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Home » मैनेजर पाण्डेय: अशोक वाजपेयी

मैनेजर पाण्डेय: अशोक वाजपेयी

आचार्य रामचंद्र शुक्ल से विकसित तथा रामविलास शर्मा से आगे बढ़ती हिंदी आलोचना की परम्परा ही मैनेजर पाण्डेय की परम्परा है. साहित्य की सामाजिकता के वह हिंदी ही नहीं भारत के सबसे बड़े आलोचक हैं. उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि– “साहित्य की प्रक्रिया को सामाजिक प्रक्रिया के व्यापक हिस्से के रूप में देखना चाहिए.” वरिष्ठ लेखक अशोक वाजेपयी से उनके रिश्ते कभी बहुत तीखे थे. बाद में अशोक वाजपेयी पर संपादित पुस्तक ‘आजीवन अ शोक’ के लिए लिखते हुए उन्होंने रेखांकित किया- “जिस समय भारत में नया सोच-विचार सत्ता के आक्रमण का शिकार हो रहा है, प्रश्नाकुलता खतरनाक घोषित की जा रही है और बहुलता की जगह छद्म एकता स्थापित की जा रही है ऐसे समय में निर्भय होकर अपने सोच का सच लिखना साहस का काम है.” यह वही व्यक्ति लिख सकता है जिसके शब्द और कर्म का बीज वाक्य ‘अनभै सांचा’ हो. मैनेजर पाण्डेय की सशरीर उपस्थिति की कमी की पूर्ति तो नहीं हो सकती लेकिन उनके शब्द जीवित रहेंगे. अशोक वाजपेयी का यह स्मरण आलेख प्रस्तुत है

by arun dev
November 7, 2022
in आलेख
A A
मैनेजर पाण्डेय: अशोक वाजपेयी

भरत तिवारी द्वारा लिया गया यह चित्र उन्हीं के सौजन्य से.

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मैनेजर पाण्डेय का जन्म २३ सितम्बर, १९४१ को बिहार के गोपालगंज जिले के लोहटी गाँव में हुआ, जब वह पांचवीं कक्षा में थे माँ का स्नेह उनसे छिन गया. तेरह साल की उम्र में उनका विवाह हो गया था. गाँव में बी.ए. (डीएवी कॉलेज, बनारस से) पास करने वाले वह पहले व्यक्ति थे. एम. ए. (हिंदी) उन्होंने बीएचयू से किया जहाँ वह वामपंथी राजनीति के सम्पर्क में आये. डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा के निर्देशन में उन्होंने ‘भक्ति आंदोलन और सूरदास’ पर अपना शोध कार्य १९६८ में पूरा किया. बरेली कॉलेज में दो साल पढ़ाया. फिर जोधपुर विश्वविद्यालय में चले गये जहाँ उन्होंने छह वर्षों तक अध्यापन कार्य किया, नामवर सिंह के आग्रह पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में फिर वे आ गये.

मैनेजर पाण्डेय का पहला लेख ‘भक्ति काव्य की लोकधर्मिता’ १९६८ में डॉ. त्रिभुवन सिंह द्वारा संपादित ‘साहित्यिक निबन्ध’ पुस्तक में छपा, फिर नामवर सिंह द्वारा संपादित ‘आलोचना’ में उनके लेख प्रकाशित होने शुरू हुए. उनकी कृतियों में-

शब्द और कर्म, साहित्य और इतिहास-दृष्टि, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, सूरदास, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, आलोचना की सामाजिकता, उपन्यास और लोकतंत्र, हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान, आलोचना में सहमति-असहमति, भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा, साहित्य और दलित दृष्टि, शब्द और साधना, संकट के बावजूद (मुख्यतः विदेशी लेखकों के कुछ चुनिंदा साक्षात्कारों एवं आलेखों का अनुवाद, चयन और सम्पादन), अनभै साँचा, मेरे साक्षात्कार, मैं भी मुँह में जुबान रखता हूँ, संवाद-परिसंवाद, बतकही, देश की बात,मुक्ति की पुकार, सीवान की कविता, नागार्जुन: चयनित कविताएँ, सूर संचयिता, मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता, लोकगीतों और गीतों में 1857, शब्द और साधना आदि प्रमुख हैं.

