भारत जैसे उपनिवेश रहे देशों की आधुनिक सभ्यता अनूदित सभ्यता है. अनुवाद के लिए चुनाव और उसकी प्रस्तुतीकरण के कई पाठ हैं. भारत में आधुनिकता और अनुवाद सहोदर हैं. ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ओहदेदारों के लिए अनुवाद (कई बार तो मूल की निर्मिति) में अन्वेषण का आनन्द और शासन के लिए सुगम मार्ग की तलाश का सम्मिलित प्रयास देखा जा सकता है. हिंदी ने जिन कृतिओं को अनुवाद के लिए चुना उनमें भी अवचेतन ही सही पश्चिम की श्रेष्ठता के प्रति अनुकूलित हो चुकी मानसकिता है.
सुशील कृष्ण गोरे अनुवादक हैं और अनुवाद के दर्शन से भी खूब परिचित हैं. बहुत ही गंभीरता से उन्होंने अनुवाद के मन्तव्य का भाष्य किया है. अनुवाद पर एक जरूरी अंतरपाठ.
अनुवाद की संस्कृतियाँ
सुशील कृष्ण गोरे
वैश्वीकरण के बाद समकालीन वैचारिकी की गढ़ंत में अनुवाद की हिस्सेदारी बहुत बढ़ गयी है. वह व्यवस्थित अध्ययन के उस मुकाम पर पहुँच गया है जहाँ वह संस्कृतियों के सहमिलन और संघर्षों के पीछे की रणनीति का राज खोलने में जुटा है. वह संस्कृति-विमर्श को व्याख्यायित करने में जिस जुनून के साथ लगा है उसकी बदौलत उसकी हैसियत एक जबरदस्त अनुशासन के रूप में बन गयी है. उसे एक ओर जहां इस ताजा विमर्श की वैचारिकी का व्याख्याता माना जा रहा है तो वही दूसरी तरफ़ उसका इस्तेमाल सत्ताओं की वैधता-अवैधता प्रतिपादित करने वाले एक औजार के रूप में भी किया जा रहा है. उस पर उत्तर-आधुनिक और बाजारवादी संदर्भों के गहन दबाव हैं जिनके साये में उसके व्याकरण को दरकिनार कर उसका मनचाहा निर्वचन भी किया जा रहा है.
संस्कृति और सत्ता-विमर्शों के संदर्भ में अनुवाद अध्ययन की इस अंतर्निहित गूढ़ भूमिका का जोर इतना ज्यादा बढ़ गया है कि वह अंतर-अनुशासनात्मक ज्ञान का आकर्षक संदर्भ-स्थल बन गया है. इस प्रकार अनुवाद वर्चस्व और प्रतिरोध के सापेक्ष संस्कृति के एक जीवंत और समग्र अध्ययन की नयी जमीन है. उसकी एक छोर पर संस्कृतियों के विविध रागों का जमावड़ा है तो अपनी दूसरी छोर पर चल रहे सत्ता-विमर्श की ताजा बहसों की महफ़िल का दीदार-ए-यार भी वही है. वह अनुवाद की ऋचाओं के ज्ञानात्मक रचाव का नया शिल्पकार और नया शैलीकार है.
एडवर्ड सईद की पौर्वात्य समीक्षा ने संस्कृति विमर्श का पूरा नक्शा ही बदल दिया. वर्ष 1978 में प्रकाशित उनका Orientalism को इतिहास, साहित्य, दर्शन, तथा दूसरी कलाओं में उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययन का तोरणद्वार माना जाता है. उनका पदार्पण इस क्षेत्र में वैसे ही है जैसे चीनी मिट्टी की कलाकृतियों की दुकान में कोई साँड़ घुस आए. बुल इन ए चाइना शॉप. उनका पाश्चात्य के बरखिलाफ़ पौर्वात्य का नया मुहावरा गढ़ना पश्चिमपरस्ती का शिव-धनुष तोड़ने से कम नहीं है. उनका योगदान इस मायने में बहुत अहम है कि उन्होंने इस क्षेत्र पर हावी पश्चिमकेंद्रियता को बदलकर उसे एशिया और अन्य की तरफ मोड़ दिया.
पश्चिम बनाम अन्य की स्वीकृति विश्व-व्यवस्था में कॉपरनिकस प्रभाव से कम नहीं है. सभ्यताओं के संघर्ष के संदर्भ में सैमुअल हंटिगटन ने पॉवर शिफ्ट की विशद व्याख्याएँ की हैं और दुनिया के नये सांस्कृतिक अभ्युदय और अवसान पर उनके अध्ययन इस विमर्श को नई धारा में पढ़ने का आमंत्रण देते हैं. वैश्वीकरण के वात्याचक्र की ग़िरफ्त में संस्कृतियों की टकराहट को कहीं सत्ता पर भाष्य तो कहीं जातीय बहुलताओं की बहु-ध्रुवीय रस्साकशी के रूप में पढ़ा जा सकता है. हर स्तर पर एक ग्लोबल समुद्र-मंथन की स्थिति है. अनुवाद भी परिवर्तन के इसी झंझावात के बीच से जन्म लेने वाली दुनिया को समझने की लिपि तलाश रहा है जिसमें वह समूची कथा-गाथा को उत्कीर्ण कर सके. अनुवाद की यही जिजीविषा उसे समकालीन विधाओं में सबसे तरुण छवि देती है.
