गुजराती भाषा की फिल्म ‘हेल्लारो’ को 66वें भारतीय फिल्म पुरस्कार समारोह में देश की सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के सम्मान से नवाजा गया है. स्त्री-मुक्ति का यह आख्यान उनकी नृत्य करने की आज़ादी से शुरू होता है. अंतत: वे गरबा करती हैं, वर्जनाओं की कड़ियाँ तोड़ती हुईं.
क्या यह मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की तरह व्यावसायिक अर्थों मे भी सफल होगी.
हेल्लारो (Hellaro) : वर्जनाओं से मुक्ति की कला
गुजराती का यह शब्द ‘हेल्लारो’ हिन्दी के हिलोरें का लगभग समानार्थी है. इनके ध्वनि-विपर्यय कर दिये जायें, तो लहरें भी बन जाता है. फिल्म ‘हेल्लारो’ में ये हिलोरें या लहरें उठती हैं उन्माद की तरह– सबकुछ को तोडकर बह जाने के लिए और अपने बहाव में जीवन के सारे कटु अवरोधों को बहा ले जाने के लिए…. इसी उन्माद को महसूसना ही फिल्म देखने की और उसे समझना ही इस लिखने-पढने की सार्थकता होगी….
फिल्म में स्त्रियों पर पुरुषों के दमन व अत्याचारों की रोंगटे खडी कर देने वाली ऐसी भयानक दास्तानें बयान कीं– जैसे वही एकमात्र मक़सद हो ‘हेल्लारो’ का. परिणाम हुआ कि नारी-विद्रोह का अहर्निश परचम लहराने वाली कल्पनाजी ने ‘हेल्लारो’ का बहिष्कार ही कर दिया…. लिहाजा अकेले फिल्म देखता रहा और ज्यों-ज्यों फिल्म आगे बढती रही, बोर्डे जैसे समीक्षकों पर कोफ़्त होती रही और अंत तक आते-आते तो आग ऐसी भडकी कि वे मिल जाते, तो उस वक़्त इस शाकाहारी ब्राह्मण के हाथों एक अदद ख़ून ही हो जाता…. फिल्म इतनी अच्छी बनी है और इतनी अच्छी लगी कि दो दिन बाद आनन्द (गुजरात) में प्रिय मित्र और देश के जाने-माने चित्रकार कनु पटेल के साथ हम दोनो ने दुबारा देखी. 16 घण्टे के प्रवास में काफी चर्चायें भी हुईं. कुछ और मर्म खुले– ख़ासकर फिल्म की भाषिकता के और परिवेश के….
असल में उत्पीडन तो फिल्म में है, पर नज़रों के सामने नहीं है- याने दृश्यों में नहीं (के बराबर) दिखाया गया है. हाँ, संकेतों में उजागर बख़ूबी किया गया है. लिहाजा दिखता नहीं, पर छाप गहरी छोडता है. और यही ‘हेल्लारो’ की फिल्मांकन-कला का सबसे सशक्त पक्ष है– फिल्म का जान-परान. विधा दृश्य है, पर बिना दिखाये क्या और और कैसे कह देना है, की वाजिब समझ व कौशल इसकी बडी ख़ासियत है. कुछ उदाहरण देखें …
एक छोटी बच्ची सीता (पाप्ती मेहता) अपने पिता के साथ गरबा खेलने चलने को कहती है, तो पिता घूरते हुए जाते-जाते पत्नी से उसे समझा देने के लिए कहता है– याने स्त्रियों के गरबा करने के प्रतिबन्ध की क्रूरता दिखायी नहीं गयी, पर बेटी से कहने के लिए पत्नी से कहके पीढी-दर-पीढी असर का किस्सा बयान कर दिया गया.
