हरे प्रकाश उपाध्याय
शशिभूषण द्विवेदी की कहानियाँ पढ़ते हुए पाठक को एक भारी तकलीफ से गुजरना पड़ता है. सबसे पहले तो उनकी कहानियों में रमना, देर तक टिके रहना ही तकलीफदायक है. इसका कारण है कि ये कहानियाँ न तो आपको किसी ऐसे कथारस में डूबोती हैं, जिसके लिए अमूमन किसी कहानी के पास पाठक जाता है और न ही कथाकार के पास ऐसी कोई ललित-ललाम कथा भाषा है, जो आपको बाँध ले. हाँ, कहीं-कहीं भाषा में गहरी प्रतीकात्मकता, जिसे अंतर्वस्तुगत काव्यतामकता कह सकते हैं, वह है. कहीं-कहीं चरित्रों की बेचैनी, उनके अवसाद आपको ऐसे पकड़ लेते हैं, जैसे आप स्वयं ही उन स्थितियों में पड़ गये हों.
‘खिड़की’ कहानी में एक पेशेवर अपराधी को कोट करते हुए कथाकार बताता है कि
‘किसी को मारने का सबसे वीभत्स तरीका यही है कि उसे ज़िंदा छोड़ दो.’
लगता है, शशिभूषण की कहानियों में आये सभी साधारण लोग इसी वीभत्स तरीके से मारे जा रहे हैं. पर इन कहानियों में किस्सागोई जैसी चीज तो कतई नहीं है, कथाकार का आत्मालाप भी नहीं है. शशिभूषण भग्न छवियों को, अड़भंग सपनों को, अतीत की परछाइयों को, व्यतीत के बिखराव को जोड़ते हैं. ध्यान रहे कि जोड़ते हैं, एक जगह बस रख नहीं देते, जैसे कि किसी कोलाज में होता है. वे अलग-अलग तरह की चीजों को, वर्तमान और भूत को, कहीं-कहीं भविष्य को भी आपस में जोड़ते हैं और बल्कि सही तरीके से जोड़ सकें, इसके लिए उसमें वे कुछ तोड़-फोड़ भी करते हैं. अगर आपके पास बतौर पाठक थोड़ा धैर्य नहीं है, तो आप इन्हें झेल नहीं सकते.
शशिभूषण के यहाँ समय की तोड़-फोड़ बहुत है, पर दरअसल वह समय को व्याख्यायित करने के लिए, उसमें संगति ढूँढने के निमित्त है. कोई असावधानी से पढ़े तो कह सकता है कि कथाकार अतीत के प्रेत से पीड़ित है, जबकि ऐसा है नहीं. उन्हें न अतीत से कोई मोह है और न ही अपनी कहानियों में इतिहास की व्याख्या को लेकर उन्हें कोई दिलचस्पी है. शशिभूषण सही अर्थों में अपने समकाल के कथाकार हैं. समकाल के अव्याख्येय क्षण को पकड़ना और उसके छोरों को तलाशना इस कथाकार का मूल गुण-धर्म है. उन्हें कथा में समय का वास्तविक शिल्पकार भी कहा जा सकता है. सृजन की प्रक्रिया में कथाकार पुरात्तवेत्ता की तरह मिथकों को, अतीत के गल्पों को, व्यतीत के क्षणों को उलटता-पलटता है, मगर उसमें खोज वह अपना ही समय रहा होता है, अपने ही यथार्थ को गढ़ रहा होता है.
यूँ सपाट तरीके से उसे यथार्थवादी कथाकार करार देना सही नहीं है. शशिभूषण की कहानियों में यथार्थ है, मगर वह सूत्र रूप में है, यथातथ्य रूप में नहीं है. उनकी कहानियों में भ्रम और हक़ीकत के बीच रत्ती भर का फर्क है, जिसे कथाकार की गहरी अंतर्दृष्टि बार-बार अलगाने की कोशिश तमाम कहानियों में करती मालूम होती है. वे अपनी कहानियाँ मिथक, फैंटेसी, ऐतिहासिक रहस्य और यथार्थ के अतिक्रमण से रचते हैं. तो उनकी कहानियों को पढ़ने में, पढ़ते हुए एक भारी तकलीफ होती है. कथाकार की बेचैनी समझ में आती है, उस बेचैनी से पाठक भी जुड़ता है. ऐसा लगता है कि ‘विप्लव’ कहानी के नायक की जो नियति है, वही कथाकार की भी नियति है. कथाकार के ही शब्द लिए जाएं, जैसा कि वह ‘विप्लव’ के कलाकार नायक के बारे में लिखता है-
“वह बार-बार अपने ही बनाये उन चित्रों को देखता है, जहाँ आध्यात्मिकता से लबरेज तमाम मांसल बिम्ब उभर रहे हैं…. **** कलाकार नायक चाहता है कि काश! वह इसमें एक चित्र और खींच सकता…*** मगर वह कह नहीं पाता, उसके शब्द एकाएक खजुराहो के मध्ययुगीन इतिहास में कहीं खो गये हैं और वह बावला-सा उन्हें खोज रहा है!”
