अंग्रेजी के पत्रकार और हिंदी के लेखक आशुतोष भारद्वाज ने मुक्तिबोध की कविताओं में प्रेम की अनुपस्थिति पर ख़ास समालोचन के पाठकों के लिए यह लेख तैयार किया है. आशुतोष कुछ गिनती के अध्येताओं में है जो संजीदगी से लिखते हैं और हरबार कुछ नवोन्मेष लिए रहते हैं.
अनुपस्थिति के साये
आशुतोष भारद्वाज
मुक्तिबोध की सृजनात्मक सृष्टि तीन प्रमुख भावों से निर्मित और नियंत्रित होती है. पहला, उनके काव्य में प्रेम और स्त्री लगभग अनुपस्थित हैं. (नेमिजी द्वारा सम्पादित उनकी रचनावली में उनकी कवितायें और कहानियां तीन खंड यानि करीब तेरह सौ पन्नों में फैली हुई हैं लेकिन स्त्री, प्रेमिका ही नहीं, बतौर अन्य रूपों में भी लगभग गायब है.)
दूसरा, इस काव्य की कामना यानि इसकी ईड पर लेखक के आदर्श यानि सुपर ईगो का अंकुश है.
तीसरा, इसका क्रांतिगामी नायक किसी भी ऐसे कर्म को हेय मानता है जो क्रांति के पथ पर न जाता हो लेकिन खुद ऐसे कर्म (साहित्य लेखन) में लिप्त है जो उसके अनुसार क्रांति को सीधा संबोधित नहीं है. लेखन अपने में एक क्रांतिकारी कर्म हो सकता है इससे वह अनजान है, या अनजान बने रहना चाहता है.
ये भाव मुक्तिबोध की कविता को क्या स्वरुप देते हैं, यह निबंध उसकी पड़ताल है. इसके बहाने यह निबंध उनकी रचनात्मक कल्पना के किसी सुदूर झरोखे से चुपचाप झाँकती हुई स्त्री को केंद्र में लाने का प्रयास करता है, और किसी रचना में स्त्री की उपस्थिति के मायने को भी परखना चाहता है.
उनकी रचनावली में अठारह उन्नीस की उम्र तक लिखी कुल तीन या चार प्रेम कवितायें हैं, इसके बाद एक प्रेम कविता छब्बीस सत्ताईस में लिखी गयी है. तैंतीस की उम्र की एक कविता ‘तम छायाओं को’ में एक उचटती सी पंक्ति आती है जिसमें ‘प्रिये’ संबोधन इस्तेमाल होता है, उनके काव्य में इस शब्द की यह एक दुर्लभ उपस्थिति है, लेकिन कवि तुरंत बतला देता है कि यह संबोधन उसे विचलित करता है, और वह इस पर प्रश्न भी खड़ा कर देता है.
किन्तु सत्य है प्रिये (प्रिय कहते ही तत्क्षण छाती में होती है धक् धक्)
क्योंकि न न्यायोचित, संबोधन पूर्ण रिक्त है.
अपनी आगामी कविता में कवि इस विडंबना को स्पष्ट कर देता है जब वह कहता है —
पुरुष हूँ, आँसू मैं गिरा नहीं सकता हूँ
इसलिए सूने में, सूने में तकता हूँ….मेरी इन आँखों को देख अगर पाओ तुम, समझोगी कि जिंदगी में कहाँ हूँ अटकता हूँ. –
पुरुष हूँ इसलिए आँसू नहीं गिरा सकता. इसका क्या अर्थ है? क्या साम्यवादी क्रांति का आदर्श, जैसा कि मुक्तिबोध और कई अन्य कामरेड इसे समझते थे या समझते हैं, एक अति पौरुषेय प्रत्यय है, जिसमें आंसू और स्त्री की जगह नहीं है? भारत के मध्य भाग में एक विशाल गुरिल्ला सेना कई दशकों से राज्य के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति की जंग लड़ रही है. इस सेना के नियम बड़े कठोर हैं. प्रेम पर सख्त पहरा है, संतान का जन्म तो अपराध है.