इसी तरह हंसा (एकता बछवानी) के गर्भ पर पति के लातों की ठोकरें दिखायी नहीं गयीं, पर हंसा की ज़ुबानी गाँव की स्त्रियों को बतवाया गया कि बच्ची गर्भ में लातों की चोटों से मरी है. संवाद में ही सर्वाधिक व्यंजक विधान वहाँ द्रष्टव्य है, जब फिल्म की थोडी पढी-लिखी भावी नायिका मंजरी (श्रद्धा डाँगरे) व्याह के घर आती है और उसका फौजी पति अर्जन (अर्जव त्रिवेदी) पहली देखा-देखी में ही बडे रोब से पढाई के बारे में पूछता है और सातवें दर्ज़े तक की पढाई को ‘बहु केहवाय’ (बहुत (ज्यादा) है) बताते हुए धमकी देता है– ‘पढने-लिखने से जो पंख व सींगें निकल आती हैं, उन्हें ख़ुद ही काट लेना, वरना हम काटेंगे, तो बडी पीडा होगी’.
मंजरी कहती भी है एक जगह (संवाद पर मुलाहिज़ा फरमायें) –
‘भोग भले बन गयीं, भाग नहीं बनेंगे’.
भाग का अर्थ यहाँ कर्त्ता है– करने वाले, जो पुरुष हैं, किंतु वस्तुत: रूढियों के निर्माता वे भी नहीं हैं, बल्कि कहीं न कहीं वे भी अज्ञान के चलते रूढियों के पालन में प्रकारांतर से रूढियों के शिकार बनते हैं. इसीलिए फिल्म के अंत में पुरुष पराजित या लज्जित नहीं होते– टूटती हैं रूढियां. किंतु तोडने की चर्चा के पहले यह भी कह दूँ कि इन रूढियों के बनने की प्रक्रिया भी पिरोयी गयी है फिल्म में, जिसे देखने की नज़र पैदा करनी होगी – ‘शौक़-ए-दीदार अगर है, तो नज़र पैदा कर’. उदाहरण लें इसका भी…गरबा की ही तरह औरतों के बुनाई करने पर भी बन्दिश है. यह वर्जना इस तरह बनी कि कभी इस गाँव की एक औरत अपनी बुनी वस्तुओं को चोरी-छिपे बेचने लगी, जबकि तब कला का व्यापार नहीं होता था.
स्ंवाद है – ‘आपणे अइयां पैसा ना कमवाय. कमाइये तो बायडी बज़ार मां आवी गई केहवाय’ – (अपने यहाँ औरत से पैसा नहीं कमवाते. औरत ने कमाना शुरू किया, मतलब बाज़ार घर में आया). फिर सामान बाज़ार ले जाने वाले के साथ एक दिन वह औरत भाग गयी. तब से गाँव में औरतों की बुनाई बन्द – न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी!!
सांस्कृतिक वर्जना का एक नृशंस स्वरूप खडा हो गया है. तात्पर्य यह कि रूढियों की ऐसी निर्मितियों में मूलत: जीवन-जगत की आपदाओं से बचने-बचाने के उद्यम निहित होते हैं. लेकिन कारण बनता है- शिक्षा व सोच का अभाव. यह एक ऐसा मनोविज्ञान है, जिसे उसकी तकनीकी शब्दावली में आद्य ग्रंथि (ऑर्केटाइप कॉम्प्लेक्स) कहा गया है– याने ऐसी कुधारणायें पूरे समाज की होती हैं. इसी सामूहिक मनोवृत्ति के शिकार हैं फिल्म के गाँव के पुरुष भी. वस्तुत: कर्त्ता वे भी नहीं हैं. स्त्रियों पर बन्दिश लगाने की उनकी नीयत दर-असल उनकी नियति से परिचालित है.
