वंशी माहेश्वरी को विश्व कविता के अनुवाद की पत्रिका ‘तनाव’ के कारण हिंदी समाज जानता है, मध्य प्रदेश के कस्बे पिपरिया से वह इसका १९७२ से संपादन और प्रकाशन करते रहें हैं. रज़ा फाउंडेशन ने इसे संरक्षित और प्रसारित करने के लिहाज़ से बड़ा कार्य किया है, अब तक के लगभग सभी अनुवाद तीन खंडों में संभावना प्रकाशन से सुरुचि के साथ फाउंडेशन के सहयोग से प्रकाशित हो गये हैं. इनमें लगभग ३३ देशों की २८ भाषाओं के १०३ कवियों की हज़ारों कविताओं के हिंदी अनुवाद शामिल हैं
वंशी माहेश्वरी कविताएँ लिखते हैं. उनका संपादक-व्यक्तित्व इतना प्रसिद्ध है कि उनके कवि पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया. उनके पांच कविता संग्रह प्रकाशित हैं.
कोरोना पर केंद्रित इनकी कुछ कविताएँ यहाँ दी जा रहीं हैं. १२ वर्षीया तिथि माहेश्वरीकी दो चित्र-कृतियाँ भी साथ में हैं.
वंशी माहेश्वरी की कविताएँ
कोरोना
एक
चिता की आग में
आग का आर्तनाद.
दो
तमाम
तारीख़ें
आग में झुलस गईं.
जूते
रौंदते रहे
फूलों के गुच्छ.
तीन
हाहाकार
अफ़रा- तफ़री.
तफ़री में
उत्सवी.
दिग्विजय अश्व की अयाल
नाल में फँसी.
चार
आत्म-निर्भर
मृत्यु,
अपनी ही अन्त्येष्टि में
शामिल.
पाँच
जीते-जी दुर्दशा
जाते-जाते दुर्दशा
एक ही दशा
दुर्दशा.
छह
इंसानों ने
इंसानों से पूछा
कहाँ गये
इंसान.
सात
सान्त्वना
करती रही
विलाप.
मनुष्यों के अस्थिपंजर में
बची रहीं
अस्थियाँ.
आठ
निस्पन्दित शव
अंतिम साँसें थामें
देखते हैं आकाश
आकाश का नीलापन
और स्याह हो जाता है
नौ
धरती की छाती
खोदते-खोदते
दफ्न हो गई क़ब्रें
धधकती चिंताओं के कुहासों में
उड़ते धुएँ की चिंगारियों में
खो गई
असंख्य आँखें.
नाउम्मीदी में
शब्दों की फड़फड़ाहट
वीरान है.
दस
माँ की टूटती साँसों से
चिपका है
नवजात
शून्य का आयतन
कुछ और बड़ा हो जाता है.
पेंटिंग: तिथि माहेश्वरी |
ग्यारह
हँसी के फ़व्वारों में
आँसुओं की फुहारें
खो गई
डूब गई नदियाँ
रेत में.
बारह
दूर-दूर तक
गिरस्तियों के खण्डहर
छितरायें हैं
ये मोहनजोदड़ो-हड़प्पा नहीं है
जीते-जागते
मनुष्यों का उत्खनन है.
तेरह
ठसाठस अँधेरा
मुख़ातिब होता है
चहुँओर
झुटपुटा का
छोटा-सा टुकड़ा
हवा में प्रज्वलित होता
चौदह
मणिकर्णिका में
समा गई हैं
सारी की सारी
मणिकर्णिकाएँ
सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र
कूच कर गये .
पन्द्रह
रात इतनी लम्बी हो चली
इन दिनों
लालिमा तो फूटती है
सुबह नहीं होती.
सोलह
तड़फड़ाती मृत्यु
पथरायी आँखों में गिरती है
स्मृति की धुँधली-सी
अमूर्त छवि
मर जाती है
वैसे ही जैसे
ढाँढस बँधाते लोग उठकर चले जाते हैं.
सत्रह
पुकारती मृत्यु
अपनों से अपनों को अलग करती
लौट-लौटकर फिर आ जाती है
रौशनी की टिमटिमाती आँखों में
अँधेरे के सोये दृश्य
जाग जाते हैं.
अठारह
क्रंदन
रुदन
दिशाओं का स्थायी-भाव हो चला
जैसे टूट कर गिरता है आसमान
गिरता है दु:खों का पहाड़
फ़क़त आँकड़ों की उपत्कायें
गिरती रहती हैं.
उन्नीस
साँसों में
साँसों का लेखा-जोखा
इतना
पलक झपकते
धप्प से गिर गया
जीवनाकाश.
बीस
गिनती ही भूल गई
गिनती
शवों को गिनते-गिनते,
संवेदना
शब्दों की तुक-तान
क्रीड़ा रचती
हाकिमों के अट्टहास में
खो गई.
