• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » वसु गंधर्व : किसी रात की लिखित उदासी में

वसु गंधर्व : किसी रात की लिखित उदासी में

(वसु गंधर्व विनोद कुमार शुक्ल के साथ ) वसु गंधर्व (8 फरवरी २००१) की काव्य पुस्तिका \’किसी रात की लिखित उदासी में\’ का प्रकाशन रचना समय ने किया है. इसकी भूमिका महेश वर्मा ने लिखी है. वसु को बहुत बहुत बधाई.भूमिका और कुछ कविताएँ आपके लिये.  एक नई कथा              […]

by arun dev
November 29, 2019
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
(वसु गंधर्व विनोद कुमार शुक्ल के साथ )

वसु गंधर्व (8 फरवरी २००१) की काव्य पुस्तिका \’किसी रात की लिखित उदासी में\’ का प्रकाशन रचना समय ने किया है. इसकी भूमिका महेश वर्मा ने लिखी है. वसु को बहुत बहुत बधाई.
भूमिका और कुछ कविताएँ आपके लिये. 

एक नई कथा                              
महेश वर्मा





व्याकरण के द्वार उसके पीछे बन्द हो गए
अब उसे खोजो शब्दकोशों के जंगलों और कुंजों में
चेस्लाव मीलोष
तमाम अच्छी चीजों के साथ साथ कवि हमें असमंजस भी देते हैं.  वे हमें अनुमानों, कल्पनाओं और स्नायविक उत्तेजनाओं के स्वर्ग में छोड़कर दूर से कौतुक की तरह देखा करते हैं. वे बहुत से विवरणों और रेखाओं को मिटा देते हैं और सूत्रों को छिपा देते हैं. जैसे इस संग्रह में एक कविता है \’सांझ\’. यहां एक शांत शाम का दृश्य है जहाँ उदासी का होना कोई अचरज की बात नहीं-\’ यह उदासियों की बारीक सतहें हर चीज पर.. लेकिन आगामी कविताओं में हम देखते हैं कि उदासियों की यह बारीक सतहें बहुत जगहों, विवरणों और अवसरों पर मौजूद हैं. कविताएं इस उदासी का कोई क्लू देने को व्यग्र नहीं है. वे एक धूसर से लैंडस्केप की तरह याद किए जाने या भुला दिये जाने के लिए भी प्रस्तुत हैं. दरअसल इन कविताओं में किसी भी स्तर पर कोई दिखावटी व्यग्रता नहीं है. ये कविताएं संसार को देखने और महसूस करने के कई वैकल्पिक दृष्टिकोण एक विनम्र और शांत स्वर में प्रस्तुत करती हैं और अपने आप को पीछे हटा लेती हैं. यह जितना दृश्य को रचती हैं उतना ही अमूर्तन का आकाश भी गढ़ती हैं. इनमें बहुत से बदलते हुए दृश्य हैं ये दृश्य अपने को छुपाते हुए से लगते हैं. कुछ कविताओं के बाद पाठक इन धूसर स्मृति चित्रों का अभ्यस्त हो जाता है और अनजाने कब इन कविताओं और उनकी व्यंजनाओं से बने प्रतिसंसार पर विश्वास करने लगता है उसे पता नहीं चलता. इन्हें ठीक ठीक प्रतिसंसार भी नहीं कहा जा सकता. एक ढंग से वे हमारे साझे संसार की ऐसी विमाएं हैं जिनके बारे में पोलिश कवि रुज़ेविच ने कहा है- कभी कभी \’जीवन\’ उसे छिपाता है/ जो जीवन से ज़्यादा बड़ा है.

(दो)

उठाओ अंधकार में लिपटी
अपनी परछाई को
               
इस संकलन की कविताओं को पढ़ते हुए धीरे-धीरे आप एक ऐसी जगह में पहुंच जाते हैं जहां शाम गहराती हुई रात में तब्दील हो रही है या यह रात ही है जहां नीम रोशनी में बहुत कुछ सूक्ष्म स्तर पर घटित हो रहा है और कविता उसे अपनी मन्द्र लिपि में कहीं दर्ज कर रही है. यह रात का शांत धुंधलका  इन कविताओं का पसंदीदा रंग है. \’आवाज़\’ कविता कहती है-
\’निशब्दता के किसी कोने में
रात अपने पंख फड़फड़ाती है
इसी से टूटती है चुप्पी.