‘जब सरकार ही नहीं पहुँची इस गाँव तक, तो कटाकटी क्या पहुँचेगी’!! और उस वर्ष बनी फिल्मों का प्रतिनिधित्त्व करने वाली ‘शोले’ और ‘बॉबी’ के साक्ष्य बडे ही खिलन्दडे अन्दाज़ में आते हैं. गाँव की नवचा (किशोर) टोली अपने एकांत में ‘कमरे में बन्द, और चाबी खो जाये’ और ‘छमिया के नाच’ का लार टपकाती हसरत भरा जिक्र करती है. पंचायत में सरकारी-तंत्र का नग्न यथार्थ है, तो नवचों की टोली में लोकजीवन का खाँटी और निछद्दम विनोदी रूप आया है. इसी तरह गवँईं परिवेश में पुरुष-स्त्री सम्बन्धों की गोपनीयता और उसकी चर्चा पर सख़्त मनाही के चलते ऐसी बातें आड में बडे दिलचस्प ढंग से होती हैं…. इसे साकार करते हुए फिल्म में नयी शादी की रातों के बाद हम-उम्र जवानों और जनानाओं के बीच गाढे प्रतीक-संकेतों में बडी बेबाक चर्चा नियोजित है. मंजरी से तो पानी भरने के समय ‘रतिया की कथा’ सुनने की बेकली के संकेत भर आते हैं, पर उसका फौजी पति अर्जन अपने दोस्तों में बडी शान से कहता है – ‘मैं तो बन्दूक की छह की छह गोलियां एक ही बार में दाग देना चाहता था, पर दुश्मन दो में ही ढेर हो गया’. आज के तथाकथित आधुनिक (मॉडेर्न) लोगों को ऐसे ख़ाँटी लोकजीवन का पता ही नहीं. सो, अपने अनाडीपने में वे इसका लुत्फ़ नहीं ले पाकर इसमें भद्दई और मर्दवाद देख रहे हैं, जो नितांत दयनीय लगता है.
‘हेल्लारो’ अभिषेक शाह की पहली फिल्म है– पहला प्यार. उसी तरह आयी भी है– ‘लेके पहला-पहला प्यार, भरके आँखों में ख़ुमार…’. यह ख़ुमार जिस शख़्स में आ गया, उसके जीवन को बदल देता है. यहाँ आँखों में ख़ुमार याने उन्माद पैदा करती अभिषेक की नज़र– दृष्टि कह लें, जिसकी ताज़गी का कमाल ये कि वह पूरे समाज को बदलने का बायस बन सकती है. ‘हेल्लारो’ पूरे सिने-जगत में भी बदलाव की एक अनोखी बयार लेकर आयी है. विशेषज्ञों ने उसे सराहा है, मान दिया है. अब रूढि बनने की शब्दावली में कहें, तो फिल्म में आपदा है तीन सालों से पडा सूखा और समाज के अज्ञान से बनी रूढियों का प्रतिनिधित्त्व हुआ है- स्त्रियों के गरबा खेलना बन्द कर देंने में, क्योंकि ग्रामीण-जनसमाज का विश्वास है कि इसी से शायद नाराज़ है मावडी- गाँव की कुलदेवी, जिसे गरबा कर-करके मनाते, खुश करना चाहते हैं पुरुष. मुखी (शैलेश प्रजापति) के शब्दों में हाथ जोडकर, माथा नवाकर पूरा गाँव उससे बारिश लाने की गुहार करता है – ‘आ वरशे पाउस लावजे म्हारी मावडी’…(इस साल बारिश लाना देवि माँ…). ये मावणियां ही देश के समूचे जीवन की संचालिका रही हैं. यहाँ तो फिल्म की नियंता पात्र है– रूढिग्रस्त और रूढिमुक्त दोनो की कर्त्ता. बेजान, पर सबसे जानदार. बे-वजूद, पर सबसे प्रबल बा-वजूद.
लेकिन मुणजी-परिवार के इस देवोपम भाव व उच्छल कला-स्वभाव की त्रासदी का मंजर दरपेश होता है, जब अन्धविश्वास भरे अज्ञान के आवेश में स्त्री के न नाचने की प्रथा को तोडने के प्रतिकार व दण्डस्वरूप गाँव वाले जला देते हैं मुणजी भाई का घर– भस्म हो जाती हैं पत्नी-बेटी. और यह सब दृश्यों में दिखाके होता है, क्योंकि यहाँ मुक़ाबला सीधे-सीधे रूढि से है– पुरुष-स्त्री वाले गौण उत्पादन से नहीं.
