लमही के स्वप्न को पूरा करने का समर्पित उद्यम है– ‘हमारा कथा समय’ जिसे विजय राय की संकल्प दृढ़ता और सर्जनात्मक उद्यमशीलता ने संभव बनाया है. समकालीन कथा साहित्य की रचनाशील पीढ़ियों का ऐसा दुर्लभ संयोजन इधर के वर्षों में देखने को नहीं मिलता. अपनी स्मृतियों के सीमान्त तक पहुंचने की पुरजोर कोशिशों के बावज़ूद भी मुझे हिन्दी की ऐसी कोई पत्रिका याद नहीं आती जिसने हिन्दी कहानी की रचनाधर्मिता को इतनी गहराई और विस्तार के साथ मूल्यांकित किया हो ; वो भी पुराने के साथ अतिरिक्त मोह और नए के साथ अतिरिक्त उपेक्षा बरते बिना. ऐसा नहीं है कि हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं ने इस दिशा में प्रयास नहीं किए किन्तु लमही ने जितने व्यापक स्तर पर यह प्रयास किया,वह विरल है. लमही के इस प्रयास की चर्चा करते हुए हिन्दी कहानी के विकास में पहल, तद्भव, हंस, कथादेश, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, पाखी, वसुधा, बया, परिकथा आदि पत्रिकाओं के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता. इन पत्रिकाओं न केवल हिन्दी कहानी की प्रतिभाओं को पहचाना और निखारा बल्कि उन्हें खुद को साबित करने का अवसर भी दिया.
(विजय राय) |
हिन्दी की समकालीन आलोचना में वैभव सिंह और पंकज पराशर ने पिछले एक दशक में अपनी उल्लेखनीय पहचान बनायी है. वैभव सिंह के पास विचारधारा की वैचारिकी का गहरा अध्ययन-चिंतन है तो पंकज पराशर के पास कथा-आलोचना की व्यवस्थित समझ. वैभव सिंह ने ‘विचारधारा, कहानी और समकालीनता’ शीर्षक से कहानी में विचारधारा की निर्मिति की विवेचना करते हुए इस जरूरी पहलू को उभारते हैं कि कहानी के ट्रीटमेंट और व्यापक संवेदना में विचारधारा के अस्तित्व को पहचानने में धैर्य की जरूरत पड़ती है. उनकी स्पष्ट मान्यता है कि कोई भी सृजनात्मक कृति न तो पूरी तरह से विचारधारा के भीतर होती है और न ही पूरी तरह से उसके बाहर. विचारधारा रचना का केंद्र न होकर परिधि भी हो सकती है ; उसके महीन, सांकेतिक, प्रतीकात्मक रूप कहानी में सूक्ष्म रूप में बिखरे हुए हो सकते हैं. युवा आलोचक पंकज पाराशर इक्कीसवीं सदी के कथा परिदृश्य के बहाने आज की स्मृतिहीन आलोचना के संकटों की पहचान करते हुए लेखकों के पोलिटिकली करेक्ट दिखने के चलन की नोटिस लेते हैं. फार्मूलाबद्धता और प्रशस्तिपरकता में फंसी उदीयमान कथा आलोचना की निर्मम तहकीकात के रूप में इस लेख को पढ़ा जा सकता है.
साठोत्तर पीढ़ी की कहानी को उत्कर्ष पर पहुंचाने वाले जीवंत कथाकार ज्ञानरंजन की प्रतिबद्धताएं बहुत स्पस्ट रही हैं. कथनी और करनी की अभिन्नता का पर्याय है उनका जीवन. उनके लेखन को उनके जीवन से अलगाकर नहीं देखा जा सकता. ख्यातिलब्ध आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने ‘ठहरे हुए जीवन का गतिशील चित्र’ शीर्षक से ज्ञानरंजन के कथाकार पर डूबकर लिखा है. उनका अभिमत है कि सादगी ज्ञानरंजन की कहानियों की अप्रतिम विशेषता है. यह सादगी उर्वरता, वक्रता और व्यंग्यात्मकता से लबालब है जो अनंत धीरज के साथ ठहरी हुई ज़िन्दगी के भीतर दबे स्पंदनों को सुनती-उकेरती है. वह ज्ञानरंजन की चर्चित कहानी ‘अनुभव’ को विकास की जगमगाहट के पीछे छुपे घुप्प अंधरे को समय रहते पहचानने वाली कहानी के रूप में और ‘बहिर्गमन’ को मनोहर के बहिर्गमन के माध्यम से ‘व्यक्तित्व, समय और समाज के विकास की समस्त सर्जनात्मक संभावनाओं के निषेध’ के रूप में पढ़ती हैं. रोहिणी अग्रवाल ने आलोचना में जिन औजारों की खोज की है उनमें ‘रचना के पाठ में आलोचक का सर्जनात्मक हस्तक्षेप’ मुख्य है. रचना की लय में एकाकार होकर वह उसकी हर एक हरकत को सुनती-गुनती एक समानांतर पाठ रचती हुई आलोचना के भीतर भी अमूर्तन को संभव बनाती हैं. रिदम से भरी इतनी भाव-प्रवण आलोचना के उदाहरण हमारी समीक्षा प्रणाली में कम हैं.
