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Home » रंग – राग : लंच बाक्स : सारंग उपाध्याय

रंग – राग : लंच बाक्स : सारंग उपाध्याय

रितेश बत्रा द्वारा निर्देशित हिंदी फ़िल्म ‘लंच बाक्स’ की समीक्षा सारंग उपाध्याय द्वारा, कवि सारंग ने फिल्मों पर रचनात्मक रूप से लिखने वाले समीक्षक के रूप में अपनी पहचान बनाई है. इस चर्चित और बहुप्रशंसित फ़िल्म को अगर आप ने देख रखा हो तो बताइए  यह फ़िल्म और यह समीक्षा कैसी लगी.   इस बॉक्‍स के “लंच” […]

by arun dev
September 26, 2013
in Uncategorized
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रितेश बत्रा द्वारा निर्देशित हिंदी फ़िल्म ‘लंच बाक्स’ की समीक्षा सारंग उपाध्याय द्वारा, कवि सारंग ने फिल्मों पर रचनात्मक रूप से लिखने वाले समीक्षक के रूप में अपनी पहचान बनाई है. इस चर्चित और बहुप्रशंसित फ़िल्म को अगर आप ने देख रखा हो तो बताइए  यह फ़िल्म और यह समीक्षा कैसी लगी.  

इस बॉक्‍स के “लंच” में बेनाम रिश्‍तों की महक है

सारंग उपाध्‍याय 


मुंबई यायावरी मन का शहर है और घूमते हुए कहानियों को रचता है. जिंदगी यहाँ संयोग की सिलाइयों से रिश्‍तों का नया स्‍वेटर बुनती है और अपने अनुसार “माप” को चुनकर उसे पहना देती है, प्रदर्शन से परे, लेकिन मन के करीब, प्रेम के आईने में फबता. जीवन के रिश्‍तों की यह नई कहानियॉं संयोग के उत्‍सव में नियति का उपहार है, जान-पहचान वालों की भीड में अनाम रिश्‍तों की रचना है. फिल्‍म “लंच बॉक्‍स” यही सब कुछ है. यात्राधारी मुंबई के संयोग भरे जीवन में कविता की तरह घटती अनाम रिश्‍ते की कहानी का टुकडा.

पर्दे पर प्रयोग की कूची से कुछ नया रचने की बैचनी इस फिल्‍म को उन फिल्‍मों की कतार में खडा कर देती है, जिसे थियेटर में महज देखकर विस्‍मृत नहीं किया जा सकता. फिल्‍म में दिखाई पडती निर्देशक, कलाकारों और परिवेश की बैचेनी दर्शकों के मन में अपना कोना खोज लेगी है और जीवन में यदा-कदा होने वाली फिल्‍मी चर्चाओं में टुकडों-टुकडों के आस्‍वाद के साथ चाय की चुस्‍कियों में घुलती रहेगी. “लंच” करते समय अक्‍सर इस फिल्‍म का स्‍वाद मुस्‍कुराहटों के बीच आपकी भूख को प्रेम की ऑंच से सुनहरा कर देगा.
ट्रेनों, बसों और ऑटो की हरे-फेर में पिसते अपने यात्राधारी जीवन में नौकरी से रिटायरमेंट के तकरीबन एक महीने पहले, मिस्‍टर साजन फर्नांडिस (अभिनेता इरफान) के ऑफिस में टेबल पर आया एक लंच बॉक्‍स जीवन के स्‍थिर स्‍वाद में जायके की नई लय पैदा कर देता है. इला (अभिनेत्री निमरत कौर) नाम की महिला द्वारा भेजा गया खाने का डिब्‍बा गलती से मिस्‍टर फर्नांडिस को मिल जाता है. मिस्‍टर फर्नांडिस हर निवाले के साथ त्रप्‍त मन के रंगों से इला के टिफिन को मांझकर भेजते हैं.
लंच बॉक्‍स पति को भिजवाने के भ्रम में जी रही इला के लिए खाली, सफाचट्ट लौटा टिफिन, मन के सूने पहाड पर किसी झरने के फूटने का संकेत होता है, लेकिन देर रात लौटे पति के मन में घुले स्‍वाद का कडवापन उस झरने को सुखा देता है. फर्नांडिस का डिब्‍बा इला के पति का “लंच बॉक्‍स” बन जाता है.
मसालों की महक से जीवन की भावनाऍं अठखेलियॉं करती है, प्रेम के छौंके से बघारी गई सब्‍जी का स्‍वाद मन की अतल गहराइयों में दबे जीवन के उत्‍स को जगा देता है. गलती से ही सही, लेकिन पूरा टिफिन खाने पर दूसरे टिफिन में इला “शुक्रिया” की चिठ्ठी भेजती है, जो फर्नांडिस के भरे पेट और त्रप्‍त मन की उमंग को नमकीन कर देती है. वे जवाबी चिट्ठी में इला को मन का यही नमकीन टुकडा भेजते हैं. इस तरह मुंबई के डिब्‍बे वालों की यात्रा करती जिंदगी में संयोग की एक कहानी कविता के रूप में यात्रा करने लगती है. “लंच के बॉक्‍स” में शुरू होते हैं चिठ्ठियों के सिलसिले.
पत्‍नी की मौत के बाद सालों से होटल का खाना खाकर बेस्‍वाद, बेरंग और स्‍वभाव से सपाट बन चुके मिस्‍टर फर्नांडिस के ढर्रेदार ऊबाऊ मन में इला के लंच से प्रदिप्‍त हुई जठराग्‍नि, सूख चुके कोमल भावों की मोटी परत को पिघला देती है. मिस्‍टर फर्नांडिस इला के टिफिन से अपने खाली मन को भरते हैं, और जीवन में भरी नीरसता और उजाडपन को खाली करते हैं.