मुणजी बच जाता है और घायल-लथपथ हुआ नीमबेहोशी की अवस्था में उसी रास्ते में पडा पाया जाता है, जिस रास्ते से होकर मंजरी व उसके गाँव ‘बाँढ’ की औरतें पानी लेने रोज़ आती-जाती हैं. रह-रह कर मुणजी की कराह सुनायी पड रही होती है- ‘पानी-पानी’, लेकिन ‘पर-पुरुष से बात तक न करने’ के जड नियम में बँधी स्त्रियां उस करुण पुकार को अनसुनी करते हुए चली जा रही होती हैं…कि अचानक मुडकर मंजरी अपने घडे का पानी पिला देती है. फिर उसकी ढोलक के बारे में पूछती है और ‘वगाडसो?’ (बजाओगे?) के रूप में पूछते हुए बजाने का इसरार भी कर देती है. पानी पिलाके जीवन देने की कृतज्ञता के संक्षिप्त उल्लेख के साथ ढोल पर टंकार गूँजती है….
‘वाग्यो री ढोल बाई वाग्यो री ढोल, मारा मीठा नुं रण मां वाग्यो री ढोल’ (ढोल बज गया री सखि ढोल बज गया, हमारे नमक के रेगिस्तान में ढोल बज गया).
फिर इस खुशी की निरंतरता मुणजी के आने से बनी है, की खुशी में
‘आव्यो री आव्यो री असवार, हूँ एनी डबरी ना धूळ बनी जाऊँ’ (आया री आया असवार, मैं इसके गुबार की धूल बन जाऊँ)
और अंतिम की बानगी लेख के अंत में…!! मेहुल सुरती के संगीत निर्देशन और आदित्य गढवी, ऐश्वर्या मजुमदार, मूरालाल मारवाडा भूमि त्रिवेदी के गायन में इतना आवेग व इतनी मधुरता-आह्लादकता है कि लोक की कठिन भाषिकता के बावजूद यह मुझ जैसे गुजराती-इतर प्राणी को भी इतना रमा लेती है कि बारम्बार सुनने पर भी मन भरता नहीं…. बहरहाल,
नृत्य-गीतों की बहार ही नहीं, उसके साथ स्त्री की अपनी इयत्ता के स्थापन, अपनी इच्छाओं को जी पाने की ईहा-पूर्त्ति और ऐसे जड नियमों से मुक्ति का सिलसिला…, जो फिल्म में बनता तो है ही, ‘साक़ी शराब दे दे, कह दे शराब है’ की माफिक बार-बार उन स्त्रियों से कह-कहला के पुष्ट भी किया जाता है ––
‘तमारा ढोल ना ताल पर ताणी आपियेने एटलो वखत एम थाय जे जीवता छीए. अने अइयां होय छे शुं? खारा पवन ना सुसवाटा! अने मूँगा मूँगा ना सन्नाटा (आप के ढोलक की ताल पर ताली देती (ताली दे-दे के नाचती) हैं, उतने ही पल जीती हैं. बाकी यहाँ है क्या? – सूखी हवा की सनसनाहट और चुप-गुप का सन्नाटा) और ‘गरबा ना बदला मां तो आखुं राजपाट आपी दऊं, पण मारी पासे छे नहीं!’ (गरबा के बदले में तो सारा राजपाट दे दूँ, पर मेरे पास है ही नहीं’)…आदि.
विषय की जबर्दस्त संगति के साथ भाव-भाषिकता के लालित्य की मनोहर छटा से निखरे सौम्य जोशी के संवाद मारक भी हैं और मोहक भी. लेकिन स्त्रियों की आकुल वाचिकता के बरक्स कुछ कहता नहीं मुणजी भाई…. सो, यह मौन व मुखरता का भी संयोग है. मुणजी की मूकता ‘रोना तक भूल गया, मन इतना रोया है’, से समझी जा सकती है. सो, वह बिना कुछ कहे-पूछे सब कुछ सिर्फ़ करता जाता है – कभी न कभी राज़ खुल जाने के अंजाम को जानने के बावजूद….