(दो)
किसी रचना में स्त्री की उपस्थिति के क्या मायने हैं? क्या यह अनुपस्थिति किसी रचना को अधिक पौरूषेय बनाती है? किसी रचना का स्त्री तत्व क्या उसके पुरुष तत्व से भिन्न होता है? यह इस प्रश्न से एकदम अलग है कि स्त्री लेखन और पुरुष लेखन में कोई फर्क है या नहीं .
स्त्री पुरुष का विलोम नहीं है, प्रतिरूप भी नहीं लेकिन वह उससे एक इतर संसार जरूर है. मानव व्यवहार व चेतना के कई गुणों को स्त्री और पुरुष के आदि गुण माना जाता रहा है. कोमलता, माधुर्य,करूणा इत्यादि को स्त्री पर आरोपित कर दिया जाता है, हिंसा, क्रूरता, शक्ति को पुरूष पर. लेकिन यह गुण दोनों में ही कमोबेश उपलब्ध हैं.
लेकिन दोनों भिन्न सत्तायें हैं, शायद इसलिये कि सामाजिक-सांस्कृतिक भेद की वजह से दोनों के अनुभव संसार में गहरा फर्क रहा है. चूँकि मनुष्य अपने अनुभवों की निर्मिति है, स्त्री पुरुष का भेद उनके अनुभवों के आइने से देखा जा सकता है.
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(The Corinthian Maid\”, Joseph Wright of Derby, 1784) |
अनुभव के इसी भेद को वर्जिनिया वुल्फ अपने निबंध ‘अ रूम ऑफ वंस ओन’ में रेखांकित करती हैं जब वे जॉर्ज एलियट और जेन ऑस्टिन जैसी लेखिकाओं का जिक्र करते हुये कहती हैं कि अगर टॉलस्टाय ने अपना जीवन किसी परिवार में, बाकी दुनिया से कट कर बिताया होता तो वे युद्ध और शांति कभी न लिख पाते. वे लिखती हैं:
“जिस समय (जॉर्ज एलियट एक घर की दीवारों के भीतर ही सीमित थीं) यूरोप के दूसरे छोर पर एक युवक उनमुक्त जीवन जी रहा था, कभी इस जिप्सी के साथ, कभी उस अद्भुत स्त्री के साथ; वह रणभूमि में जाता था; मानव जीवन के तमाम अनुभवों को निर्द्वंद्व होकर, समूचे आवेग के साथ जीता था, और जब वह अर्से बाद अपनी किताबें लिखने बैठा तो इन अनुभवों ने उसकी लेखनी को विलक्षण ढंग से समृद्ध किया.”
जब मार्गरेट ड्यूरा सत्तर पार कर चुकी थीं, एक साक्षात्कार में पूरी शक्ति से कहती हैं:
“पुरुष की सृष्टि में स्त्री कहीं अन्यत्र होती है, एक ऐसी जगह जहाँ पुरुष अपनी इच्छा से ही आता-जाता है.”
इसके बाद वह समलैंगिक पुरुष लेखकों पर टिप्पणी करती हैं:
“किसी समलैंगी के साथ हुए प्रेम में वह मिथकीय, शाश्वत अनुभूति नहीं होती जो सिर्फ विपरीत लिंग के साथ ही घटित होती है… इसलिए साहित्य को — आप सिर्फ प्रूस्त का ही उदाहरण ले लें — समलैंगिक उन्माद को विपरीत लिंग में परिवर्तित करना ही पड़ा — अल्फ्रेड को अलबर्टाइन, स्पष्ट कहें तो. जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, इसलिए मैं रोलां बार्थ को महान लेखक नहीं मानती: कोई चीज थी जो उन्हें सीमित करती थी, मानो जीवन का प्राचीनतम अनुभव उन्हें छुए बगैर ही चला गया, स्त्री का यौनिक अनुभव.”