उधर, जीवन के मध्‍यांतर की ओर बढ रही व अपने प्रति पति से एक उदासीनता और खालीपन जी रही इला, हर चिट्ठी में फर्नांडिस के साथ अपने जीवन के यथार्थ को प्रतीकों में बांटती है. पिता को कैंसर, पति की उदासीनता, उपेक्षा, तिरस्‍कार और किसी दूसरी स्‍त्री से संबंध इन चिट्ठियों में इला को फर्नांडिस के सामने खोलते चले जाते हैं. इला की चिट्ठियॉं फर्नांडिस को सालों पहले छूटे सौंधे जीवन की सहानुभूति, संवेदनाओं और भावनाओं की हरी-हरी पगडंडियों पर ले जाती है. वह जीवन की बीती हुई धूप से कुछ टुकडे चुनकर उसकी रोशनी और ऑंच इला को चिट्ठी में भेजता है. इला फिर से मां बनने के लिए पति के करीब जाती है, लेकिन पति के करीब घूमती उदासीनता और हिकारत की सीलन उसके सपने के अंगारे को गीला कर देती है. चिट्ठियाँ अब मन के ऑंगन से फूल चुनती है, लंच में प्‍यार घुलता है और फर्नांडिस की टेबल पर इंतजार.   

फिल्‍म में नवाजुद्दीन सिद्दिकी ऊर्फ असलम शेख एक अनाथ व्‍यक्‍ति के मन की क्‍यारी है, जिसमें नियति ने किसी रिश्‍ते को अंकुरित ही नहीं किया. मिस्‍टर फर्नांडिस के खाताबही जीवन में वह एक हिसाब-किताब का रिप्‍लेसमेंट भर है, लेकिन फर्नांडिस के सधे, नपे-तुले और खामोशी से भरे व्‍यक्‍तित्‍व को वह केवल कुछ संवादों में ढहा देता है कि “मैं बचपन से अनाथ हूँ, मेरा नाम भी मैंने खुद रखा है, बाकी सारी चीजें सीखी हैं, यह काम भी मैं खुद सीख लूँगा” लोकल ट्रेन में वह मिस्‍टर साजन फर्नांडिस से कहता है- “सर मेरी अम्‍मी कहा करती थी कभी-कभी गलत ट्रेन सही जगह पहुँचा देती है.” जब फर्नांडिस कहते हैं कि तुम्‍हारी अम्‍मी अभी है, तुम तो कह रहे थे तुम अनाथ हो, तो शेख खाली मन से हँसते हुए कहता है, “सर ऐसा कहने से बात का वजन बढता है.” शेख फर्नांडिस को अपने निकाह में अपना गार्जियन बनाता है.
इधर, इला और फर्नांडिस की चिट्ठियों में मुलाकात आकार लेती है. जीवन की अविरल धारा में किसी अपरिचित के आहट का संगीत, लेकिन इस आहट में संगीत लय से छूट जाता है. फर्नांडिस की दाढी का सफेद बाल रेस्‍तरां में इला को इंतजार के साथ छोड देता है, और रिटायरमेंट के साथ नासिक की गाडी में जीवन को समेटने निकल पडता है. अपने ही मन को बिना कुछ बताए.
जीवन के बीत जाने की लय में एकाएक पैदा हुए प्रेम के सुर स्‍व के साक्षात्‍कार की राग है. यह राग भीतर के संगीत से सम में मिलती है, तो अपने होने की आहट भी नई लगती है. इला फर्नांडिस के ऑफिस से लौटती है, और फर्नांडिस डिब्‍बे वालों के बीच इला का पता खोजता है. फिल्‍म दर्शकों के मन में फैलकर एक अंतहीन सुखद यात्रा पर निकल पडती है.
फिल्‍म का संपादन बहते झरने की तरह है, जो दृश्‍यों की कई सुंदर धाराओं को खूबसूरती के साथ एक प्रवाह में ढाल लेता है. रितेश बत्रा निर्देशक के रूप में प्रयोग की अद्भुत कूची चलाते हैं, पात्रों के मौन चेहरों के भीतर संवादों का संचार मन को मथता है. पूरी फिल्‍म में रसोई घर की खिडकी के नेपथ्‍य से गूँजती देशपांडे आंटी की आवाज चेहरों से परे एक स्‍त्री के मन की अंतर आवाज की संवेदनशील अभिव्‍यक्‍ति है, जो मानव मन को जीवन की खुरदुरी जमीन पर एक अनाम रिश्‍ते के नन्‍हे पौधे को रोंपने के लिए सदैव तैयार करती है. खिडकी में कई-कई भावनाओं के साथ ऊपर से मिर्च और मसालों के प्रतीकों के साथ एक डलिया में उतरती चीजें जीवन के अकेले और खालीपन से उपजी अवस्‍थाओं की शक्‍ल है. देशपांडे आंटी की आवाज चेहरे से परे पर्दे पर एक स्‍त्री के मन की सांझ है, जो आवाजों की मद्धम लौ से बुझते जीवन के टुकडे अवेरती है.