यह सुखद संयोग है कि विधागत घेरेबंदी को तोड़ने वाले स्मृतिशेष दूधनाथ सिंह पर कथाकार अखिलेश ने जिस शिद्दत से लिखा है उससे पता चलता है कि एक बड़ा लेखक किसी व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए उसके साथ समूचे परिदृश्य को किस तरह खंगालकर रख देता है. वह दूधनाथ सिंह की कहानियों पर बात करते हुए उस पूरी कथा परंपरा का निचोड़ भी प्रस्तुत करते हैं जिसकी भूमि अमरकांत, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा जैसे कथाकारों ने अपने रचनात्मक श्रम से तैयार की थी. इस लेख में साठोत्तरी पीढ़ी की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि साथ परंपरा के प्रति उनके ऋण भाव को देखा जा सकता है. रेखांकित किया जाना चाहिए कि किसी लेखक के अवदान का मूल्यांकन करते हुए उसे उस परंपरा में बेहतर दिखाने के बजाय वह उनके समानधर्माओं को भी समान महत्व देते हैं. उनकी स्थापना है कि दूधनाथ सिंह यथार्थ की परिपाटीगत मान्यता को प्रश्नांकित ही नहीं करते संबंधों की मान्य संरचना से भी बगावत करते हैं. दूधनाथ सिंह की कहानियां आमतौर पर छोटी जगहों और ग्रामीण क्षेत्रों को शामिल करती हैं जहाँ सामंतवाद और उसके उत्पाद ज्यादा ताकतवर हैं इसीलिए दूधनाथ सिंह का नायक बार-बार अँधेरे और दुर्गन्ध का सामना करता है. सपाट चेहरे वाला आदमी , रक्तपात, माई का शोकगीत, काशी नरेश से पूछो, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे जैसी उल्लेखनीय कहानियों की शक्ति और प्रभाव को दिखाते हुए उनकी कहानियों में ‘नायक’ की स्थिति का निचोड़ प्रस्तुत करते हैं.
इस लिखे को केवल महेश दर्पण की कथा आलोचना के रूप में नहीं बल्कि हिंदी कहानी की हलचलों और विरासत को विदग्ध वर्णन की तरह पढ़ा जाना चाहिए. दूसरा बड़ा लेख सक्षम आलोचक अरविन्द कुमार ने तैयार किया है जो बड़े धैर्य के साथ स्वयं प्रकाश के कथात्मक संसार में आवाजाही करता है और उनकी रचना के तमाम कोनों को स्पर्श करता है. स्वयं प्रकाश की कहानियों की कथावस्तु का अवगाहन करते हुए उनकी चर्चित कहानियों-पार्टीशन, सूरज कब निकलेगा,आदमीजात का आदमी,रसीद का पाजामा, नीलकांत का सफ़र, जो हो रहा है, दस साल बाद, इनका जमाना, नैनसी का धूड़ा, बलि के अंतर्पाठ का संधान करते हैं.