गौरतलब है कि ऐसा कहते वक्त वे तमाम पुरुष और स्त्रियों के साथ जीवन बिता आयीं थीं. लेकिन उन्होंने यह भी जोड़ा कि
“लिखते वक्त मैं खुद से यह प्रश्न नहीं पूछती कि स्त्री संवेदनशीलता के क्या मायने हैं. एक महान चेतना उभयलिंगी होती है. कला को किन्हीं अर्थों में स्त्रेण बनाने का प्रयास स्त्री की बहुत बड़ी भूल है.”
अनेक लेखिकाएं यह मत साझा करती हैं. मसलन कृष्णा सोबती “अर्द्धनारीश्वर के प्रत्यय” में आस्था रखती हैं जो रचना के लम्हों में रचनाकार के भीतर उतर आता है. इस लेखक के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने खुद को “स्त्री लेखक” मानने से इंकार करते हुए कहा:
“मैं स्त्री लेखन को नहीं मानती. सिद्धांतकार भले ही किसी कृति को इस संकीर्ण ढंग से परखें, लेकिन मेरे लिए कोई महान कृति स्त्री और पुरुष दोनों तत्व लिए रहती है..”
ये तीनों कद्दावर लेखिकाएं — वूल्फ, ड्यूरा और सोबती — पुरुष और स्त्री के अनुभव जगत की भिन्नता को स्वीकारती हैं लेकिन ज़ोर देती हैं कि महान कलाकार संस्कृति द्वारा आरोपित लिंग भेद से परे निकल जाते हैं.
इसलिये जब कोई पुरुष किसी स्त्री को बरतता है, जीवन या कविता में, तो वह अपने से इतर अनुभव जगत से संवादरत होता है. एक लगभग अनदेखे-अनजाने प्रदेश में प्रवेश करता है, उसके तंतुओं को खोलता-टटोलता है. यह स्त्री उस पुरुष की प्रतिद्वंदी हो सकती है, शत्रु या प्रेमिका भी. उसकी हिंसा, करूणा, प्रेम या वासना और हवस का पात्र भी. किसी स्त्री लेखक के लिये भी यह बात उतनी ही सही है. उसके लिये भी पुरुष प्रतिद्वंदी, प्रेमी, विलोम या प्रतिरूप भी हो सकता है.
इससे यह निगमित किया जा सकता है कि किसी भी कलाकृति की कुंडली उस जगह की बुनियाद पर बनाई जा सकती है जो उसका रचनाकार अपने विपरीत लिंग को देता या देती है. यहीं से यह भी प्रस्तावित किया जा सकता है कि किसी कृति की महानता उस अवकाश के आधार पर निर्धारित हो सकती है जो वह कृति अपने या अपने रचनाकार के ‘अन्य’ को देती है.
जब कोई कलाकार अपने से इतर किसी ‘अन्य’ संसार में प्रवेश करता है, उसके निवासियों से संवादरत होता है तो उस कृति में दुविधा, असमंजस, अर्थ बाहुल्य का समावेश होने की संभावना जन्म लेती है. उस कृति की भाषा पर कोहरे की परछाईं गिरती है, वह कृति दिन या रात के भेद को पार कर गोधूलि बेला में पहुँचती है. यह इतर संसार रचनाकार की चेतना के सामने एक रचनात्मक चुनौती खड़ा करता है कि वह अपने पूर्वाग्रहों को नकार उससे संवाद जोड़ पाता है या अपने आग्रहों और भ्रमों के आइने से देखता हुआ उसे स्वतंत्र स्पेस देने से इंकार कर देता है.
किसी रचना में स्त्री पुरुष संबंधों का डायनैमिक्स इसलिये यौनिक आकांक्षाओं का उतना फलन नहीं जितना वह एक लगभग अबूझी और अनजान सृष्टि से हुये संवाद का संविधान है. उसे खोलने-टटोलने की छटपटाहट है, उसकी असंभाव्यता और दूसरेपन को डीकोड करने का प्रयास है.