लेकिन खेल यह कि फिल्मकार इसे नाचने के पाप की कुधारणा के सीधे खण्डन का जरिया बना देता है. चम्पा ने ही खाँटी बात बताके स्त्रियों को विश्रांति दी– ‘तुम लोगों के नाचने के पाप से बच्चा नहीं मरा है, नज़दीकी प्रसव के समय बार-बार मना करने के बावजूद मर्द ने लातों से मारा, उससे मरा है’. इस तरह यथार्थ के दर्शन-निदर्शन से धीरे-धीरे इन मिथ्या धारणाओं की एक-एक कडी तोडते-टूटते सही चेतनता की ओर कदम-दर-कदम बढती जाती है फिल्म….
फिर अगले सोपान पर भगलो (मौलिक नायक) नामक ग्रामीण, जो घोडे पर गाँव से बाहर-बाज़ार…आदि तक आता-जाता है, इन्हें नाचते हुए देख लेता है…अब तो सब थरथरा उठते हैं कि आ गयी शामत…!! लेकिन वह किसी से कुछ नहीं कहता…. यहाँ आकर भगलो के पहले के किये सारे कामों, उसकी कही सारी बातों के मर्म खुलते हैं. इस चरित्र में फिल्मकार ने गाँव की जड धारणाओं से कुछ अलग विचार रखने की छाप पहले से लगा रखी है. वह गाँव के बीच हर मुद्दे पर अपनी वाचालता से कदाचित् सूत्रधार जैसा काम भी करता रहा है. वस्तुत: यह चरित्र-निर्मिति की बारीक कला-प्रक्रिया का बेहतरीन उदाहरण है. इसमें मौलिक का अभिनय भी अपने वेगवान प्रवाह में हिलोरें लेता, लहरों जैसे लहराता-सा (हिलैरियस) है. ख़ैर, देखकर भी किसी को न बताने के उसके सलूक से स्त्रियों का विश्वास काफी बढता है. लगभग बीस औरते हैं. एक ही गाँव के प्रचलन के मुताबिक उनके लिबास व बनाव में एकरूपता के बावजूद जिस तरह सबकी अलग पहचान भी कायम है, उसी तरह सामूहिकता के बावजूद कोई भूलती नहीं, भुलायी जा सकती नहीं. सबकी पझचान के अपने काम व अन्दाज़ हैं…. अधिकांश को अपना व्यक्तित्त्व देने की फिल्म की कोशिश विरल रूप से कामयाब हुई है.
मंजरी के रूप में श्रद्धा डांगरे को तो कथा ने ही मुख्य भूमिका अता कर दी है, जिसमें हर बार हर काम की पहल करती मंजरी के रूप में श्रद्धा का अभिनय भी हलराती व डूबती-उतराती लहरों जैसा है. सब मिलाकर योजनाबद्ध रूप से शनै:-शनै: एक ज़मीन तैयार की गयी है… फिर उसी वक़्त गरबा का पखवाडा– नवरात्र लाकर कथा-सूत्र को उत्कर्ष (क्लाइमेक्स) की तरफ ले जाने का विधान बनाना भी मौजूँ रूप में सधा है. इस अवसर के जरिये सारी औरतें मिलकर योजना बनाती हैं कि ढोल बजाने की कला के बल ढोलकिया के रूप में मुणजी को हमेशा के लिए गाँव में रखा दिया जाये. मुणजी से प्रस्ताव रखाती हैं, जिस पर चलती जाँच-पडताल के बीच भगलो पुन: अपनी प्रतुत्पन्न मति को उसी बातूनीपने से पेश करके प्रस्ताव मंजूर करा देता है….
इस तरह हमेशा का बन्दोबस्त हो जाता है- रोज़ सुबह पानी भरने के समय ताल-किनारे मृदंग पर औरतों का गरबा और बाकी समय गाँव का ढोलकिया बनकर पूजा का गरबा…. अब सारी आकुलतायें सम पर और आखिरी थाप के लिए सारे सरंजाम तैयार…तो अब गरबा का राज़ खुलना ही था. कारण बनता है– नाच करके पाप करने का वही सनातन अन्धविश्वास, जो डर बनकर सदियों से व्याप्त है.
