अनुवाद : जय कौशल
विली और उसकी बहन सरोजनी मिशन स्कूल जाने लगे थे. एक दिन एक कनाडाई अध्यापक ने मुस्कराकर बड़े अपनेपन से पूछा- ‘‘विली, तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं?’’ वह कई लड़कों से यही सवाल पूछ चुके थे. वे अपने–अपने पिता के निम्नस्तरीय कामों को बेहिचक बता देते थे. विली को इस बेहयाई पर बड़ी हैरानी होती. लेकिन जब यही सवाल उससे पूछा गया तो वह समझ नहीं पाया कि क्या बताए ? वह शर्म से गड़ गया था. इधर अध्यापक मुस्कुराते हुए उत्तर का इंतज़ार कर रहे थे. अन्त में विली ने खीजते हुए कहा- “आप सबको मालूम है कि मेरे पिताजी क्या करते हैं ?’’
सारी क्लास में हँसी फूट गई. लड़के उसकी खीज पर हँस रहे थे ना कि उत्तर पर. उस दिन से विली को अपने पिताजी से और नफ़रत हो गई.
विली की माँ मिशन स्कूल में ही पढ़ी थी और चाहती थी कि उसके बच्चे भी वहीं पढ़ें. यहाँ के ज़्यादातर बच्चे पिछड़े परिवारों से थे जिन्हें अपनी जाति के कारण स्थानीय विद्यालयों में दाखि़ला मिलता था. उन्हें लगता था कि अगर ऐसे बच्चों को प्रवेश दिया गया तो जीना मुहाल हो जाएगा. अपने शुरुआती दिनों में वह स्वयं (विली की माँ) ऐसी ही जाति स्कूल में गई थी. महाराजा की उसके प्रति सहानुभूति के बावजूद वह खस्ताहाल और धूल से अटा स्कूल महल से काफ़ी दूर आंचलिक इलाके में स्थित था. खस्ताहाल होते हुए भी स्कूल के अध्यापक और चपरासी विली की माँ का यहाँ आना पसन्द नहीं करते थे. यहाँ तक कि चपरासी भी खासे बेरहम थे. उनका कहना था कि अगर स्कूल में पिछड़ों का आना जारी रहा तो वे काम छोड़कर अनशन पर चले जाएंगे. उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपनी ज़िद छोड़ी, तब कहीं जाकर लड़की को दाखिला मिला.
लेकिन पहले ही दिन से हालात बिगड़ गए. मध्यान्तर के दौरान वह दूसरे छात्रों के साथ स्कूल के अहाते में पानी पीने गई थी, जहाँ एक बेरुख़ा और मरभुक्खा–सा चपरासी पाइप से पानी निकाल रहा था. उसके हाथ में बाँस की लम्बी सी घड़ेली थी, छात्र के नज़दीक आने से पहले ही वह उससे पीतल या फिर अल्यूमीनियम का गिलास भर देता. विली की माँ को यह सोचकर बड़ी हैरानी हो रही थी कि कौन–सा गिलास उठाए लेकिन नजदीक जाने पर पता चला कि वह किसी गिलास को नहीं छू सकती. उसे देखकर वह बेरुखा और भरमुक्खा चपरासी क्रोध में ऐसे चीख़ने लगा मानो उसे किसी ने लावारिस कुत्ता समझकर पीटा हो. जब कुछ बच्चों ने विरोध किया तो वह इधर–उधर कुछ खोजने लगा और वहीं कुछ दूर ज़मीन पर पड़ा एक जंग लगा और गंदा डिब्बा उठा लिया- जिसे किसी टिन ऑपनर से खोला हुआ था. किनारों से बेहद खुरदुरा यह मक्खन का नीला डिब्बा आस्ट्रेलिया से आया था. उसने उसी में पानी डाल दिया. तब विली की माँ को पता चला कि वहाँ अल्यूमीनियम मुसलमानों, ईसाइयों और इसी वर्ग से जुड़े लोगों के लिए था, पीतल सवर्णों के लिए और वह जंग लगा बदरंग–सा डिब्बा उसकी ख़ातिर था. उसने उस पर थूक दिया.
चपरासी को इतना गुस्सा आया कि उसकी ओर बाँस की घड़ेली इस तरह तान ली मानो उससे मार बैठेगा. डर के मारे वह स्कूल के बाहर भागी, पीछे से गालियाँ बकने की आवाज़ आ रही थी. कई हफ़्तों के बाद उसने स्कूल की ओर रुख़ किया. उसके परिवार और समुदाय वालों को इसकी कोई ख़बर नहीं थी. अगर वे इसे जानते तो वह लगातार स्कूल जाती रहती. उन्हें तो दीन–दुनिया की कोई जानकारी नहीं थी. लोगों के धर्म, उनकी जाति, मुसलमान, ईसाई वगैरह के बारे में वे कुछ नहीं जानते थे. वे तो सदियों से बाहरी दुनिया से कटे और उपेक्षाएँ झेलते हुए रहते आए थे.
विली जब भी यह कहानी सुनता तो उसका खून खौल उठता. वह अपनी माँ को बहुत प्यार करता था. कच्ची उम्र से ही वह अपने ख़र्च के पैसों से घर के लिए छोटी.मोटी चीज़ें ले आया करता था. जैसे- लकड़ी का फ्रेमजड़ा कोई आईना, रंगीन कश्मीरी पेपर मैशी, क्रेप के काग़ज़ी फूल वगैरह.
धीरे-धीरे उम्र बढ़ने के साथ उसे मिशन स्कूल और राज्य में उसकी स्थिति का अंदाज़ होता गया. स्कूली छात्रों के बारे में भी उसकी जानकारी बढ़ गई थी. वह जान गया कि मिशन स्कूल जाना एक तरह का ब्रांड होना था. वह अपनी माँ से लगातार खुद को दूर होता देखने लगा था. स्कूल में वह अपने और सहपाठियों से काफी अच्छा था. उसे जितनी सफलता मिली, माँ से उसकी दूरी बढ़ती चली गई.
वह अब कनाडा जाने की इच्छा सँजोने लगा था- उसके अध्यापक वहीं के थे. उसने सोचा कि वहाँ वह उनका धर्मग्रहण कर वैसा ही हो जाएगा और सारी दुनिया में अध्यापन करता घूमेगा.
एक दिन जब उसे छुट्टियों पर एक निबन्ध लिखने को कहा गया. उसने कल्पना कर ली कि वह कनाडा का है और अपने माता-पिता को ‘मॉम’ (डव्ड) और ‘पॉप’ (च्व्च्) कहकर पुकारता है. एक दिन ‘मॉम’ और ‘पॉप’ अपने बच्चों को समुद्र तट पर ले जाने की सोचते हैं. वे सुबह जल्दी उठकर ऊपर स्थित बच्चों के कमरे में जाकर उन्हें जगाते हैं. बच्चे अपने छुट्टियों वाले कपड़े पहनते हैं और कार से समुद्र किनारे पहुँच जाते हैं. समुद्र तट छुट्टी मनानेवालों से भरा है. पूरा परिवार अपने साथ लाई गई मिठाइयाँ खाता है और बड़ी मस्ती से झूमते हुए शाम को घर लौटता है. विदेशी जीवन का यह पूरा विवरण, जैसे कि ऊपरी मंज़िल, बच्चों का कमरा आदि उसने एक अमेरिकी कॉमिक बुक से लिए थे, जो मिशन स्कूल में बँटा करती थी. इनके साथ कुछ स्थानीय ब्यौरे भी मिला दिए थे जैसे- छुट्टी के कपड़े और मिठाइयाँ. इनमें से कई ‘मॉम’ और ‘पॉप’ ने वहाँ के अधनंगे भिखारियों के बीच मिठाइयाँ आदि बाँटकर बड़ा संतोष जताया था. इस निबंध को सर्वाधिक अंक मिले; दस में से दस और विली को इसे क्लास में पढ़ने को कहा गया. क्लास के बच्चों में ज़्यादातर बेहद ग़रीब परिवारों से थे, उनकी समझ में ही नहीं आया कि क्या कुछ लिखा गया है. ना ही उनमें ऐसी किसी खोज की तैयारी थी. वे बाहरी दुनिया से अनजान थे. सबने बड़े ध्यान से विली की कहानी सुनी. उसने वह नोटबुक लाकर माँ को दिखाई. वह गर्व से फूल उठी. ‘‘इसे अपने पिताजी को दिखाओ, साहित्य उनका विषय रहा है.’’ वह बोली.
पिताजी को सीधे नोटबुक नहीं देते हुए विली ने उसे बरामदे की मेज़ पर रख दिया, जहाँ बैठकर वे आश्रम का भीतरी अहाता निहारते हुए सुबह की कॉफी पिया करते थे.
उन्होंने वह लेख पढ़ा और शर्म से डूब गए. सोचने लगे- “सब कुछ झूठा है, बकवास, इसने यह सब कहाँ से सीखा?’’ फिर सोचा- “क्या यह शेली, वर्ड्सवर्थ जैसों से भी बुरा लिखा गया है ? उनका सारा कुछ भी तो बकवास है.’’उन्होंने एक बार फिर उसे पढ़ा. और अपनी भूली हुई स्मृतियों और विचारों पर दुःखी होते हुए सोचा- ‘‘प्यारे विली, मैंने तुम्हारे लिए किया ही क्या है ?’’
कॉफी ख़त्म हो गई थी. मंदिर के मुख्य अहाते पर सुबह-सवेरे आनेवाले श्रद्धालुओं के आगमन का स्वर सुनाई पड़ा. अब वह सोच रहे थे, मैंने उसके लिए कुछ नहीं किया. वह मेरे जैसा नहीं है. वह तो अपनी माँ का बेटा है. मॉम और पॉप वाला सारा व्यवहार उसी का नतीजा है. वह इससे बच नहीं सकती. उसका परिवेश ही ऐसा है. उस पर मिशन-स्कूल का भूत सवार है. हज़ार जन्मों के बाद शायद वह ये बात समझ पाए. लेकिन वह भली औरतों की तरह इन्तज़ार भी नहीं कर सकती. आजकल के अन्य पिछड़ों की तरह वह भी शानो–शौकत से जीना चाहती है.
उन्होंने विली के आगे कभी उस निबन्ध की चर्चा नहीं की, ना विली ने पूछा पर इसके बाद से पिताजी के प्रति विली की नफ़रत और बढ़ गई.
इसके कुछेक हफ़्तों बाद एक दिन पिताजी घर के पास वाले आश्रम में जब अपने यजमानों के साथ बैठे थे, विली ने भीतरी बरामदे में वही नोटबुक फिर से मेज़ पर रख दी. पिताजी ने दोपहर में खाने के समय जब उसे देखा तो ताव में आ गए. पहली ही नज़र में उन्हें लगा कि इसमें भी मॉम और पॉप से जुड़ा वैसा ही कोई अप्रिय लेख होगा. उन्होंने सोचा, यह लड़का अपनी माँ का ही सिखाया हुआ है और पिछड़ों जैसी चालाकी से मुझे परेशान कर रहा है. कोई उपाय न सूझता देख उन्होंने स्वयं से पूछा- ‘‘ऐसे में महात्मा जी क्या करते ? क्या वे अपनी नागरिक अवज्ञा के साथ ऐसे धूर्त से मिलते. लेकिन उससे कुछ होता–वोता नहीं.’’ इसलिए उन्होंने कुछ नहीं किया. कॉपी छुई तक नहीं. लंच में स्कूल से आने पर वह विली को वैसी ही पड़ी मिली.
विली ने अंग्रेज़ी में सोचा- ‘‘ही इज़ नॉट ओनली अ फ्रॉड, बट अ कॉवर्ड,’’ यह वाक्य पूरी तरह जँचा नहीं, तर्क के स्तर पर भी टूटा जान पड़ा. उसने दुबारा विचार किया- ‘नॉट ओनली इज़ ही अ फ्रॉड, बट ही इज ऑलसो अ कावर्ड.’’ इस शुरुआती क्रम-विपर्यय से वह परेशान हो उठा था, यहाँ वाक्य में ‘बट’ और ‘ऑलसो’ अप्रसांगिक लग रहे थे. कनाडाई मिशन स्कूल आते समय उसे अपनी कम्पोजिशन-क्लास का व्याकरण संबंधी कुछ गड़बड़झाला भी सताने लगा. उसके मन में उस वाक्य के कई रूप बन-बिगड़ रहे थे लेकिन स्कूल में आकर वह पिता और उस घटना सबको भूल चुका था.
लेकिन विली के पिताजी उसे नहीं भुला पाए. लड़के की चुप्पी और बुरी संगत उन्हें परेशान कर रही थी. दोपहर बाद तक उन्हें पक्का यक़ीन हो गया था कि उस नोटबुक में ज़रूर कुछ-न-कुछ आपत्तिजनक है. वे अपने एक यजमान से बातचीत बीच में छोड़ कर बरामदे के दूसरी ओर चले गये और उसे खोलकर देखने लगे. इसमें ‘राजा कोफ़ेचुआ और भिखारन’ शीर्षक से एक रचना थी.
बहुत दिनों पहले एक बार भीषण अकाल पड़ा था. पूरी प्रजा दुःखी हो उठी. तब अपनी जान जोखि़म में डाल एक भिखारन राजा कोफे़चुआ के दरबार में पहुँची और उनसे सहायता की माँग की. वह प्रवेश की अनुमति लेकर राजा से मिलने आई थी. उसका सिर ढँका था और नीची नजरें किए हुए बात कर रही थी. उसने अपनी बात इतनी ख़ूबसूरती और शालीनता से रखी थी कि राजा ने प्रभावित होकर उससे चेहरे पर पड़ा आँचल हटाने का अनुरोध कर डाला. उसका अद्वितीय सौन्दर्य देखकर राजा उन्मत्त हो उठा और उसी घड़ी दरबार में फ़रमान जारी कर दिया कि यह भिखारन उसकी रानी बनेगी. राजा वचन का पक्का था, लेकिन उसकी इस रानी की ख़ुशियाँ देर तक नहीं ठहर पाईं. चूँकि हर कोई उसका पूर्व परिचय जानता था, इसलिए कोई उसे असली रानी का दर्जा नहीं देता था. वह अपने परिवार से भी कट गई थी. कई बार वे महल के द्वार तक आकर उसे आवाज़ देते लेकिन उसे उन तक जाने की इजाज़त नहीं थी. दरबारी भी अब खुलेआम उसका अपमान करने लगे थे. राजा को इसका पता नहीं था, न रानी ने शर्म से उन्हें कुछ बताया. कुछ दिनों बाद उन्हें पुत्र पैदा हुआ. अब तो लोग रानी–भिखारन सम्बन्ध को सरेआम कोसने लगे. वह बड़ा होता बालक भी अपनी माँ के चलते अपमान झेल रहा था.
उसने इसका बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी. बड़ा होने पर इसे पूरा भी कर दिखाया. उसने राजा की हत्या कर डाली थी. इससे दरबारी और राजभवन के द्वार पर खड़े भिखारियों सहित सब लोग प्रसन्न हुए. कहानी वहीं ख़त्म हो गई थी. मिशनरी अध्यापक ने इस नोटबुक के हाशिए पर जगह–जगह लाल स्याही से निशान लगा रखे थे और अन्त में दस्तख़त भी किया था.
विली के पिताजी ने सोचा, ‘हमने भी एक दैत्य पैदा कर लिया है, जो सचमुच अपनी माँ और उसके रिश्तेदारों से घृणा करता है. उसकी माँ इससे अनजान है. लेकिन उसकी माँ का चाचा पिछड़ों का ‘फ़ायरब्राण्ड’ है. जिसे मुझे कभी नहीं भुलाना चाहिए. यह लड़का मेरी बची हुई ज़िन्दगी में ज़हर घोल देगा. मुझे इसे यहाँ से दूर भेज देना चाहिए.’
इसके कुछ समय बाद एक दिन उन्होंने सहज स्वर में विली से कहा (हालाँकि वे उससे इतनी तटस्थता से बात नहीं कर पाते थे)- ‘‘हम तुम्हारी अगली पढ़ाई के बारे में सोच रहे हैं विली, तुम्हें मुझ जैसा नहीं बनना है.’’
‘‘ऐसी क्या बात है ?’’ विली ने कहा ‘‘आप बड़ी ख़ुशी से कुछ भी कर सकते हैं.’’
उसके पिताजी तैश में आए बिना बोले- ‘‘मैं महात्मा जी का अनुयायी था. मैंने अपनी अंग्रेज़ी की सारी किताबें युनिवर्सिटी के अहाते में जला डाली थीं.
‘‘तो इससे क्या फ़र्क़ पड़ गया ?’’ विली की माँ बोली.
‘‘अब तुम कुछ भी कहो. मैंने अंग्रेज़ी की किताबें जलाईं और डिग्री तक नहीं ली. अब मेरा कहना यह है कि विली को डिग्री लेनी ही चाहिए.’’
‘‘मैं कनाडा जाना चाहता हूँ.’’ विली ने कहा.
‘‘मेरे लिए जीवन क्या है- बलिदान ही तो है. मैंने भविष्य के लिए कुछ नहीं जोड़ा. मैं तुम्हें बनारस, बम्बई, कलकत्ता यहाँ तक कि दिल्ली भेज सकता हूँ लेकिन कनाडा नहीं भेज सकता.
‘‘ठीक है, फिर मुझे पादरी लोग भेजेंगे.’’
‘यह ओछी बात तुम्हारी माँ ने ही तुम्हारे दिमाग़ में भरी होगी. पादरी भला तुम्हें कनाडा क्यों भेजेंगे.
‘‘वे मुझे एक मिशनरी बनाएँगे.’’
‘‘तुम बेवकूफ़ हो, वे तुम्हें पालतू बन्दर बनाकर रख छोडेंगे और फिर वापस भेज देंगे ताकि तुम अपनी माँ के परिवार वालों और दूसरे पिछड़ों के बीच काम करते रहो.’’
‘‘यह आपको ही लगता होगा,’’ कहकर विली ने बातचीत ख़त्म कर दी. कुछ दिन बाद वही नोटबुक बरामदे की उसी मेज़ पर फिर पड़ी दिखी. विली के पिता को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी. उन्होंने उस अंतिम रचना के लाल निशान वाले पृष्ठ खोलकर देख लिए थे.
यह एक कहानी थी. वह नोटबुक की सबसे लम्बी रचना थी, जो बड़ी तन्मयता के साथ लिखी गई थी. बड़ी तेजी से और तनाव में छोटे–बड़े वाक्य लिखे जाने के कारण सारे पन्ने मुचड़ गए थे. अध्यापक ने कहीं-कहीं इसे इतना पसन्द किया था कि कई सारे पन्नों के हाशिए पर लाल स्याही से लम्बी लाइनें खींच दी थी. विली की दूसरी कहानियों, दृष्टान्त कथाओं की तरह यह भी बिना किसी निश्चित देश–काल के कही गई थी.
यह कहानी अकाल से जुड़ी थी, जब ब्राह्मण तक भी इससे भूखों मरने लगे थे. एक दिन भूख से तड़पता एक ब्राह्मण अपना सारा समाज छोड़कर चल पड़ा और उसने किसी पहाड़ी बीहड़ में अकेले ससम्मान मरने का निश्चय किया. पस्त होकर गिरने से पहले उसने चारों ओर निगाहें दौड़ाई. एक चट्टान की गहरी और अंधी गुफा देख वह उसी में घुस गया. उसने यथासंभव स्वयं को शुद्ध किया फिर मरने के लिए अपना सिर चट्टान से टिका दिया. पत्थर से टिके उसके सिर और गर्दन बुरी तरह अकड़ गए थे. दुःखी होकर वह उठा और चट्टान को छूकर देखने लगा. उसे लगा कि वह कोई चट्टान नहीं, एक सख़्त चीकट और बोसीदा बोरा था. ध्यान से देखने पर पता चला कि वह बोरा किसी पुराने ख़ज़ाने से भरा था.
बोरे को छूते ही उसे एक आत्मा की आवाज़ सुनाई दी- ‘‘यह ख़ज़ाना सदियों से तुम्हारी राह देख रहा था. अब यह तुम्हारा है और हमेशा के लिए तुम्हारा ही रहेगा है. लेकिन तुम्हें मेरी एक शर्त माननी पड़ेगी… बोलो मंज़ूर है! ’’
‘‘बताइये, मुझे क्या करना होगा ?’’ ब्राह्मण ने काँपते हुए पूछा.
‘‘तुम्हें हर साल एक बच्चे की बलि चढ़ानी होगी. तुम जब तक ऐसा करते रहोगे, ख़ज़ाना तुम्हारे पास बना रहेगा. इसमें चूक हो जाने पर, यह वापस यहीं चला आएगा. तुमसे पहले सदियों से लोग यहाँ आते रहे हैं, लेकिन कोई भी पूरी तरह सफल नहीं हो पाया.’’
ब्राह्मण बड़े असमंजस में था कि क्या कहे! तभी आत्मा चीख़कर बोली- ‘‘ऐ मरने वाले, क्या तुम्हें यह शर्त मंज़ूर है ?’’
‘‘लेकिन मैं बच्चा लाऊँगा कहाँ से!’’
‘‘मैं इसमें तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता, यह तुम्हारी चिंता है. अगर तुम यह ठान लो तो हल भी निकाल आएगा. बोलो, मंज़ूर है तुम्हें ?’’
‘‘हाँ मंजूर है,’’ ब्राह्मण ने हामी भरी.