संदर्भ कहानी में थोड़ा दूसरा है, पर शशिभूषण की सारी कहानियों को एक साथ पढ़ लेने के बाद यहीं लगता है कि इस कथाकार की भी शायद यही नियति है. वह बावला है, उद्वेलित है. यह उद्वेलन उसके भीतर हमारा यथार्थ ही पैदा कर रहा है, पर यह यथार्थ उतना सपाट नहीं है. इसकी पेचीदगियों को व्यक्त कर पाना कठिन है. शशिभूषण की कहानियाँ ख़त्म हो जाती हैं, तो पाठक के पास बचता है- ‘कहीं कुछ नहीं’, पर इसके पहले ‘ब्रह्महत्या’ हो चुकी होती है. कहानियों के लगभग सारे प्रमुख चरित्रों के चेहरे आपस में गड्मड् होने लगते हैं. पाठक कथा से गुज़रते हुए जिस हौलनाक मंजर से गुज़रा होता है, वह मंजर हावी होने लगता है. लगता है, कुछ अबूझ, अप्रत्याशित मगर डरावना-सा गुजरा है, जो बार-बार अवचेतन में आकर डंस रहा है. सबसे बड़ी बात कि इन कहानियों का सारांश बताना बहुत मुश्किल है, जबकि ये कलावादी कहानियाँ नहीं हैं. और यथार्थवादी हैं तो कोई यादगार पात्र क्यों नहीं दिखता इन कहानियों में? कोई उल्लेख करने लायक घटना भी नहीं याद रह जाती. पर हाँ, कहानियाँ पीछा करती हैं. कहानियों के चरित्रों का अकेलापन, अवसाद, उद्विग्नता, उदासी, कातरता, यातना और बेबसी पीछा करती है.
शशिभूषण के पास दो तरह की कहानियाँ हैं. एक आकार-प्रकार में कुछ छोटी कहानियाँ हैं, तो दूसरी तरफ कुछ लंबी कहानियाँ हैं. पर ये दोनों तरह की कहानियाँ महज अपने आकार-प्रकार में ही भिन्न नहीं हैं, अपने कथ्य, कथ्य-रूप, अर्थ-व्याप्ति और कहन भंगिमा के स्तर पर भी अलग हैं. छोटी कहानियों में सामान्य अनुभवों को, जीवन के रोज़मर्रे को आधार बनाया गया है, हालांकि हमारे यहाँ यथार्थवादी कहानियों की जो पहुँच, स्वरूप और ढाँचा है, जो उनका औसत अभिप्रेत है, उससे अलग तरह के यथार्थ के अन्वेषण की चेष्टा इन कहानियों में भी साफ दिखाई देती है. हालांकि शशिभूषण के पास आकार में छोटी पर अपनी प्रतीकात्मकता में बहुत दूर तक संकेत करने वाली ‘चक्रव्यूह’ और ‘खेल’ जैसी कहानियाँ हैं. दरअसल ये कहानियाँ ऐसे दौर की कहानियाँ हैं, जब लोगों के इतने चेहरे थे कि किसी का भी असली चेहरा उसकी पहचान में नहीं आता था. जब इन्सानी नस्ल का इन्सान ख़त्म हो चला था.