इसी संवाद की भूमि पर प्रेम, उन्माद, चाहना, ईर्ष्या, हिंसा इत्यादि भावों के जन्म की संभावनायें घटित होती हैं. किसी कृति में इस संवाद के स्थल हमें शायद इसलिये ही लुभाते हैं कि वह हमें अपने जीवन के इस इतर पक्ष से परिचित कराते हैं.
कम ही बड़े पुरूष कलाकार हैं जिनकी कला उनके स्त्री-किरदारों के बगैर पूरी होती हो. अगर स्त्री उसकी कल्पना की मरकज न भी हो तो भी वह उसके कला-कर्म पर एक बीहड़ आसमान, एक विराट स्वप्न की तरह मंडराती रहती है. व्यास, शेक्सपियर से लेकर बर्गमैन की शक्तिशाली स्त्रियाँ इसका प्रमाण हैं.
(तीन)
इस रोशनी में अब हम उस प्रश्न को टटोल सकते हैं कि स्त्री की अनुपस्थिति मुक्तिबोध के काव्य को क्या स्वरूप देती है. उनके काव्य की एक बड़ी विशेषता है उनके नायक की गहरी आंतरिक छटपटाहट और आत्मसंघर्ष, आत्म-भर्त्सना भी. लेकिन उसे अपनी अपने विचार की शक्ति पर कोई संशय नहीं. क्रांति में योगदान न दे पाने की वजह से वह खुद को कोसता जरूर है लेकिन क्रांति के विचार और उसकी अनिवार्यता परउसे कोई संशय नहीं. उसे कवि, नर्तक, शिल्पकार इत्यादि समाज के सभी वर्ग “रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध” नजर आते हैं. वह अपने को, एक क्रांतिगामी नायक को एक किनारे रखता है, बाकी दुनिया दूसरे किनारे पर धकेल देता है.
क्या मुक्तिबोध की कविता में ‘अदर’ यानि दूसरे का बोध बहुत गहरा और नुकीला है? क्या कवि लगभग समूची सृष्टि को अपना विलोम माने बैठा है? वह “अकेला” है “बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला” है.
क्या इसकी वजह यह है कि मुक्तिबोध अपने विचार को ही अंतिम सत्य मानते रहे? क्या यह कह सकते हैं कि इस रचनात्मक अवस्था यानि बहुध्वन्यात्मकता की इस अनुपस्थिति की एक वजह रचना में स्त्री की अनुपस्थिति है? स्त्री की उपस्थिति रचना और उसके किरदारों के स्वर को किस क़दर परवर्तित करती है इसके कई उदाहरण हैं.
गोरा की सुचरिता नायक की अतिवादिता पर प्रश्न करती है, अंततः उसे अपनी अवधारणाओं पर पुनर्विचार को प्रेरित करती है. टैगोर के इस उपन्यास का निर्णायक मोड़ उस लम्हे आता है जब नायक गोरा स्त्री के महत्व को समझता है. गोरा कट्टर हिन्दू है, जातिप्रथा का समर्थक है, मानता है कि भारत का भविष्य हिन्दू पुनर्जागरण में है. लेकिन इतना मजबूत व्यक्तित्व जो सभी को बहस में हराता आया है, ब्रह्म समाज की सदस्य सुचरिता के संपर्क में आ अपने तर्क की सीमा को पहचानने लगता है. जिस इंसान ने स्त्री की भूमिका को कभी भी परिवार से परे नहीं देखा वह “सुचरिता के जरिये एक नए सत्य से साक्षात्कार करता है”.