‘‘तो सो जाओ, भाग्यवान.’’ जब तुम जगोगे तो खुद को अपने पुराने मंदिर में पाओगे और सारी दुनिया तुम्हारे क़दमों तले होगी लेकिन अपनी प्रतिज्ञा मत भूल जाना.’’ ब्राह्मण जब उठा तो उसने स्वयं को तृप्त और भला–चंगा पाया. अब वह इतना धनवान हो चुका था जिसकी कल्पना सपने में भी नहीं की जा सकती. मारे ख़ुशी के उसकी चीख़ निकलने ही वाली थी कि अचानक उसे शर्त याद हो आई. वह चिन्तित हो उठा. अब वह हर घड़ी इसी परेशानी में डूबा रहता.
एक दिन उसने मंदिर के सामने से आदिवासी लोगों का एक दल गुज़रता देखा. वे सब काले–कलूटे, बौने और लगभग नंगे थे. भूख ने उनकी बस्तियाँ छीन ली थी और पुराने नियमों से छिटका दिया था. उन्हें मंदिर के पास भी नहीं फटकने दिया जाता था क्योंकि उनकी छाया, उनकी दृष्टि यहाँ तक कि उनकी आवाज़ तक अपवित्र थी. यह ब्राह्मण जिसे आत्मज्ञान हो चुका था, उनके पड़ाव को खोजकर रात के समय शाल से अपना मुँह ढाँप कर वहाँ पहुँचा और मुखिया को जगाकर दान और धर्म की रक्षा की बातें करने लगा. साथ ही, एक अधमरे बालक को ख़रीदने का प्रस्ताव रखा. उसने उसके साथ एक सौदा किया, जिसके अनुसार मुखिया एक बच्चे को बेहोश करके उस गुफा तक ले आया करेगा. अगर वह उसे ईमानदारीपूर्वक ले आया तो एक सप्ताह के बाद उसे वहीं पुराने ख़ज़ाने का हिस्सा प्राप्त होगा. जिससे उसके और सारे आदिवासी समूह के दुःख दूर हो जाएंगे.
वादे के अनुसार बलि चढ़ा दी गई, धन भी पहुँचा दिया गया. यह क्रम ब्राह्मण और वह आदिवासी मुखिया मिलकर सालों निभाते रहे.
एक दिन मुखिया खा–पीकर, उम्दा कपड़े पहनकर और बालों में तेल चुपड़कर मंदिर में पहुँच गया. उसे यहाँ देख ब्राह्मण भड़क उठा.
‘‘कौन हो तुम ?’’ उसने पूछा.
‘‘हम एक–दूसरे को अच्छी तरह पहचानते हैं. तब से लेकर आज तक की सारी बातें मुझे याद हैं. मैंने तो तुम्हें पहली रात ही पहचान लिया और सब समझ गया था. अब तुम्हें मुझे ख़ज़ाने का आधा हिस्सा देना होगा.’’
‘‘चुप रहो!’’ ब्राह्मण ने डाँट दिया ‘‘मैं जानता हूँ कि तुम आदिवासी लोग पिछले पंद्रह सालों से गुफा में बच्चों की बलि चढ़ाते रहे हो, यह तुम्हारा आदिवासी रिवाज़ है. अब तुम जब रईस और शहरी हो गए हो तो शर्म आती है, डर लगता है. अब तुम यहाँ आकर मेरी ग़लती बता रहे हो, मेरी समझ पर शक कर रहे हो. तुम्हारे आदिवासी रिवाज़ जानकर मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया हालाँकि मुझे इस बात का पहले से डर था. अगर यह सब मैंने किया है तो किसी को भेजकर बच्चों की हड्डियाँ दिखाओ. दिखने में तो तुम बड़े चिकने–चुपड़े लग रहे हो मगर तुम्हारी छाया भी इस पवित्र जगह को दूषित बना रही है.
मुखिया दास की तरह झुका और माफ़ी माँगते हुए वापस मुड़ गया. ‘‘और अपनी कौल मत भूल जाना!’’ ब्राह्मण ने आवाज़ देकर कहा.
कुछ दिन बाद ब्राह्मण की वार्षिक बलि का समय आया. इसके लिए उसने हड्डियोंवाली गुफ़ा में रात्रि का समय चुन रखा था. वह मुखिया के पास गया और तरह-तरह के क़िस्सों से उसे बहकाने लगा, ‘‘आप मुझसे कहकर आते अथवा लोग वहाँ मेरा इन्तज़ार कर रहे हैं’’ आदि-आदि. लेकिन मुखिया को इस झूठ से कोई हैरानी नहीं हुई, बल्कि उसने ब्राह्मण के साथ उचित व्यवहार ही किया. रात में ब्राह्मण को गुफा में दो बेहोश बच्चे मिले. अपने कुशल हाथों से उसने गुफा की आत्मा के लिए दोनों की बलि चढ़ा दी. लेकिन जब अंतिम-संस्कार की घड़ी आई तो चिता में जलती लकड़ियों की रोशनी में उसने देखा कि वे दोनों उसके अपने ही बच्चे थे.
कहानी यहीं ख़त्म हो गई थी. विली के पिता ने एक साँस में ही इसे पढ़ लिया था. वापस पन्ने पलटते समय उन्हें पता चला कि पढ़ने के दौरान उन्हें याद ही नहीं रहा कि इस कहानी का शीर्षक ‘ए लाइफ ऑफ़ सेक्रिफ़ाइस’ (बलिदान भरा जीवन) था.
‘‘इस लड़के का दिमाग़ ख़राब हो गया है.’’ उन्होंने सोचा, ‘‘यह मुझसे और अपनी माँ से तो नफ़रत करता ही है अब अपने खि़लाफ़ भी जा रहा है. यह सब मिशनरियों का किया-धरा है, इसके अलावा बाकी बचे समय में अमेरिकी कॉमिक पत्रिकाएँ, मॉम, पॉप, ‘डिक ट्रेसी’ तथा ‘पैशन वीक’ में ‘क्राइस्ट ऑन द क्रॉस’ (सलीब पर ईसा मसीह) जैसी फ़िल्मों, बोगार्ट, काग्ने और जॉर्ज रॉफ़्ट के चलते यह सब हो रहा है. मैं इससे बैर नहीं पाल सकता! महात्मा जी वाले तरीक़े ही इससे निपटना होगा. मैं तब तक मौनव्रत धारण करूँगा जहाँ तक बात उससे जुड़ी रहेगी.’’
दो-तीन हफ़्ते बाद विली की माँ ने कहा ‘‘मैं चाहती हूँ तुम अपना मौनव्रत तोड़ दो. विली इससे जरा भी खुश नहीं.’’
‘‘यह लड़का हाथ से निकल चुका है, ऐसा कुछ नहीं बचा कि जो मैं उसके लिए करूँ ?’’
‘‘आपको इसकी मदद करनी होगी, यह और कोई नहीं कर सकता. दो दिन पहले मैंने इसे अंधेरे में बैठे पाया, बत्ती जलाने पर देखा कि वह रो रहा था. मैंने पूछा- ‘‘क्या बात है तो उसने बताया ‘‘मुझे सारी दुनिया दुखिया जान पड़ती है. यही हमारे भाग्य में बदा है. समझ में नहीं आता मैं क्या करूँ.’’ मुझे एकाएक कुछ नहीं सूझा. यह सब उसे तुमसे ही मिला है. मैंने उसे काफ़ी समझाया-बुझाया. मैंने उससे कह दिया कि सब ठीक हो जाएगा और वह कनाडा जा सकेगा. लेकिन अब वह कनाडा नहीं जाना चाहता, ना ही मिशनरी बनना चाहता है, यहाँ तक कि अब वह स्कूल भी नहीं जाना चाहता.’’
‘‘लगता है स्कूल में कुछ हुआ है?’’
मैंने यह भी पूछा था. वह किसी काम से प्रिंसिपल के दफ़्तर गया था. वहाँ एक मिशनरी की पत्रिका रखी थी. जिसके आवरण पर एक रंगीन चित्र बना था. उसमें चश्मा और घड़ी पहने एक पादरी बुद्ध की मूर्ति पर एक पैर रखे खड़ा था. उसने कुल्हाड़ी से उसके टुकड़े किए हुए थे और किसी लकड़हारे की तरह कुल्हाड़ी पर झुककर मुस्कुरा रहा था. स्कूली पढ़ाई के दौरान मैंने ऐसी चीज़ें देखी थीं लेकिन मुझे इससे कभी परेशानी नहीं हुई. पर विली उन्हें देख बेहद शर्म महसूस कर रहा है. उसे लग रहा है पादरी तब से उसे मूर्ख बनाते रहे थे. अब उसे मिशनरी बनने की सोचते हुए भी शर्म आती है. वह यहाँ से छूटकर कनाडा भी जाना चाहता था, लेकिन चित्र देखने से पहले उसे मिशनरी के कामों का अंदाजा भी नहीं था.’
‘‘अगर वह मिशन स्कूल नहीं जाना चाहता तो न जाए.’
‘‘तुम्हारी ही तरह!’’
‘लेकिन मिशन स्कूल तो तुम्हारा विचार था.’
ख़ैर, विली ने स्कूल जाना बंद कर दिया और घर में आलसियों की तरह रहने लगा.
एक दिन पिताजी ने उसे औंधे मुँह सोते पाया, पास में ‘द विकर ऑफ वेकफ़ील्ड’ का स्कूल-संस्करण रखा था. उसके पैर क्रॉस की शक्ल में थे और गंदे लग रहे थे. उसे देखकर उन्हें गुस्सा तो आया ही, चिंता भी हुई क्योंकि वह बड़ा दयनीय लग रहा. ‘मैं अक्सर सोचता था कि तुम मेरे हो और चिंतित भी होता क्योंकि मैंने तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया. पर अब पता चल गया कि तुम मेरे नहीं हो. मेरे मन में जो कुछ है, तुम्हारे लिए नहीं, तुम कोई और हो जिसे मैं नहीं जानता. तुमने एक अनजानी यात्रा शुरू कर दी है, मैं इसीलिए परेशान हूँ.’
कुछ दिन बाद उन्होंने विली से कहा- ‘‘वैसे मैं भाग्यशाली तो नहीं हूँ, फिर भी तुम चाहो तो इंग्लैण्ड के अपने कुछ परिचितों को चिट्ठी लिख देता हूँ, शायद वे तुम्हारी मदद कर दें.’’
विली बहुत खुश हुआ पर ज़ाहिर नहीं होने दिया.
वही प्रसिद्ध लेखक, जिसके नाम पर विली का नाम था, अब काफ़ी बुज़ुर्ग हो चले थे. दक्षिणी फ्रांस से कई दिनों में उनका जवाब आया. पत्र के रूप में एक छोटा-सा क़ागज़ था जो साफ-सुथरा टाइप किया हुआ था-
‘प्रिय चंद्रन,
तुम्हारा पत्र पाकर खुशी हुई. मेरे पास उस देश की बहुत सारी यादें हैं, अपने भारतीय मित्रों से भी मैं उसके बारे में बात करता रहता हूँ. आपका …… .’
इस पत्र में विली पर कुछ नहीं था. हो सकता था, जो कहा गया, उसे बुज़ुर्ग लेखक समझ नहीं पाये अथवा उनके सचिवों द्वारा ऐसा हो गया था, वे उसे ठीक तरह नहीं समझे. जो भी हो, इससे विली के पिताजी बड़े लज्जित हुए. उन्होंने विली को नहीं बताया पर फ्रेंच स्टाम्प लगे पत्र से वह समझ गया था.
युद्धकालीन दौर के उस सुप्रसिद्ध ‘ब्रॉडकास्टर’ का तो कोई ज़वाब ही नहीं आया, जो स्वाधीनता, विभाजन एवं गाँधी की हत्या से जुड़े मसलों की रिपोर्ट तैयार करने भारत आया था और संयोगवश उससे दोस्ती हो गई थी. कई लोगों ने किसी भी मदद से साफ़ मना कर दिया था. कुछ ने उस लेखक की तरह दोस्ती भरे लम्बे-लम्बे खत तो भेजे पर मदद की बात बिल्कुल नहीं की थी.
विली के पिता ने शांत रहने की बड़ी कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो सके. वे पत्नी से कहने लगे (हालाँकि उनका सिद्धांत था कि अपनी समस्याएँ अपने तक ही रखते थे), ‘‘जब वे यहाँ आए तो मैंने उनके लिए बहुत कुछ किया था. उन्हें आश्रम में ठहराया, यहाँ तक कि सबको उनसे परिचित कराया.’’
‘उन्होंने भी तुम्हारे लिए काफ़ी कुछ किया था. उन्होंने तुम्हें जीविका दी, इससे तुम इन्कार नहीं कर सकते.’’ पत्नी ने कहा.
‘‘अब मैं कभी इसके सामने ऐसे मामले नहीं खोलूँगा. मैंने अपना नियम तोड़कर ग़लत किया. वह एकदम बेशरम ‘बैकवर्ड’ जो ठहरी. मेरा नमक खाकर मेरा ही अपमान करने वाली.’’
वह इस बात को लेकर परेशान थे कि विली को क्या बताएँ. हालाँकि वह उसकी कमजोरी समझ गए थे, इसलिए उन्हें खुद के अपमान की चिन्ता नहीं थी. पर वह उसका दुःख नहीं बढ़ाना चाहते थे. उन्हें याद था, जब वह औंधे मुँह बेबस पड़ा लेटा था, उसके बगल में स्कूल के दिनों वाली ‘द विकर ऑफ वेकफ़ील्ड’ की बेजान-सी कॉपी पड़ी थी और उसके क्रॉस की अवस्था में बने दोनों पैर अपनी माँ की तरह गंदे थे.
लेकिन उनका सारा अपमान और निराशा ख़त्म हो गई जब लंदन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स से नीले लिफ़ाफ़े में बंद एक पत्र आया, जो दीखने में बड़ा रोबीला एवं राजकीय था और उस पर इसी से मेल खाती बड़ी खूबसूरत लिखावट भी थी. यह पत्र उस बेहद चर्चित व्यक्ति का था जिसने स्वाधीनता के तुरन्त बाद आश्रम की यात्रा की थी. प्रसिद्ध होने के कारण वह विली के पिताजी को याद रह गया था. विली के पिता को वह पत्र देखकर ख़ुशी हुई थी. उसमें विली के लिए एक छात्रवृत्ति और लंदन में आगे की पढ़ाई का आमंत्रण था जिसके बारे में छोटे-मोटे लोग सपने बुना करते हैं.
इस तरह बीस वर्ष की उम्र में विली लंदन आ गया, जो कभी मिशन-स्कूल का विद्यार्थी था, तब न तो उसकी पढ़ाई ही पूरी हुई थी और न उसे आगे का कुछ पता था. अब तक ज्ञान के नाम पर उसके पास बहुत कुछ नहीं था. बाहरी दुनिया के बारे में थोड़ा-बहुत उसने मिशन स्कूल में तीस या चालीस के दशक की हॉलीवुड की फिल्में देखकर जाना था.
वह (लंदन) पानी के जहाज़ में गया था. यात्रा के दौरान उसे हर चीज़ डरावनी लग रही थी. जैसे अपने देश का ऐसा आकार, बंदरगाह की भीड़, वहाँ खड़े सैकड़ों जहाज़ और उस पर सवार आत्मविश्वास से लबरेज़ मुसाफ़िर. ये सब देख उसकी बोलती बंद हो गई थी. इस पर शुरू में उसे थोड़ी चिन्ता ज़रूर हुई लेकिन बाद में लगा कि यही ख़ामोशी बिना किसी भेद-भाव के उसे ताक़त प्रदान कर रही थी. रास्ते में वह हर चीज़ अनचाहे देखता, सुनता आया था. बाद में इन सबको उसने ऐसे याद किया जैसे बीमार होने के बाद कोई शुरुआती घटनाओं पर सोचता है. जहाज़ के पहले बड़े और घुमावदार मोड़ तक की सारी चीज़ें उसे पूरी तरह याद थीं.
वह सोचता था लंदन बेहद ख़ूबसूरत शहर होगा. ख़ूबसूरती से उसका मतलब परियों के लोक जैसी शानो-शौकत और चकाचौंध से था. लेकिन लंदन पहुँचकर वहाँ की सड़कों की खस्ता हालत देख उसे बेहद निराशा हुई. पता नहीं वह क्या देखना चाहता था. भूमिगत स्टेशनों से उठाकर लाई गई निर्देशिकाओं और फ़ोल्डरों ने भी उसकी बहुत सहायता नहीं की. वैसे उनमें स्थानीय पर्यटन स्थलों और प्रसिद्ध स्थानों के बारे में ठीक से बताया गया था, जिनके द्वारा विली को लंदन के बारे में थोड़ा और जानने को मिला.
शहर में वह केवल दो स्थानों ‘बंकिघम पैलेस’ और ‘स्पीकर कॉर्नर’ के बारे में जानता था. बंकिघम पैलेस से उसे गहरी निराशा हुई. उसका विचार था कि अपने यहाँ के महलों की तरह महाराजा का महल विशाल होगा, लेकिन अब मन-ही-मन राजा और रानी उसे ढोंगी जान पड़े. उसे यह शहर बनावटी लग रहा था. ‘स्पीकर कॉर्नर’ देखकर वह निराश ही नहीं, शर्म से पानी हो गया. मिशन स्कूल में सामान्य-ज्ञान की कक्षा में उसने उसके बारे में सुना था और सत्र समाप्ति पर होनेवाली परीक्षाओं में कई बार इस पर काफ़ी लिखा भी था.
अपनी माँ के ‘फ़ायरब्राण्ड’ चाचा की तरह उसे भी यहाँ बेहद विद्रोही और शोर शराबे वाली भीड़ का अनुमान था. उसे बड़ी-बड़ी बसों और कारों में हर समय उदासीन भाव लिए एक-दूसरे से बात करते हुए सफ़र करते लोगों को देख विश्वास नहीं होता था. उनमें कुछ बेहद धार्मिक विचारों के लगते. अपने घरेलू जीवन को याद करते हुए विली सोच रहा था कि इन लोगों के घरवाले दिन में कितने सुखी रहते होंगे जब ये घर से बाहर होते हैं.
ये निराश करने वाले दृश्य देखना छोड़कर वह बेसवाटर रोड से लगे रास्तों पर चलने लगा. बिना किसी ओर देखे वह घर की हालत और अपने बारे में सोचते हुए बढ़ा जा रहा था तभी किसी को देखकर ठिठका. रास्ते में लकड़ी के सहारे एक आदमी टहल रहा था. विली ने देखा, अरे, ये तो कहीं वो तो… अनुमान से परे इतने बड़े आदमी को अचानक सामने देखकर विली की इन्द्रियाँ जाग उठीं. वह उन्हें ऐसे निहार रहा था जैसे आश्रम में आने वाले लोग पिताजी पर नज़र टिकाए रहते थे. उन्हें पाकर वह अपने में कुलीनता.बोध का अनुभव कर रहा था.
वह लम्बा छरहरा-सा एक आदमी था और बेहद स्याह रंग का डबल ब्रेस्ट सूट पहने था, जिसमें उनका छरहरापन और भी निखर रहा था. अपने घुँघराले बालों को उन्होंने पीछे की ओर सहेज रखा था. उनके पतले चेहरे पर बाज़-जैसी नाक थी. उनकी क़द-काठी, चेहरे की बारीकी विली द्वारा देखे गए उस फ़ोटो से हू-ब-हू मिल रही थी. यह नेहरू जी के क़रीबी मित्र कृष्ण मेनन थे जो भारत में अन्तर्राष्ट्रीय फोरम के प्रवक्ता थे. वह सिर झुकाए कुछ सोचते हुए आगे बढ़ रहे थे. जब उन्होंने चेहरा ऊपर किया और विली से नजरें मिली तो वे हल्के से मुस्कुरा दिए. ऐसे महान आदमी से विली की मुलाकात यूँ ही हो जाएगी- उसे उम्मीद नहीं थी. उनके बीच कुछ बात होती इससे पहले वे एक-दूसरे को काटते हुए जा चुके थे. विली कृष्ण मेनन को जाते देखता रह गया था.
दो-तीन दिन बाद कॉलेज के कॉमन रूम में विली ने एक अख़बार में कृष्ण मेनन की वही तस्वीर छपी देखी, जिसमें वे न्यूयॉर्क और संयुक्त राष्ट्र से आने के बाद लंदन में टहल रहे थे. वे क्लेरिज़ होटल में ठहरे थे. विली ने मानचित्र और निर्देशिकाओं को ध्यान से देखा. उसे पता चला था कि कृष्ण मेनन दोपहर बाद अक्सर होटल से पार्क तक टहलते थे. इस दौरान वे अपने आगामी भाषण पर विचार करते थे. उनके भाषण ब्रिटेन, फ्रांस आदि देशों द्वारा मिस्र पर हुए हमले को लेकर होते थे.
विली को इन हमलों की कोई जानकारी नहीं थी. ये हमले अक्सर स्वेज़ नहर के राष्ट्रीयकरण की वजह से थे. स्वेज़ के बारे में उसने मिशन-स्कूल के भूगोल में पढ़ा था, पर इस बारे में वह ज़्यादा कुछ नहीं जानता था. उसने ‘स्वेज’ नामक एक हॉलीवुड फ़िल्म भी देखी थी. लेकिन अब उसे साफ़ तौर पर कुछ याद नहीं था. फिर इस बारे में कोई राय बनाकर उसे, उसके परिवार या उसके शहर को कोई लाभ भी नहीं होने वाला था. ना ही नहर और मिस्र का इतिहास ही उसे कुछ देता. वह मिस्र के एक नेता कर्नल नासेर को ज़रूर जानता था, उसके बारे में भी कृष्ण मेनन के विषय में पता करते हुए जानकारी मिली थी. वह कृष्ण मेनन के बारे में ज़्यादा नहीं जानता था लेकिन उसकी महानता का लोहा मानता था. घर में भी वह चलताऊ ढंग से अख़बार पढ़ता था. ख़ासकर संयुक्तराष्ट्र के चुनाव और युद्ध सम्बन्धी बातों से तो वह दूर ही रहता. किसी हल्की-फुल्की पुस्तक या फिल्म की तरह अख़बारों में कभी-कभार ही कुछ ध्यान देने लायक़ होता था. इस प्रकार जहाज़ पर चढ़ने के बाद विली बिना देखे देखने और बिना ध्यान दिए सुनने लगा था. जिस तरह घर पर सालों से वह अखबार उलटता-पलटता था. सुर्ख़ियाँ पढ़ते समय बड़े नामों को देख भर लेता.