उन्हें हिन्दी अकादमी द्वारा दिल्ली का ‘शलाका सम्मान’, ‘साहित्यकार सम्मान’, ‘राष्ट्रीय दिनकर सम्मान’, रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी का ‘गोकुल चन्द्र शुक्ल पुरस्कार’ और दक्षिण भारत प्रचार सभा का ‘सुब्रह्मण्य भारती सम्मान’ आदि सम्मान मिले हैं. लम्बी बीमारी के बाद दिल्ली में 6 नवम्बर, 2022 को ८१ वर्ष की अवस्था में उनका देहावसान हो गया.

मैनेजर पाण्डेय
एक उजला कोना अंधेरे में डूब गया

अशोक वाजपेयी

साहित्य और आलोचना की सामाजिकता को उनकी समझ और परख का आधार मानने- मनवाने का आग्रह करने वालों में मैनेजर पाण्डेय’ एक अग्रणी और प्रखर आलोचक थे. साहित्य को मनुष्यता की अभिव्यक्ति का एक माध्यम बताते हुए उन्होंने लगभग दो दशकों पहले कहा था कि

“मनुष्य की मनुष्यता पूरी तरह प्रकट होती है उसकी स्वतंत्रता में- विचार, कल्पना, और कर्म की स्वतंत्रता में. आलोचना उसी स्वतंत्रता का पालन पोषण करती हुई, उसके संग-साथ चलती हुई और उसके पक्ष में लड़ती हुई सामाजिक बनती है.”

आगे उन्होंने यह जोड़ा था कि

“आलोचना चाहे समाज की हो या साहित्य की, वह सामाजिक बनती है सत्ता के सामने सच कहने के साहस से. किसी भी समाज में आलोचना का स्वास्थ्य उस समाज के बौद्धिक वातावरण पर निर्भर होता है. अगर समाज का बौद्धिक वातावरण उन्मुक्त और संवादधर्मी होगा तो आलोचना भी मूलगामी, उत्सुक, तेजस्वी, प्रश्नाकुल और सत्य निष्ठ होगी, लेकिन अगर बौद्धिक वातावरण रूढ़िवादी, पीछेदेखू, और सहमतिवादी होगा तो आलोचना वैसी ही होगी.”

उनके दुखद अवसान पर यह याद करना चाहिए कि उन्हें अपने सबसे सक्रिय दशकों में उन्मुक्त और संवादधर्मी बौद्धिक वातावरण मिला था जिसके कारण वे तेजस्वी-उत्सुक, प्रश्नाकुल बन पाये और जो दुर्भाग्य से उनके अंतिम वर्षों में ठीक उलट गया. आज की सत्यनिष्ठ आलोचना, फिर भी सच कहने का दुस्साहस कर रही है: जैसे सच्चा साहित्य वैसे ही सत्यनिष्ठ आलोचना आज स्वयं हिंदी समाज की रूढ़िवादी पीछेदेखू सहमतिवादी सत्ता का लगभग राजनीतिक प्रतिपक्ष है. ऐसा वातावरण बनाने-बिगाड़ने में आलोचक और आलोचना की क्या भूमिका होती है और हमारे समय में हुई इस पर गहराई से विचार करने की ज़रूरत है

मैनेजर पाण्डेय एक विद्वान आलोचक थे. वाल्टर बेन्यामिन का सहारा लेते हुए उन्होंने मुक्तिबोध के प्रसंग में सभ्यता के इतिहास में छुपी बर्बरता को पहचानने की कोशिश की है.

पाण्डेय जी ने शायद पहली बार हिंदी आलोचना में यह पहचाना कि

“क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि देश के विभाजन और उससे जुड़ी हुई संपूर्ण त्रासदी पर निराला, पंत, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन में से किसी ने कोई महत्वपूर्ण कविता नहीं लिखी है उस समय ही नहीं, बाद में भी नहीं. उस समय के कवियों में केवल अज्ञेय ने 12 अक्तूबर 1947 से 16 नवंबर 1947 के बीच ‘शरणार्थी’ शीर्षक से से 11 कविताएँ लिखीं थीं और साथ ही अनेक कहानियाँ भी जो 1948 में ‘शरणार्थी’ नाम से प्रकाशित पुस्तक में मौजूद हैं”.

अन्यत्र पाण्डेय जी ने यह भी दर्ज किया है कि

“नागार्जुन के काव्य संसार में भारतीय समाज के उन समुदायों के लिए भी जगह है जिन पर दूसरे कवियों ने ध्यान ही नहीं दिया है. नागार्जुन ने आदिवासियों पर लगभग एक दर्जन अत्यंत महत्वपूर्ण कविताएँ लिखी हैं.”

उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि “कोई भी रचना कालजीवी हुए बिना कालजयी नहीं हो सकती.”