इरफान अपने होने मात्र से अभिनय रचते हैं. वे अभिनेता के रूप में अनुपस्‍थित रहते हैं और पात्र व चरित्र में उपस्‍थित. वे अभिनेता नहीं रहते बल्‍कि पात्र हो जाते हैं, उनके वास्‍तविक चरित्र के लक्षण किरदार की फ्रेम में ढूँढना असंभव रहता है. खामोशी में संवाद, कनखियों की नजर, क्रियान्‍वित रहते हुए शरीर की भाषा, परिवेश का इस्तेमाल, वस्‍तुओं से जीवंत संबंध और किरदार से तादात्‍मय, यह अभिनेता अभिनय के सागर में विलीन हो जाने वाला कलाकार है.
नवाजुद्दीन अपने किरदार पर पकड के मुस्‍तैद और उस्‍ताद आदमी है. वे पात्र के साथ खेलते हैं, यह खेल इतना मनोरंजक होता है कि उनकी हर एंट्री मन में कभी खुशी के लड्डू फोडती है, तो कभी उदास चाय की तरह घुलती है. यह अभिनेता अभिनय की किमयागिरी करता है.
निम्रत कौर जीवन के विस्‍थापन और विज्ञापनों की आवाजाही के बीच पकती अभिनय की लौ है. वे फिल्‍में देर से चुनती हैं, उनका चयन अच्‍छा है.
फ्रेम दर फ्रेम यह फिल्‍म अपने समय की कहानियों की पांडुलिपि है. निर्देशन रितेश बत्रा की अनूठी प्रतिभा का कौशल है. इला के पिता की मृत्‍यु पर रचे गए दृश्‍य में उसकी मॉं द्वारा भूख लगने की बात कहना और पराठे मांगना इस फिल्‍म की सर्वाधिक संवेदनशील दृश्‍यात्‍मक कविता है. मानों बाबा नागार्जुन की कविता “आकाल और उसके बाद” पढी जा रही हो.

अर्थशास्‍त्र के छात्र रितेश बत्रा के मन पर साहित्‍य की परछाई है. न्‍यूयॉर्क और मुंबई दोनों के बीच उन्‍होंने फिल्‍मों में साहित्‍य रचना सीखा है. टोरंटो फिल्‍म फेस्‍टिवल में “लंच बॉक्‍स” की महक सभी का जायका दुरूस्‍त कर गई. कान अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह-2013 में भी “लंच बॉक्‍स” का कलात्‍मक व्‍यंजन सभी को भा गया और रॉटरडैम इंटरनेशनल फिल्‍म फेस्‍टिवल के सिनेमार्ट-2012 में इसे ऑनरेबल जूरी मेंशन दिया गया. रितेश की यह पहली फीचर फिल्‍म है. हालॉंकि इससे पहले वे तीन शॉर्ट फिल्‍में बना चुके हैं. “द मार्निंग रिचुअल”, “गरीब नवाज की टैक्‍सी” और “कैफे रेग्‍युलर कायरो”.

फिल्‍मी पर्दे पर एक संवेदनशील प्रेम कहानी रचने के लिए रितेश बत्रा को बधाइयॉं. बधाइयॉं अनुराग कश्‍यप, करण जौहर सहित अन्‍य निर्माताओं व कंपनियों को भी, जिन्‍होंने इसके निर्माण के साथ-साथ इसके प्रचार का भी बीडा उठाया. यह एक यादगार फिल्‍म है जिसे जरूर देखा जाना चाहिए. 

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मद्रास कैफे की समीक्षा.
सारंग उपाध्याय (January 9, 1984,   हरदा,मध्यमप्रदेश)
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में संपादन का अनुभव
कविताएँ, कहानी और लेख प्रकाशित 
फिल्‍मों में गहरी रूचि और विभिन्‍न वेबसाइट्स,  पोर्टल्‍स  पर फिल्‍मों पर लगातार लेखन.
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