लेकिन कृष्ण मेनन को देखने के बाद उसे अहसास हुआ कि वह दुनिया के बारे में कितना कम जानता था. ‘नहीं देखने की यह आदत मैंने अपने पिता से सीखी थी,’ वह बुदबुदाया. अब वह अख़ब़ारों में मिस्र से सम्बन्धित ख़बरें पढ़ने लगा था लेकिन थोड़ी-बहुत पृष्ठभूमि के अलावा वह ज़्यादा कुछ समझ नहीं पाया. अख़बारों में तो सीरियल की तरह ख़बरें दी जाती थीं, सबकुछ जानने के लिए शुरुआती घटना समझना ज़रूरी था. इसलिए उसने इस बारे में कॉलेज लाइब्रेरी में पढ़ना शुरू किया, लेकिन ठीक से समझ पाने का कोई भी तरीक़ा उसे नहीं मिला क्योंकि चीज़ें तेजी से घटती रही थीं. वह आगे पढ़ता गया लेकिन उसे अपने ज्ञान में कोई खास बढ़ोतरी महसूस नहीं हुई. फिर उसने युद्धकालीन इतिहास की एक किताब खोली पर वह भी उसके पल्ले नहीं पड़ी. पाठक को चर्चित घटनाओं की पहले से जानकारी होनी चाहिए तभी वह आगे की बात समझ पाएगा. विली को लगा वह अज्ञानता में गोते खा रहा है और अपने समय के ज्ञान के अभाव में ही जिए जा रहा है. उसे अपनी माँ के चाचा की याद आई जो अक्सर कहा करते थे- ‘पिछड़ों को लम्बे समय से समाज के बाहर रखा गया है. इसीलिए उन्हें भारत के बारे में, दूसरों धर्मों और यहाँ तक कि अपनी ही जाति के लोगों की विशेषताओं के बारे में पता नहीं होता. दूसरे, उन्हें कभी से गुलाम बनाकर रखा गया है.’ तब उसे जान पड़ा कि उसे यह रिक्तता माँ की ओर से मिली थी.
पिताजी ने विली को मिलने के लिए कुछ लोगों के नाम सुझाए थे. उसने इस ओर कोई पहल नहीं थी. वह लंदन में पिताजी की नज़रों से दूर रहकर, अपने ही तरीक़े से चलना चाहता था. लेकिन कॉलेज में उन बड़े नामों को लेकर उसने थोड़ी-बहुत शेख़ी ज़रूर बघारी. कौन कितना बड़ा नाम है, इसके लिए वह बड़ी मासूमियत से बातचीत के दौरान उन लोगों के नाम लेता और प्रतिक्रिया पाने के बाद, धीरे-धीरे उन्हें हटा देता. इससे दुनिया के प्रति उसका नज़रिया और विकसित हुआ. अब उसने एक पत्र अपने नाम वाले उन्हीं लेखक को लिखा और दूसरा एक बड़े पत्रकार को, जिनके बारे में एक अख़बार में पढ़ा था. पत्रकार का जवाब पहले आया,
‘‘प्रिय चंद्रन, मैं तुम्हारे पिताजी को अच्छी तरह जानता हूँ. मेरा पसंदीदा बाबू ….’’
‘बाबू’ शब्द उनके लिए ठीक नहीं था, इसके बजाय साधू या तपस्वी अच्छा होता. खैर, विली ने इसका ज्यादा नोटिस नहीं लिया. पत्र काफ़ी सौहार्दपूर्ण था जिसमें विली को अखबार के दफ़्तर में आने को कहा गया था.
इसके कोई एक सप्ताह बाद विली फ़्लीट.स्ट्रीट गया. उस दिन काफ़ी तेज़ धूप खिली थी लेकिन जैसा कि कहते हैं, लंदन में बारिश कभी भी हो सकती है, अतः उसने एक पतला-सा पुराना ओवरकोट पहन लिया था. थोड़ी देर बाद वह अखबार की उस काली-सी विशाल इमारत में पहुँच गया. वहाँ जाकर पसीने से भीगा ओवरकोट उतारने पर ऐसा लगा मानो वह बूंदा-बांदी के बीच से आया था, उसकी जैकेट का कॉलर भी भीगा हुआ था. उसने गेटकीपर से अपना नाम भिजवाया. कुछ देर में गहरे रंग का सूट पहने अधेड़-सा एक पत्रकार नीचे आया. वे लॉबी में ही खड़े होकर बतियाने लगे. हालाँकि बातचीत में कुछ खास नहीं था. पत्रकार महोदय ने ‘बाबू’ के बारे में पूछा. तब भी विली ने उसे नहीं सुधारा. फिर अखबार को लेकर बातचीत हुई, विली समझ गया कि यह अखबार भारत की स्वाधीनता के खिलाफ था. उसे भारत के प्रति मैत्री भाव तक पसन्द नहीं था. स्वयं उस पत्रकार ने भी भारत-यात्रा के बाद देश पर कुछ अप्रिय टिप्पणियाँ की थीं.
‘दरअसल यह अखबार बीवरब्रुक का है. जो भारतीयों को समय नहीं देता. एकाध मामलों में वह चर्चिल का फैन है.’ पत्रकार ने बताया.
‘‘यह बीवरब्रुक कौन है ?’’
पत्रकार ने बेहद धीमी आवाज में कहा- ‘‘हमारा मालिक (Proprietor)’’.
उसे अचम्भा हुआ कि विली यह भी नहीं जानता था. इधर विली सोच रहा था- ‘‘अच्छा है, मैं उसे नहीं जानता, ना ही उससे प्रभावित हुआ.’’
तभी किसी ने मुख्य दरवाज़े से प्रवेश किया, जो विली के पीछे था. पत्रकार ने उनकी ओर देखते हुए श्रद्धा से कहा- ‘‘वह हमारे संपादक महोदय हैं.’’
गहरे रंग का गुलाबी सूट पहने एक अधेड़ लॉबी से जाता हुआ दिखा. ‘‘उसका नाम ऑर्थर क्रिश्चियन्सन है. वह दुनिया के बेहतरीन संपादकों में से एक है.’’ उस ओर एकटक देखते हुए पत्रकार बोला. फिर मानो खुद से ही बतियाने लगा- ‘’यहाँ तक आने में बहुत-कुछ लग जाता है.’’
फिर मूड बदलते हुए उसने मजाक में कहा- ‘‘तुम उससे नौकरी माँगने तो नहीं आए हो!’’
विली ने हँसी रोकते हुए कहा- ‘‘मैं स्टूडेन्ट हूँ. यहाँ छात्रवृत्ति पर आया हूँ. मैं यहाँ नौकरी तलाश करने नहीं आया.’’
‘‘कहाँ ?’’
विली ने कॉलेज का नाम बताया. पत्रकार उसे जानता नहीं था पर विली को लगा उसका अपमान किया जा रहा है.
‘मैं वास्तव में एक शानदार कॉलेज में हूँ.’
“क्या तुम दमैल हो ?’’ उसने फिर मज़ाक़ किया था. “मैंने इसलिए पूछा क्योंकि हमारा मालिक भी दमे का मरीज है और ऐसे लोगों के प्रति बहुत अच्छा बर्ताव करता है. तब अगर तुम नौकरी के लिए आते तो काफी रियायत मिलती.’’
इसके बाद वह लौट आया. उसे अपने पिताजी पर बड़ी शर्म आ रही थी. इसने अपने लेख में जरूर उनका मजाक बनाया होगा. उसे खुद पर भी शर्म आई क्योंकि उसने पिता के बताए मित्रों के पास नहीं जाने का निर्णय लिया था, फिर भी उनके पास चला गया.
कुछ दिनों बाद उन्हीं लेखक का पत्र आया जिनके नाम पर विली का नाम था. वह क्लैरिज़ होटल का एक छोटा-सा लैटरपैड था. वही क्लैरिज, जहाँ कृष्ण मेनन रहे थे और संयुक्त राष्ट्र के अपने भाषण पर विचारमग्न पार्क में टहलने जा रहे थे.
पत्र पर्याप्त हाशिया लिए काफी साफ-सुथरा और डबल-स्पेस में टाइप किया हुआ था.
“प्रिय विली चंद्रन, तुम्हारा पत्र पाकर अच्छा लगा. मेरे पास भारत की अच्छी-अच्छी यादें हैं. अपने भारतीय मित्रों से भी मैं उन्हें बाँटता रहता हूँ.’ तुम्हारा …….’’
इसके बाद काँपती लिखावट में हस्ताक्षर बने हुए थे.
अब विली सोच रहा था- ‘‘मैंने पिताजी को कितना ग़लत समझा. मुझे लगता था एक ब्राह्मण होने के कारण उनका जीवन बेहद आसान था, निकम्मेपन ने उन्हें बेकार बना दिया था. अब समझ में आया है कि यह दुनिया उनके लिए भी कितनी दुश्वार थी.’’
कॉलेज में विली संभ्रम में पड़ा रहता. जो पाठ दिया जाता, वह उसे बेस्वाद भोजन की तरह लगता. दिमाग़ में सब गड्ड-मड्ड बना रहता. इसीलिए अध्यापक, ट्यूटर आदि द्वारा जो भी लेख या निबन्ध बताया जाता, या फिर किताबें पढ़ने को कही जातीं, वह सुन्न-सा करता रहता. वह इतना अस्थिर चित्त था कि उसे अपने आगे-पीछे की कोई जानकारी नहीं थी. उसे चीजों के पैमाने, ऐतिहासिक समय अथवा दूरी का कोई आइडिया नहीं था.
यहाँ तक कि बंकिघम पैलेस देखने तक उसका यही विश्वास बना हुआ था कि वहाँ के राजा-रानी ढोंगी थे और वह देश नकली.
लेकिन कॉलेज में आकर उसे कायदे से हर चीज दुबारा सीखनी पड़ी, जैसे- समूह में खाना कैसे खाया जाता है, लोगों का कैसे अभिवादन करते हैं और किस तरह उनका अभिवादन स्वीकार किया जाता है. और एक बार अभिवादन के दस या पंद्रह मिनट बाद ही पुनः अभिवादन नहीं करते आदि सब चीजें उसने दुबारा सीखीं. इनके अलावा आते-जाते हुए दरवाजा किस तरह बंद किया जाता है अथवा बिना विवादित हुए बयान कैसे दिया जाता है.
वह कॉलेज एक अर्द्ध-धर्मार्थ विक्टोरियन फाउण्डेशन का था और ऑक्सफोर्ड एवं कैम्ब्रिज़ के मॉडल पर बना हुआ था. वहाँ के विद्यार्थी यही कहते थे. इसी कारण वहाँ कई तरह की परम्पराएँ थी जिन पर वहाँ के लोग गर्व तो करते थे लेकिन पूछने पर समझा नहीं पाते थे. वहाँ यूनिफार्म, भोजन-कक्ष में आपसी व्यवहार जैसे सामान्य नियम तो थे ही, कुछ अनोखे नियम भी थे- जैसे दुर्व्यवहार होने पर दण्डस्वरूप बीयर पिलाई जाती थी. औपचारिक अवसरों पर सबका काला चोगा पहनना जरूरी था. विली द्वारा पूछने पर एक अध्यापक ने बताया कि ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज़ में भी ऐसा ही होता है. यह चोगा प्राचीन रोमनों से अपनाया गया था.
विली ने अभिभूत होने के बजाय मिशन स्कूल के दिनों की तरह इस पर कॉलेज स्थित लाइब्रेरी में खोजना शुरू किया. तब उसे पता चला, प्राचीन विश्व की चोगाधारी मूर्तियों के अतिरिक्त किसी और को इसे पहनने की इसकी इजाजत नहीं थी, फिर रोमनों ने इन्हें कैसे पहन लिया.
शिक्षार्थियों द्वारा पहनने वाला चोगा शायद हज़ारों वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म के मदरसों से लिया गया था. हालाँकि इसका भी कोई पक्का सबूत नहीं था.
ये नियम विली के लिए तो नए थे, पर वास्तव में ये चर्च-जैसी कॉलेज की पुरानी इमारत से भी पहले के बने हुए लगते थे. इनसे विली को घर और यहाँ में तुलना करने का एक नजरिया प्राप्त हुआ था.
एक बात और हुई, शुरुआत में जो नियम बड़े आत्मरोपित और कठिन लगते थे, दूसरा सत्र ख़त्म होते-होते उनका कोई मूल्य नहीं रहा था.
इधर विली की माँ के ’फ़ायरब्राण्ड’ चाचा द्वारा पिछड़ों की समानता का सालों से चल रहा आंदोलन जारी था. विली भी उनके पक्ष में था. किन्तु उसे ये सब कहने की चीज़ें लगी, वास्तव में कुछ दिख नहीं रहा था. कॉलेज में या बाहर किसी ने उसे नियमों के लिए नहीं टोका. उसे लगा कि वह अपनी इच्छानुसार जीने को स्वतन्त्र था.
वह चाहता तो अपनी निजी स्वतन्त्रता पर लिखते हुए, अपने अतीत और पूर्वजों की कारणों सहित पड़ताल कर सकता था.
वह अपने पारिवारिक मित्र रहे चर्चित लेखक और पत्रकार बीवरब्रुक दोनों के साथ एकांगी रूप से हुए परिचय की शेख़ी बघारने लगा था. पर उसके पास अभिभूत कर देने वाली चीज़ें नहीं थी. वह एक बिन्दु इधर से उठाता तो दूसरा कहीं और से. जैसे ट्रेड यूनियन की खबरें अखबारों से ले लेता.
एक दिन उसे याद आया कि माँ का ’फ़ायरब्राण्ड’ चाचा कभी-कभी पब्लिक मीटिंग में जाते समय लाल रंग का स्कार्फ़ बाँधता था. इसे वह पिछड़ों के प्रसिद्ध क्रांतिकारी नेता और नास्तिक कवि भारतीदर्शन की देखा-देखी करता था. ’फ़ायरब्राण्ड’ एक यूनियन लीडर था- मजदूर अधिकारों का अगुआ. उसने अपने ट्यूटोरियल तक में लोगों की पीड़ा और बातचीत के बिन्दुओं को शामिल कर रखा था.
विली को लगता था कि मिशन-स्कूल में पढ़कर उसकी माँ लगभग आधी क्रिश्चियन हो गई थी. उसके सामने वह खुद को पूर्ण क्रिश्चियन मानता था. उसे मिशन-स्कूल रूपी धब्बे को धोने और नंगे पैर रहने वाले बेचारे पिछड़ों में खुशी पैदा करने का विचार त्याग कर पढ़ाई के कारण कुछ ख़ास तरह की चीज़ें स्वीकार करनी पड़ी थी (क्योंकि कॉलेज दक्षिण अफ्रीका स्थित न्यासलैण्ड के एक क्रिश्चियन मिशन का समर्थक था, कॉमन रूम में उनकी पत्रिका भी आती थीं). वह अपनी माँ को महाद्वीप के प्रारम्भिक इसाई समुदाय से जोड़ता जो ईसाईयत जितना ही पुराना था. अपने पिताजी को उसने ‘ब्राह्मण’ ही माना पर दादाजी को ‘दरबारी’ संबोधन दिया. यूँ शब्दों से खेलकर उसने खुद की पुनः पड़ताल की थी. इससे उसे बड़ी ताकत महसूस हुई.
‘तुम व्यवस्थित हो गए लगते हो.’ उसके ट्यूटर ने कहा था.
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उसका उत्साह अब लोगों को आकर्षित करने लगा था. उनमें एक का नाम पर्सी काटो था. जमैकियन माता-पिता की संकर संतान पर्सी साँवले रंग का था. विली और पर्सी दोनों बाहर के थे और छात्रवृत्ति पर वहाँ गए थे. शुरुआत में दोनों एक-दूसरे से संशकित रहते, पर धीरे-धीरे उनमें दोस्ती हो गई. अब वे घर-परिवार तक की बातें करने लगे थे. अपने पूर्वजों के बारे में बताते हुए पर्सी ने बताया- “शायद मेरी दादी भारतीय हैं.’’ सुनकर विली को बड़ी टीस हुई. उसने सोचा वह भी उनकी माँ जैसी ही होगी. अपने घुँघराले बालों में हाथ फिराते हुए पर्सी बोला- ‘नीग्रो असल में अप्रभावी रहता है.’ विली उसका आशय समझ नहीं सका. वह समझा पर्सी अपने पैदा होने की कहानी बता रहा था. वह जमैका का था पर पूरी तरह जमैकी नहीं था. उसका जन्म पनामा में हुआ और वहीं वह बड़ा भी हुआ.
’‘इंग्लैंड में तुमसे भेंट करने वाला मैं अकेला काला, जमैकी या वेस्ट इंडियन हूँ जो क्रिकेट के बारे में कुछ नहीं जानता.’’ उसने बताया.
’‘तुम पनामा कैसे पहुँचे ?’’ विली ने पूछा.
‘’मेरे पिताजी पनामा नहर में काम करने वहाँ गए थे.’’
’‘वह भी स्वेज़ नहर जैसी होगी, जो अभी तक ख़बरों में है.’’
‘’यह प्रथम युद्ध से पहले की बात है.’’
विली ने मिशन स्कूल की तरह कॉलेज लाइब्रेरी में पनामा की भी खोज की थी. उसे धूल भरे फटे-पुराने विश्वकोशों में युद्ध पूर्व के कुछ चित्र मिले जिनमें विशाल निर्माण कार्य होता हुआ दिखाई दे रहा था. सूखे बाँधों पर संभवतः काले जमैकी मजदूरों की भीड़ लगी थी. शायद उन्हीं में कोई पर्सी का पिता रहा होगा.
’‘पनामा नहर पर तुम्हारे पिताजी क्या काम करते थे ?’’ कॉमन रूम में उसने पर्सी से पूछा.
’‘वह क्लर्क थे, तुम्हें पता ही है वहाँ के लोग बिल्कुल अनपढ़ हैं.’’
विली को विश्वास नहीं हुआ- “यह झूठ बोलकर मुझे मूर्ख बना रहा है. इसके पिता वहाँ मजदूरों के उसी झुण्ड में होंगे और ज़मीन खोदने से पहले गैंती उठाए कृतज्ञ भाव से फोटोग्राफ़र को देख रहे होंगे.’’ विली के लिए ऐसे आदमी से निपटना काफी उलझन भरा था, जो ना तो उपयुक्त जगह पैदा हुआ तथा नीग्रो और ग़ैर-नीग्रो दोनों गुण लिए था. एक नीग्रो के रूप में पर्सी विली के साथ छात्रवृत्ति उठा रहा था तो ग़ैर-नीग्रों के रूप में वह उससे एक दूरी बनाए रखता था. विली के मन में पर्सी के पिता की एक तस्वीर बन गई थी- पनामा में एक सैनिक की तरह हाथों में गैंती की मूठ पकड़े कड़ी धूप में खड़े हुए. उसने सोचा वह पर्सी के बारे में थोड़ा और जान गया था.
अपने बारे में पर्सी को बताते समय विली बेहद सचेत रहता ताकि भविष्य में कोई परेशानी न हो. वह पर्सी के अपने से ऊपर समझता, और उसे एक शहरी व्यक्तित्व के रूप गिनता था, पर्सी लंदन और पश्चिमी जीवन शैली का अच्छा जानकार था, सो विली ने उसे शहर में अपना गाइड बनने को राजी कर लिया.
पर्सी को कपड़े बहुत पसंद थे. वह हमेशा सूट पर टाई बाँधे रहता. उसकी कॉलर हमेशा साफ-सुथरी, कलफदार और तनी हुई होती. उसके जूते भी बढ़िया पॉलिश किए और नए होते. वह कपड़ों की कटाई-सिलाई का भी अच्छा जानकर था. वह औरों से भी इन्हें लेकर बात करता रहता. कपड़े उसके व्यक्तित्व का सूचक थे. वह उन लोगों का आदर करता जो कपड़ों का आदर करते.
विली इस मामले में बिल्कुल कोरा था. उसके पास सफेद रंग की पाँच कमीजें थी. पर कई-कई दिन में कॉलेज लॉण्ड्री जाने के कारण वह एक ही कमीज दो-तीन दिन चलाता. वह लाल रंग की सूती टाई भी बाँधता था, जिसे उसने छः शिलिंग में लिया था. हर तीसरे महीने उसे टाई बदलनी पड़ती क्योंकि पुरानी वाली बुरी तरह गंदी और नॉट बाँधने से ऐंठ चुकी होती. उसके पास एक हरे रंग की पतली सी जैकेट भी थी, जो उसे फिट नहीं आती थी, इसे उसने तट पर लगी ‘फिफ्टी शिलिंग टेलर्स’ की सेल से तीन पाउण्ड में लिया था. उसे अपने कपड़े बहुत बुरे नहीं लगते. पर पर्सी की रुचियों पर उसे आश्चर्य होता था. कपड़े, उनका रंग आदि पर बात करना उसे औरतों का काम लगता था.