शम्भु गुप्त ने पानू खोलिया की कहानियों की वस्तु संरचना, कथा शिल्प की दृश्यात्मकता-चित्रात्मकता, कथा-स्थितियों की स्वायत्तता पर मनोयोग से लिखा है. बहरहाल, क्या साठोत्तर के बाद की हिन्दी कहानी पर संजीव के बिना कोई सार्थक बातचीत हो सकती है ? हालाकि उनकी चर्चा मुख्यतः उपन्यासों को लेकर हुई है इसलिए उनका कहानीकार रूप थोड़ा दब गया है. अपराध, आपरेशन जोनाकी, प्रेरणास्रोत, सागर सीमान्त जैसी कहानियों के पाठ-चिंतन द्वारा इनकी परिवर्तनकामी उपादेयता को प्रस्तुत किया गया है. वह संजीव के यहाँ स्त्री चरित्रों की साधारणता के बावज़ूद निर्णायक समय में जूझने की जबदस्त क्षमता,आदिवसियों के शोषण के तमाम तरीकों,श्रमशील तबके के अभावों में जीने की अभिशप्ति जैसी चिंताओं को मुख्य रूप से देखते हैं. संजीव की तरह ही रमेश उपाध्याय की कहानियाँ भूमंडलीकरण के बाद मजदूर संगठनों की विफलता और मजदूरों के अधिकारों के संकट (देवी सिंह कौन), उत्तर भारतीय गाँवों में व्याप्त जाति प्रथा और स्त्री शोषण (प्रौढ़ पाठशाला, माटीमिली), सामाजिक परिवर्तन और व्यक्ति के अटूट हौसले (शेष इतिहास ) को जीने वाली कहानियाँ हैं. तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो सूरज पालीवाल और शम्भु गुप्त दोनों ही कहानी का वर्णनशील पाठ तैयार करते हैं पर यथार्थ के प्रति जितना आग्रह शम्भु गुप्त के यहाँ है, सूरज पालीवाल के यहाँ नहीं है.
सूरज पालीवाल कथार्थ का उत्खनन करते हुए आगे बढ़ते हैं जबकि शम्भु गुप्त विचारधारा,कथाकार के ट्रीटमेंट पर थोड़ा विस्तार से बात करते हैं. हालाकि सूरज पालीवाल के यहाँ विश्लेषण की जितनी सरलता है शम्भु गुप्त के यहाँ उतनी नहीं है लेकिन कहानी के संरचनागत पहलुओं को उभारने में शम्भु गुप्त के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता.
कहानी आलोचना में ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ के पुरस्कर्ता राकेश बिहारी हमारे समय की सबसे स्पष्ट आवाज़ हैं. उन्होंने ‘विषय के चयन से लेकर उसके निर्वाह तक वर्जनाओं का निषेध’ करने वाले दास्तानगो प्रियंवद के कथा संसार का मूल्यांकन करते हुए इस बात पर बल दिया है कि उनकी कहानियाँ ‘एक ख़ास राजनैतिक-वैचारिक काट से लगभग आक्रान्त कहानियों के वर्चस्व के बीच’प्रेम के नैरन्तर्य को बचाए रखने का जतन करती हैं.’ निश्चित तौर पर प्रियंवद उन मुट्ठी भर लेखकों में हैं जिनके भीतर विधाओं इतना गहरा अंतरानुशासन है. स्मृतिशेष राजकिशोर जी के बाद ‘अकार’ पत्रिका को प्रियंवद ने अपने श्रम से न केवल सवारा है बल्कि प्रतिगामी शक्तियों के विरुद्ध एक वैचारिक हस्तक्षेप के रूप में तैयार किया है. बहरहाल, राकेश बिहारी प्रियंवद की कहानियों के ताने बाने के रेशे-रेशे को एक रंगरेज की तरहां उकासते हैं. यह मूल्यांकन ‘प्रेम और देह की नैतिकता’ के विशेष सन्दर्भ में लिखा गया है. ‘अन्दर खुलने वाली खिड़की, पलंग, बूढ़े का उत्सव, नदी होती लड़की, अधेड़ औरत का प्रेम, दिलरस आदि कहानियों को केंद्र में रखकर वह उन कथा-संधियों में पैठते हैं जहां प्रियंवद का कथाकार अपने उठान पर है.