अपनी लंबी कहानियों में कथाकार बार-बार अतीत के भग्नावशेषों की ओर विचरण करता हुआ दिखाई देता है. वह सपनों, मिथकों, जनश्रुतियों का सहारा लेता है. ढहते सामाजिक मूल्य, बिखरते नैतिक बोध, वर्तमान के धक्के से टूटती पुरानी धारणाओं में कथाकार की गहरी दिलचस्पी है. कभी-कभी और कहीं-कहीं तो कथाकार अपनी कुछ कहानियों में विरल रहस्यात्मकता को निर्मित-चित्रित कर देता है, जहाँ पाठक के मूल कथा मंतव्य से भटक जाने का भी भारी खतरा है, मगर वह चित्रण है काबिले-तारीफ. मायावी ताकतों का जैसा और जितना ज़िक्र शशिभूषण की कहानियों में है, उतना या वैसा उनकी पीढ़ी के कथाकारों में तो दूर उनके आगे-पीछे की भी एक-दो पीढ़ी में भी शायद नहीं है. यह चित्रण अपनी प्रतीकात्मकता में हमारे अपने दौर की ही भयावहता को इंगित कर रहा होता है. शशिभूषण जीवन से अधिक जीवन के रहस्यों के कथाकार हैं. इसीलिए कह सकते हैं कि कहानी में शशिभूषण का रास्ता थोड़ा अलग ही है. इसलिए ही उनकी कहानियों का विश्लेषण, खासकर लंबी कहानियों का पाठ हिंदी कथालोचन की प्रचलित आस्वादपरकता या यथार्थवादी कसौटियों से थोड़ी मुश्किल है.
हमारे यहाँ हिन्दी साहित्य में कहानियों और कविताओं की एकरूपता पर अक्सर बात होती है, पर आलोचना की एकरूपता पर बात नहीं होती है. शशिभूषण जैसे कथाकार आलोचना के सामने भी चुनौती प्रस्तुत कर देते हैं. यह अकारण नहीं है कि अपनी पीढ़ी में शशिभूषण की कहानियों पर ही सबसे कम बात हुई है, जबकि वह प्रभात रंजन, मोहम्मद आरिफ, राकेश मिश्र, गीताश्री, मनोज पांडेय से कहीं बहुत ज्यादा समर्थ कथाकार हैं. उनकी कुछ कहानियों में कहीं-कहीं कथा के सूत्रों और शिल्प को लेकर भी बहुत महत्वपूर्ण टीपें दर्ज़ हैं. मुझे लगता है कि उनकी कहानियों के विश्लेषण के जंग खाये ताले की वही चाभियाँ हैं. उन्होंने अपनी कहानियों को हिंदी के छिछोरे आलोचकों के भरोसे छोड़ा भी नहीं है, जो आजकल आलोचना को उस बूढ़े बाघ के कंगन की तरह लेकर हिन्दी के युवतर लेखिकाओं और लेखकों को रिझाते हैं, जिसके नख और दंत गल गये थे. खैर, यह एक अलग लेख का प्रसंग है, फिलहाल इसकी तफसील में जाना सही नहीं कहा जाएगा. तो शशिभूषण अपनी कहानियों में अपनी कथा के विश्लेषण के सूत्रों को भी रखते जाते हैं, जैसे कि ‘एक बूढ़े की मौत’ कहानी में वे लिखते हैं-
“कहानी कभी विशुद्ध नहीं होती, ‘बहुत कुछ’ होती है. इस ‘बहुत कुछ’ के बीच ही हमें एक कहानी तलाशनी थी.”
‘विप्लव’ कहानी में वे लिखते हैं-
“सिर्फ कुछ संभावनाएं हैं और उन संभावनाओं से ही इस कहानी का विकास होना है.”
जैसे कि ‘कहीं कुछ नहीं’ में
“जीवन की घोषणा के लिए आख्यान चाहिए और आख्यान के लिए पूरा एक जीवन.”
जैसे कि ‘खिड़की’ कहानी में वे लिखते हैं-
“वैसे सूत्रों के ज़रिये कथा कहने की प्रक्रिया पुरानी है और दिलचस्प भी.”
जैसे कि ‘काला गुलाब’ में वे लिखते हैं-
“लिखना आसान होता है. लिखते हुए रुक जाना मुश्किल. इसी मुश्किल में शायद ज़िंदगी का रहस्य है.”
शशिभूषण की कहानियाँ ज़िंदगी के रहस्य उकेरती और उटकेरती हैं.
‘खिड़की’ कहानी में कथाकार लिखता है-
“कथा गुरु कह रहे हैं कि वत्स! कथा कहने का पहला सूत्र यह है कि कोई भी बात कहीं से शुरू करो, कथा में इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, न इस बात से कि आपकी कथा का विषय क्या है. कथा किसी विषय पर कही जा सकती है. बस थोड़ा सा गणित का अभ्यास, कल्पना की उड़ान और बातें बनानी आनी चाहिए….. याद रखो विषय महत्वपूर्ण नहीं होता. महत्वपूर्ण होती है दृष्टि.”