दरअसल उसकी यह सोच अपनी माँ के रंग-बिरंगे कपड़ों को देखकर बनी थी. वह इन चीज़ों को ग़लत और ज़नाना मानता था. पर जब उसने कपड़ों, जूतों आदि पर पर्सी के आकर्षण का कारण समझा तो अपनी ग़लती का अहसास हुआ.
एक दिन पर्सी बोला- “इस शनिवार मेरी गर्लफ्रेण्ड आ रही है.’’
वीकेण्ड पर लड़कियों को लड़कों के कमरों में आने की छूट थी.
‘‘पता नहीं विली तुम्हें इसकी जानकारी है कि नहीं, वीकेण्ड में कॉलेज संभोग की ऐशगाह बन जाता है.’’
यह सुनकर विली को बेहद उत्तेजना महसूस हुई, साथ ही पर्सी के ऐसी बात को इतना आराम से कह देने पर ईर्ष्या भी.
’‘मैं तुम्हारी गर्लफ्रेण्ड से मिल सकता हूँ.’’
’‘ठीक है, शनिवार को हमारे साथ रह कर ड्रिंक का मजा भी लेना.’’ विली को शनिवार बहुत दूर लगने लगा था.
“उसका नाम क्या है ?’’ कुछ देर बाद उसने पूछा. ’‘जुने,’’ पर्सी ने चकित होते हुए बताया. सुनकर विली को बड़ी ठंडक मिली थी. थोड़ी देर बाद उसने अचानक फिर पूछा, ’ ’‘जुने क्या करती है ?’’
’‘वह डेबन्हाम्स में एक परफ्युम काउन्टर पर काम करती है.’’
परफ्यूम काउन्टर, डेबन्हाम्स; इन शब्दों ने उसे मदोन्मत्त कर दिया था. पर्सी भी इसे समझ रहा था, उसने आगे कहा- “ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पर डेबन्हाम्स का विशाल स्टोर है.’’
“तुम उससे कहाँ मिले थे ?’’ उसने फिर पूछा.
“हमारी मुलाक़ात हुई एक क्लब में हुई थी.’’
‘‘क्लब में.’’
‘‘हाँ, शराब पीने की जगह, जहाँ मैं काम करता था.’’
’‘अच्छा, अच्छा!’’ विली को झटका-सा लगा लेकिन उसने ज़ाहिर नहीं होने दिया.
‘‘पहले मैं वहीं काम करता था. मेरे एक मित्र ने वह काम दिलवाया था. चाहो तो तुम्हें भी वहाँ ले जा सकता हूँ.’’
वे भूमिगत रास्ते से ‘मार्बल आर्क’( हाइडे पार्क, लंदन स्थित एक जगह – अनुवादक) आए. वहीं, जहाँ कई महीने पहले विली ‘स्पीकर्स कॉर्नर’ देखने आया था और अचानक कृष्ण मेनन दीख गए थे. एक विशाल होटल के पीछे गली से गुज़र कर वे ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पहुँचे. यह विली के दिमाग़ में रचे-बसे लंदन से कोई और ही लंदन लग रहा था. पर्सी उसे एक सँकरे गलियारे से ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट के उत्तर में ले आया. एक उढ़के दरवाजे पर लगा छोटा-सा साइनबोर्ड क्लब की ओर इशारा कर रहा था. इसकी लॉबी में अंधेरा पसरा था. काउण्टर पर एक काला-सा आदमी बैठा था, पास ही भूरे बालों, पाउडर पुते सफ़ेद चेहरे और पीली ड्रेस पहने स्टूल पर एक स्त्री बैठी दिखाई पड़ी. दोनों ने पर्सी का स्वागत किया. उसे देख विली में हलचल मच गई थी, जो उसके बहुत कम बचे हुए सौन्दर्य और उम्र से बड़ी दिखने के कारण नहीं, बल्कि उसके रूखे और फूहड़ दिखावे तथा इतनी तैयारी करके आने और चरित्रहीन की तरह देर तक वहाँ रहने के कारण हुई थी. उन दोनों में कोई नहीं पीता था लेकिन पर्सी ने दो पैग व्हिस्की का आदेश दिया और वे बैठकर बतियाने लगे. उसने बताया – मैं सामने दिखाई दे रहे उस कमरे में था. सीधों के लिए सीधा और टेढ़ों के साथ टेढ़ा होकर पेश आता. लंदन-जैसी जगह आदमी को हर चीज़ सिखा देती है. मैंने यहाँ सबकुछ किया. एक बार मैंने अपने एक दोस्त से कोई छोटा-मोटा बिजनेस करने की बात कही. उसे इसका बुरा लगा. मैंने सोचा, दोस्ती बचाए रखने के लिए यह कहना छोड़ देना चाहिए. वह एक ख़तरनाक आदमी है. कभी मिलाऊँगा.’ विली ने आगे जोड़ा- ‘‘तभी एक दिन डेबन्हाम्स के परफ़्यूम काउंटर से जुने यहाँ आयी.
‘‘हाँ, यहाँ से थोड़ी ही दूर पर है. पैदल….’’
विली न तो यह जानता था कि जुने कैसी थी, न उसे डेबन्हाम्स का पता था, फिर भी दिमाग़ी तौर पर वह डेबन्हाम्स से क्लब के कई चक्कर लगा चुका था.
शनिवार को वह पर्सी के कमरे में आयी. वह काफी सयानी लग रही थी. उसने कसी हुई स्कर्ट पहन रखी थी, जिसमें उसके कूल्हे उभरे दिखाई दे रहे थे. छोटा-सा कमरा उसके परफ़्यूम की ख़ुशबू से भर गया था. ‘डेबन्हाम्स में इसके काउन्टर पर बहुत सारे परफ़्यूम रखे होंगे, जिन्हें यह खूब उड़ेला करती होगी’ विली सोच रहा था. विली को इन खुशबुओं की तनिक भी पहचान नहीं थी, ना ही इनके स्रोतों की.
वे कॉलेज सोफे पर बैठे थे और विली अपने को जुने के मुक़ाबले काफी समेटे हुए बैठा था. जुने ख़ुद को खूब सँवारे हुए थी. परफ़्यूम लगाए और कतरी हुई भौंहें लिए वह अपनी चिकनी रोमिल टाँगों को फैलाए बैठी थी.
पर्सी ने भी इसे नोट किया था लेकिन वह कुछ बोला नहीं. विली ने इसे दोस्ती के नाते ही लिया. उसे जुने भद्र और समझदार जान पड़ी जबकि पर्सी उतावला दीखा. विली उसके सौम्य चेहरे की कोमलता पढ़ रहा था. लेकिन जब उन्होंने उसे जाने को कहा तो वह उदास हो गया. वह सोचने लगा कि उसे भी किसी वेश्या के पास जाना चाहिए. वेश्याओं के बारे में वह कुछ नहीं जानता था. उसे पिकेडिली-सर्कस के आस-पास की उन गलियों की जानकारी जरूर थी, जो इसके लिए मशहूर थीं. लेकिन वह वहाँ कभी जाने का साहस नहीं जुटा पाया.
सोमवार को वह डेबन्हाम्स गया. ‘परफ़्यूम काउण्टर’ की लड़कियाँ उसे हैरानी से देख रही थीं. वह भी उन्हें एकटक देखे जा रहा था. वे सब-की-सब पाउडर से पुतीं, बनावटी, अनोखी बरौनियाँ लिए दुकान में टँगे मुर्गों की तरह साफ़ और चिकनी नज़र आ रही थीं. वहाँ तमाम गलियाँ शीशों से जड़ी और कृत्रिम रोशनी से जगमगा रही थीं. विली को लगा वह एक अनोखे लंदन में आ पहुँचा है. वहीं जुने भी दिख गई. वह लम्बी, मोटी, नाजुक और खूबसूरत लग रही थी. उसे देख शनिवार को वह बड़ी मुश्किल से अपने को रोक पाया था. उसकी काली भौंहे, सीपियों-सी मोहक पलकें और मदहोश कर देनेवाली बरौनियाँ क़यामत ढा रही थीं. उसने विली का अभिवादन किया और बड़े अपनेपन से मिली. ज़्यादा कुछ बताए बिना ही वह समझ गई थी कि विली चाहता क्या था ? इधर विली को कहने में बड़ी झिझक हो रही थी.
’‘क्या तुम मुझसे मिलना चाह रही थी ?’’ उसके मुँह से निकला.
’‘हाँ, बिल्कुल,’’ वह सहजता से बोली.
‘‘काम के बाद क्या हम आज ही मिल सकते हैं ?’’
‘‘कहाँ!’’
‘‘क्लब में’’
‘‘वहीं पर्सी वाली जगह. लेकिन मालूम है, वहाँ पहले सदस्य बनना ज़रूरी है.’’
दोपहर बाद विली क्लब की सदस्यता मालूम करने गया. उस समय वहाँ स्टूल पर बैठी एक गोरी महिला और एक काले बारमैन के अलावा कोई नहीं था. (उसका काम भी वही था जिसे पहले पर्सी करता था. वह भी सीधों के साथ सीधा और अक्खड़ों के साथ अक्खड़ था). उसने विली से एक फ़ार्म भरवाया और पाँच पाउण्ड ले लिए. उन दिनों विली का कुल खर्च सात पाउण्ड था. बारमैन ने पेन से एक छोटा गोला बनाया, मानो वज़न उठाने से पहले उसे तौल रहा था, फिर पूरे इतमीनान से एक छोटे-से सदस्यता-पत्रक पर विली का नाम लिख दिया.
उसने गली में इधर-उधर ध्यान से देखा और मन ही मन जुने के आने के समय के बारे में सोचता रहा. क्लब में पहुँचते ही विली ने दरवाज़े पर उसका स्वागत किया और दोनों अंदर आ गए. बारमैन और वह स्टूल वाली महिला जुने को पहचान गए थे, इससे विली को ख़ुशी हुई थी. उसने शराब मँगवाई … पन्द्रह शिलिंग के दो बढ़िया पैग. और अंधियारे कमरे में जाकर उससे बातचीत करने लगा. उसका परफ़्यूम सूँघते हुए वह उसे बार-बार छेड़ रहा था.
वह बोली- ‘‘हम कॉलेज में नहीं जाएँगे, पर्सी को बुरा लगेगा. वहाँ मैं वीकेण्ड में ही आ सकूँगी.’’
कुछ देर बाद उसने कहा- ‘‘हम कहीं और चलें, एक टैक्सी ले लेते हैं.’’
जब उसने ड्राइवर को पता बताया तो उसका मुँह बन गया. टैक्सी मार्बल आर्क, बेसवाटर से होती हुई बढ़ने लगी, आगे जाकर वह उत्तर और जल्द ही एक बेहद ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर मुड़ गई. यहाँ बिना रेलिंग के बड़े-बड़े मकान बने हुए थे, खिड़कियों के सामने कूड़ों का अंबार पड़ा था. ऐसे ही एक मकान के आगे उसने गाड़ी रुकवा ली. विली ने टिप समेत पाँच शिलिंग चुकाए.
इस मकान की सीढ़ियों पर रेलिंग नहीं थी, दरवाज़ा टूटा हुआ था, जिस पर जगह-जगह पुराने पेंट की तहें जमी थीं. भीतरी हाल में अंधेरा पसरा था और पुरानी धूल की बू आ रही थी, दीवारों पर गैस के ब्रेकेट बने हुए थे. छत से चिपके वालपेपर काले पड़ गये थे. फ़र्श का लिनोलियम उधड़ चुका था, जिसे थोड़ा बहुत किनारों की ओर से देखा जा सकता था. खिड़कियाँ भद्दी और टूटी हुई थीं, उस तरफ़ की सीढ़ियाँ काफी चौड़ी और पुरानी शैली की थीं लेकिन काठ के जंगले खुरदरे और काले थे. सामने वाली खिड़की भी गंदी और चटखी हुई थी. घर के पीछे थोड़ी जमीन पड़ी थी जिसमें कबाड़ भरा हुआ था.
जुने बोली- “यह कोई नाइट-क्लब तो नहीं है, बस कामचलाऊ जगह है.’’
विली को विश्वास नहीं आया. यहाँ के दरवाजे़ तो बंद थे ही, जैसे-जैसे वे ऊपर चढ़े, सीढ़ियाँ सँकरी होती गईं और दरवाज़े अधखुले. जिनमें विली को बेहद बूढ़ी औरतें दिखाई पड़ीं, उनके चेहरे झुर्रीदार और पीले थे. मार्बल आर्क के इतने पास होने पर भी यह एक दूसरा शहर लग रहा था, मानो कॉलेज में चमकने वाला सूरज कोई और था, जिस तरह डेबन्हाम्स के परफ़्यूम काउण्टर की दुनिया अनोखी थी.
जुने ने एक छोटा-सा कमरा खोला. जिसकी नंगी फर्श पर अख़बार में एक गद्दा लिपटा था. वहीं कुर्सी पर एक तौलिया पड़ा था और ऊपर की तरफ एक बल्ब लटक रहा था. जुने एक-एक कर कपड़े उतारने लगी. विली के लिए यही बहुत था. वह इतना उत्तेजित हो उठा कि उन क्षणों का बहुत कम आनंद ले पाया. थोड़ी ही देर में वह स्खलित हो गया था. जिस काम के लिए वीकेण्ड से इतनी बड़ी योजना बना रहा था, पैसे ख़र्च किए थे, वह यूँ ख़त्म होगा, यह सोच कर विली कुछ कह नहीं पा रहा था.
जुने ने अपनी गुदगुदी बाँह पर उसका सिर रखते हुए कहा, ‘‘मेरा एक दोस्त कहता है कि भारतीयों के साथ अक्सर ऐसा होता है. इसकी वजह अरेन्ज-मैरिज है. वे लोग बेहतर ढंग से कोशिश करने की जरूरत ही नहीं समझते. मेरे पिता के अनुसार उनके पिता अक्सर कहा करते थे- ‘पहले औरत को संतुष्ट करो, फिर अपने बारे में सोचो.’ मुझे नहीं लगता, तुमने आज तक इस बारे में किसी और से बात की होगी.’’
विली को पहली बार अपने पिता पर तरस आ रहा था
‘‘मुझे एक कोशिश और करने दो, जुने,’’ उसने कहा.
उसने कोशिश की भी, इस बार यह देर तक खिंचा लेकिन जुने के चेहरे पर तृप्ति के भाव नहीं आए. ख़ैर, वह क्षण भी पहले की तरह ही समाप्त हुआ. जुने उठी और कॉरिडोर से सटे टॉयलेट में चली गई. उसने वापस आकर कपड़े पहन लिए थे. अब विली ने उसकी ओर क़तई नहीं देखा. वे चुपचाप सीढ़ियाँ उतरने लगे. एक दरवाज़ा खोलकर एक बुढ़िया ने उन्हें घूरते हुए देखा था. घंटा भर पहले विली को यह बुरा लगा होता, लेकिन अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ा. नीचे आते हुए उन्होंने नाटे क़द के एक आदमी को देखा, जिसने चौड़ी पट्टी वाला जमैकियन हैट लगा रखी थी उससे उसका चेहरा छिप गया था. उसकी पतलून- जो आधी जूट की थी, एड़ियों से कसी हुई थी और ऊपर से बैलून जैसी फूली हुई थी. वह काफ़ी देर तक इनकी ओर तकता रहा. वे टूटे-फूटे गलियारों से- जो बड़े ही शांत थे, उनकी बड़ी-बड़ी खिड़कियों पर पर्दे लटक रहे थे- से गुजरते हुए चल पड़े. उस लंदन की ओर जहाँ जगमगाती दुकानें और खूब ट्रैफ़िक था.
आस-पास कोई टैक्सी नहीं थी. जुने यह कहती हुई बस में जा चढ़ी कि इससे वह ‘मार्बल आर्क’ तक चली जाएगी, वहाँ से ‘क्रिकलवुड’ के लिए दूसरी बस पकड़ लेगी. विली ने कॉलेज वापसी के लिए दूसरी बस ली थी. रास्ते भर वह जुने के बारे में सोचता रहा कि पता नहीं वह घर जाएगी या फिर कहीं और… उसे पर्सी की भी याद आई और पछतावा होने लगा. लेकिन थोड़ी देर बाद उसने इसे एक तरफ झटक दिया. कुल मिलाकर वह अपने आपसे ख़ुश था. उसका दोपहर बाद का काम काफी अच्छा और मनोरंजक रहा था. अब वह एक बदला हुआ आदमी था. उसने सोचा, पैसों की चिन्ता बाद में करता रहेगा. अगली बार जब पर्सी मिला तो उसने पूछा- ‘‘ जुने के परिवार वाले कैसे लोग हैं ?
‘‘पता नहीं, मैं उनसे कभी नहीं मिला. शायद वह उन्हें पसन्द नहीं करती.’’
इसके बाद उसने लाइब्रेरी जाकर पेलिकन पेपरबैक का ‘द फीज़िओलोजी ऑफ सेक्स’ निकाला. उसने यह किताब पहले भी देखी थी लेकिन ‘साइंटिफ़िक टाइटल’ समझ कर छोड़ दिया था. विश्वयुद्ध के दौर की इस किताब की जिल्दबंदी इतनी मज़बूती से की गई थी कि जंग लगी पिनों के चलते इसके शुरुआती हिस्से की पंक्तियाँ दब गई थीं, जिन्हें वह बड़ी कठिनाई से देख पा रहा था. उसे किताब और उसके सारे पन्नों को घुमा-घुमाकर देखना पड़ा. आख़िरकार उसे अपने काम की चीज़ दिख ही गई. उसमें लिखा था कि एक औसत आदमी अधिक-से-अधिक दस या पंद्रह मिनट तक सेक्स कर सकता था. यह अच्छी ख़बर नहीं थी. इसके बाद की दो-तीन पंक्तियाँ तो और भी बुरी थीं. जैसे एक ‘सेक्स-एथलीट’ आधा घण्टे बड़े आराम से बना रह सकता है. ऐसी गंभीर ‘पेलिकन’ पुस्तक में इतनी छिछोरी भाषा की उसे उम्मीद नहीं थी. उसके लिए यह घूँसे की तरह था. उसने उसे बंद करके रख दिया.
अगली बार जब पर्सी दिखा तो उसने पूछा- ‘‘यार पर्सी, तुम्हें सेक्स के बारे में इतना कहाँ से पता चला ?’’
पर्सी ने बताया, ‘‘तुम्हें छोटी लड़कियों से शुरू करना होगा. हमने भी ऐसा ही किया था. तुम किसी छोटी बच्ची से शुरुआत करो. यार, तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं जानता हूँ कि लम्बे-चौड़े परिवारों में क्या-क्या होता है, तुम्हें कुछ नहीं पता. तुम्हारी दिक्कत यह है कि तुम ज़रूरत से ज्यादा पाक-साफ हो. तुम्हें देखते सब हैं लेकिन समझता कोई नहीं.’
‘‘मुझसे ज़्यादा साफ़-सुथरे तो तुम हो, हमेशा सूट और खूबसूरत शर्ट में रहते हो.’
‘‘मैं औरतों को परेशान कर देता हूँ. वे मुझसे सहमी रहती हैं. तुम्हें भी यही करना होगा, विली! दरअसल सेक्स एक पशुवत व्यवहार है, इसके लिए तुम्हें भी वैसा ही होना पड़ेगा.’’
‘‘क्या जुने भी तुमसे डरती है ?’’
‘‘बुरी तरह! उसी से पूछ लेना.’’
विली ने एक पल सोचा कि अपने बारे में बता दे, लेकिन उसे सही शब्द नहीं मिल रहे थे. तभी उसे एक पुरानी फ़िल्म का जुमला याद आया- ‘‘पर्सी, मैं और जुने एक-दूसरे को प्यार करते हैं.’’ वह यही कहना चाहता था, लेकिन ऐन वक़्त पर शब्दों ने साथ नहीं दिया.
पूरे सप्ताह भर विली ख़ुश होता रहा कि उसने पर्सी को कुछ नहीं बताया. शनिवार की शाम, पर्सी (शहर का जानकार) उसे एक पार्टी में नॉटिंग-हिल ले गया. वह वहाँ किसी को नहीं जानता था इसलिए पर्सी से ही चिपका रहा.
कुछ देर बार जुने आ गई. पर्सी बोला- ‘‘यार यह पार्टी तो जहन्नुम जैसी बोरिंग है. मैं और जुने कॉलेज में संभोग के लिए जा रहे हैं.’’
विली ने जुने की ओर देखते हुए पूछा- ’’सचमुच!’’
‘‘हाँ, विली!’’ जुने सहजता से बोली.
अगर कोई पूछता तो विली कह देता कि पर्सी उसे अंग्रेज़ी तौर-तरीके सिखा रहा है. दरअसल पर्सी के माध्यम से वह अनजाने ही 1950 के दौर के लंदन में बसे अप्रवासियों की खास बोहेमियन जीवन-शैली का हिस्सा बनने जा रहा था. यह सोहो (पारम्परिक जीवन शैली पसन्द लोगों की एक जगह) की जीवन शैली से अलग उनकी अपनी एक दुनिया थी. यहाँ कैरेबिया, अफ्रीका और एशिया के श्वेत उपनिवेशों से आए लोग हाल में ही आकर बसे थे. ज़ाहिर है इंग्लैण्ड के लिए ये नए और बाहरी लोग थे, ये वहाँ के मूल निवासियों, जिनमें उच्च और निम्न दोनों वर्गों के लोग शामिल थे, से समय-समय पर ‘सम्बन्ध’ स्थापित करना चाहते थे. ताकि इंग्लैण्ड का सामाजिक ढाँचा करवट ले. अंग्रेज लोग भी नये आने वालों में आधुनिक जीवन शैली वालों को चाहते थे. इन्हें नॉटिंग हिल के तटस्थ क्षेत्र में छोटे-मोटे धुँधली रोशनी वाले कामकाजी फ़्लैट मिल गए थे, जहाँ वे एक-दूसरे के साथ मिल जुलकर हँसी-खुशी से जीवन बिता रहे थे (नॉटिंग हिल उस जगह के काफ़ी नजदीक था, जहाँ उस शाम विली और जुने गए थे). कुछेक अप्रवासियों ने वहाँ अच्छी नौकरियाँ एवं बढ़िया घरों की सुविधा जुटा ली थीं और उनमें रहने चले गए थे तो कुछ वहीं असुरक्षित जीवन जीते हुए भी आनंदमग्न बने थे.