व्यक्ति के भीतर उपजे ‘तिकड़म-छल और उसके समानांतर सत्ता-व्यवस्था के विभिन्न रूपों’ को अपनी ‘कहानियों में हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कला-दक्षता’ को रेखांकित करते हुए अमिताभ उनके कथा मर्म तक पहुँचते हैं. दूसरी तरफ पल्लव ने असग़र वजाहत की कहानियों पर लिखते हुए उनकी लघुकथा वाली-प्रविधि और व्यंग्यमूलक शिल्प की खूबी को दिखाया है. असग़र की केक, स्वीमिंग पूल,तमाशे में डूबा देश,डेमोक्रेसिया, शाह आलम कैम्प की रूहें, मैं हिन्दू हूँ, भगदड़ में मौत जैसी बहसतलब कहानियों की अंतर्वस्तु में पैबस्त ‘साम्प्रदायिकता विरोधी रुख,भूमंडलीकरण की उद्दाम लालसाओं से उपजी विकृतियों के खिलाफ आक्रोश और सत्ता की दुरभिसंधियों का प्रश्नांकन’ जैसे मूलभूत मुद्दों को चीन्हने का उपक्रम इस लेख में मुब्तला है.
नवें दशक में शंकर की पहचान कथाकार के रूप में उभरती ही है, उसके बाद कहानी की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘परिकथा’ के योजनाकार के रूप में भी उनकी विशिष्ट पहचान बनी है. ‘मन्नत टेलर्स’ कहानी की सृजनकार प्रज्ञा के ‘कथाकार के भीतर के आलोचक’ को यहाँ सकते हैं. मरता हुआ पेड़, जगो देवता जगो, सत्संग, बत्तियां, कालिख, फ़रिश्ते, खुशबू, बालकनी जैसी कहानियों पर बातचीत करते हुए वह ‘सचेत रूप से यथार्थ को नए सिरे से रखने, लेखकीय हस्तक्षेप के द्वारा परंपरा का संवर्धन’ करने वाले कथाकार के रूप में शंकर की पहचान करती हैं. वर्गीय चेतना को वाणी देने,धार्मिक संकीर्णता के उभार को चीन्हने,पूंजी का दुश्चक्र, राजनीति और अंध राष्ट्रवाद का प्रत्याख्यान रचने; जैसी कथा-धुरियों की पहचान करती दृष्टि इस लेख के मूल में हैं. सृजनरत राजीव कुमार कथा-विन्यास में बौद्धिकता के प्रयोग,सामान्यीकरण के निषेध, व्यवस्थागत विद्रूप की तहकीकात करने,गतिशील उद्दाम दैहिक संबंधों के सन्दर्भों को सामने लाने वाले वरिष्ठ कथाकार राजू शर्मा के कथाकार की विशिष्टाओं की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं. टेक्स्ट को केंद्र में रखकर किया गया यह एक असरदार मूल्यांकन है.
अजीत प्रियदर्शी का लेख पाठ केन्द्रित आलोचना का उम्दा उदाहरण है. वह नीलकांत की चर्चित कहानी ‘मटखन्ना’ को कुम्हार जीवन की त्रासद गाथा के रूप में पढ़ते हैं. औद्योगीकरण प्रभाव से परंपरागत तौर-तरीको से जुड़े शिल्पियों-कारीगरों के त्रासद आख्यान के रूप में भी इसे पढ़ा जा सकता है. वह नीलकांत को पूर्वी उत्तरप्रदेश के ग्रामीण जीवन के सामाजिक-आर्थिक यथार्थ,जातिवादी और लैंगिक भेदभाव (बदला,दंगल,अनसुनी चीख),जमीदारी उन्मूलन,स्त्री शोषण,सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार(पुरुष प्रिया,एक रात मेहमान,हे राम) को बेनक़ाब करने और जन पक्षधरता में आवाज उठाने वाला जनपक्षी कथाकार मानते हैं. अगले लेख में पहाड़ी जीवन के असह्य किस्सों के बीच ‘सामान्य जन के वजूद का कथाकार’ मानते हुए बी मदन मोहन ने हारनोट की दारोश, मुट्ठी में गाँव जीनकाठी, कीलें, आग जैसी कहानियों पर विस्तार से बात की है. हारनोट की कहानियां व्यापक विश्लेषण की मांग करती हैं.