शशिभूषण के पास यही दृष्टि है, उनकी कहानियों में यही दृष्टि है. उनकी कहानियों में विषय महत्वपूर्ण नहीं है. यही कारण है कि कोई असावधान आदमी शशिभूषण की कहानियों का भावार्थ या सारांश नहीं बता सकता, उसके पास भी वही दृष्टि होनी चाहिए. हालांकि तब भी शायद बहुत मुश्किल है. ऊपर जिस कथा गुरु का ज़िक्र आया है, वे कहते भी हैं-
“हर कथा अंतहीन है. अंतहीन है इसलिए कथा है.”
जब कथा अंतहीन है तो क्या सारांश हो सकता है? हालांकि पाठक के पास हर कहानी के बाद यही लालसा बचती है, काश इस कथा का कोई सुखांत होता. कोई सारांश निकलता, पर निकलती है भाप छोड़ती सिर्फ बेचैनियाँ. शशिभूषण की कहानी ‘अर्द्धपक्ष’ का नायक डीके अपनी डायरी में लिखता है-
“जब कभी अपने आस-पास नज़र घुमाकर देखने की कोशिश करता हूँ, तो एक अवसाद सा छा जाता है मन पर. भविष्य को लेकर कहीं कोई उम्मीद या सपना बाकी नहीं है. ऐसी ज़िंदगी तो नहीं चाही थी मैंने. कहीं न कहीं, कुछ गलत तो ज़रूर हुआ है मगर कहाँ?…पता नहीं….”
शशिभूषण के अधिकांश कथानायक इन्हीं त्रासदियों से गुज़र रहे हैं. दरअसल हमारे समय की अधिकांश आबादी का यही यथार्थ है.
शशिभूषण द्विवेदी के दो कथा संग्रह हैं- एक, ‘ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ’ और दूसरा, ‘कहीं कुछ नहीं’. दोनों में कुल मिलाकर सतरह कहानियाँ हैं. उनकी अधिकांश कहानियाँ कथागुरु के उपरोक्त निर्देशन से ही संचालित मालूम होती हैं. कोई भी बात कहीं से शुरू हो जाती है, विषय भी मायने ने नहीं रखता, पर असल चीज़ है दृष्टि, जिसकी वजह से बगैर विषय के, बेतरतीबी के बावजूद, किस्सागोई के अभाव में भी कहानियाँ बन जाती हैं. बल्कि सशक्त कहानियाँ बन जाती हैं. इस दृष्टि के कारण ही कथाकार यथार्थ की सतह को देखकर संतोष नहीं कर लेता, वह अंदर तक देखना चाहता है. इस देखने और व्यक्त करने की जटिल प्रक्रिया का एहसास कथाकार को है, इस कारण ही वह अपनी अनेक कहानियों में कथा के सूत्रों पर बार-बार विचार-पुनर्विचार करता है, उससे जूझता हुआ मालूम होता है. ध्यान दें तो कई-कई विषय, अलग-अलग प्रसंग इन कहानियों में समाहित हैं और साधारण लोगों की परिस्थितियों की कहानी बयान करते हैं. परिस्थितियों के मारे, दीन-हीन, अंदर से टूटे हुए, यातनाग्रस्त लोगों की दबंगई, प्रतिस्पर्धा और उनका कांइयापन भी इन कहानियों में देखने लायक है. इन लोगों के सामने जीवन जीने के लिए बहुत सीमित साधन और विकल्प हैं, उसी में आपसी गलाकाट प्रतिस्पर्धा मची है, एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या है, नफरत है, लड़ाईयाँ हैं.
एक चीज़ और ध्यान देने लायक है कि इनमें से अधिकांश बेरोजगार हैं या छोटी-मोटी नौकरियाँ या धंधे करने वाले, कम वेतन पाने वाले, संघर्षरत पत्रकार-कलाकार हैं या अध्यापक हैं. छोटे-मोटे अपराधी हैं, भिखमंगे हैं, दुकानदार हैं, ठेकेदार हैं. जैसे लगता है कि सब अकेले हैं. कहीं कोई सामूहिकता या जगर-मगर परिवार नहीं दिखता. बूढ़े हताश हैं या किसी न किसी त्रासदी के शिकार हैं. स्त्रियाँ भी बहुत रहस्यमयी और ट्रैजिक संबंधों वाली हैं. प्रायः वे प्रेम में छली गयी हैं या छल कर रही हैं. उनका पुरुषों से सहज-सरल संबंध नहीं है. सबके साथ कुछ न कुछ रहस्यात्मक स्थितियाँ और संदर्भ जुड़े हैं.