एक कविता का शीर्षक ही है
\’अंधेरा\’ जहां धीरे-धीरे पैठता है अंधकार
बिखरती जाती है ध्वनि.\’
लिखा अनलिखा\’ शीर्षक कविता में कागजों पर उतरी किसी रात की लिखित उदासी है तो \’पुकार\’ कविता की शुरुआत में-
रात के समंदर में
रात की मछलियां
रात के नमक के बीच तैरती हैं.
                
इन कविताओं में रात, अंधेरा, ख़त्म होने-होने वाली सांझ.. यह सब अपने हिस्से की उदासियां साथ लेकर और प्रायः बहुत धीमे और नगण्य ढंग से घटित हो रही चीजों के समापन की तरह आते हैं.
               
इसी बीच एक कविता मिलती है-\’निकलो रात\’. यह रात को अंधकार के झूठे आवरण से, प्राचीन वृत्तांत से और अंततः आकाश से भी बाहर निकलने को पुकारती है. उसे एक नई और दूसरी रात चाहिए जहां मौत की ठंडी सरगोशियां और उनींदी कहानियां कुछ भी ना हों. इसे पढ़ते हुए लगता है कि क्या यह कविता संसार की हर जड़ हो चुकी अवधारणा को उसकी जड़ता और प्राचीनता से बाहर निकलकर समकाल का सामना करने को नहीं कह रही?

(तीन)

मेरे पास आए थे कुछ नीले ख़त
जिनके उधड़े जिस्म पर
मरहम लगा रही थी नीली हवा
(नीली धूप)
रात इस नीले दर्पण में
अपने अक्स देखते है
गुमराह जानवर और इंसान
(नीला वृक्ष)
अगर रंगों की ओर से इन कविताओं को देखें तो डूबती पीली साँझ और रात के अंधेरे रंगों के साथ नीला रंग इन कविताओं के वर्णक्रम का अहम हिस्सा हैं.

(चार) 

इन कविताओं में (अतीत की) बहुत सारी स्मृतियाँ हैं. यह स्मृतियाँ इतिहास, पुरातत्व, व्यतीत, बीता हुआ, गुज़रा हुआ जैसे अनेक पुकारू नामों से सामने आती हैं. इन स्मृति चिन्हों से कविता का रिश्ता द्वंद्वात्मक है और अपने ढंग से संवाद करता हुआ भी है. कई बार ऐसा लगता है कि कविता इस बात से आजिज़ आ चुकी कि \’पहले ऐसा हुआ करता था\’. कहीं वह वसंत के पागल आख्यानों से बाहर आने को कहती है, कभी अंधेरे में घर लौटते लोगों को पलटने पर कोई भीगती स्मृति और अनुपस्थिति दिखा जाती है. पुरातन स्पर्श किसी बन्द दराज़ में अपने पंख फड़फड़ाता है तो कहीं स्मृतियों का चिट्ठा भी निरर्थक जान पड़ता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि कविता इस पुरातन का कोई स्पर्श, कोई स्मरण नहीं चाहती. इस पुरातन के ही अगोचर हिस्सों से नए के उन्मेष की बात कविता कहती है.
           
जैसे \’वृत्तान्त\’ कविता पूर्वजों के पगचिन्हों पर चलने को स्वीकार करती हुई इतिहास से अपने रिश्ते को स्वीकार करती है. इस लिहाज से \’नीलांबरी\’ नाम की कविता, इतिहास और मिथक की शिलाओं पर अपना नाम लिखने के उद्घोष पर ख़त्म होती है. या फिर \’उठाओ\’ कविता कहती है-
         
उठाओ समकालीन स्पर्श से
समुद्र की वर्षों पुरानी चुप्पी को
और इसी दृष्टि से \’लौट कर\’ कविता का उल्लेख ज़रूरी जान पड़ता है-
          
उन संकीर्ण दरारों में
जहाँ भाषा का एक कतरा भी नहीं घुस पाता
वहीं से फूट पड़ेगा
कभी अधूरा छोड़ दिया गया वह गीत
और इसी कविता के अंत की पंक्तियाँ हैं-
           
हटाकर पुरातत्व का जंजाल
तब वापस आएगी
पहली कविता.        
           
इस दृष्टि से ये एक साफ़ इतिहासबोध की कविताएँ हैं जहाँ क्षरणशील और जड़ पुरातन से बाहर निकलने और फिर इतिहास की उम्मीद भरी जगहों से नूतन के निर्माण का स्वप्न जगमगा रहा है.