कोरोना में वसंत
पेंटिंग: तिथि माहेश्वरी |
एक
वसंत
उजड़े पेड़ों की टहनियों से
उतरता है
धरती पर
गहरी शान्ति का कलरव
बिछा है
फ़ूल
मुरझाते खिल रहे हैं
प्रलापों में खो गया
पत्तियों का हरापन
तितलियों के पंखों की उड़ान
थम गई है
उदास पक्षियों का आर्तनाद
ख़ामोशी में डूब गया
गिलहरियों की आँखों में
पेड़ के सपने टूट गये हैं.
वसंत !
पक्षियों के मण्डप में
वीरान है.
दो
वसंत
आकाश की सीढ़ियों से
धरती पर उतरता है
चतुर्दिक
चीख़ों से भरा सन्नाटा है
निस्तब्ध
घरों की छतों पर मण्डराते बादलों की
कालिमा भरी है
दूरियों को नापती सड़कें
सुनसान में विचरती हैं
भयभीत हवाओं में
बेसुरा संगीत भरा है
दुर्भाग्य की घनीभूत महिमा में
नैराश्य के व्याकुल विन्यास में
अमंगलकारी समय में
वसंत
मृतकों की जागती अन्तरात्माओं में खो गया है.
तीन
वसंत
उद्यान की ख़ाली बैंच पर बैठा
उन व्यतीत दृश्यों की स्मृतियों में खोया
जहाँ कभी
बच्चों की निर्मल हरियाली बिछी थी
हरे-भरे
वृक्षों की आत्मा के खोखल में
पक्षियों का बसेरा था.
कितने ही
घुमन्तुओं के विचरते समूहों की मुस्कानों में
शीतल शान्त हवाओं में
मिट्टी की सौंध घुली थी
उन्हीं नील हवाओं की डबडबाई आँखों में
अज्ञात कातरता
तैरती है.
वसंत
जल भरी आँखों में
प्रतिबिम्बित है.
चार
पृथ्वी में
ख़ौफ़ समाया है
मौत की बारिश में नहाता
वसंत
भयभीत है
अपनों से बिछोह के पथराये जीवन में
घर के कारावास में
आकाश का ज़ख़्मी टुकड़ा
धूप की उजड़ी खिड़की में भर जाता है
उम्र के साथ चलती
उम्र की परछाई का अंत
देख नहीं पाती आँखें,
अस्पताल
निष्ठुर ख़बरों का प्रस्क्रिप्शन लिख देता है
इम्तिहान लेती साँसें टूट जाती है.
पाषाण पुतलियों के कोटर में
जागती आँखों में
वसंत !
पत्थर हो जाता है.
पाँच
ये भीड़ नहीं
मनुष्यों का सैलाब है
इन्हीं हाथों ने बनायें हैं
हमारे ऐशगाह
छूट चुके घर इनके
घरों से कातर पुकार पुकारती इन्हें
सिर पर
जीवन की गठरी सँभाले
पैरों में छालों की आकाश गंगा लिये
रास्तों से रास्ते पूछते
रास्तों में रास्ता बनाते
निहत्थे जत्थे बनाये
मर चुकी मनुष्यता से बेख़बर हुए
निकल पड़े हैं .
वसंत
निरीह आँखों में
करुणा के कायर मर्म लिये
छटपटाता है.
छह
मनुष्य नहीं
संख्याएँ मर जाती हैं,
संख्याओं के विराट ढेर में
हथेलियों की लकीरें
ढूँढतीं हैं
करुणा
करुणानिधान
स्वागत में बिछे पड़े हैं.
वसंत !
निर्जन मनुष्यों की दीवारें फाँदकर
पलाश के फूलों में
छिप जाता है.
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वंशी माहेश्वरी
जन्म: १३ अप्रैल १9४८, सांगाखेड़ा खुर्द, मध्य प्रदेश.
१९७२ से विश्व कविता पर एकाग्र ‘तनाव\’ पत्रिका का प्रकाशन एवं सम्पादन, पिपरिया (मध्यप्रदेश ) से.
कृतियाँ: पाठशाला, कविता पुस्तिका (१९७८) आवाज़ इतनी पहचानी की लगी अपनी (१९८८) पहाड़ों के जलते शरीर (१९९७) इतना सब होने बाद (१९९९) थोड़ी-सी कोशिश (२००४).
रज़ा फ़ाउन्डेशन की पुस्तक माला में तनाव से विश्व कविता के चयन से तीन खण्ड २०२० में प्रकाशित.
दरवाज़े में कोई चाबी नहीं, प्यास से मरती एक नदी, सूखी नदी पर ख़ाली नाव
कुछ कवितायें भारतीय भाषाओं में अनूदित.
मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् १९८१-८२ द्वारा \’तनाव\’ पत्रिका सम्मानित.
ई-मेल: vanshimaheshwari75@gmail.com
मोबाइल: ९८२२४४४३००