शशिभूषण की कहानियाँ विषय केन्द्रित नहीं हैं. उनकी किसी भी कहानी को लेकर इस तरह नहीं कहा जा सकता कि फलां कहानी इस विषय पर है, पर उनकी दो कहानियाँ बूढ़ों के जीवन इर्द-गिर्द घूमती हैं. बुढ़ापे के संदर्भ में दोनों की याद एक साथ याद आती है. एक कहानी है- ‘एक बूढ़े की मौत’ और दूसरी कहानी है- ‘कहीं कुछ नहीं’. हालांकि दोनों कहानियों के बूढ़े ‘यूनिक’ हैं. ये कहानियाँ ‘बुजुर्ग विशेषांकों’ की कहानियों से अलग हैं. दोनों कहानियाँ बुज़ुर्ग नायकों को लेकर लिखी गयी हैं पर ये कहानियाँ आम बुजुर्ग जीवन की समस्या को लेकर नहीं हैं. दोनों बुजुर्गों का ही जीवन काफी त्रासद, रहस्यात्मक और अनूठा है. दोनों के जीवन में जिन स्त्रियों की उपस्थिति है, वे भी बहुत ज्यादा रहस्यात्मक हैं. दोनों के ही जीवन से राष्ट्रीय संदर्भ जुड़ता है. दोनों डायरी लिखते हैं. दोनों की अप्रत्याशित मौतें होती हैं. दोनों ही जीवन के गहन प्रेम और विरक्ति के द्वंद्व से जूझ रहे हैं पर जानकी बाबू और कुमार साहब दोनों के जीवन का वृत्तांत अलग संदर्भ लिए हुए है. पर ये दोनों ही कहानियाँ एक तरफ़ जीवन और मृत्यु के शाश्वत प्रश्नों से जूझती हैं तो दूसरी तरफ़ देश के राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर भी काफी रोशनी फेंकती हैं. इन कहानियों को पढ़ते हुए मुक्तिबोध की कविताएं बराबर ध्यान में आती हैं.
सांप्रदायिकता को विषय बनाकर हिन्दी में काफी कहानियाँ लिखी गयी हैं. शशिभूषण ने भी अपनी दो कहानियों में इस प्रसंग को उठाया है. ‘शिल्पहीन’ और ‘सज़ा’ में. ‘शिल्पहीन’ के खां साहब और सज़ा की शाहिदा आपा अपने अल्पसंख्यक होने का मूल्य चुका रहे हैं. हालांकि इसके समानांतर देश में मिल-जुल कर रहने की चली आयी लंबी परंपरा को भी कथाकार रेखांकित करता चलता है. कथाकार ने साफ़-साफ़ रेखांकित किया है कि हिन्दुत्व के नये ठेकेदार के रूप में जो चेहरे उभर आये हैं, दरअसल वे अपराधियों के ही समूह हैं, उन्हें धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. अन्यथा वर्षों तक खां साहब की दुकान के लड्डू ही हनुमानजी को परसाद के तौर पर चढ़ते रहे और शाहिदा आपा जिन्होंने कभी नमाज़ अदा नहीं किया, उन्हें इन अपराधियों ने ही नमाज पर बैठने को विवश कर दिया.
इसके अलावा ऐसे मामलों में स्त्री के प्रति मर्दवादी सलूक को भी कथाकार ने काफी मार्मिक तरीके से उकेरा है. मर्दवादी रवैये को लेकर, उसके दृष्टिकोण को लेकर ‘चौदह क्वार्टर’ और ‘मोना डार्लिंग और जॉर्ज बुश’ की याद आती है. हालांकि यह बार-बार रेखांकित करने लायक है कि शशिभूषण की कहानियों को किसी ख़ास विषय से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, उनमें एक साथ कई-कई विषय मौजूद होते हैं.