संस्कार की नायिका तपस्वी जीवन जीते आ रहे प्राणेशाचार्य को सृष्टि के अनछुए पहलू से परिचित कराती है, उसके जीवन को पलट कर रख देती है. झूठा सच की स्त्रियाँ विभाजन के दौरान पुरुष द्वारा की जा रही हिंसा को नकारती हैं. दोस्तोयवेस्की के अपराध और दंड के एक विलक्षण दृश्य में सोन्या अपराध बोध में डूबे नायक को तहख़ाने में बाइबल का ‘राइज़िंग अव लाज़रस’ पढ़ कर सुनाती है, जिसके बाद नायक के भीतर की जड़ता पिघलने लगती है.
यही बात स्त्री के संदर्भ में भी सही है. पुरुष की उपस्थिति उसके लेखन का विस्तार करती है. इसका सबसे विलक्षण उदाहरण हैं कृष्णा सोबती. उन्होंने जब ‘हम हशमत’ लिखने के लिये पुरुष उपनाम चुना तो पाया कि उनकी लेखनी और भाव ही नहीं, लिखावट यानि हस्तलिपि का स्वरूप भी बदल गया. वे पुरुष का अपनी कथाओं में चित्रण करती आयीं थीं लेकिन जब उन्होंने खुद को पुरुष नाम दिया, पुरुष को अपनी रचनात्मक चेतना में धारण किया तो उनके शब्द और अक्षर वह नहीं रहे जो उनकी अन्य रचनाओं में थे.
मुक्तिबोध की एक दुर्लभ प्रेम कविता के उदाहरण से देखा जा सकता है कि स्त्री और प्रेम का भाव उनके विचार, भाषा की सतह और कविता के ढांचे को किस क़दर बुनियादी तौर पर परिवर्तित कर देता है.
मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ साथ यों साथ साथ
फिर बहना बहना बहना
मेघों की आवाज़ों से
कुहरे की भाषाओं से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से
मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
(चार)
किसी पुरुष रचनाकार के शब्द को स्त्री किस तरह कायांतरित करती है, उस रचना की काया में वह अनकहे और अनबूझे रहे आये एहसास और हसरतें किस तरह चुपचाप पिरो देती है इसका एक विलक्षण उदाहरण दो अलग काल खंडों में रची गयी राम कथा के यह अंश देते हैं.
वाल्मीकि रामायण के अरण्य कांड के पैंतालिसवे सर्ग में राम मृग के पीछे जा चुके हैं. सीता और लक्ष्मण कुटिया में अकेले हैं कि राम की पुकार आती है. घबराती हुयी सीता लक्ष्मण से राम की सहायता के लिये जाने को कहती हैं लेकिन वे उन्हें आश्वासन देते हैं, यह भी कहते हैं कि राम ने उन्हें सीता के पास रहने के लिये कहा है. और तब सीता लक्ष्मण पर वह आरोप लगाती हैं जो रामकथा की बुनियाद पर गहरा प्रश्न लगाता है. जब लक्ष्मण जाने से मना कर देते हैं तो आक्रोश में सीता कहती हैं कि वह राम की सहायता के लिये सिर्फ इसलिये नहीं जा रहे क्योंकि उनकी सीता पर कुदृष्टि है, कि वह राम के खत्म होने के बाद उनको पाना चाहते हैं, कि लक्ष्मण दरअसल जंगल सिर्फ उन्हीं के पीछे आये हैं. वे उन्हें “दुष्ट”, “अनार्य” और “कुलपावक” कह गाली देती हैं, और यह भी जोड़ती हैं कि शायद भरत ने ही लक्ष्मण को उन्हें यहाँ भेजा है.