उनकी आलोचना में रचनाओं की कालजीवित की हमेशा खोज और पड़ताल होती रही है. संयोगवश यह कहना भी प्रासंगिक है कि उनके सबसे प्रिय आधुनिक कवि नागार्जुन रहे हैं और उनकी आलोचना नागार्जुन को समझने-सराहने में बेहद मददगार साबित होती है. वे मानते हैं:

“नागार्जुन की कविता में कल्पना का चमत्कार कम है, यथार्थ की सघनता अधिक है, दार्शनिक अमूर्तन कम है, अनुभव की व्यापकता अधिक है. ज्ञान की गठरी छोटी है लेकिन करुणा का सागर अथाह है. उनकी कविता विचार से अधिक भावों की कविता है. नागार्जुन कविता में जीवन- यथार्थ का चित्रण अधिक करते हैं और विचारधारा पर बहस कम. लोक हृदय में लीन उसके हृदय का विवेक और चाहे जो ग़लती करे लेकिन जन-मन की पहचान में वह कभी ग़लती नहीं करता.”

पाण्डेय जी की आलोचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उनके उपन्यास पर किए गए विचार और विश्लेषण हैं. उन्होंने लिखा है:

“उपन्यास और लोकतंत्र के सम्बन्ध में विचार करते समय यह ध्यान में रखना ज़रुरी है कि लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक व्यवस्था और शासन पद्धति ही नहीं है, वह एक ऐसी मानसिकता भी है जो सहिष्णुता की संस्कृति, दूसरों का सम्मान, दूसरों के अंतरों का स्वीकार, विचारों की अनेकता का आदर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संवाद की तत्परता विकसित करती है. लोकतंत्र की ये विशेषताएं उपन्यास के स्वभाव और संरचना में निहित होती हैं और उपन्यास ऐसी ही मानसिकता का निर्माण भी करता है. वह व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ समाज के हित को भी ध्यान में रखता है जो लोकतंत्र का भी अनिवार्य गुण है. उपन्यास मनुष्य की गरिमा और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा का प्रयत्न करते हुए ही व्यक्ति को सामाजिक और समाज को माननीय बनाने में सफल हुआ है.”

अच्छा आलोचक अच्छा शोधकर्ता भी होता है. पाण्डेय जी में अथक शोध की वृत्ति थी. उन्होंने मराठी के विद्वान सखाराम गणेश देउस्कर (१८६९-१९१२) की बांग्ला में लिखी कृति ‘देशेर कथा’ के बाबूराव विष्णु पराड़कर द्वारा हिंदी में किये गये अनुवाद (१९१०) को संपादित कर हिंदी में उसकी पुनर्प्रस्तुति की. अपनी भूमिका में पाण्डेय जी लिखते हैं-

“देउस्कर भारतीय जनजागरण के ऐसे विचारक हैं जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल भारतीयता का अद्भुत संयोग है. वे महाराष्ट्र और बंगाल के नवजागरण के बीच सेतु के समान हैं. उनका प्रेरणास्रोत महाराष्ट्र है, पर वे लिखते बांग्ला में हैं”

हममें से बहुतों को, कम से कम हिंदी में, देउस्कर द्वारा की गयी औपनिवेशिक ज़हनियत की तीक्ष्ण व्याख्या का पहली बार पता चला.

पाण्डेय जी ने कुछ मुसलमानों शासकों की हिंदी कविता का एक संचयन ‘मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता’ भी तैयार कर प्रकाशित करवाया. उसमें कई मुग़ल शासकों जैसे- अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब की रचनाएँ संकलित हैं. भूमिका में पाण्डेय जी लिखते हैं-

“भारतीय समाज के इतिहास का जो मुग़लकाल है वह हिंदी साहित्य के इतिहास का भक्तिकाल और रीतिकाल है. भक्तिकाल का कोई भी कवि किसी दरबार का कवि नहीं था. लेकिन रीतिकाल के लगभग सभी कवि किसी न किसी दरबार में कवि थे. इसीलिए मुग़ल दरबार में हिंदी कविता की खोज का अर्थ है मुग़ल-दरबार से रीतिकाल के कवियों के सम्बन्ध की खोज.”

आज जब एक हिंसक-आक्रामक क़िस्म की मानसिकता, जिसने औपनिवेशिकता से अनेक चीजें उधार या हड़प ली हैं, हमारे सामाजिक चित्त को बदलने और उसे लोकतंत्र से विरत करने की चेष्टा कर रही है, और मुग़लों के अवदान और उसकी सर्जनात्मकता को सुनियोजित रूप से विकृत और अवमूल्यित किया जा रहा है, ऐसी शोध का व्यापक सामाजिक महत्व है. आलोचक समाज को कैसे शिक्षित करता है, यह उसका एक उदाहरण है.