यौन शुचिता और जर्जर होते सामंती संस्कारों पर भी शशिभूषण अपनी कहानियों में बार-बार प्रहार करते हैं. ‘शालिग्राम’, ‘भूतों न भविष्यति’, ‘अभिशप्त’, ‘विप्लव’ सबमें इस तरह के इंगित हैं. ‘शालिग्राम’ कहानी का वह अंत तो भुलाए नहीं भूलता, जब जीवन भर पूरी तरह से सामंती सोच और जीवन से जकड़े रहे पिता अपने बुढ़ापे में शराब के नशे में लड़खड़ाते घर लौटे अपने युवा पुत्र को संभालते हैं और अपने हाथ से खाना खिलाते हैं. इस चक्कर में उनके कपड़े गंदे हो जाते हैं और वह पुत्र को खाना खिलाने के बाद गहरी, लंबी साँस लेकर उसे कंबल ओढ़ाकर सुलाते हैं. यह कहानी मध्यवर्ग की दो पीढ़ियों के द्वंद्व और असहाय बुजुर्ग जीवन के संदर्भ में भी एक उल्लेखनीय कहानी है.
‘छुट्टी का एक दिन’ शहरी मध्यवर्गीय जीवन की हताशा, कुंठा, ऊब, बेबसी और बेचैनी को सामने लाती है. जहाँ छुट्टी का दिन एक नौकरी पेशा आदमी के जीवन में कोई ख़ास उल्लास नहीं पैदा करता बल्कि वह भी एक रूटीन में ढल जाता है. प्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने बहुत सटीक लिखा है कि ‘’शशिभूषण द्विवेदी की कहानियों की विशेषता है कथा का विन्यास. शोर न मचाते हुए जीवन के अविस्मरणीय मार्मिक स्थितियों को आलोकित करने का ढंग बेहद प्रभावशाली है.‘’
शशिभूषण ने दो प्रेम कहानियाँ भी लिखी हैं. हालांकि इन्हें पूरी तरह प्रेम कहानियाँ कहना गलत होगा. प्रेमी-प्रेमिकाओं की उपस्थिति तो है इन दोनों कहानियों में पर इससे अधिक ये कहानियाँ युवा वर्ग के अवसाद, हताशा और महत्वाकांक्षा को सामने लाती हैं, जिसके बरक्स सहज जीवन और प्रेम के चिथड़े उड़ जाते हैं. ये कहानियाँ हैं – ‘अर्द्धपक्ष’ और ‘अभिशप्त’. ‘अर्द्धपक्ष’ में हिंदी की जो प्रिंट पत्रकारिता है, क़स्बों से लेकर शहरों तक, उसका बजबजाता यथार्थ इस कहानी में आया है. पत्रकारिता के नाम पर औने-पौने खेवे-ख़र्चे पर खटते ईर्ष्यालु, धूर्त और मक्कार लोगों का जो संसार है, उसको शशिभूषण ने बहुत अच्छी तरह से बेपर्द किया है. खैर, यह कहानी पत्रकारिता पर नहीं है. इसके भीतर एक प्रेम कथा है. प्रेम में कोई लड़की भी कितने उलझे मानस और कांइयांपन के साथ व्यक्त हो सकती है, उसकी ऐसी मिसाल कहीं नहीं मिलेगी. सुनेत्रा को जो चरित्र कथाकार ने रचा है, वह ख़ासा विवादास्पद भी है. स्त्री विमर्श वाली लेखिकाओं ने शायद इस कहानी को पढ़ा नहीं है, नहीं तो दो मिनट में यह फतवा आ जाता कि शशिभूषण को हिंदी साहित्य से बाहर निकालो. बहिष्कार करो. हस्ताक्षर अभियान चल जाता. पर कथाकार ने बहुत चतुराई से शीर्षक दिया है– ‘अर्द्धपक्ष’. दरअसल यह कहानी सुनेत्रा से अधिक डीके की है, जो खुद ही भारी अवसाद और हताशा का शिकार है.
क़स्बे से शहर आया, गरीबी-बेरोजगारी की मार खाता हुआ डीके. हमेशा उसके भीतर एक एहसासे-कमतरी सहज ही तारी रहती है. ‘अर्द्धपक्ष’ का डीके और ‘अभिशप्त’ का शशांक दोनों ही एक ही मनःस्थितियों के मनुष्य लग रहे हैं. दोनों में ही आत्महंता प्रवृत्तियाँ हैं. दोनों के ही प्रेम संबंध सहज नहीं हैं. हालांकि इन दोनों कहानियों में स्त्रीपक्ष को कठघरे में लेने की कोशिश की गयी है, मगर शशांक और डीके के चरित्र मध्यवर्गीय युवाओं की मनस्थिति के संबंध में भी काफी कुछ बताते हैं. दोनों कहानियों स्त्री-पुरुष खेमे में बाँटकर पढ़ने से अच्छा है कि इनके मनोवैज्ञानिक मंतव्य को पकड़ा जाए, तो हमारे यथार्थ को समझना ज्यादा सरल होगा.