लेकिन एक दुबले-पतले छोटे और ख़ूबसूरत आदमी से विली डरा हुआ था. वह गोरा दिखता था. कहता था, वह कई उपनिवेशों से हो आया है, उसकी उच्चारण-शैली भी कुछ वैसी ही थी. दूर से वह जितना भला लगता था, नज़दीक जाने पर उतना ही वाहियात. वह एक घिसी हुई जैकेट और गंदी-सी कमीज डाले रहता. उसकी ख़ाल चीकट, दाँत काले और भद्दे तथा साँसें उखड़ी.उखड़ी लगती थी. पहली बार जब उसकी विली से मुलाकात हुई तो उसने अपने बारे में काफ़ी कुछ बताया था. वह एक अच्छे औपनिवेशिक परिवार से था. विश्वयुद्ध से पहले उसके पिता ने उसे इंग्लैण्ड में पढ़ाई के लिए भेजा था ताकि वह अंग्रेज़ी सोसायटी के लायक बन सके. उसने एक अंग्रेज़ी-ट्यूटर भी रखा हुआ था. एक दिन ट्यूटर ने पढ़ाते वक़्त उससे पूछा- ‘‘अगर तुमसे डिनर के लिए पूछा जाए तो कहाँ जाना पसन्द करोगे- रिट्ज या बर्कले .’’ उसने कहा- ‘रिट्ज’. ट्यूटर सिर हिलाते हुए बोला- ‘‘नहीं, नहीं, यह कभी मत भूलो कि बर्कले का खाना ज़्यादा बेहतर है.’’ विश्वयुद्ध के बाद पारिवारिक विवाद के चलते वहाँ की व्यवस्था ही ख़त्म हो गई. उसने यही सब लिख रखा था और उसका एक हिस्सा अथवा प्रकरण विली को सुनाना चाहता था. विली अपने कमरे चला आया. उसने पास ही बोर्डिंग हाउस वाले कमरे में एक मनोचिकित्सक से मिलने का वृत्तान्त सुनाया. इस अध्याय में मनोचिकित्सक के संवाद बहुत कम थे.
सुनते ही विली को लगा कि पाठ के मनोचिकित्सक का कमरा भी बिल्कुल इसी कमरे जैसा था जहाँ वे बैठे थे. अन्त में जब उसने विली से उसकी राय के बारे में जानना चाहा तो विली बोला- ‘‘मुझे डॉक्टर और मरीज के बारे में कुछ और बताओ.’’ लेखक तैश खा गया. उसकी काली आँखें सुलग उठीं, तम्बाकू से सड़ चुके अपने दाँत निपोरकर चिल्लाने लगा- ‘‘तू क्या है, कहाँ से चला आया, तेरे पास अक़्ल नाम की कोई चीज़ है भी या नहीं ? एक बेहद प्रसिद्ध लेखक इसे पढ़कर कह चुका है कि मैंने लेखन में नए आयाम स्थापित किए हैं.’’
उसको इस तरह भड़कता देख विली कमरे से बाहर निकल भागा.
लेकिन जब उनकी दुबारा मुलाक़ात हुई तो वह बड़ी शांति से मिला. ‘‘मुझे माफ़ कर देना, दोस्त! मुझे उस कमरे से बड़ी नफ़रत है, वह मुझे ताबूत जैसा लगता है. हालाँकि मैं पुराने दिनों में उसका आदी रहा हूँ. अब मैं उसे छोड़ रहा हूँ, प्लीज़ मुझे माफ़ करो और इसे ख़ाली कराने में मेरी मदद करो ताकि मुझे विश्वास हो सके कि तुमने उस दिन का बुरा नहीं माना.’’
विली ने बोर्डिंग-हाउस जाकर दरवाज़ा खटखटाया. बगल वाले गेट से एक अधेड़ औरत निकली- ‘‘अच्छा तुम हो, कल जाते समय वह बता गया था कि अपने सामान के लिए किसी को भेजेगा. तुम उसका सूटकेस ले जा सकते हो लेकिन पहले पिछला किराया चुकाना होगा. यह रही कॉपी, चार.पाँच महीने का किराया बाक़ी है, कुल छियासठ पाउण्ड और पंद्रह शिलिंग.’’ यह सुनकर विली वापस चला आया.
इसके कुछ ही दिन बाद वह पर्सी की एक पार्टी में गया, वहाँ वह आदमी भी था, उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी. विली को देख वह सफेद वाइन का जाम पीते हुए आया और बोला- ‘‘सॉरी दोस्त! जैसा दक्षिण अफ्रीका में हम अक्सर कहते कि तुम भारतीय लोग ही हमेशा क़र्ज़दार रहते हैं. फिर भी तुमने मेरी मदद करनी चाही थी.’’
एक दिन शाम को वही आदमी फिर नज़र आया, वह मौज़-मस्ती वाली पार्टियों का आदी नहीं लग रहा था. पर उसके हाथ में शैम्पन की बोतल थी, जो उसने पर्सी को दरवाज़े पर ही भेंट कर दी थी. पचासेक की उम्र का वह आदमी भी पर्सी की तरह सलीकेदार कपड़े; चेक की कमीज़, सुरमई सूट और हाथ से टाँकी गई कॉलर की एक जैकेट पहने था. जिसकी मुलायम आस्तीन बाँहों पर फैली थीं. पर्सी ने उससे विली का परिचय कराया और दोनों को साथ-साथ छोड़ दिया. विली पीने का आदी नहीं था, लेकिन उसे देखते हुए शैम्पेन के लिए कहना पड़ा. उसने बेहद शालीन और अपनत्व भरे लहज़े में कहा- ‘‘यह बेहद ठण्डी है और ‘रिट्ज’ से लाई गई है. वे मेरे लिए एक बोतल हमेशा तैयार रखते हैं.’’
विली को विश्वास नहीं हुआ. दिखने में यह आदमी कितना गंभीर है. इसकी शांत और ठहरी हुई आँखों से तो यही लगता है. यूँ विली के लिए इस मामले पर कुछ तय कर पाना जरूरी नहीं था. आखिर यह मामला उनके लिए मायने क्या रखता था. लेकिन फिर वही ‘रिटज’! इतनी विलासिता क्या ठीक होगी. घर पर रहते हुए विली के लिए होटल का मतलब कोई बेहद सस्ती चाय की दुकान या ढाबा था. लेकिन लंदन वालों के लिए इसका मतलब एकदम अलग था- विलासिता उनके लिए अच्छा खाना या पीना उतना ज़रूरी नहीं था, जितना कि होटल का भव्य होना. मानो पैसे ज़्यादा देने पर उन्हें कुछ अतिरिक्त प्रसन्नता मिलती थी.
विली ने एक आदमी और देखा. वह किसी से कोई बातचीत नहीं कर रहा था, चुपचाप अपने काम में लगा था.
‘‘क्या आप लंदन में काम करते हैं ?’’ विली ने पूछा.
‘हाँ’, अज़नबी ने बताया, ‘मैं एक डेवलपर हूँ और इस इलाके का विकास कर रहा हूँ. अभी तो यह कूड़ेदान जैसा लगता है लेकिन अगले बीस सालों में इसका नक्शा बदल जाएगा. मैं बस इसी के इंतज़ार में हूँ. यह मध्य लंदन का इलाका है. यहाँ सारे पुराने किराएदार बसे हुए हैं. रिहाइश के लिए इन बड़े-बड़े घरों का किराया कितना कम है. सचमुच यहाँ से वे बाहर निकलना चाहते हैं- घने उपनगरों में या फिर गाँव के कॉटेजों में. मैं उनकी इस मामले में मदद करूँगा. प्रॉपर्टी खरीदने के बाद मैं इन किरायेदारों को आवास मुहैया कराऊँगा. कुछ ले लेंगे, कुछ नहीं. फिर मैं इस हिस्से को तोड़ डालूँगा. पर्सी को भी मैंने कभी इसी तरह अंधेरे से बाहर निकाला था.’ ये सारी बातें उसने इतनी शालीनता और सलीके से बताई कि विली को यक़ीन आ गया.
‘‘और पर्सी ?’’ विली ने पूछा.
‘‘वह लंदन का पुराना जमींदार है. उसने तुम्हें बताया नहीं ?’’
देर शाम पर्सी ने उससे पूछा- ‘‘उस बूढ़े ने तुम्हें खूब बनाया होगा, विली .’’
‘‘वह बता रहा था तुम पहले ज़मींदार थे.’’
‘‘अरे भाई, मुझे ढेर सारे काम करने पड़े हैं. यहाँ बसें चलाने के लिए वेस्ट इंडियन ड्राइवरों की ज़रूरत थी. लेकिन उनके रहने की समस्या बनी हुई थी. यहाँ के निवासी उन्हें किराये पर रखना नहीं चाहते. मुझे तुम्हें ये बता देना चाहिए था. ख़ैर, यहाँ के एक-दो द्वीपों की सरकारों ने मुझ-जैसे लोगों को प्रॉपर्टी खरीद कर वेस्ट इंडियनों को किराये पर रखने को कहा था. शुरुआत इसी तरह हुई. यह कोई हवाई इरादा नहीं था. मैंने पंद्रह सौ पाउण्ड देकर मकान खरीद लिये और लोगों को रख दिया. एक का किराया साढ़े सात सौ पाउण्ड था. लड़कों को मैं थोड़े कम में अलग से बचे कमरों में रख लेता. हर शुक्रवार मैं किराया वसूलने जाता था. बारबेडोस में इनके मुक़ाबले आप अच्छे लोग नहीं पा सकते. ये काफ़ी अहसानमंद होते हैं. लंदन की ट्रांसपोर्ट शिफ़्ट खत्म होने के बाद हर आदमी में एक भला ‘जैक’ मिलेगा जो कमरे की साफ़-सफ़ाई के बाद बिस्तर के बग़ल में घुटने मोड़ कर प्रार्थना करता है. उनके एक तरफ लेवीटीकस (Third book of the Bible अनुवादक) (खुली हुई बाईबल) होती तो दूसरी तरफ़ किराये पर लाई गई किताबें और नोट्स. इस बुजुर्ग को मेरे बारे में पता था- उसने मकान ख़रीदने को कहा. मैं मना नहीं कर सका. इसी ने मुझे क्लब में काम देने की बात भी कही; कारोबार के हिस्सेदार के रूप में. जब मैंने इसकी वजह पूछी तो उसने बताया कि उसे बोरियत हो रही थी. सोच-समझकर मैंने कॉलेज से छात्रवृत्ति ले ली. लेकिन यह अब भी मुझसे दोस्ती बनाए रखना चाहता है और मुझे परेशान किया करता है. सोचता है कि मैं इसका काम सँभालूँ. विली, मैं इसी वजह से परेशान हूँ.’’
विली सोच रहा था- कैसा अजीब शहर है यह! जब मैं स्पीकर्स-कॉर्नर ढूँढ़ते हुए इधर आया और यहीं कृष्ण मेनन को टहलते हुए देखा था, जो स्वेज़ पर हमले के अपने भाषण पर विचार मग्न थे, उस समय तक मुझे ज़रा भी नहीं पता था कि यहाँ एक तरफ़ क्लब और डेबन्हाम्स का परफ़्यूम काउन्टर है तो दूसरी ओर मैं, पर्सी की पुरानी जागीर और उस आदमी की अपनी दुनिया इतने पास-पास हैं.
ऐसी ही एक और पार्टी थी, जिसमें विली को भारी-भरकम दाढ़ी वाला एक युवा मिला. उसने बताया कि वह बी.बी.सी. में कार्यरत है. उसका काम था- बी.बी.सी की विदेशी सेवाओं के कार्यक्रम बनाना और उनका संपादन. वह इस क्षेत्र में नया आया था लेकिन अपना काम पूरी ईमानदारी और गंभीरता से करता था और जानता था कि उसका काम काफ़ी अहम है. वह स्वभाव से अभिजात प्रकृति का था और पूर्व मान्यताओं का सम्मान करता था. काम के दौरान उसे लगा कि नॉटिंग हिल की स्वच्छंद हवा में तैरना चाहिए. इसकी खातिर उसने विली जैसे लोगों से सम्पर्क बढ़ाना शुरू कर दिया, जो अंधेरे की दुनिया को चीरकर उन्मुक्त लहरों में तैरने को बेताब थे.
उसने विली से कहा था- ‘‘तुम मिनट-दर-मिनट मेरे लिए रोचक और महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हो.’’ विली तब अपने पुरखों के इतिहास पर काम कर रहा था. प्रोड्यूसर ने कहा- ‘‘हम यहाँ ईसाई समुदाय के बारे में ज़्यादा नहीं जानते. यह काफ़ी पुराना ओर आरंभिक है. और जैसा कि तुमने बताया भारत से कटा हुआ भी है. इसके बारे में जानना सुनना बेहतर होगा. तुम इस पर हमारे लिए कोई आलेख क्यों नहीं लिखकर देते. हमारे किसी कॉमनवेल्थ-प्रोग्राम में इसे आराम से जोड़ा जा सकता है. पाँच मिनट के छः सौ पचास शब्द-पेंग्विन की पुस्तक के डेढ़ पृष्ठ के बराबर. अगर हमने उसका इस्तेमाल किया तो बिना किसी हुज्जत के पाँच गिनीज़ मिलेंगी.’’
छात्रवृत्ति के अलावा विली को इसके पहले इस तरह पैसों का ऑफर नहीं मिला था. प्रोड्यूसर के सुझाव पर विचार करते-करते, उसकी दिशा तय करते हुए, जल्दी ही उसके दिमाग़ में पाँच मिनट की बातचीत का ख़ाका बन चुका था. शुरुआत उसने अपनी पारिवारिक घटनाओं से ही की थीं. इनमें विश्वकोश से भी कुछ तथ्य जोड़े. इसमें भारत से विलगाव का अनुभव भी शामिल था. हालाँकि उसमें भारत के अन्य धर्मों की वास्तविक जानकारी नहीं थी. ब्रिटिश काल में ईसाई विवेक से जुड़े परिवारों का काम, सामाजिक सुधार तथा एक-दो बातें फ़ायरब्राण्ड से सम्बन्धित थी, जो आम सभाओं में बोलते समय लाल स्कार्फ बाँधा करता था. साथ ही इनमें लेखक मिशन-स्कूल में अपनी शिक्षा, पुराने और नए ईसाइयों के आपसी तनाव, पिछड़ों और नव-धर्मान्तरितों की चिन्ताएँ भी शामिल थीं. विली के लिए यह बेहद तकलीफ भरा अनुभव था, लेकिन अंत में यह लाभकारी साबित हुआ, इससे उसकी नव इसाइयों के प्रति समझ एवं स्वीकार्यता ही नहीं बढ़ी, ईसाइयत के दायरे से हटकर उस बृहत्तर भारतीय संसार को भी जानने में मदद मिली. जहाँ से उसके पूर्वज अलग हुए थे.
इस वार्ता को लिखने में उसे दो घण्टे लग गए. वह मानो फिर से मिशन स्कूल का विद्यार्थी हो गया था. लगभग एक सप्ताह बाद उसे बी.बी.सी. का स्वीकृति पत्र मिला, नीचे प्रोड्यूसर का छोटा-सा हस्ताक्षर था. वह ऐसा आदमी था जो अपने संस्थान की प्रगति में ही अपनी पहचान समझता था. लगभग तीन सप्ताह बाद विली को स्क्रिप्ट रिकॅार्ड करने के लिए बुलावा आया. उसने हॉलबोर्न के लिए भूमिगत मार्ग लिया और किंग्सवे के शानदार इलाके से होते हुए बुश-हाउस की ओर बढ़ चला. इस दौरान पहली बार उसे लंदन की इतनी खूबसूरत झलकियाँ मिलीं. अब तक वह इस देश की शक्ति और सम्पत्ति बारे में ही जानता था. इससे पहले उसने ऐसी छटाएँ नहीं देखी थी, कॉलेज और नाटिंग-हिल में ऐसा कुछ देखने को था ही नहीं.
उसे स्टूडियो की ड्रामेबाजी अच्छी लगी. लाल और हरी लाइटें, अपने साउण्ड-प्रूफ़ कक्ष में बैठे प्रोड्यूसर एवं स्टूडियो-मैनेजर. उसकी स्क्रिप्ट एक बड़ी पत्रिका का हिस्सा थी और डिस्क पर रिकॉर्ड की गई थी. उसे और अन्य सहायकों को सारी प्रक्रिया दो बार करनी पड़ी. प्रोड्यूसर एकदम चौकस था और सबको बार-बार मशविरे दे रहा था. उसने जो कुछ कहा, विली उसे ध्यानपूर्वक सुन रहा था. ‘अपनी आवाज़ पर ध्यान मत दो, मुद्दे पर ग़ौर करो, हृदय की गहराई से बोलो या वाक्य के अन्त में अपनी आवाज़ गिरने मत दो आदि.’
अन्त में उन्होंने विली से कहा था- ‘‘तुम एकदम सहज रहे.’’
एक माह बाद उसे एक पश्चिमी अफ्रीकी युवा की उत्कीर्णन कला से संबंधित एक प्रदर्शनी में जाने को कहा गया. जब विली पहुँचा तो उसे पूरी गैलरी में अकेला उत्कीर्णक ही दिखाई पड़ा, जो कसीदे कढ़ी एक गंदी-सी अफ्रीकी टोपी और गाउन पहने था. अपने को बतौर रिपोर्टर बताना विली को अच्छा नहीं लगा लेकिन उस अफ्रीकी ने बड़ी तसल्ली से बातचीत की. उसने बताया कि जैसे ही वह कोई लकड़ी का टुकड़ा देखता है, उसके मन में उस पर उकेरे जानेवाली मूर्ति उभर आती है. उसने विली को पूरी प्रदर्शनी दिखाई. भारी अफ्रीकन गाउन के फीते उसी जाँघों से टकरा रहे थे. उसने बड़ी स्पष्टता से यह भी बता दिया कि लकड़ी के प्रत्येक टुकड़े के लिए उसने कितनी-कितनी रकम अदा की थी. ख़ैर, विली ने इसी बातचीत पर अपना आलेख तैयार कर लिया.
इसके दो हफ्ते बाद प्रोड्यूसर ने उसे एक अमेरिकी होस्टेस और गॉसिप लेखिका के साथ साहित्यिक-भोज (Literary-luncheon) पर जाने का कहा. लेखिका की सारी बात इस बात पर केन्द्रित रही कि डिनर-पार्टी की व्यवस्था कैसे की जानी चाहिए या फिर बोर लोगों से कैसे निपटा जाए आदि. उसका कहना था कि एक बोर को दूसरे बोर के साथ बैठा देना चाहिए; आग को आग ही बुझा सकती है. विली ने इस पर भी आलेख तैयार कर दिया था.
अब उसे अपनी बढ़ती हुई माँग का आभास हो चला था. एक दिन दोपहर को स्क्रिप्ट रिकार्डिंग के बाद उसने साउथेम्पटन रॉ की एक फ़र्म से किस्तों पर एक टाइपराइटर खरीद लिया. उसने चौबीस पाउण्ड के लोन के एक एग्रीमेन्ट पर हस्ताक्षर किया (जिस तरह पर्सी के पास वेस्ट-इंडियन किरायेदारों वाली कॉपी रहती थी) उसे भी एक मज़बूत जिल्द वाली पास-बुक दे दी गई ताकि लम्बे समय तक चल सके और उसमें हर हफ़्ते किए गए भुगतान को दर्ज किया जा सके.
अब उसका लिखना ज़्यादा आसान हो गया था. विली को यह भी पता चल गया था कि रेडियो-वार्ता बोझिल नहीं होनी चाहिए. साथ ही, पाँच मिनट के काम के लिए कितना मसाला चाहिए- मोटे तौर पर यही कोई तीन-चार बिन्दु, इसलिए वह तुरन्त अनावश्यक चीजों की छँटाई करने लगता. उसने प्रोड्यूसर, स्टूडियो मैनेजर और अन्य सहायकों से भी इस विषय में जानकारी ले ली. इनमें कुछ सहायक बेहद पेशेवर थे- वे उपनगरों में रहते थे और ट्रेन से आते-जाते थे. उनके हाथों में भारी-भरकम ‘ब्रीफ़केस’ रहता, जिनमें कई कार्यक्रमों के आलेख और उनकी रूपरेखाएँ होती थीं. ये काफ़ी व्यस्त बने रहते थे, छोटी-मोटी स्क्रिप्ट का काम भी हफ़्तों, महीनों पहले तैयार कर लिया रहते. लेकिन किसी पत्रिका (कार्यक्रम) के लिए आधे घण्टे के कार्यक्रम में भी इन्हें दो बार बैठना नागवार गुज़रता था. ये दूसरों के काम देखते ही ‘बोर’ होने लगते थे. विली ने ऐसे ही लोगों से खीजना सीखा था.