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(साभार – keshav ) |
यह अचंभित कर देने वाला वाक्या है. हम मानते आये हैं कि लक्ष्मण ने सीता के सिर्फ चरणों को ही देखा है, चेहरे पर भी उनकी कभी निगाह ही नहीं गयी. लक्ष्मण का आदर्श भाई और देवर का स्वरूप यहाँ भरभरा कर गिर जाता है. जंगल के इतने बरसों के दौरान लक्ष्मण ने ऐसा क्या कहा या किया, सीता ने उनमें ऐसा क्या देखा कि वह उन पर कुदृष्टि का आरोप लगा रही हैं. क्या लक्ष्मण निष्कंलक नहीं, आदर्श भाई नहीं? यह प्रश्न खुद सीता पर भी लौटता है कि वे अब तक चुप क्यों रहीं? अगर उन्हें लक्ष्मण के भीतर इस भाव का एहसास था तो उन्होंने अब तक प्रतिकार क्यों नहीं किया? राम को क्यों नहीं बतलाया? या यह सीता की महज कुंठा है, झुंझलाहट है कि वह जैसे भी संभव हो लक्ष्मण को उकसा रहीं हैं कि वे राम की रक्षा के लिये चले जायें? और अगर ऐसा है तो इस क्षण सीता और कैकेयी या मंथरा में कोई बहुत गहरा चरित्रगत अंतर नहीं रह जाता.
एक उत्कृष्ट रचनाकार की तरह वाल्मीकि इन प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ देते हैं. गौर करें कि यह वाक्या वाल्मीकि रामायण में है, एक आरंभिक रामकथा, उस इंसान द्वारा रची गयी जिसने राम को बचपन से देखा, अपने आश्रम में सीता को शरण दी, लव कुश उनके घर ही पले बढ़े. यह झारखंड या छत्तीसगढ़ के किसी कबीले में कही गयी रामकथा नहीं जिसे कोई वैकल्पिक या “थ्री हंड्रेड रामायण” में से एक कह कर खारिज कर सके. हाँलाँकि कोई भी रामकथा वैकल्पिक नहीं, भारतीय समाज ने मिलकर सबको रचा है, उन्होंने भारतीय समाज को रचा है. लेकिन वाल्मीकि रामायण की सीता अगर लक्ष्मण पर यह आरोप लगा रही हैं तो इसे अनसुना नहीं किया जा सकता.
कई सदियों बाद तुलसीदास भी रामकथा लिखने बैठते हैं. इस प्रसंग पर आते हैं. उनके सामने सकंट गहरा है. अगर वे भी सीता-लक्ष्मण के संबंध पर यही प्रश्न लगाते हैं तो उनकी रामकथा का उद्देश्य कमजोर पड़ता है, आखिर उन्हें एक आदर्श की स्थापना करनी है. तुलसी शुरुआत से ही अपने किरदारों की आकांक्षा के बजाय अपने आदर्श यानि सुपर ईगो से संचालित हो रहे हैं. लेकिन इस स्थल पर इस रचना अपने रचनाकार के आरोपित आवरण को उतार फैंकती है और तुलसीदास लिखते हैं —
मरम बचन जब सीता बोला. हरि प्रेरित लछिमन मन डोला.
सीता ने जो कुछ भी भला-बुरा लक्ष्मण से कहा, तुलसी उसे ‘मरम बचन’ में सीमित तो कर देते हैं, लेकिन पर्याप्त संकेत देते हुये कि सीता ने अत्यंत मर्मभेदी बात कही है. यह कविता की काया में ईड यानी अव्यक्त रही आयी कामना का समावेश है. यह रचना का दुर्लभ क्षण है. किरदार की आकांक्षा रचनाकार के नैतिक आदर्श से परे निकल जाती है.
एक अन्य दृष्टि से कहें तो एक रचनाकार अपने पूर्ववर्ती कलाकार को शायद इसी तरह नमन करता है, उसका ऋण अदा करता है. तुलसी का भक्त चाह कर भी वे शब्द नहीं प्रयोग कर सकता था जो सीता और लक्ष्मण के संबंध पर सवाल लगाते हों, लेकिन उन्हें अपने कथा-गुरू वाल्मीकि की मूर्ति के समक्ष ली गयी शपथ भी याद रही होगी. ‘मरम बचन’ इसी शपथ का निर्वाह है, इसका प्रमाण है कि रचना अपने रचयिता और किरदार, दोनों से मुक्त हो जाने का ख्वाब देखती है, दुर्लभ लम्हों में मुक्त हो भी जाती है. एक मध्यकालीन भक्त कवि अपने समूचे आग्रहों के बावजूद अपनी रचना में वे संकेत छोड़ जाता है, जो उस कथा का पाठ बदल देते हैं.
स्त्री के महत्व को इस्लाम धर्म के आईने से भी देख सकते हैं. इस्लाम की चेतना और कल्पना में स्त्री अमूमन अनुपस्थित रही है. यह निरा पौरूषेय धर्म है. इसके पैगंबर, संत—सभी पुरुष हैं. इस्लाम शायद उतना कट्टर नहीं होता अगर इस्लाम का पुरुष किसी स्त्री से संवाद-संघर्षरत रहा होता. दिलचस्प यह है कि जब सूफी कवियों के जरिये इस्लाम में स्त्री और प्रेम प्रवेश करते हैं तो इस्लाम का स्वरूप झटके से बदल जाता है. सूफी कवि प्रकृति और खुदा से बुनियादी तौर पर एकदम अलग किस्म का सम्बन्ध बनाते हैं, जिसमें उन्माद और खुमार है, समर्पण भी है. उर्दू शायर जिस तरह अपने खुदा और मजहब से ठिठोली करता है वह स्त्री के बगैर संभव नहीं था.
मसलन मीर बुत शब्द से एक बेजोड़ शरारत रचते हैं. उर्दू में बुत का अर्थ मूर्ति तो है ही, यह माशूक के लिए भी प्रयोग होता है. जब मीर कहते हैं —
बोसा उस बुत का लेकर मुंह मोड़ा, भारी पत्थर था चूम कर छोड़ा —
तो वे माशूक और इश्क के तीर से अपने मजहब और उसके विचार को बींध देते हैं.
(पांच)
वापस मुक्तिबोध पर लौटते हैं जिनकी कविता में अपने वर्तमान के प्रति गहन छटपटाहट, असंतोष है, नकार भाव है. यह नकार भाव किस तरह प्रेम के स्पर्श से बदल जाता है इसका एक अद्भुत उदाहरण यह कविता है —
जिंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है; इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है
गरबीली गरीबी यह, ये गभीर अनुभव सब
यह विचार वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब….जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है
संवेदन तुम्हारा है!
क्या किसी और स्थल पर मुक्तिबोध जीवन को, गरीबी को, अपने विचार वैभव को इस तरह स्वीकारते दिखाई देते हैं? ऐसी ही एक और दुर्लभ कविता है. यहाँ प्रेमिका के बजाय माँ केंद्र में है. मुक्तिबोध का नायक कभी किसी से रास्ता पूछता नजर नहीं आता, अपने रास्ते पर उसे कभी कोई संशय नहीं होता. वह दूसरों की राह पर बेखटक टिप्पणी करता आया है. लेकिन इस कविता में स्त्री पुरुष को, कविता के नायक को राह दिखला रही है.
एक अन्तः कथा
अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ
बीनती नित्य सूखे डण्ठल
सूखी टहनी, रूखी डालें
…
मुझमें दुविधा
पर माँ की आज्ञा से समिधा
एकत्र कर रहा हूँ
…
टोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ
…
आगे-आगे माँ
पीछे मैं
–
टोकरी विवर में से स्वर आते दबे-दबे
मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे
…
मैं पूछ रहा —
टोकरी विवर में पक्षी स्वर
कलरव क्यों है
माँ कहती-
सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
ही गाती है पक्षी स्वर में
वह बन्द आग है खुलने को
इसके बाद जब नायक “विचरण करता-सा है एक फैण्टेसी में’ इस विश्वास के साथ कि “यह निश्चय है कि फैण्टेसी कल वास्तव होगी” (फैण्टेसी में विचरण और भविष्य में इसके पूर्ण होने पर विश्वास मुक्तिबोध की कविता का स्थायी भाव है), तब माँ उसे टोकती है, सुधारती है, “व्यंगस्मित मुसकरा रही/डाँटती हुयी कहती है” कि —
केवल जीवन कर्तव्यों का
पालन न हो सके इसलिय
निज को बहकाया करता है.
चल इधर, बीन रूखी टहनी
सूखी डालें
भूरे डण्ठल,
पहचान अग्नि के अधिष्ठान
जा पहुँच स्वयं के मित्रों में
कर अग्नि-भिक्षा
लोगों से पड़ोसियों से मिल
क्या यह ‘अंधेरे में’ रहती वह ‘जन-मन-करुणा सी माँ” है जो मुक्तिबोध की कविता से ‘हंकाल’ दी गयी है? लेकिन मुक्तिबोध के सभी प्रयासों के बावजूद वह स्त्री माँ के रूप में इस कविता में चली आई है, नायक से कह रही है कि अपने विचार की खोह से बाहर निकल, अपनी आत्म ग्लानि को परे हटा लोगों से और पड़ोसियों से मिल, अपने विरोधी के मत का सम्मान कर. अगर ऐसा है तो क्या यह क्षण जब यह मुस्कुराती हुई स्त्री नायक से कह रही है कि केवल जीवन कर्तव्यों का पालन न हो सके इसलिये वह निज को बहकाया करता है, क्या यह क्षण मुक्तिबोध का तुलसीदास क्षण है?
चूँकि मैं मुक्तिबोध की कविता के मनोविज्ञान को टटोल रहा हूँ, मैं अंत एक और प्रश्न से करना चाहूँगा, जो उनके मृत्यूपरांत जीवन को एक मनोवैज्ञानिक के नजरिये से टटोलना चाहता है.
अगर हमारी आलोचना पिछले पचास वर्षों में मुक्तिबोध की कविता के इस अभाव और उसके प्रभाव को नहीं देख पायी तो क्या इसकी वजह यह है कि मुक्तिबोध हमारी, हम हिंदी रचनाकारों की सामूहिक ग्लानि के प्रतीक हैं?
जिस तरह हिंदुस्तान इस अपराध बोध को लिए जी रहा है कि आजाद भारत अपने राष्ट्र पिता को छह महीने भी जीवित न रख सका, जिस तरह गांधी की हत्या उनके हत्यारों पर गहरा कलंक छोड़ गयी क्या नियति ने जो मृत्यु मुक्तिबोध के लिए चुनी वह हम हिंदी लेखकों को इस अपराध बोध में डुबो गयी कि हम अपनी भाषा के एक अत्यंत समर्पित रचनाकार को बचा न सके?
आशीष नंदी ने लिखा है कि आजादी के बाद घनघोर निराशा के लम्हों में गाँधी को शायद एहसास हो गया था कि एक हिंसक मृत्यु शायद उन्हें कहीं अधिक प्रासंगिक बना देगी, जो वे जीवित रह कर न कर पाते शायद उनकी मृत्यु उसे हासिल कर लेगी. नंदी लिखते हैं कि सुकरात और ईसा मसीह की तरह गांधी को मालूम था कि मनुष्य के अपराध बोध का सर्जनात्मक इस्तेमाल कैसे किया जाये.
मुक्तिबोध का निश्चित ही अपनी मृत्यु चुनने में कोई योगदान न था, लेकिन क्या सुकरात, ईसा मसीह और गाँधी की इस कड़ी में हम मुक्तिबोध का नाम जोड़ सकते हैं? हालाँकि यह प्रश्न शायद आलोचक का उतना नहीं जितना उनके जीवनीकार का है, लेकिन यह सवाल स्त्री की अनुपस्थिति की तरह उनके पाठ पर हमेशा मंडराता रहता है.
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कथाकार-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज इन दिनों शिमला के भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो हैं.
ई पता : abharwdaj@gmail