प्रताप दीक्षित ने खुद कहानियाँ लिखी हैं और बाथम पर जिस अंदाज में लिखा है उससे उनकी कहानियों के रचनात्मक आशय को समझने में मदद मिलती है. सुधीर सुमन ने काफ़ी भीतर तक घुस कर जितेन्द्र भाटिया की कहानियों को छुआ है मगर अच्युतानंद का लेख निराश करता है. जबकि निशांत का लिखा एक कवि के नजरिए से काशीनाथ सिंह की कहानियों का रोचक पाठ है. वह काशीनाथ की चर्चित कहानियों-चोट,लाल किले का बाज, कहानी मोहन सराय की को दुर्दांत जातिवाद पर केन्द्रित चिंता के रूप में और सुधीर घोषाल को राजनैतिक दृष्टिकोण की परिपक्व कहानी के रूप में पढ़ते हैं. महुआ चरित, सदी का सबसे बड़ा आदमी, आदमीनामा जैसी चर्चित बेहद चर्चित कहानियों पर बात की काफ़ी गुंजाइश थी पर निशांत ने कहानियों पर केन्द्रित रहने के बजाए रचनाकार के कथेतर सन्दर्भों पर केन्द्रित रहे हैं.
प्रमोद कुमार तिवारी ने पंकज बिष्ट की चर्चित काहनियों- बच्चे गवाह नहीं हो सकते, हल, टुन्ड्रा प्रदेश, मोहनजोदड़ो, खेल, आखिर क्या हुआ, मुकाम के माध्यम से बिष्ट के कथाकार की जन-पक्षधरता को रेखांकित करते हुए इन कहानियों में बच्चों की उपस्थिति के निहितार्थों की ओर संकेत करते हैं. पंकज बिष्ट ने एक कथाकार के रूप में जितनी ख्याति अर्जित की है उससे कहीं अधिक धारा के विरुद्ध साहस से आगे बढ़ने वाली ‘समयांतर’ पत्रिका के कारण की है. इसे पढ़ने-लिखने और चाहने वाले पाठक जानते हैं कि हिन्दी पट्टी में ऐसी धारदार पत्रिकाएँ कितनी हैं ?
पत्रिका से गुजरते हुए कहानीकार शशिभूषण के लेख पर सहसा ठिठक गया हूँ. कथाकार नवीन सागर पर लिखते हुए उन्होंने उनके समकालीनों को जिस तरह धिक्कारा है उसे यहाँ नत्थी कर रहा हूँ –
‘कहानीकार के रूप में आज उनका नाम तक नहीं लिया जाता जबकि अनेक कुलेखकों की कट्टा भर किताबें प्रकाशित हैं. कई अलेखकों के घर पुरस्कारों से भरे हैं.’(पृष्ठ-165) वह आगे फिर उनके समकालीनों से शिकायत दर्ज करते हुए लिखते हैं कि –
‘इस संग्रह की कहानियां सत्तर अस्सी के दशक के किसी हिन्दी कहानीकार से कमतर नहीं हैं. बल्कि कहना चाहिए कि नवीन सागर के कहानीकार की उपेक्षा का उनके समकालीन कहानीकारों को फायदा ही मिला. नवीन सागर की कहानियों की भूमि वाली उनसे कमजोर कहानियाँ चर्चा में बनी रहीं…उनके पास अविस्मरणीय कहानियों की संख्या भी उन कहानीकारों से कम नहीं है जिन्होंने सत्तर-अस्सी के दशक में कहानीकार की प्रसिद्धि हासिल की.’(पृष्ठ-165)
किसी रचनाकार को बेहतर साबित करने का यह कौन सा तरीका है कि उसके समकालीनों को इस तरह कमतर साबित किया जाए ? और रही बात ‘फायदा मिलने’ वाली तो इसका फैसला कैसे होगा ? और इससे हिन्दी आलोचना या पाठकों का क्या भला होगा ? लेख के अंतिम हिस्से में वह प्रस्ताव करते हैं कि
‘मेरे विनम्र मत में देर से ही सही यह नवीन सागर को हिन्दी कहानी की चर्चा और बहस में शामिल करने का सही वक्त है. हिन्दी के इस अत्यन्त महत्वपूर्ण कवि-कहानीकार की चली आती उपेक्षा असह्य है.’(पृष्ठ-167 )
वह जिस बात की अपेक्षा दूसरों से कर रहे हैं वह उन्हें खुद भी करना चाहिए था. मुझे लगता है कि शशिभूषण के पास एक बहुत बेहतर मौक़ा था जब वह अपनी असह्यता को ताक़त बनाकर नवीन सागर की कहानियों पर लिखते हुए एक बड़ी रेखा खींचते.