(पांच) 

ये कविताएँ कवि की (बहुत कम) उम्र और अनुभव के कारण गढ़ी गई कच्ची कविताएँ नहीं हैं जिन्हें किसी छूट और सहानुभूतिपूर्ण पाठ की ज़रूरत है. कवि की आयु के कारण बस यह होता है कि शुरू में एक अचरज और स्तब्धता साथ चलती है, फिर वह भी \’एक बहुत बड़े सन्नाटे का हिस्सा हो जाती हैं\’. ये एक सधी हुई भाषा में लिखी गई सधी हुई कविताएँ हैं जो इन दिनों दुर्लभ मितकथन को सहज धर्म की तरह बरतती हैं. ये सादगी, चुप्पी और उम्मीद की कविताएँ हैं जिनका हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए.गोया कि-

              

                   

इसी आकाश की विक्षिप्तता में
चमकेगी एक नई कथा
________________________________


महेश वर्मा हिंदी के सुपरिचित कवि और चित्रकार हैं. 
maheshverma1@gmail.com
 



ll वसु की कुछ कविताएँ ll 


असम्बद्ध 

हम दो ही हैं
इस अरण्य में
वृक्षों के प्राचीन चेहरों को
घूरते अचकचा कर
हम दो ही पाए जाते हैं
गुफाचित्रों के
अनेक अबूझे असंबद्ध
प्रेम या युद्ध के प्रसंगों में
हमारे डगमगाने से ही
धमकी थी कभी
हमारे बीच की पृथ्वी
एकसार सभी बर्बरताओं में
हमारा ही चेहरा है
हमारी ही किवदंतियों में फैली हैं
दूर तक सुनाई देती
घोड़ों की टापें
हर मृत्यु
हमारी ही मृत्यु है

पुराना आदमी

अकेली दीवारों जैसे
हाथों में जमती काई
बंद आंखों पर जमी होती गर्द
टूट कर इधर-उधर बिखरे होते पलस्तर
और बरसात में
भीतर टप टप गिरता रहता सीलन का पानी
हर रात
उसके अंदर
कोई भी जा सकता था
सुन सकता था
अपनी ही आवाज़ गूंज कर आती
बंद कमरों से
भीतर से खोखली थीं दीवारें
निरर्थक था स्मृतियों का चिट्ठा
अब बस देखना था
कि वह कब ढहेगा.

देह गंध 

हमारे गीत
जैसे पुरानी कमीज़ें
जर्जर होकर घिस चुकी बाहें
हर तरफ फैले
पहनने वाली की लापरवाही के निशान
उसका बेढंगापन
आस्तीन से आती पसीने की बू
और देहगंध
उधड़ी सिलाई से झांकता
आत्मा का म्लान मुख
ढूंढो उसे
किसी लैंपपोस्ट की रोशनी में नीचे
पतंगों का संगीत सुनते
भीग रही होगी
कोई फटी कमीज.
नीला है यह वृक्ष
नीला है यह वृक्ष
जैसे इसे सींचा गया हो ज़हर से
नीली हो जाती है इसके आवरण में उतरती शाम
नीला है इसके पत्तों का संगीत
रात इस नीले दर्पण में
अपने अक्स को देखते हैं
गुमराह जानवर और इंसान
और सूर्य उगने की संभावित दिशा में
समाधिस्थ होकर बैठ जाते हैं
इसकी छाँह में बैठो कुछ देर
गिरने दो इसके ठंडे नीले चुप को
रिस कर अपने माथे पर
यह सबसे उदास वृक्ष है.
_________________________________

ShareTweetSend
Previous Post

कबीर: साखी आंखी ज्ञान की : सदानंद शाही

Next Post

हेल्लारो (હેલ્લારો- Hellaro) : वर्जनाओं से मुक्ति : सत्यदेव त्रिपाठी

Related Posts

मार्खेज़: मौंतिएल की विधवा: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय
अनुवाद

मार्खेज़: मौंतिएल की विधवा: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

रूपम मिश्र की कविताएँ
कविता

रूपम मिश्र की कविताएँ

कुछ युवा नाट्य निर्देशक: के. मंजरी श्रीवास्तव
नाटक

कुछ युवा नाट्य निर्देशक: के. मंजरी श्रीवास्तव

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक