कविता की सड़क पर ख़ुद से कुछ बात
मुझे कुछ लिखना है
क्या लिखूं समझ नहीं आ रहा
जैसे कि पिछले पन्द्रह बरस से मुझे सड़कों पर दिखना है
कैसे दिखूं समझ नहीं आ रहा
सड़क से रोज़ गुज़रता हूं पर दिखता नहीं
रोज़ कुछ न कुछ लिखता हूं पर लिखता नहीं
गड़बड़ न सड़क में है न पन्ने पर
कहां है गड़बड़
मैं वक़्त आने पर सड़क से अनुपस्थित मिलता हूं
दिल छटपटाने पर कलम उठाने की जगह एक गोली खा लेता हूं
कहते हैं ये दोनों ही काम मेरी सेहत के लिए ज़रूरी हैं
बहुत हट्टा-कट्टा ताक़तवर होने पर भी मेरी सेहत गिरती जा रही है
जब पतला-दुबला था तो सेहतमंद था
पहले सड़क पर था अब नहीं हूं
ख़ुद को भरोसा देता
कहता हूं यहां कविता भी एक सड़क है
जुलूस जो पुरानी सड़कों पर थे यहां भी मुमकिन हैं
बहसें अटूट
अंधेरे में अकेले गुज़रने के जोखिम वो साथियों का घर तक छोड़ना
वो लड़ना वो हक़ की बात
हक़ की बात गोया दिल की बात नाज़ुक बेसम्भाल
सब कुछ मुमकिन है यहां
अलग दिखना उपलब्धि नहीं है इस सड़क पर अपने लोगों में शामिल दिखो
पन्ने पर नहीं लिख सकते कुछ तो सड़क पर ही लिखो
जो लिखोगे वो शायद जल्द मिट जाएगा
पर सोचो मिटने से पहले कितनों को दिख जाएगा
यहां ख़ाली पन्नों की उम्र सड़कों की उम्र में
और सड़कों की उम्र भरे हुए पन्नों की उम्र में बदलती जाती हैं
एक लगातार जुनून में सुनता हूं मैं
मुझे सड़कों पर अपने लोगों और कविता में शब्दों की आहटें
साथ-साथ आती हैं.
आऊं और जाऊं
बारिश आए तो भीग जाऊं तर-ब-तर भीतर के ताप को सुखाते
गल नहीं जाऊं
बाढ़ आए तो हो जाऊं पार अपनों का हाथ थामे
पत्थरों के बीच चोट खाते
बह नहीं जाऊं
धूप आए तो सुखा लूं ख़ुद को हड्डियों तक मज़बूत कर लूं देह
ढह नहीं जाऊं भुरभुरा कर
वक़्त साथ मिल गाने का हो तो गाऊं हमख़याल दोस्तों की मुखर आवाज़ों में
अपनी आवाज़ मिला
गरियाने का हो तो गरियाऊं पर अपने किरदार से गिर नहीं जाऊं
रह जाऊं कुछ दिन तो धरती पर
मनुष्य की तरह
कवि की तरह लिख जाऊं कुछ दस्तावेज़
प्रतिरोध के
राजनीति और कविता के राजमार्गों पर गतिरोध के कुछ दृश्य
सम्भव कर जाऊं
ऐसी कई-कई इच्छाओं की पोटली सम्भाले बहुत चुपचाप आऊं अपने अतीत से
भविष्य की ओर गनगनाता निकल जाऊं
कोई इतना भर समझे कि एक कवि यहां तक आया था चुपचाप
एक मनुष्य बहुत तेज़ क़दम यहां से गुज़रा.