श्रुति कुमुद ने रघुनन्दन त्रिवेदी की कहानियों की पड़ताल करते हुए ऐसी आलोचना लिखी है जिसमें उनका व्यक्तित्व झलकता है; लेकिन जहां तक कहानियों के मूल्यांकन का सवाल है यह लेख आकर्षक शैली के बावजूद उद्धरणों की अधिकता के चलते चितेरे कथाकार रघुनन्दन त्रिवेदी के कथाकार को विस्तार से बयाँ नहीं कर पाता. अल्पना सिंह ने यशस्वी कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी की कहानियों पर व्यवस्थित और विस्तार से लिखा है. आकाश में दरार,पितृ ऋण,धूल और धूल,एक युद्ध धारावाहिक, मोड़ पर,यह सब अंतहीन आदि कहानियों की संगत करते हुए वह उन इलाकों में दाखिल होती हैं जहां कथाकार की चिंताओं का संघनन होता है. गौरी त्रिपाठी ने स्मृतिशेष कथाकार रवीन्द्र कालिया की कहानियों पर विचार करते हुए उनकी चर्चित कहानी ‘काला रजिस्टर’ के साथ न्याय किया है किन्तु अन्य किसी और कहानी पर या कुछ और कहानियों पर बात हो पाती तो बेहतर होता. उनके इस अभिमत से सहमत होने की गुंजाइश भी कम है कि ‘आजादी के बाद के भारत की जो सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ थीं उसका पूरा माहौल रवीन्द्र कालिया की कहानियों में दिखता है.’(पृष्ठ-36)
अगर देखें तो रवीन्द्र कालिया भारतीय महानगरीय जीवन के कथाकार हैं. आज भी भारत की लगभग पैसठ से सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है, इसलिए ये कहना कि आजादी के बाद की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का पूरा माहौल उनकी कहानियों में मिलता है, सही नहीं है. खैर, धर्मेन्द्र प्रताप सिंह की विद्यासागर नौटियाल और महेश कटारे की कहानियों पर जिस तरह की लिखत-पढ़त है उसमें कथाकार की संवेदना को छूने का जतन बराबर मौजूद है. स्मृति शुक्ल ने एक तरफ समाज की त्रासद विडंबनाओं को,राजनीति की मारक भूमिकाओं को,तनाव और द्वंद्व को व्यक्त करने वाले महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र दानी की कहानियों की तो दूसरी ओर चर्चा से बाहर रहे जरूरी कथाकार हरिचरण प्रकाश की कहानियों का दीर्घजीवी आकलन किया है.
रत्नेश विष्वक्सेन ने रवीन्द्र वर्मा और कृष्ण बिहारी, उन्मेष कुमार सिन्हा ने सूरज प्रकाश, अखिलेश्वर पाण्डेय ने जयनंदन, नेहा साव ने राजकुमार राकेश, कुमारी उर्वशी ने मिथिलेश्वर, एकता कुमारी ने हरिपाल त्यागी, पीयूष राज ने शानी, प्रदीप कुमार सिंह ने हृदयेश और नेहा चतुर्वेदी ने सुदर्शन नारंग की कहानियों का जैसा विश्लेषण किया है, उनमें बड़ी रेखाएं खींचने वाली आलोचकीय दृष्टि भले न मिले पर उसके भीतर की अर्थ परतों बाहर लाने का उत्साह जरूर सन्नद्ध है. राजकुमार राकेश ने पतलियों और मुह के बीच, एडवांस स्टडी, साउथ ब्लाक में गांधी, धारावी, आपातकाल डायरी जैसी कई बेजोड़ कहानियाँ लिखी हैं जिनमें कथा के स्थापत्य, कथाकार की प्रेक्षण क्षमता और प्रस्तुति की नव्यता पर बहुत बातचीत की गुंजाइश है. नेहा साव का लेख उनके अधूरे कथाकार को सामने लाता है, ऐसा और भी कथाकारों के साथ हुआ है पर अब बस्स.
शशिभूषण मिश्र
सहायक प्रोफेसर
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
बांदा,उ.प्र.
मो.9457815024