जनपद की पुरानी पद्धति और कार्यप्रणाली से जोड़ा है । मैं इसे भारत के गौरवशाली अतीत की अनुशंसा मानता हूँ । परंतु अब भारत और अमेरिका में लगातार लोकतंत्र का ह्रास हुआ है ।
हाल ही में मैं एक व्यक्ति के व्याख्यान को पढ़ रहा था । 1920 में उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन में भारत में पूर्ण स्वराज्य और दुनिया में अमेरिका के पूँजीवाद से मुक्त कराने का प्रस्ताव रखा था ।
जिस तरह पिछले 8 वर्षों में लोकतंत्र को पूँजीवाद का पिट्ठू बना दिया गया है इससे दुनिया के लोकतंत्र समर्थक व्यक्ति और विचारवेत्ता चिंता में है । केवल केंद्र में ही नहीं राज्य सरकारों में भी पूँजीवाद का बोलबाला है । इस कारण आम व्यक्ति के रहन सहन के तरीक़े में गिरावट आयी है । कोरोना वायरस के संक्रमण के कारण रोज़गार छिन गये हैं । जबकि दूसरी तरफ़ पूँजीपतियों की सम्पत्ति में इज़ाफ़ा हुआ है । अड़ानी और अंबानी प्रमुख उदाहरण हैं । रवि भूषण जी को बधाई और प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय को प्रणाम । उनके स्वस्थ और सुदीर्घ जीवन की मंगल कामना करता हूँ । साझा करने के लिये शुक्रिया Arun Dev जी ।
श्री मैनेजर पाण्डेय हमारे समय के एक शीर्ष आलोचक हैं।उनकी आलोचना दृष्टि अत्यंत प्रखर एवं विज्ञान सम्मत है । विशेष रूप से आलोचना की समाजशास्त्रीय एवं इतिहास दृष्टि से उनके अवदान। मैं उनके दीर्घ जीवन की कामना एवं जन्मदिन की शुभकामनाएं देता हूँ।
सार्थक और सामयिक मूल्यांकन।पांडेय जी के ब्याज से इसमें हमारे समय की उद्विग्नताएँ भी दर्ज हैं।उनके आरोग्य की शुभकामनाएं।
बहुत अच्छा और गंभीर लेख। हिंदी में कथित नव उदारवादी संस्कृति के खतरों को रामविलास जी के अलावा जिस बड़े आलोचक ने समझा और पूरी हिम्मत और जुझारूपन के साथ जनता के हित में खड़ा हुआ, वे मैनेजर पांडेय ही हैं। हमारे लोकतंत्र की दारुण स्थिति यह है कि राजनीतिक पार्टियां, पूंजीपति और समाज के अराजक तत्व, तीनों मिल गये हैं और इस दुरभिसंधि में जनता लगातार पिट रही है।
मैनेजर पांडेय जी ने इस खतरे को समझा है, और इस पर पूरी चुनौती और ललकार के साथ बराबर लिखते रहे हैं। रविभूषण जी ने उनके विचारों को पूरी गहराई के साथ प्रस्तुत किया। इस नाते उनका, और ‘समालोचन’ के जरिए पांडेय जी के विचारों को सामने लाने के लिए भाई अरुण जी का साधुवाद!
स्नेह,
प्रकाश मनु
समालोचन और रविभूषण जी प्रति आभार ।