लेकिन रॉजर नाम के एक युवा वकील ने उसे बहुत प्रभावित किया. उसका कैरियर अभी शुरुआती दौर में ही था. वह सरकार की ‘लीगल-एड-स्कीम’ के तहत काम कर रहा था. जो वकीलों को फ़ीस अदा करने में असमर्थ लोगों के लिए बनी थी. ऐसे लोग काफी परेशान रहते थे लेकिन कानून पर इनका भरोसा कायम था. विली रॉजर के इसी काम पर आलेख तैयार कर रहा था. वह इसे अंतिम रूप ही दे रहा था कि तभी एक मोटी-सी औरत रॉजर के ऑफिस में आई और पूछा- ‘‘क्या तुम्हीं वह भोले वकील हो ?’’ सुनकर एक बार तो रॉजर को गुस्सा आया लेकिन इसे दबाकर उसने शर्माते हुए कहा- ‘‘जी हाँ, मैं ही हूँ.’’
विली ने स्क्रिप्ट-रिकार्डिंग में भी उसकी बड़ी प्रशंसा की थी. इसके बाद रॉजर उसे बी.बी.सी. क्लब ले गया. वहाँ बैठने के बाद रॉजर ने कहा- ‘मैं यहाँ का सदस्य तो नहीं, लेकिन यह जगह है बड़ी सुविधाजनक.’
उसने विली से उसके विषय के बारे में पूछताछ की. विली ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई के बारे में बताया.
‘‘अच्छा! तो आप अध्यापक बनने जा रहे हैं’’ रॉजर ने कहा.
‘‘नहीं, नहीं’’, वास्तव में विली की कभी अध्यापक बनने की इच्छा नहीं रही.
एक वाक्यांश उसके दिमाग़ में उभर रहा था- ‘‘आई एम मार्किंग टाइम’’’
रॉजर बोला, ‘‘मुझे भी यही चीज़ पसन्द है.’’
वे दोस्त बन गए थे. रॉजर उससे कुछ लम्बा था और गहरे रंग का डबल-ब्रेस्ट सूट पहने हुए था. उसका व्यवहार बेहद विनम्र और बातचीत करने की अदा एकदम संतुलित होती था. उसके कसे और सधे हुए वाक्य विली को बुरी तरह आकर्षित करते. रॉजर में इन चीज़ों के विकास की वजह थी- उसका परिवार, स्कूल, युनिवर्सिटी, उसके दोस्त और वकालत का पेशा. विली ने यह सब एकसाथ रॉजर में ही पाया.
एक दिन उसने रॉजर को ‘ट्राउजर ब्रासेस’ में देखा. उसे बड़ी हैरानी हुई. पूछने पर रॉजर ने बताया- ’‘यार, तुम्हारी तरह ना तो मेरे पास कमर है, ना कूल्हे. इसे तुरन्त नीचे खिसकाया जा सकता है.’’
सप्ताह में उनकी एक बार मुलाकात होती. कभी-कभार वे ‘लॉ-कोर्ट्स’ में लंच के लिए जाते. रॉजर को वहाँ की ‘पुडिंग’ बहुत पसंद थी. वे थिएटर भी साथ-साथ जाते. रॉजर एक क्षेत्रीय अखबार में ‘लंदन लेटर’ नाम से एक साप्ताहिक कॉलम लिखता था. इसके लिए उसे किसी वांछित नाटक पर लिखने के लिए टिकटें भी मिल जाती थीं. कई बार वे उस मकान की मरम्मत का काम देखने जाते जिसे रॉजर ने ‘मार्बल आर्क’ के पास एक गंदे और सँकरे गलियारे में लिया था. एक बार उसके बारे में बात करते हुए रॉजर ने बताया- ’’मेरे पास थोड़ी बहुत पूँजी थी, यही कोई चार हज़ार पाउण्ड. मुझे इसका सबसे अच्छा उपयोग लंदन में ‘प्रॉपर्टी’ बनाना लगा.’’
एक छोटे-से मकान पर रॉजर के इतने अच्छे विचारों पर विली फ़िदा हो गया था. वह उसके चार हज़ार पाउण्ड की रकम पर उतना नहीं जितना उसकी जानकारी, आत्मविश्वास, पूँजी और ‘प्रॉपर्टी’ जैसे बढ़िया शब्दों के प्रयोग से प्रभावित था. पिछले दिनों जब भारत में ईसाई धर्म से सम्बन्धित अपने आलेख की रिकार्डिंग के लिए वह किंग्सवे से बुश हाउस की ओर आ रहा था तब पहली बार उसे विश्व-युद्ध से पूर्व इंग्लैण्ड की दौलत और ताक़त का भान हुआ और धीरे-धीरे रॉजर के साथ रहते हुए उसे प्राप्त करने रास्ते भी नज़र आने लगे. उसे लगा कॉलेज में पढ़ाई के लिए आने वालों और नॉटिंग हिल में मौज़.मस्ती का जीवन बसर कर रहे आप्रवासियों ने भी शुरुआत में ऐसा ही कुछ सोचा होगा.
एक दिन पर्सी काटो ने बेहद अतिरेक पूर्ण जमैकियन लहज़े में कहा- ‘वाह (Wha) क्या बात है दोस्त! किसी और की दोस्ती में डूबने के बाद क्या अपने पुराने दोस्त को भूल जाओगे ?…..
‘‘जुने भी तुम्हारे बारे में पूछ रही थी’’ फिर वह सामान्य लहजे पर उतर आया था.
विली को उसी कमरे की याद आई, जहाँ वह उसे ले गई थी. पर्सी भी अक्सर उससे वहीं मिलता था. वहाँ का संडास, किसी द्वीप से आया जमैकियन टोपी और जूट के पायजामे वाला अश्वेत आदमी, उसका दूर से उन्हें घूरना, सब उसे याद आ रहे थे. रॉजर की दोस्ती में ये बड़ी अजूबी बातें थीं. विली अब उन घटनाओं को कहीं दूर से देख रहा था.
‘‘मैं समझ नहीं पाता, आखिर तुम करना क्या चाहते हो ? कोई पुश्तैनी धंधा करोगे या फिर तुम खुद को काहिल रईस समझते हो.’’ रॉजर ने पूछा था लेकिन ऐसे नाज़ुक मौकों पर विली ने सपाट चेहरा बनाए रखना सीख लिया था.
उसने कहा- ’‘मैं लेखन-कार्य करना चाहता हूँ.’’ हालाँकि यह सही नहीं था, उस घड़ी तक भी उसने ऐसा मन नहीं बनाया था. चूँकि रॉजर दबाव देकर पूछ रहा था और इस विषय में जल्दी कुछ तय करना ज़रूरी समझता था. विली ने रॉजर से बहुत कुछ सीखा था. रॉजर एक बेहतर पाठक था. वह समकालीन अंग्रेज़ी के कई प्रसिद्ध लेखकों जैसे ऑरवेल, वॉग, पॉवेल, कोनॅली आदि का प्रशंसक था.
विली के उत्तर से रॉजर निराश दीखा.
विली ने पूछा- ‘‘क्या मैं तुम्हें अपनी कुछ चीज़ें दिखा सकता हूँ ?’’
उसने मिशन स्कूल के दौरान लिखी कुछ कहानियाँ टाइप कर रखी थीं. एक शाम वह उन्हें रॉजर को दिखाने ले आया. वे एक पब (शराब के अड्डे) पहुँचे, जहाँ रॉजर ने एक-एक कर उनको देख डाला. उसकी सूरत बेहद गंभीर लग रही थी. उसका वकीलाना अन्दाज़ देखकर विली ने सोचा आज तक उसने अपनी किसी पुरानी चीज़ की परवाह नहीं की थी, चाहे वे कहानियाँ ही क्यों न हो. उसे लगा, इस आदत के चलते कहीं वह रॉजर से मित्रता न गवाँ बैठे.
तभी रॉजर बोला- ‘‘मैं तुम्हारे हमनाम और पारिवारिक दोस्त (उस बुजुर्ग लेखक जिनके नाम पर विली का नाम रखा गया.) को जानता हूँ, जिनके अनुसार किसी कहानी में एक प्रारम्भ, मध्य और एक उचित अन्त होना चाहिए. लेकिन सोचकर देखो, क्या ज़िन्दगी हमेशा इसी तरह होती है. इसकी ना तो कोई विशुद्ध शुरुआत होती दिखती है, ना चुस्त-दुरुस्त अंत. यह तो बस चलती जाती है. तुम मध्य से ही कहानी उठाओ और मध्य पर ही ख़त्म करो. अब यह कहानी जो ब्राह्मण, खज़ाने और बच्चों की बलि से जुड़ी है. इसे आश्रम में ब्राह्मण से मिलने आते हुए आदिवासी मुखिया वाली बात से शुरू करना चाहिए था. उसे पहले धमकी देने फिर पैरों में गिरने पर रोक देना चाहिए. हम जानते हैं कि जाते-जाते उसने एक भयानक हत्या की योजना बना ली है. क्या तुमने हेमिंग्वे को पढ़ा है. उनकी शुरुआती कहानियाँ पढ़ो. उनमें एक कहानी ‘द किलर्स’ शीर्षक से है, पाँच.छः पन्नों की यह कहानी केवल संवादों में लिखी गई है.
रात के समय दो आदमी एक ख़ाली और सस्ते कैफ़े में आते हैं और उस पर क़ब्ज़ा जमा लेते हैं. हाथ में हथियार लिए वे एक गुंडे की बाट जोह रहे हैं, जिसे मारने की उन्हें सुपारी दी गई है, इतना ही! हॉलीवुड में इस पर एक शानदार फ़िल्म भी बन चुकी है लेकिन कहानी कहीं बेहतर है. मुझे पता है तुमने ये कहानियाँ स्कूल में लिखी थी, और तुम्हें ये अच्छी लगती हैं. लेकिन एक वकील के नाते मेरी सलाह है कि तुम वास्तविक घटनाओं का आधार बनाकर लिखो, जो तुमने अब तक नहीं किया. मैंने अपना बहुत सारा समय ऐसी ही चीज़ों में बिताया है. मुझे ऐसी कहानियों की भी जानकारी है, जिनमें लेखक एक रहस्य बनाए रखता है, जिसे वह छिपाना चाहता है.’’
यह सुनकर विली को बहुत बुरा लगा. वह शर्म से गड़ गया. उसे लगा आँसू निकलने ही वाले हैं. उसने अपनी कहानियाँ लीं और खड़ा हो गया.
‘‘अच्छा ये होगा, पहले चीज़ों के प्रति अपनी समझ विकसित कर लो.’’ रॉजर बोला.
विली ने अड्डा छोड़ते हुए सोचा- ‘‘मैं अब कभी रॉजर से नहीं मिलूँगा. ये पुरानी कहानियाँ उसे दिखानी ही नहीं चाहिए थीं. वह सच बोल रहा था, ये बेकार की हैं.’
इस दोस्ती पर अफ़सोस करते हुए उसने जुने और नॉटिंग हिल के उसी कमरे की याद आ रही थी. उसने उसे एक ओर झटक दिया था. लेकिन वह अलग नहीं रह पाया और कुछ दिन बाद लंच के समय उसे ढूँढने निकल पड़ा. बॉण्डस्ट्रीट तक वह भूतल रास्ते से आया था. डेबन्हाम्स जाने के लिए वह रास्ता पार ही कर रहा था, तभी उसने देखा कि जुने एक लड़की के साथ सामने से चली आ रही थी. उसकी नज़र विली पर नहीं पड़ी. वह सिर झुकाए बातें कर रही थी. आज उसे वह पहले की तरह ताज़गी भरी, सीधी और सुगन्धित नहीं लगी, उसका रंग भी बदला-बदला लग रहा था.
दूसरी लड़की के साथ उसे ऐसी घरेलू-सी अवस्था में देखकर विली की काम भावना उड़ गई, उसने मुँह बना लिया. विली का मन उसे अभिवादन करने का भी नहीं हुआ. वे एक-दूसरे को छूते हुए गुज़र गए. उसने विली को देखा तक नहीं. उनकी बातचीत उसके कानों में जरूर पड़ी. वह सोच रहा था- यह शायद इसीलिए क्रिकलवुड में रहती है. थोड़ी-थोड़ी देर में किसी के भी साथ हो लेती है.
उसने राहत की साँस ली लेकिन साथ ही अपने को बहिष्कृत भी महसूस किया. बहुत पहले ऐसा ही तब हुआ था- जब वह घर पर था और मिशनरी का पादरी बनकर सारी दुनिया में एक अधिकार प्राप्त व्यक्ति के नाते घूमने-फिरने का अपना पुराना सपना उसे त्यागना पड़ा था.
कुछ दिनों बाद वह एक पुस्तक विक्रेता के यहाँ गया. वहाँ से उसने दो शिलिंग और छः पेंस में हेमिंग्वे की शुरुआती कहानियों की किताब ख़रीदी और वहीं खड़े.ख़ड़े ‘द किलर्स’ के आरम्भिक चार पन्ने पढ़ डाले. कहानी अस्पष्ट शैली में और हल्की-सी रहस्यमकता का पुट लिए थी, जो उसे बहुत पसन्द आया. अगर इसकी रहस्यात्मकता थोड़ी कम कर दी गई होती तो बाद के पृष्ठों में विद्यमान लय ग़ायब हो जाती. रोज़र के सुझावानुसार विली अपनी ‘ए लाइफ ऑफ सेक्रिफ़ाइस’ शीर्षक कहानी दोबारा लिखने की सोचने लगा था.
रॉजर ने ‘द किलर्स’ पर बनी फ़िल्म की ओर भी इशारा किया था, लेकिन विली ने उसने देखा नहीं. सोचा, उन्होंने पता नहीं मूल कहानी का क्या बना डाला होगा.
अगले कई दिनों तक वह इस पर ढंग से काम करने के तरीके़ सोचता रहा. उसके दिमाग में आया कि हालीवुड फ़िल्मों में कुछ ऐसे दृश्य या क्षण होते हैं, जिनको ‘सेक्रिफ़ाइस’ की विषयवस्तु पर पुनर्सर्जित किया जा सकता है. खासकर काग्ने गैंगस्टर और हम्फ्रे बोगार्ट की ‘हाई सिएरा’- जैसी फ़िल्में. मिशन स्कूल में लिखी कुछ मौलिक रचनाओं में एक ऐसी ही थी. उसने एक ऐसे आदमी को विषय बनाया था- (देश अथवा काल से निरपेक्ष) जो किसी ख़ास वजह से एक गुप्त स्थान पर किसी का इंतजार कर रहा था. इस बीच वह सिगरेट-पर-सिगरेट पिये जा रहा था (इसमें ढेर सारे सिगरेट के टोटों और तीलियों का जिक्र था) और वहाँ से गुजरती कारों और आने-जाने वालों की आवाज़ें सुन रहा था. आखि़रकार (यह रचना सिर्फ एक पन्ने में सिमटी हुई थी) जब वह आदमी पहुँचा तो इंतज़ार करनेवाला आदमी गुस्से से बेक़ाबू हो गया. यह कहानी उसे यहीं समाप्त करनी पड़ी. क्योंकि आगे-पीछे का कुछ अता-पता नहीं था. लेकिन अब काग्नेय और बोगार्ट की फ़िल्मों के कारण ऐसी कोई समस्या नहीं आनेवाली थी.
उसने एक ही सप्ताह में छह कहानियाँ लिख डाली. ‘हाइसिएरा’ में तीन कहानियाँ थीं, काग्ने या बोगार्ट के पात्रों के आधार पर उसने उनसे तीन-चार और गढ़ लीं. फ़िल्म के पात्रों के अनुरूप वह उन्हें कहानी-दर-कहानी बदलता गया. इस तरह उनके कई अलग रूप बन गए. सभी कहानियाँ ‘बलिदान’ का संदर्भ लिए थीं. उनमें विन्यस्त परिवेश अपनी अलग पहचान देने लगे थे. इन कहानियों में प्रयुक्त उपकरण थे-
एक बुर्जों और स्तम्भों वाला गुम्बदाकार महल, सपाट गवाक्षों और तलोंवाला सचिवालय, अजीबोगरीब फ़ौजी छावनी, उससे लगी सफेद किनारों वाली सड़क; जो अक्सर सुनसान पड़ी रहती, काफी दूर तक फैली यूनिवर्सिटी, उसकी दुकानें, दो पुराने मंदिर; जहाँ श्रद्धालु ख़ास तरह के परिधानों में आते थे, एक बाज़ार, ऊँची-नीची बस्तियों वाली हाउसिंग कॉलोनियाँ, एक अविश्वासी पुजारी का आश्रम, एक मूर्तिकार, शहर से बाहर बदबूदार चमड़ा साफ़ करने वाले कारखाने और उनसे लगी सबसे अलग-थलग पड़े लोगों की आबादी.
विली हैरान था कि पात्र उधार लेकर लिखी हुई इन रचनाओं में उसकी भावनाएँ ज़्यादा ईमानदारी और सच्चाई से उकेरी गई थीं. उसने कॉलेज में एक निबन्ध भी लिखा था. अब उसे शेक्सपीयर द्वारा अपने जीवन से सीधे न लेकर आस-पास से उठाई गई कहानियों की करामात भी समझ में आ रहा थी.
छह कहानियाँ चालीस से भी कम पृष्ठों में आ गईं. वह सबसे पहले इन पर रोज़र की प्रतिक्रिया देखना चाहता था. उसने उसे पत्र लिखा. रॉजर ने उसे वार्डर स्ट्रीट के छोर पर स्थित शेज विक्टर (chez victor) में लंच के लिए बुलाया. विली भी तैयार बैठा था. रॉजर ने कहा ‘‘तुमने खिड़की पर वह ‘साइन’ देखा- ‘^Le Patron manage ice’- यहाँ मालिक खाना खाता है.’’
‘‘यहाँ साहित्यिक लोग आते हैं.’’ रॉजर ने आवाज़ धीमी करते हुए कहा था- ‘‘वह जो सामने आ रहे हैं, उनका नाम वी. एस. प्रिशेट (V.S. Pritchett) है. विली ने यह नाम पहली बार सुना था. ये ‘न्यू स्टेट्समेन’ के प्रधान समीक्षक हैं.’’ अधेड़ उम्र का वह आदमी काफी हट्टा-कट्टा, सौम्य और प्रसन्नचित दिखाई दे रहा था. उसकी पत्रिका को विली ने कॉलेज लाइब्रेरी में देखा था, हर शुक्रवार की सुबह लड़कों में उसके लिए छीना-झपटी मची रहती थी. पर विली ने उसे कभी पढ़ने की कभी जरूरत महसूस नहीं की. ‘न्यू-स्टेट्समैन’ उसके लिए रहस्य की तरह था, अंग्रेज़ी जीवन की घटनाओं और संदर्भों से लैस, जो उसकी समझ से परे थी.
रॉजर बोला- ‘‘मेरी गर्लफ्रेण्ड आने वाली है. उसका नाम पर्दिता है. शायद वह मेरी मंगेतर भी बने.’’
उसका यह अटपटा पद-विन्यास सुनकर विली को कुछ संदेह हुआ.
वह लम्बी, छरहरी, देखने में साधारण शक्ल-सूरत की और हाव-भाव में अजीब-सी लग रही थी. उसने अपनी सफेद त्वचा को चमक देने के लिए कोई चमकीला लेप लगा रखा था, जो जुने के मेकअप से बिल्कुल भिन्न लग रहा था.
उसने अपने सफे़द धारीदार दस्ताने उतारे और शेज़ विक्टर की छोटी मेज़ पर इस अदा से रखा कि विली को उसका चेहरा ग़ौर से देखना पड़ा. उसकी आँखों की भाषा और उसके प्रति शिष्टाचार जताते हुए ऊपर से नीचे देखकर विली तुरन्त समझ गया कि रॉजर और पर्दिता के आपसी सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं चल रहे थे. खाने के दौरान भी उसे यही बात महसूस हुई. उनके बीच ज़्यादातर बातचीत भोजन को लेकर होती रही, जिसकी पहल विली की ओर से हुई. रॉजर शिष्टाचार बनाए हुए था लेकिन पर्दिता के साथ बुझा-सा दिख रहा था. उसकी आँखें उदास सी थी और चेहरे का रंग उड़ा-उड़ा लग रहा था. रॉजर का वह खुलापन भी ग़ायब था बल्कि उसके माथे पर चिंता की लकीरें साफ़ खिंची हुई थी. विली और रॉजर शेज़ विक्टर से एक साथ निकले. रॉजर कहने लगा-
‘‘मैं इससे थक गया हूँ यार! और इससे ही नहीं, इसके बाद वाली बल्कि उससे भी आगे वाली से जल्दी ही थक जाऊँगा. औरतों में होता ही क्या है ? उनकी खूबसूरती भी मिथ ही होती है. यह उन्हीं का सिरदर्द होता है.’’
‘‘यह क्या चाहती है ?’’ विली ने पूछा.
‘‘यह चाहती है कि मैं बिज़नेस करना शुरू कर दूँ, फिर इससे शादी. शादी..शादी… जब भी मैं इसे देखता हूँ, दिमाग में यही गूँजता रहता है.’’
‘‘मैंने आपकी सलाह पर ग़ौर करते हुए कुछ लेखन का काम किया है. आप देखना चाहेंगे.’’
‘‘हमें यह ज़ोखिम भी उठाना ही है.’’
‘‘हाँ, मेरी भी इच्छा है आप इसे पढ़ें.
उसने जैकेट के सामने वाली जेब से कहानियाँ निकाली और रॉजर को थमा दीं.