पाण्डेय जी ने अनुवाद भी किये हैं और संस्कृति चिंतकों के निबन्धों का हिंदी में रूपांतरण भी किया है. हिंदी में साहित्य के समाजशास्त्र के एक तरह से वे प्रस्तोता हैं. संसार में चल रहे और विकसित हो रहे बौद्धिक विमर्श से उनका गहरा परिचय रहता था.

दशकों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में पाण्डेय जी सक्रिय रहे और उनके अनेक सुदीक्षित छात्र इस समय कई जगहों पर काम कर रहे हैं. जहां तक मुझे याद आता है, इस विश्वविद्यालय में पहली बार मुझे पाण्डेय जी ने ही कुछ बोलने के लिए न्योता दिया था. मैं ‘तार सप्तक’ पर कुछ बोला था.

दिल्ली में पिछले तीन दशकों में रहते हुए उनसे कई आयोजनों में मुलाक़ात होती रहती थी. अगर उन्हें बोलना होता था तो वे हमेशा तैयारी से आते थे और अपने संरक्षक नामवर सिंह की की तरफ अवसर के अनुकूल बहते या अपने सहयोगी केदारनाथ सिंह की तरह अधीर नहीं होते थे. उनके वक्तव्य हमेशा सुचिंतित होते थे. उन पर एकाग्र एक आयोजन हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में हुआ था जिसमें मैं भी शामिल हुआ था.

70-80 के दशकों में वे मेरे घोर और मुखर विरोधी थे पर बाद में शायद उन्हें वैचारिक मतभेदों के बावजूद मैं सहनीय लगने लगा था. कई बार वह मेरी कोई टिप्पणी पढ़कर या कहीं प्रकाशित कविता देखकर फ़ोन करते थे. उनसे गपशप करने का अलग मज़ा था. एक बार हम साथ-साथ कथाकार मैत्री पुष्पा के गांव भी गए थे. आते-जाते उनका सानिध्य आत्मीय, पुरलुत्फ़ और बौद्धिक रूप से उत्तेजक था. उनका देहावसान लंबी बीमारी के बाद हुआ. हिंदी आलोचना और शोध का, हिंदी विद्वता का एक उजला कोना अंधेरे में डूब गया.

अशोक वाजपेयी
ashokvajpeyi12@gmail.com
Tags: 20222022 आलेखअशोक वाजपेयीमैनेजर पाण्डेय
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Comments 8

  1. Anonymous says:
    5 months ago

    बहुत मूल्यवान बातें आपने साझा की है sir. उनकी स्मृति को नमन। हमने एक अमूल्य निधि को खो दिया। उनके साहित्यिक योगदान का हिन्दी जगत सदा ऋणी रहेगा। अंतिम प्रणाम sir को।

    Reply
  2. कुमार अम्बुज says:
    5 months ago

    एक अच्छा श्रद्धांजलि लेख।
    संक्षिप्त, पठनीय।

    Reply
  3. अच्युतानन्द मिश्र says:
    5 months ago

    महत्वपूर्ण संस्मरणालेख। अशोक वाजपेयी जी ने मैनेजर पांडेय जी के व्यक्तित्व और लेखन के बीच की कड़ी को सामने रखा है।
    मैनेजर पांडेय ने हिंदी आलोचना को अधिक व्यापक, गतिशील विषय- बहुल और विचार -संपन्न बनाया। लुकाच ,विलियम्स जैसे आलोचकों के रास्ते उन्होंने हिंदी उपन्यास आलोचना में यथार्थ के निहितार्थ की व्याख्या की। आलोचना का समाजशास्त्र मैनेजर पांडेय की आलोचना का सबसे प्रखर और विचारोत्तेजक पक्ष है और इसका महत्व यह है कि उन्होंने उसे शुष्क वैचारिक निष्पत्तियों तक सीमित नहीं रखा। बल्कि यह कहना अधिक सार्थक होगा कि उन्होंने ऐसे समाजशास्त्र का पक्ष सामने रखा जो लोक चेतना को महत्व देता हो। निश्चित रूप से उनके जाने से हिंदी आलोचना में कभी न भरने वाली रिक्ति उत्पन्न हो गई है।

    Reply
  4. Mool chandra gautam says:
    5 months ago

    नामवरजी की अनुकूल अवसरवादिता और केदारनाथ सिंह की अधीरता के बीच की जगह में मैनेजर पाण्डेय जी को स्थापित करके अशोक वाजपेयी जी ने जिस वाक्चातुर्य का परिचय दिया है वह विस्तार की अपेक्षा रखता है।यह तुरंता प्रतिक्रिया परमानंद श्रीवास्तव पर की गयी उनकी टिप्पणी से अलग है ?