उस दिन पानी भरने जाने के ठीक पहले ही एक औरत के मायके से उसके भाई व पिता की अकस्मात मृत्यु की खबर आती है और वह सहसा टूट जाती है. सास को बता देती है कि यह उसी के गरबा नाच के पाप का फल है. फिर सास से पूरा गाँव सुनता है…उसी वक़्त पहुँचता है मंजरी-पति फौजी भी- तीन महीने की छुट्टी पर. और आनन-फानन में सब लोग धावा बोल देते हैं- नाचते हुए रँगे हाथों सब पकडी जाती हैं. तभी बनता है बन्द घरों में सबकी अलग-अलग पिटाई का वह दृश्य…. फौजी याद भी दिलाता है- सींग़-पंख काट लेने की अपनी चेतावनी…, जिस पर अब अमल शुरू कर देता है. इस तरह रुआत के अंत में तब्दील होने की संगति भी बनती है…. उधर मुणजी का सर काटने के लिए धार तेज हुई तलवार लिये तैयार मुखी…कि तब तक पुन: संकटमोचक बनकर भगलो ‘आइ गयउ हनुमान, जिमि करुणा मँह वीर रस’ – ‘अरे मरने वाले की अंतिम इच्छा तो पूछ लो’, की टेर लगाते हुए…. और यह पाँसा सारी बाज़ी पलट देता है….
सच्चा कलाकार और क्या माँगेगा– अपनी कला के साथ संगति के कुछ पल…. सो, भगलो माँग लेता है एक बार ढोलक बजा लेने की इच्छा…. और ढोलक की थाप पर एक तरफ तो घुमडते हैं बादल और दूसरी तरफ वो होता है, जो सिर्फ़ कला और कला की जिजीविषा ही कर सकती है, जिसके लिए गीत में पहले ही कहा जा चुका है–
‘जेना हाथमां रमे छे मारा मन नी घुँघरिओ, जेना ढोलथी बजूके मारा पगनी बिजडियो (जिसके हाथ में खेलते हैं मेरे मन के घुँघरू, जिसकी ढोल से चमकती है मेरे पैरों की बिजली).
और अब फिल्म के उपराम पर ऐसा हो जाता है. थाप सुन कर पिटी-कुटी-टूटी-फूटी औरतें अपने-अपने घरों से निकलना शुरू होती हैं और साथ ही पडनी शुरू होती हैं बूँदें– चिरप्रतीक्षित साध पूरे अंचल की…. धीरे-धीरे वर्षा-वाद्य-संगीत-नृत्य का उमड पडता है पारावार, जिसमें बह जाती हैं सारी रूढियां-वर्जनायें…. न किसी को कुछ कहने की ज़रूरत पडती है, न सुनने की किसी को फुर्सत रहती है….
अंतिम गीत आता है–
‘ठेक्या माँ थोरियो ठेकी में वाड’…(नागफनी को लाँघ गयी, नागफनी की बाड को लाँघ गयी).
इसमें गज़ब की संकल्पना-उद्भावना है कि पुरुष-स्त्री समूहों के नृत्य-दृश्य बारी-बारी से आते रहते हैं. और मुक्ति की प्रतीक पंक्तियां गीत-संगीतमय टेर लगाती हैं-
‘ढोज्या में ढोज्या ते दीधेला घूँट, हवे माँझी झाँझरीने बोलवानी छूट…’(छलका दिये मैंने तुम्हारे दिये (ज़हर के) घूँट, अब है मेरे नूपुरों को बोलने की छूट)
के प्रतीक में मुक्त होती हैं स्त्रियां- रूढियों को मानने से…और पुरुष – इन्हें लगाने से. याने पूरा समाज मुक्त होता है…, जो वस्तुत: कला का अंतरिम अभिप्रेत होता है.
इस तरह ये हिलोरे (हेल्लारो) मुक्ति की हैं- रूढियों-वर्जनाओं से मुक्ति की, पर ख़ास यह कि कला की जानिब से, कला के द्वारा और अफाट कलामयता के साथ…. लेकिन यह संतुलन भी कि प्रयोजन पर कला न हावी हो, न प्रयोजन तले दबे…याने अभिषेक के पहले-पहले प्यार का वादा फिफ्टी-फिफ्टी…!!
‘मातरम्’, 26 – गोकुल नगर, कंचनपुर, डी.एल.डब्ल्यू.
वाराणसी -221004