कोई तीन दिन बाद रॉजर का सौहार्द भरा ख़त आया, जब वे मिले तो रोज़र ने कहा- ‘‘ये कहानियाँ ज़्यादा यथार्थपरक हैं. ये हेमिंग्वे नहीं क्लीस्ट (Kleist) के ज़्यादा निकट हैं. किसी एक का तो उतना नहीं पर अपनी संपूर्णता में इनका अच्छा प्रभाव बनता है. इनका धुंधलापन चला गया है. हाँ, पृष्ठभूमि होनी चाहिए, चाहे वह भारत की हो अथवा नहीं, तुम्हें अपना काम करते रहना चाहिए. सौ पृष्ठ और हो गए तो हम इनकी बिक्री के बारे में भी सोच सकते हैं.’’
इस बार कहानियाँ उतनी आसानी से नहीं बनीं, इनमें एक-दो सप्ताह का समय भी लगा. सिनेमाई-दृश्यों और मसाले की ज़रूरत पड़ते जान विली ने पुरानी फ़िल्में, विदेशी सिनेमा भी देख डाले. इस विषय को लेकर वह हेम्पस्टीड और ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट स्थित अकादेमी के हर आदमी से मिला. अकादेमी में ही उसने तीन बार ‘द चाइल्डहुड ऑफ मैक्सिम र्गोकी’ देखी. जिसे अपनी कहानियों में उकेरते हुए विली रो भी पड़ा. क्योंकि स्थितियाँ उसके अपने बचपन से काफ़ी मेल खा रही थीं.
एक दिन रॉजरने कहा- \”जल्दी ही लंदन से हमारा संपादक आने वाला है. जानते ही हो, मैं उसके लिए किताबों और नाटकों पर एक साप्ताहिक कॉलम तैयार करता हूँ. जिसके प्रति कॉलम दस पाउण्ड मिलते हैं. मैं सांस्कृतिक व्यक्तित्वों को लेकर ऐसी-वैसी टिप्पणी भी कर देता हूँ. लगता है, वह मेरी जाँच करने आ रहा है. कहता था, मेरे दोस्तों से मिलेगा. मैंने उसे लंदन के बुद्धिजीवियों के एक भोज में आमंत्रित किया है. तुम्हें भी वहाँ आना है, विली! मार्बल आर्क स्थित घर में आयोजित यह पहली पार्टी है. वहाँ मैं तुम्हारा भावी साहित्यकार के रूप में परिचय कराऊँगा. यहीं प्राउस्ट में स्वान नामक एक सामाजिक हस्ती है जो कभी-कभार अनमेल लोगों की पार्टी आयोजित करता है. जिन्हें वह सामाजिक गुलदस्ता कहकर बुलाता है. मैं भी संपादक के लिए ऐसा ही कुछ करने की सोच रहा हूँ.\”
पश्चिमी अफ्रीका में अपनी नेशनल सर्विस के दौरान मेरी मुलाकात एक नीग्रो से हुई थी. वह एक वेस्ट इंडियन का बेटा था, जो अफ्रीकी आंदोलन के दौरान पश्चिमी अफ्रीका में बस गया था. मारकस नाम का यह आदमी बेहद आकर्षक और सुसंस्कृत था. वह अतृप्त स्वभाव का आदमी था और अंतर-जातीय-सेक्स (Inter-racial sex.) को बेहद पसंद करता था. पहली मुलाकात के दौरान मेरी उसकी सारी बातचीत इसी पर ही केन्द्रित रही. उठते-उठते मैं बोला – ‘‘अफ्रीकी औरतें बड़ी लुभावनी होती हैं.’’
‘‘हाँ, अगर तुम जानवरों जैसा सलूक करो तो!’’ उसने कहा था.
देश की आज़ादी के बाद वह राजनयिक की ट्रेनिंग पर यहाँ आया था. लंदन उसे स्वर्ग लगता है. उसकी दो सबसे बड़ी इच्छाएँ हैं. एक तो उसका सबसे बड़ा पौत्र अंग्रेज़ों जैसा गोरा हो. इस दिशा में उसका आधा काम हो चुका है. पाँच अंग्रेज़ औरतों से उसे पाँच नीग्रो बच्चे पैदा हो चुके हैं. अब वह सचेत हो गया, कहीं वे उसी के लिए मुसीबत न बन जाएँ. उसकी इच्छा है कि बुढ़ापे में जब वह चलने में असमर्थ हो जाएगा तो अपने सबसे बड़े और गोरे पोते के साथ किंग्स रोड पर टहला करेगा. तब लोगों को अपनी ओर घूरते देख उसका पौत्र चिल्लाएगा- ‘‘दादाजी, ये हमें क्यूँ घूर रहे हैं ?’’
उसकी दूसरी इच्छा थी ‘काउट्स’, यानी जो रानी का बैंक है, उसमें अपना खाता खुलवाने वाला पहला अश्वेत आदमी बनने की.
‘‘क्या वहाँ अब तक ऐसा नहीं हुआ ?’’ विली ने पूछा.
‘‘पता नहीं, उसे असलियत की जानकारी है भी या नहीं.’’
‘‘उसे तुरन्त बैंक जाकर इस बारे में पता करना चाहिए. अपने लिए एक फॉर्म माँगना चाहिए.’
‘‘वह सोचता है उसे वहाँ बड़ी चालाकी से टरका दिया जाएगा. वे कह देंगे कि फॉर्म ख़त्म हो गए हैं. जो वह चाहता नहीं. जब उसे पूरा यक़ीन हो जाएगा तभी किसी दिन अचानक जाकर फ़ॉर्म जमा करेगा ताकि पहला आदमी वही बन सके.’’
इसके बाद मैं समझ नहीं पाया. आगे तुम पूछना. उसे भी अच्छा लगेगा. वहीं एक युवा कवि और उनकी पत्नी भी मिलेंगे. वे थोड़े नाख़ुश से दिखेंगे और अधिकतर चुप बने रहेंगे. बल्कि कई बार कवि महोदय अपने से बातचीत करने वाले को झिड़क तक देते हैं. लेकिन वह ख्यातिनाम आदमी है. संपादक को उनसे मिलकर खुशी होगी.
एक बार मैंने ‘लंदन लैटर’ में इस कवि की एक किताब पर लिखा था, मेरा उनसे तभी का परिचय है. विली बोला- ‘‘मैं चुप्पा लोगों के बारे में जानता हूँ. मेरे पिताजी अक्सर मौनव्रत रखते थे. मैं उस कवि से मिलूँगा.’’
उनसे मिलकर तुम्हें कोई ख़ास अच्छा नहीं लगेगा. कविता एकदम जटिल, शुष्क और अतिरेकपूर्ण चीज़ है. फिर भी तुम इस पर विचार करो तो तुम्हारी मर्जी. वैसे चाहो तो उससे मिल सकते हो, लेकिन बातचीत डिनर के बाद ही हो पायेगी. मैंने उन्हें एक मिला-जुला वातावरण देने के लिए बुलाया है. जिन दो लोगों से तुम्हें और मिलना चाहिए, वे मेरे ऑक्सफ़ोर्ड के परिचित हैं. मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि के ये लोग अमीरज़ादियों के पीछे भागते रहते हैं. यही उनका मुख्य काम बन गया है. इसकी शुरुआत उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड से की थी. तब से वे अमीर से अमीरतर औरतें बदलते रहे हैं.
किसी औरत से जुड़ी सम्पत्ति का उनका पैमाना बहुत ऊँचा हो गया है. दोनों एक-दूसरे पर संदेह करते हैं बल्कि धोख़ेबाज़ तक मानते हैं. उन्होंने यह सूत्र ऑक्सफ़ोर्ड के दौरान ही पा लिया था कि अमीर औरतों की खोज ही सफलता की पहली सीढ़ी है. उन्होंने ऐसी अमीरज़ादियों को फाँसने के तरीक़े अपनाने शुरू किये जो प्रायः अपने से निचले वर्ग के युवाओं पर कोई ध्यान नहीं देती थीं. जल्द ही एक से एक अमीर युवतियाँ इनके जाल में आने लगीं और ये धनी होते चले गए.
इनमें से एक रिचर्ड बदचलन, मुँहलगा, शरीर से थुलथुल और शराबी था. यानी ऐसा नहीं था कि औरतें उसकी ओर अनायास खिंचती. वह ऊनी कपड़े की एक चीकट और ऐसी ही विएला कमीज़ डाले रहता. लेकिन उसे अपनी साख का अंदाज़ था और इसी के बल पर वह खेलता था.
वह स्वयं को जर्मनी के एक स्वच्छन्द और बोसीदे नाटककार बर्तोल्त ब्रेख़्त की तरह पेश करता. सच यह है, वह केवल बिस्तरी मार्क्सवादी था. उसका मार्क्सवाद बिस्तर से शुरू होकर वहीं ख़त्म हो जाता था. यह बात उसके द्वारा छली गई औरतें भी जानती थीं. फिर भी वे उसके साथ सुरक्षित महसूस करतीं. ऑक्सफ़ोर्ड से लेकर आज तक ये चला आ रहा है. फ़र्क़ इतना ही था वहाँ अमीर औरतों के साथ सोने में उसे आत्मिक उत्तेजना मिलती थी, इधर वह उनसे ढेर सारा धन ऐंठने लगा था. दरअसल यहीं उससे ग़लतियाँ हुईं. इस मामले में वह बेडरूम से भी आगे बढ़ गया था. मुझे याद है एक अधनंगी औरत ने सिसकते हुए उससे कहा था- ‘‘मैं तो सोचती थी तुम मार्क्सवादी हो.’’ ‘‘और मैं सोचता था तुम अमीरज़ादी हो,’’ उसने जल्दी से पतलून ऊपर सरकाते हुए कहा था.
प्रकाशन के क्षेत्र में भी रिचर्ड लगातार धनी होता जा रहा है. वह तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, क्योंकि एक प्रकाशक के नाते उसका मार्क्सवादी होना, उसके लिए लाभदायक है. वह जितनी औरतें को छोड़ता, उनसे कहीं ज़्यादा उसकी ओर खिंची चली आतीं.
पीटर की जीवन-शैली एकदम अलग थी. उदार परिवेश का वह युवक देश का एस्टेट-एजेन्ट भी था और ऑक्सफ़ोर्ड में एक भद्र अंग्रेज़ पुरुष की तरह रहता था. वहाँ बहुत सारी विदेशी लड़कियाँ विभिन्न भाषा-संस्थानों में अंग्रेजी का अध्ययन कर रही थीं. उनमें कुछ अमीर भी थीं. अपने संकोची स्वभाव के चलते वह उनकी अनदेखी करता था और अपनी गतिविधियाँ बनाए हुए था. वे भी उसे भिन्न स्वभाव का समझती थीं. बुद्धि में वह औरों से काफी तेज़ था, धान से निकले दाने की तरह विषय का आशय तुरन्त भाँप लेता था.
एक बार उसे दो-तीन अमीर यूरोपीय घरों से बुलावा आया. उसने खुद को सँवारा और वहाँ जाना शुरू कर दिया. बालों को आधे फ़ौजी स्टाइल में कटवा कर उसने अपने लालटेनी जबड़ों को काम में लेना सीख लिया. अवर कॉमन रूम में एक दिन हम लंच के बाद एक बेकार-सी कॉफी पी रहे थे. उसने मुझसे पूछा- ‘‘तुम्हारे अनुसार किसी आदमी पर सबसे सेक्सी कपड़ा कौन-सा लगता है ?’’ यह कॉमन रूम की जाने लायक़ बात नहीं थी. लेकिन इससे पता चलता था कि पीटर एस्टेट-एजेन्ट वाले रास्ते से दूर किधर जाने लगा था.
अंत में उसी ने बताया- ‘‘एक बेहद साफ़-सुफरी और इस्तरी की हुई सफ़ेद क़मीज़.’’ यह बात उसे एक फ्रांसीसी लड़की ने बताई थी जिसके साथ उसने कल की रात गुज़ारी थी. तब से वह हमेशा सफ़ेद क़मीज़ पहने रहता. आजकल तो वे काफ़ी महँगी हो गई हैं. हाथ की बुनी ऐसी सूती कमीजों को वह जैकेट के ऊपर कॉलर निकाल कर पहनता. स्टार्च डालने से कॉलर मोम-सी कड़क लगती थी. अकादमिक दुनिया में पीटर एक इतिहासकार था. उसने ‘इतिहास में भोजन’ जैसे महत्वपूर्ण विषय पर एक पुस्तिका लिखी थी; जो वास्तव में एक किताब की संपादित प्रस्तुति थी.
वह केवल दिखाने भर के लिए नई किताबों और प्रकाशकों से अंग्रिम पैसा पाने की बात बताता रहता. सच यह है कि उसकी बौद्धिक ऊर्जा क्षीण हो चुकी थी. औरतों ने उसे लील लिया था. उन्हें तृप्त करने के लिए वह संभोग का विभिन्न तरीकों से वर्णन करने में लगा रहता. याद रखना विली, पीटर औरतों की बातचीत और यौन-आनंद की तरह-तरह से व्याख्या करता था. आज भी उसकी सफलता का यही राज़ है. अकादमिक दुनिया में भी वह औरतों की वजह से बना हुआ हैं. अब तो वह लातिन-अमेरिका का विशेषज्ञ हो गया था, क्योंकि एक कोलम्बियाई युवती के रूप में उसे एक बम्पर ईनाम मिला है. कोलम्बिया-जैसे ग़रीब देश की यह युवती लातिन-अमेरिका की उन अन्ध-आस्थाओें से जुड़ी है जो पिछली चार शताब्दियों से इंडियनों की अस्थि-मज्जा में घुसी हुई है.
“वह पीटर के साथ रहने लगी है, रिचर्ड इस साधारण रूप में नहीं लेगा. वह जल-भुन रहा होगा. वह ज़रूर कोई माक्सर्वादी जाल रचेगा. मैंने वह पार्टी इसलिए भी रखी है ताकि तुम उस युवती से बातचीत कर सको. कुल मिलाकर दस लोग होंगे.’’
विली ने गिनने का प्रयास किया पर नौ ही याद आ रहे थे. दसवाँ कौन होगा, यही बात उसके दिमाग़ में चल रही थी.
एक दिन रॉजर ने बताया, ’’मेरा संपादक हमारे यहाँ रुकना चाहता है. मैं उसे अपने एकदम छोटे घर के बारे में बता चुका था, लेकिन वह कहता रहा कि उसे पता है, उसकी परवरिश भी ग़रीबी में हुई थी, अब या तो मैं कम बिस्तर में काम चलाऊँ या किसी होटल में ठहरूँ. लेकिन यह तो ठीक नहीं होगा कि अपनी पार्टी में मैं ही मेहमान.सा रहूँ.’’
पार्टी के दिन विली रॉजर के यहाँ पहुँचा. पर्दिता उसे अंदर लिवाने आई. वह ठीक से पहचान में नहीं आ रही थी. संपादक पहले ही आ पहुँचा था. चश्मा लगाए वह सज्जन इतने मोटे थे कि उसकी क़मीज़ फटने को हो रही थी. विली को अपने बारे में ऐसा सोचकर शर्म आ रही थी. संपादक होटल भी नहीं जाना चाहता था और रॉजर का घर आर्किटेक्ट द्वारा बड़ा दिखाने की कोशिश के बावजूद उनके जगह घेरने से छोटा लग रहा था.
रॉजर ने बेसमेंट से आकर सबका परिचय कराया. सम्पादक वैसे ही बैठा रहा. बातचीत के दौरान संपादक ने बताया कि उसने 1931 में महात्मा गाँधी को देखा था, जब वे इंग्लैण्ड आए थे. उसने उनके कपड़ों आदि पर कोई टिप्पणी नहीं की. हालाँकि विली, उसकी माँ और माँ के चाचा महात्मा से घृणा करते थे. फिर जब मारकस आया तो वह पॉल रॉबेसन को देखने की बताने लगा था.
मारकस बेहद आत्मविश्वासी, उत्साही और मज़ाक़िया था. विली उससे बातचीत कर काफ़ी प्रभावित हुआ. ’’मुझे आपकी सबसे बड़े पौत्र वाली योजना का पता है.’’ विली ने बताया. वह कहने लगा- ’’यह कोई बड़ी बात नहीं है. बल्कि पिछड़े डेढ़ सौ सालों में यहाँ यह खूब हुआ है. अठारहवीं सदी में इंग्लैण्ड में अश्वेत लोगों की संख्या आधा मिलियन रही होगी. आज सबके सब स्थानीय लोगों में मिल गए हैं. उनकी नस्ल तक बन गई है. असल में नीग्रो जीन अप्रभावी होता है. अगर यह ख़ूब होता तो यहाँ आज की तुलना में जातीयता की भावना कम होती. जो अच्छी बात थी. ऐसी बहुत सारी चीजे़ं यहाँ बची हुई हैं, इसलिए कह रहा हूँ. मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ-
\”जब मैं अफ्रीका में था तो मेरी मुलाकात अलास्का की एक फ्रांसीसी औरत से हुई. कुछ दिन बाद उसने मुझे अपने परिवार वालों से मिलाने की इच्छा जताई. हम यूरोप गए और उसके घर पहुँचे. उसने स्कूल जीवन के अपने मित्रों से मेरा परिचय कराया. लेकिन वह उनकी संकीर्ण मानसिकता के चलते बड़ी भयभीत थी. अगली सुबह मैंने सबको खूब खींचा बल्कि उनकी माताओं को भी नहीं बख़्शा. फिर भी मेरी दोस्त को चिन्ता होती रही.’’
तभी कवि महोदय पधारे. उन्होंने बड़े आदर से संपादक का अभिवादन किया, इसके बाद अपनी बीवी के साथ कमरे के एक कोने में खिन्न-से होकर बैठ गए.
वह कोलम्बियाई औरत (जिसे पीटर लाया था) विली की उम्मीद से हटकर अधेड़ उम्र की, शायद चालीस से ऊपर की रही होगी. उसका नाम सेराफिना था. वह दुबली-पतली और व्यवहार-कुशल लग रही थी. लेकिन उसके चेहरे से परेशानी के भाव दिख रहे थे. उसने बालों में रंग किया हुआ था और उसकी बेहद सफ़ेद त्वचा बालों तक पाउडर से पुती थी. कुछ देर बाद वह उठी और विली के सामने आ बैठी. \”आपको औरतें अच्छी लगती हैं ?’’ फिर विली को सकुचाते देख कहने लगी- ‘‘असल में सभी मर्दों को औरतें पसन्द नहीं होती. मैं जानती हूँ कि मैं छब्बीस साल तक कुँवारी रही. मेरे पति समलिंगी (Pederast) थे. कोलम्बिया में इसके लिए एक डॉलर में आपको दोग़ले लड़कों की भरमार मिल जाएगी.’’
‘‘छब्बीस के बाद आपके साथ क्या हुआ ?’’ विली ने पूछा.
’’मैं आपको आपबीती बता रही हूँ. ज़ाहिर है कुछ तो हुआ ही होगा, लेकिन मैंने कोई पाप नहीं किया.’’
रॉजर और पर्दिता खाने-पीने की व्यवस्था करने लगे थे. वह फिर बोली- ‘‘मुझे मर्द अच्छे लगते हैं. उनमें बेहिसाब ताक़त होती है.’’ ‘‘तुम्हारा मतलब ऊर्जा! ’’ विली ने पूछा.
‘‘मेरा मतलब अतुलनीय शक्ति से है.’’ वह चिढ़-सी गई थी. विली ने पीटर की ओर देखा, वह पार्टी के लिए एकदम तैयार लग रहा था. लेकिन उसकी आँखें उदास, थकी और खोई-खोई मालूम होती थीं.
रॉजर ने खाना आगे बढ़ाते हुए पूछा- ’’सेराफिना, तो फिर तुमने किसी समलिंगी (Pederast) से शादी क्यों की ?’’
‘‘अपनी अमीरी और गोरी जिद्द के चलते.’’
‘‘यह तो कोई ख़ास वजह नहीं है.’’ रॉजर बोला.
उसने ध्यान नहीं दिया- ‘‘अपनी आने वाल संतान को हम धनी और गोरा देखना चाहते हैं. हम विशुद्ध स्पेनी बोलते हैं. मेरे पिता भी गोरे और सुंदर थे, काश तुम उन्हें देखते. हमारे लिए कोलम्बिया में शादी करना ही मुश्किल है.’’
विली बोला-‘‘क्या कोलम्बिया में और गोरे लोग नहीं हैं ?’’
‘‘तुम्हारे लिए यह कहना जितना आसान है हमारे लिए नहीं. अभी मैंने जो कुछ बताया, उसी के कारण हमारे लिए पति की खोज मुश्किल है. हमारे यहाँ की बहुत सारी लड़कियों ने यूरोपियों से ब्याह रचाया है. खुद मेरी छोटी बहन ने अर्जेन्टीनियाई से शादी की है. पति के लिए हम इतने सचेत न हों तो ग़लती ही करेंगे.’’
’’यह ग़लती ही तो है, कोलम्बिया छोड़कर चुराई हुई इंडियन ज़मीन पर रहना.’’ रिचर्ड (उसी प्रकाशक) की आवाज़ कमरे से बाहर तक जा रही थी.
‘‘मेरी बहन ने किसी की जमीन नहीं चुराई.’’ सेराफिना बोली. रिचर्ड बोला- ‘इसे अस्सी वर्ष पूर्व जनरल रोका और उसके गिरोह ने चुराया था. रेलवे और रेमिंग्टन राइफ़ल के सामने इंडियन गुलेल एवं पत्थर आ खड़े हुए थे. उनमें घास और पेड़ों के मैदानों के साथ अच्छी-बुरी कई चीजें आ गई थीं. अब तुम्हारी बहन लूट के पुराने माल की नई चोरी कर रही है. मैं तो इवा पेरन (इवा पेरन- 1919.1952- एक अर्जेन्टीनियाई राजनीतिज्ञ, जिन्हें 1951 में उपराष्ट्रपति चुने जाने के बाद सेना के दबाव में इस्तीफा देना पड़ा.) का धन्यवाद देता हूँ, जिसने टूटी-फूटी हवेलियाँ तो ढहा दीं.’