    Reply
  5. M P Haridev says:
    5 months ago

    प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय के निधन हो जाने के बाद अशोक वाजपेयी द्वारा लिखा गया संस्मरण विशेष महत्व रखता है । मैं जितना कुछ लिख पाऊँगा उन शब्दों को मैनेजर पांडेय के लिये मेरी श्रद्धांजलि समझ लीजिये ।
    अशोक वाजपेयी के लिखे को पढ़ने का अर्थ अपने को पढ़ना और भीतर झाँकना है । कदाचित कोई व्यक्ति परतंत्र रहना चाहेगा । व्यक्ति को उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थक हूँ । इसमें राजनीतिक, विचार, कल्पना और कर्म की स्वतंत्रता निहित है । प्रोफ़ेसर पांडेय के सतत परिश्रम ने उन्हें अग्रणी आलोचक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा विभाग में काम करते हुए उन्हें श्लाघा प्राप्त हुई ।
    किन्ही मराठी साहित्यकार द्वारा बंगाल साहित्य पर लिखना देश के दो ध्रुवों को जोड़ना है । वे नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के साहित्य को अपनी दृष्टि से समझते हैं । मुझे पहली दफ़ा पता चला है कि मुग़ल काल के उनके शासकों अकबर, शाहजहाँ, जहांगीर और औरंगज़ेब की कविताओं का संकलन प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय ने किया था ।
    मुझे याद आन पड़ता है कि जब केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तब एक सायंकाल दो स्थानों पर अभिनंदन किया गया था । इनमें से एक स्थान हौज़ ख़ास स्थित कला वीथिकाओं के नज़दीक एक जगह पर मैं गया था । वहाँ अजित कुमार जी तथा मैनेजर पांडेय उपस्थित थे । मंच संचालन सुधा उपाध्याय ने किया था । यदि मैं नहीं भूला हूँ तो पांडेय जी और अजित कुमार जी में से एक मज़ाक़िया लहजे में बात कर रहे थे ।

    Reply
  6. दया शंकर शरण says:
    5 months ago

    साहित्य को समाजशास्त्रीय दृष्टि से मूल्यांकित और समृद्ध
    करनेवाले आलोचक- मैनेजर पाण्डेय, का देहावसान साहित्य
    की एक अपूरणीय क्षति है।अशोक जी का आत्मीय संस्मरण
    पढ़कर मन भीग गया।साहित्य में यह एक विशेष काल-खण्ड
    के वैचारिक ध्रुवीकरण एवं असहमति की राजनीति को भी
    उजागर करता है।

    Reply
  7. हीरालाल नागर says:
    5 months ago

    कल ही हुआ है उनका अग्निदाह देह से विदेह होने बाबत । उनकी बेटी जब अश्रुपूरित आंखों और कांपते हाथों से अग्निपुंज लिए उनकी शवशैया को अग्नि दे रही थीं तो लगता था कि दहाड़ मारकर एकबार रो लिया जाए, क्योंकि अब कहीं भी नहीं दिखेंगे मैनेजर पांडेय। आज सुहृदय कवि अशोक वाजपेयी जी की उन पर यह टिप्पणी पढ़ी तो लगा की कोई घाव में मरहम लगा रहा है। आलोचक मैनेजर पांडेय के बारे में उनके विचार सुलझे हुए और पारदर्शी लगे। मैनेजर पांडेय को लेकर अब बार-बार लिखा जाएगा, लेकिन अशोक वाजपेयी जी की टिप्पणी एक स्थाई दस्तावेज की तरह बनी रहेगी। मार्क्सवादी आलोचना केवल मार्क्स चेत् स व्यक्ति की अवधारणा नहीं, वह मनुष्य के विचारशील होने की सतत् प्रक्रिया है , जो हर युग में जन पक्षधर होने की शर्तो पर जीवित रहेगी।
    यह वाजपेयी जी की बेशक तात्कालिक प्रतिक्रिया है, मगर है अत्यंत प्रछन्न और सारगर्भित।

    Reply
  8. IMRAN perwaiz says:
    5 months ago

    वाजपेई सर जो भी लिखते हैं, दिल से ही लिखते हैं!!!

    Reply

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