एक कहानी है ‘काला गुलाब’, जिसे कथाकार ने अपने दोनों ही कथा संग्रहों में रखा है. यह भी एक युवा के मनोविज्ञान की ही बड़ी मार्मिक और प्रतीकात्मक कहानी है. शरद के भीतर खामोशी और कोलाहल का खेल चल रहा है और वह कोलाहल और खामोशी के बीच किसी जगह पर खड़ा है. हालांकि इस स्पेस के बारे में भी कथाकार पूरी कहानी में निश्चिंत नहीं हैं. परिवेश में जो चीज़ें हैं, वे सभी स्वप्न, भ्रम और यथार्थ के बीच आवाजाही कर रही हैं. रूप बदल रही हैं. कथाकार इस हकीकत को रेखांकित करते हुए लिखता है-
“लोग चित्रों में ही उगकर गायब हो रहे थे. किसी के बारे में कोई पक्की सूचना किसी के पास नहीं थी. सब अफवाहें थीं और अफवाहों के स्रोत दुनिया के सबसे सच्चे लोग थे.”
किसी पारिवारिक कहानी के माध्यम से अपने दौर की ऐसी व्यंजनापूर्ण कहानी कह पाना शायद शशिभूषण के बूते की ही बात है. कभी-कभी बहुत उलझावपूर्ण बातें ही सटीक बयान होती हैं. इस बात को शशिभूषण बार-बार साबित कर देते हैं.
एक और कहानी- ‘ब्रह्महत्या’. यह कहानी कथा के सूत्रधार के एक सपने से शुरू होती है और कथानायक अपनी उद्विग्नताओं को व्यक्त करते-करते कब इतिहास में छलांग लगा देता है, पता ही नहीं चलता और उसके बाद यह कहानी पं. धर्मराज की कहानी बन जाती है. शब्बो और सुकना की कहानी बन जाती है. ये तीनों ही चरित्र इतने अराजक, अप्रत्याशित और रहस्यात्मक हैं कि इनके ब्यौरे आपको विचलित कर देते हैं. जन्म और मृत्यु, लिंग और जाति के विमर्श खड़े हो जाते हैं. दिलचस्प है कि इतिहास, मिथक, स्वप्न के इस शृंख्ला में कंप्यूटर को भी जोड़ दिया जाता है और इस तरह कहानी आगे बढ़ती है. इस कथा को समझने का सूत्र इस कहानी में ही है. कथाकार बताता है कि पं. धर्मराज ने कहानियों के ज़रिये ही दुनिया को देखा. और इसी दुनिया को कथाकार इस कहानी के माध्यम से पाठकों को भी दिखा रहा है,
“जिसमें दुनियाभर की लम्पटता और टुच्चापन था मगर उसके बीच कहीं न कहीं एक ख्वाब भी था…आज़ाद हवा में साँस लेने का ख्वाब…इस ख्वाब की खातिर ही लोग लड़ रहे थे और किस्से बन रहे थे.“
यह कहानी इन सूत्रों से ही बुनी गयी है.
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(वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति के साथ हरे प्रकाश\’) |
इतना सब कुछ कहने के बाद भी इसे एक बार फिर पढ़ने से लगता है कि शशिभूषण की कहानियों के बारे में जो व्याख्या होनी चाहिए, वह तो इसमें आयी ही नहीं. दरअसल ये अव्याख्येय क्षणों की कहानियाँ हैं तो इन्हें भी अव्याख्येय ही छोड़ना पड़ेगा. इन कहानियों को समझने की कोशिश में शशिभूषण को भी समझना पड़ेगा. उन्होंने अपने दूसरे संग्रह के अंत में अपने बारे में विस्तार से लिखा है, पर उससे गुज़रने के बाद अगर शशिभूषण को आप जानते हैं तो थोड़ा और कंफ्यूज हो जाएंगे. शशिभूषण का यही अपना स्टाइल है.
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