एक और दिन बरसात का
पहाड़ों की देह पर
यह एक और दिन है बरसात का
सब दिन बरसात के नहीं होते
कई दिन धूप के होते हैं
सूखे के होते हैं
कुछ दिन पतझड़ के होते हैं और हैरत कि वे भी सुन्दर होते हैं पहाड़ पर
कुछ दिन चोटियों पर हिम के होते हैं
पाले के होते हैं शिवालिक पर
कुछ दिन फूलों के रसीले फलों के होते हैं
पर यह एक और दिन है बरसात का
कई दिनों से यह एक और दिन है
एक और दिन अभी बना रहेगा कई दिनों तक
पहाड़ों से उपजाऊ मिट्टी खरोंच कर
बड़ी नदियों के मैदानी कछारों-दोआबों में पहुंचा देगा
वहां जब धान उगेगा तो उसमें पहाड़ों की गंध होगी
इस एक और दिन से बहे पत्थर और रेत विकास के पेट में समा जाएंगे
इससे उखड़े पेड़ों को लकड़ी-तस्कर चुरा ले जाएंगे
हमारे कई खेत, रास्ते और घर ढह जाएंगे इस एक और दिन में
मनुष्य कहां जाएंगे
कुछ दब जाएंगे अपने ही ढहते घरों के नीचे
कभी शरण्य ही मार देता है
कभी रास्ते आधे में ही हमेशा के लिए ख़त्म कर देते हैं यात्रा
कभी खेतों को बहने से रोकने के लिए लगाए गए पत्थर
लगानेवाले हाथों पर ही गिर पड़ते हैं
यह सब होता है बरसात के एक और दिन में
जबकि बरसात में एक और दिन यह सब होने के लिए नहीं होता
यह बरसात का नहीं विकास का एक और दिन है
पानी के नहीं पूंजी के क्रूर प्रवाह का एक और दिन है
सालों-साल सही लोगों के बनाई जाती रही ग़लत नीतियों का एक और दिन है
राजनीति में विकल्पहीनता का एक और दिन है
यह बचे हुए मनुष्यों के बीच पछतावे का एक और दिन है
जीवन जो नष्ट हो रहा है अभी
कभी जुड़ जाएगा नए सिरे से उस दिन की धुंधली उम्मीदों का एक और दिन है
अभी हमें एक और दिन में निवास करना है
इस दिन में सुधार की गुंजाइश फिलहाल नहीं है लेकिन जो जूझकर बच जाता है
वह सोचता ज़रूर है
बीत गए और आनेवाले एक और दिन के बारे में
उस एक और दिन पर ही एक कवि भरोसा रखता है
सोचने वाला कोई मनुष्य उसे रचता है.
भूस्खलन
सड़कों पर खंड-खंड पड़ा है
हृदय
मेरे पहाड़ का
वह ढह पड़ा अपने ही गांवों पर
घरों पर
पता नहीं उसे बारिश ने इतना नम कर दिया या भीतर के दु:ख ने
मलबे के भीतर दबे हुए मृतक अब उन पर गिरे हुए पत्थरों की तरह की बेआवाज़ हैं
मृतकों के पहाड़-से दु:खों पर उनके पहाड़ के दु:ख
सब कुछ के ऊपर बहती मटमैली जलधाराएं शोर करतीं रूदन से कुछ अधिक चीख़ से कुछ कम
रोने और चीख़ने के प्रसंग मलबे के बाहर बेमतलब हुए जाते हैं
मलबे के भीतर तक जाती है हो चुके को देखने आतीं कुछ कारों के हूटरों की आवाज़
दिन के उजाले में लाल-नीली बत्तियां सूरज से भी तेज़ चमकती हैं
आतताईयों के जीतने के दृश्य तो बनते है
मगर मनुष्यता के हारने का दृश्य नहीं बनता
कुछ लोग गैंती-कुदाल-फावड़े-तसले लेकर खोदते तलाशते रहते हैं
मृतकों के विक्षत शवों के अंतिम संस्कार
उन्हीं मटमैली जलधाराओं के किनारे
उसी रूदन से कुछ अधिक चीख़ से कुछ कम शोर के बीच होते हैं
बारिश में भीगी लकड़ी बहुत कोशिशों के बाद पकड़ती है आग
उसकी आंच में हाथ सेंकने वाले
दूर राजधानी में बैठते हैं अपनी कुर्सियों पर वहां से देते हैं बयान
उनके चेहरे चमकते हैं
उनकी आंखों के नीचे सूजन रोने से नहीं
ज़्यादा शराब पीने से बनती है
एक कवि अपने घर में सुरक्षित बैठा पागल हुआ जाता है भूस्खलन के बाद अपने भीतर के
भूस्खलन में लगातार दबता हुआ
वह कभी बाहर नहीं निकालेगा अपनी मृत कविताओं के शरीर
वे वहीं मलबे में दबी कंकाल बनेंगी
कभी जिन्दा शरीरों की हरकत और आवाज़ से कहीं कारगर हो सकती है
मृतकों की हड्डियों की आवाज़.