‘‘ये सब मुझे प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं. यह कोलम्बिया में आम है.’‘ सेराफिना ने बताया.
मारकस बोला ‘‘मुझे नहीं लगता, इस बात की जानकारी सबको होगी कि 1800 ई. में ब्यूनस आयर्स और उरूग्वे में नीग्रो लोगों की बहुत बड़ी तादाद मौजूद थी. आज वे स्थानीय आबादी में घुल मिल गए हैं. और संतानें पैदा कर रहे हैं. नीग्रो जीन की अप्रभाविता के बारे में भी सब नहीं जानते.’’
रिचर्ड और मारकस की बातचीत बढ़ चली थी. मारकस जो भी कहता, रिचर्ड छेड़छाड़ भरे लहज़े में उसका उल्टा बोलता. सारी बातचीत के दौरान पीटर कुछ नहीं बोला. सेराफिना विली से बोली- ‘‘यह ऐसा लगता है मानो अकेला पाते ही मुझे दबोच लेगा. सोचता होगा मैं एक भोली लातिन-अमेरिकी हूँ.’’
इसके बाद वह भी चुप हो गई. अनायास ही विली का ध्यान पर्दिता की ओर चला गया, नज़रें उसकी देह पर ठहर गईं. अब तक उसके सौन्दर्य पर उसने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया था. बस शेज़ विक्टर में मेज़ पर दस्ताने उतारकर रखने वाला उसका मनोहर अंदाज़ याद था. उसे नॉटिंग हिल वाले कमरे में नग्न जुने याद आ गई. विली बेतरह उत्तेजित हो उठा.
रॉजर और पर्दिता प्लेटें हटाने लगे. मारकस ने भी उत्साह से उनकी मदद की. इसके बाद कॉफी और ब्राण्डी आ गई.
विली को खोया देखा सेराफिना कहने लगी- ‘‘क्या तुम्हें जलन हो रही है ?’ वह क्या सोचकर बोली, विली एकाएक नहीं समझ पाया, बोला- ‘‘नहीं, कोई और इच्छा मचल रही थी.’’ वह बताने लगी- ‘‘सुनो, जब मैं कोलम्बिया में पीटर के साथ थी, सारी औरतें इसकी तरफ़ भागती थी. यही अंग्रेज़ी नौजवान और स्कॉलर, जो वहाँ बैठा है. एक ही महीने में मेरे बारे में सब भुलाकर किसी के साथ भाग निकला.\”
इसे देश की असलियत के बारे में जानकारी नहीं थी इसलिए ग़लती कर बैठा. एक ही हफ़्ते में इसे पता चल गया कि वह अमीर नहीं थी और वर्णसंकर औरत थी, उसने इसे मूर्ख बना दिया. फिर यह वापस आया और मेरे घुटनों पर सिर रखकर बच्चों की तरह रोने लगा. मुझे माफ़ कर दो प्लीज़.’ मैंने इसके बालों में हाथ फिराते हुए कहा- ’’तुमने सोचा होगा कि वह अमीर और गोरी नस्ल की है.’’ ‘हाँ, हाँ,’ इसने कहा. खैर इसे सज़ा देनी चाहिए थी लेकिन मैंने इसे माफ़ कर दिया.’’
तभी संपादक ने दो-एक बार गला खँखारा. यह चुप रहने का संकेत था. सेराफ़िना विली से हटकर रिचर्ड की ओर देखने लगी, जो संपादक को सधी हुई नज़रों से ताक रहा था. वह कोने में बैठा हुआ बड़ा भारी लग रहा था. पैंट के ऊपर उसका पेट निकला हुआ था और क़मीज़ के बटन खिंच हुए थे.
वह कहने लगा- ‘‘आपमें से कोई यह बात नहीं समझ पाया होगा कि पार्टी की यह शाम एक क्षेत्रीय संपादक के लिए कैसी रही. आपने मुझे दुनिया की कुछ ऐसी झलकियाँ दिखलाईं, जिनसे मैं अनजान था. मैं अंधियारे सेटेनिक उत्तर के एक पुराने और बेकार से शहर से आता हूँ. आजकल दुनिया में हमारी पूछ नहीं है, लेकिन इतिहास में हमारा नाम अंकित है. हमारी बनाई हुई चीजें सारी दुनिया में फैली हुई हैं और आधुनिक युग के लोगों की सहायक रही हैं. अपने को हम संसार का केन्द्रबिन्दु समझते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. अब तो आप जैसे लोगों से मिलकर पता चलता है कि दुनिया किधर जा रही है. इस पार्टी की तरह आप सबका जीवन तड़क.भड़क वाला रहा है. आप लोगों के बारे में अब तक जो कुछ सुना था, आज देख भी लिया. लेकिन आपने एक ऐसे आदमी का सम्मान किया, जो इन सबसे बहुत दूर है, इसके लिए मैं हृदय से आपका धन्यवाद करता हूँ. किन्तु अंधियारे में रह रहे हम लोगों की भी आत्मा है, कुछ आकांक्षाएँ, कुछ सपने हैं. लेकिन ज़िन्दगी के बारे में कुछ भी कहना कठिन है. कवि ग्रे ने कहा था- ’शायद यहाँ वह दिल लगा है जो कभी नक्षत्रीय गीतों से समृद्ध था.’ यह उनके जैसा तो नहीं फिर भी मैंने अपने हृदय से कुछ लेखन किया है और इससे पहले कि हम लोग बिछुड़ें, शायद हमेशा के लिए, मैं आप लोगों की इज़ाजत से वह सुनाना चाहता हूँ.\”
उसने जैकेट की भीतरी जेब से अख़बारी कागज़ की कुछ मुड़ी हुई तहें निकालीं और मौन-भरे उस माहौल में बिना किसी की ओर देखे, नीचे रख दीं.
‘‘ये गैली हैं, अख़बार के प्रूफ़. यह कॉपी बहुत बड़े आकार में तैयार होती है. इसमें शायद एकाध शब्द बदले गए हैं, कुछ बेढंगे वाक्यांश सुधारे गए हैं. अब यह पूरी तरह प्रेस के लिए तैयार है. जिस दिन मेरी मृत्यु होगी, उसी हफ़्ते यह हमारे अख़बार में छपेगी. आप सोचेंगे यह मेरी निधन-सूचना बनेगी. आप जैसे कुछ लोग हाँफने लगेंगे, कुछ ठण्डी आहें भरेंगे. लेकिन मौत तो सबको आती है, इसके लिए तैयार भी रहना चाहिए. मैं कोई शेख़ी नहीं बघार रहा हूँ. मुझसे ज़्यादा आप इस बारे में जानते हैं. फिर भी जो कुछ होगा, विषाद के क्षणों में मैं आपको हौसला रखने के लिए ही कहूँगा.\”
उसने पढ़ना शुरू किया –
‘‘हेनरी आर्थर पर्सिवल सोमर्स, जो कि नवम्बर 1940 में इस अख़बार का संपादक बना, दूसरे पृष्ठ पर उसके निधन की विस्तार से सूचना है, का जन्म 17 जुलाई 1895 को एक जहाज़ मिस्त्री के यहाँ हुआ था…’’
धीरे-धीरे कहानी खुलती गई थी, जिसमें छोटा-सा घर, पतली-सी गली, पिताजी की बेरोज़गारी के दिन, परिवार से वियोग, चौदह साल की उम्र में बच्चे का स्कूल छोड़ना, विभिन्न दफ़्तरों में छोटी-मोटी क्लर्की, विश्व-युद्ध, मेडिकल जाँच में आर्मी से निकाला जाना, आख़िरकार युद्ध के अंतिम दिनों में इस अख़बार के प्रोडक्शन पर ‘कॉपी-होल्डर’ जो कि लड़कियों का जॉब है, की नौकरी, कम्पोज़िटर के लिए ज़ोर-ज़ोर से पढ़ना … आदि आए. पढ़ते-पढ़ते उसका गला भर आया था.
कवि और उसकी पत्नी इससे अलग, बिना किसी हैरानी के देख रहे थे. पीटर शून्य में ताक रहा था. सेराफ़िना सीधी बैठी हुई रिचर्ड की ओर देख रही थी. मारकस मानसिक बेचैनी लिए इधर-उधर की सोच रहा था. एकाध बार वह थोड़ा-सा बुदबुदाया, फिर अपनी ही आवाज़ सुनकर चुप हो गया था. लेकिन विली संपादक की कहानी से बहुत प्रभावित दिख रहा था. यह सब उसके लिए नई चीज़ थी. हालाँकि उसे कोई गहरी जानकारी नहीं मिली. फिर भी उसने संपादक का शहर और उसके जीवन में झाँकने का प्रयास किया. उसे अपने पिता की याद आ रही थी, फिर वह चौंककर अपने बारे में सोचने लगा. सेराफ़िना उसकी ओर मुड़ चुकी थी और बातचीत सुनकर स्तंभित लग रही थी. विली और सुनने के लिए थोड़ा आगे बढ़ गया.
संपादक को विली के झुकाव का पता था, पर वह शिथिल होने लगा था. उसके शब्द अटक रहे थे, एकाध बार उसने सिसकियाँ भी लीं. इस तरह वह अंतिम गेली तक पहुँच पाया. उसके चेहरे पर आँसू झिलमिलाने लगे थे, मानो रो देगा ….
\”अपने जीवन के कड़वे अनुभव उसे याद थे. फिर पत्रकारिता प्रकृति से ही स्वल्पायु होती है, जो कोई कीर्ति-चिह्न नहीं छोड़ती. प्रेम जैसा स्वर्गिक अहसास उसे कभी नहीं छू पाया, लेकिन अंग्रेजी भाषा के साथ उसका रोमान्स ताउम्र चलता रहा….’’
उसने अपने धुँधला चश्मा उतारा, सभी गेलियाँ उठाई और गीली आँखों से फ़र्श को ताकने लगा. माहौल गंभीर हो गया था.
तभी मारकस ने टिप्पणी की- ‘‘लेखन का यह बेहद उत्कृष्ट नमूना है.’’ लेकिन संपादक ख़ामोश रहा. वह उसी तरह बैठा रहा. कमरे में फिर चुप्पी आ पसरी थी. पार्टी ख़त्म हो गई थी. लोग ‘गुडबाय’ भी ऐसे फुसफसाकर बोल रहे थे मानो किसी रोगी के कमरे से निकले रहे हों. कवि और उसकी पत्नी तो ऐसे निकल गए मानो थे ही नहीं. सेराफ़िना भी रिचर्ड को देखते हुए उठी और पीटर के साथ चल पड़ी.
’‘मैं सफाई में तुम्हारी मदद करूँ, पर्दिता!’’ मारकस ने धीरे-से पूछा. विली जल-भुन गया था पर उसे किसी ने रुकने को नहीं कहा.
अपनी उदासी पोंछकर रॉजर विली को दरवाजे़ तक छोड़ने आया था. इसके बाद शरारत से कहने लगा- ‘इन्होंने मुझे बताया था कि ये मेरे लंदन के दोस्तों से मिलना चाहते हैं. लेकिन इन्हें शायद ऐसे दर्शकों की उम्मीद नहीं थी.’’
अगले दिन विली ने संपादक पर कहानी लिखी. अपने लेखन-स्वभावानुसार उसने परिवेश एक इंडियन शहर का चुना और पिछली कहानियों की तरह संपादक को एक संत की भूमिका दी. वह आलसी और धूर्त संत आश्रम में मकड़ी की तरह पड़ा हुआ असन्तुष्ट जीवन जी रहा है. एक दिन अचानक उसने अपने बारे में एक जिज्ञासु को सब कुछ बता दिया. जो उसके पास से गुजरता हुआ रुक गया था. यह कहानी कुछ-कुछ वैसी ही थी, जैसा संपादक ने बताया और जिसे विली अपने पिता के मुँह से वर्षों से सुनता आ रहा था.
अपने द्वारा लिखी इस कहानी से ख़ुद विली भौंचक रह गया था. इसने उसे अपने जीवन एवं परिवार को देखने की नई दृष्टि दी थी और इसी से उसे अगली कहानियों की नई विषय.वस्तु भी मिली. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. विली ने तीन.चार सप्ताह खूब लेखन किया. इसके बाद कठिनाई आने लगी, जिससे पार न पाते देख विली ने लिखना बंद कर दिया. यह उसके लेखन का अंतिम दौर था, जो आगे नहीं बढ़ा. कुछ समय पूर्व फ़िल्म से मिली उत्तेजना भी सूख चली थी.
अपने तक तो उसे ठीक लगा. लेकिन यह सोचकर कि और लोग भी ‘हाई-सिएरा’ ‘ह्वाइट हीट’ और ‘दी चाइल्डहुड ऑफ मेक्सिम गोर्की’ आदि से कहानियों की थीम और दृश्य उठा सकते हैं तो उसे चिन्ता हो गई. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उसे ख़ुद पर विश्वास नहीं हो रहा था कैसे इतना कर डाला. उसने कुछ छब्बीस कहानियाँ लिखी थीं, जो एक सौ अस्सी पृष्ठों में आईं. इतने सारे विचार, इतना सारा रोमांच और इतना सारा लेखन थोड़े से पृष्ठों में समा गया- यह देख वह निराश हो उठा था.
लेकिन रोज़र को उतना एक किताब में संकलित करने के लिए पर्याप्त लग रहा था. उसने कहा- ’’बाद की कहानियाँ कुछ ज़्यादा ही आंतरिक हैं, लेकिन वे अच्छी बनी हैं. इनसे संकलन की गुणवत्ता ही बढ़ेगी. ये थोड़ा गूढ अर्थ लिए हुए लेकिन संवेदनाओं से युक्त हैं. एक बात और विली, यह मत सोच लेना कि तुम प्रसिद्ध होने जा रहे हो.’’
रोज़र ने इन्हें अपने कई परिचित प्रकाशन.संस्थानों में भेजा लेकिन दो.तीन हफ़्ते बाद ये वापस भेज दी गईं.
’’मुझे इसी का डर था. लघुकथाएँ जटिलता लिए होती हैं, फिर भारत कोई ख़ास विषय भी नहीं लगता. इस बारे में केवल वही लोग पढेंगे जो वहाँ से यहाँ काम करने आये हैं और यहीं रहने लगे हैं या फिर जो भारत के बारे में बिना वहाँ गए जानना चाहते हों. पुरूषों की पसन्द ‘भवानी जंक्शन’ और ‘बगल्स एंड टाइगर’ के जॉन मास्टर्स हैं तो स्त्रियाँ र्यूमर गॉडेन की ‘ब्लैक नारसिसस’ पसंद करती हैं. मैं इसे रिचर्ड को नहीं भेजना चाहता था लेकिन लगता है अब वही बचा है.’’ रोज़र ने कहा.
विली ने पूछा, ‘‘आप इसे रिचर्ड को क्यों नहीं भेजना चाहते ?’’
वह धूर्त आदमी है. मदद तो क्या वह तुम्हें नीचे गिराने की कोई तरकीब ही खोजेगा. सबके साथ वह यही करता है- कोई-न-कोई कुटिल तरीक़ा अपनाना. यदि इस किताब को हाथ में भी लेगा तो किसी दुराग्रही मार्क्सवादी नज़रिए से इसे पेश करेगा. जो उसकी मार्क्सवादी छवि तो बना देगी लेकिन किताब को कोई फ़ायदा नहीं पहुँचेगा. लेकिन क्या करें, कई बार शैतानों से ही काम निकलवाना पड़ता है.’’
खै़र, किताब रिचर्ड को भेज दी गई. उसने उसे ले भी लिया. उसकी फर्म से विली के कॉलेज में सूचना आई कि वह उसके ऑफिस आने का समय तय कर ले. विली बताए गए पते पर पहुँचा.
यह लंदन की बड़ी-बड़ी इमारतों वाला इलाका था. पते वाली इमारत भी ऐसी थी- सामने से समतल, काली ईंटों की बनी हुई. यह दूर से छोटी लग रही थी लेकिन पास जाने पर उसके विशाल आकार और भव्यता का पता चला. भीतर दूर तक रोशनी से जगमगाते कमरे दिख रहे थे. स्वागत कक्ष में एक लड़की बैठी थी, जो उस समय घबराई हुई दीख रही थी. पास रखे इंटरकॉम पर उसकी ओर एक आवाज़ गरज रही थी. विली जान गया यह रिचर्ड की आवाज़ थी. जो उसे किसी बात पर डाँट रहा था, इसी से वह बेचारी दुबली-सी लड़की परेशान लग रही थी. शायद उसे घर पर अपने साथ होने वाले सलूक की याद भी आ रही हो. इस आवाज़ में उसे अपने पिता की डाँट और मारपीट तक का अहसास हो रहा था. विली अपनी बहन सरोजिनी के बारे में सोचने लगा. लड़की भी एकाएक आगन्तुक के लिए तैयार नहीं थी. विली से बातचीत करने के लिए उसे मनःस्थिति बनाने में थोड़ा वक़्त लग गया.
रिचर्ड का कमरा पहली मंज़िल स्थित सामने वाले कमरे में था. कमरा काफ़ी बड़ा था, दीवारों में किताबें लगी थीं.
रिचर्ड ऊँचे झरोखे की ओर आया और वे बातचीत करने लगे- \”लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व ये इमारतें लंदन के अमीर व्यापारियों की होती थी. ‘वेनिटी फेयर’ का ऑस्बोर्न हाउस इन्हीं में एक रहा था. हम जिस कमरे में हैं, ड्राइंग.रूम रहा होगा. आप अभी भी यहाँ के इंतज़ाम, नौकर.चाकरों और अन्य चीज़ों के बारे में देख सकते हैं. हालाँकि अब इस बात की कल्पना कठिन है और इसे ज़्यादातर लोग भूल गए हैं कि थैकरे के महान लंदन का एक प्रसिद्ध व्यापारी, जो इन्हीं में से एक कमरे में बैठा है. वह अपने बेटे की शादी वेस्टइंडीज के सेंट किट्स की वारिस (जो नीग्रो थी) से करना चाहता था. मैं सालों से इस बिल्डिंग में हूँ, लेकिन मेरे दिमाग़ में यह कभी नहीं आया. यह तो तुम्हारे दोस्त मारकस ने मुझे याद दिलाया, जो काउट्स में अपना खाता खुलवाना चाहता था. शुरू में तो मुझे मज़ाक जान पड़ा लेकिन मैंने वहाँ उसकी वारिस का पता लगाया. वह दासों और चीनी के कारोबार से मालामाल हुई थी. तब वेस्ट इंडियन गुलामों का खेती का कारोबार अपने चरम पर था.
उस समय लंदन में भी नीग्रो वारिस की बड़ी माँग थी. उसने बहुत धूमधाम से शादी की होगी लेकिन थैकरे हमें इस बारे में कुछ नहीं बताते. चूँकि नीग्रो जीन अप्रभावी रहता है, सो दो.एक पीढ़ियों बाद ही उनके वंशज पूरे अंग्रेज़ और उच्च वर्गीय हो गए. पश्चिमी अफ्रीका से आकर बसे एक काले आदमी ने हमें अपने विक्टोरिया युगीन कृतियों का सही पाठ करना बताया था.
झरोखे से हटकर वे एक बड़ी डेस्क के सामने बैठ गए. वहाँ बैठा हुआ रिचर्ड काफ़ी लम्बा.चौड़ा लग रहा था. रिचर्ड बोला- ‘‘एक दिन आप ‘वूदरिंग हाइट्स’ का भी नया पाठ दे सकते हैं. आपको पता है, हीथक्लिफ़ नाम का एक हाफ.इंडियन लड़का लीवरपूल के नौकाघाट के पास पाया गया था.’’ रिचर्ड ने कुछ टाइप किए काग़ज़ात उठाए और कहा- ‘‘यह तुम्हारी किताब का अनुबन्ध है.’’
विली ने हस्ताक्षर के लिए कलम निकाली.
‘‘आप इसे पढेंगे नहीं !’’ रिचर्ड ने पूछा.
विली असमंजस में पड़ा था. वह अनुबन्ध को देखना चाहता था लेकिन रिचर्ड को पता नहीं चलने देना चाहता था. इसे वहाँ पढ़ना रिचर्ड के विश्वास पर प्रश्नचिह्न लगाना था. इसलिए विली उसे पढ़ नहीं सका. रिचर्ड बोला- ’‘यह हमारे नियत अुनबन्ध की तुलना में बेहतर है. जो घरेलू बिक्री पर साढ़े सात प्रतिशत और विदेशों में बिक्री पर साढ़े तीन प्रतिशत है. हम आपको कुछ और लाभ भी देंगे. यदि हम इसे अमेरिका में बेचते हैं तो आपको पैसठ प्रतिशतए अनुवाद पर साठ प्रतिशत और फ़िल्म वालों को बेचने पर पचास प्रतिशत दिया जाएगा. पेपरबैक पर चालीस प्रतिशत देय होगा. आप जैसे आदमी के लिए इनका कोई ख़ास महत्त्व तो नहीं, लेकिन यह अच्छा प्रस्ताव है. हमारे पास अच्छे साधन हैं, आपके लिए अच्छा काम होगा. बस आप तो बैठकर सारे काम पर नज़र रखिए.’’