कैथरिन एम.फॉल अपनी पुस्तक ट्रांसलेशन एंड कल्चर में लिखती हैं कि यह अतीत की बात थी जब उस अनुवाद को उम्दा समझा जाता था जो बड़ी सिद्धहस्तता से स्रोत एवँ लक्ष्य भाषाओं की आपसी सांस्कृतिक और भाषाशास्त्रीय भिन्नताओं को पाठ में नज़रअंदाज कर दे. आज ऐसा नहीं है. आज जब अनुवाद के रास्ते बहिरांतर के बीच कोई संवाद जुड़ता है तो उसके अनेक बौद्धिक मंतव्य होते हैं. इस बाह्य को औद्योगिकीकृत देशों में बहुसांस्कृतिकता और जातीय विविधता के उत्सवीकरण के लबादे में तथा अपेक्षाकृत कम औद्योगिकीकृत लेकिन पारंपरिक समाजों में आधुनिकीकरण, औद्योगिकीकरण तथा पश्चिमीकरण के रूप में देखा जा सकता है.
इस प्रकार सवाल उठता है कि बीती शताब्दी की तरह 21वीं शताब्दी में भी अनुवाद की भूमिका क्या है? क्या इसे बकौल जाक देरिदा शब्दों का नीतिशास्त्र कहा जाए? छोटी और बड़ी संस्कृतियों के बीच अनुवाद किन राजनीतिक एवं आर्थिक मसलों का इलाज़ पेश कर सकता है? लारेंस वेन्यूटि, एंथनी पाइम, एंट्वायन बर्मन ने इन सवालों की उधेड़-बुन से अनुवाद की एक सैद्धांतिकी सामने आई है जो उसे संस्कृति-राजनीति के बरक्स प्रतिपादित करती है. कुछ भी हो लेकिन यह तथ्य है कि अनुवाद की बनावट में स्रोत भाषा का सम्यक निर्वाह देरिदायी शब्दों के नीतिशास्त्र से जुड़ा मामला होता है.
अनुवादों से स्रोत भाषा का कम ही बनता-बिगड़ता है पर लक्ष्य भाषा अर्थात् जिसमें अनुवाद होकर आये हैं, उस पर अनुवादों का कैसा और कितना प्रभाव पड़ता है, इस विषय पर अनुवाद शास्त्र के विद्वानों ने पिछले कुछ दशकों में काफी कुछ कहा है. इनमें से केवल दो मुख्य बिन्दुओं का संक्षिप्त संकेत यहां पर्याप्त है. पहली तो इजराइल के अनुवाद विशेषज्ञ इतमार ईवेन जोहार की सैद्धान्तिक स्थापना कि अनुवाद किसी भी भाषा व साहित्य की आंतरिक बहुआयामी प्रणाली में ही बदलाव ला देता है, जिससे उस भाषा का ढाँचा और मुहावरा बदलता है.
अनुवाद का पाठक मूलपाठ के द्वार पर जाय अथवा मूलपाठ को ही पाठक के घर बुलाया जाय
इसे सूत्र वाक्य में फॉरेनाइजिंग दि डोमेस्टिक ऑर डोमेस्टिकेटिंग दि फॉरेन कहा गया है. यह सवाल हमेशा से सालता रहता है कि अनुवाद सुगम या घर-जैसा होना चाहिए (Domestication) या जान-बूझकर अटपटा और अपेक्षाकृत दुर्गम जिससे वह स्पष्टत: पराया लगे (Foreignization)? इस गहन किन्तु असाध्य विषय पर जो बहसें हुई हैं उसके प्रथम प्रवर्तक थे जर्मन दार्शनिक और धर्मतत्ववेत्ता फ्रीडरिख श्लायरमाखर और हमारे समय के अधिकारी विद्वान लारेंस वेन्युटी.
फ्रीडरिख श्लायरमाखर मानते हैं कि अनुवाद का मर्म किसी लेखक की भाषिक अभिव्यक्तियों की शक्ति तथा भाषा के चमत्कार को उसके अंतर्ज्ञान तथा भंगिमाओं के उतार-चढ़ाव की उसकी प्रणाली को अविच्छिन्न अभिव्यक्ति या प्रस्तुति में अनुस्यूत होता है . अनुवाद के साथ-साथ मूल कृति की सांस्कृतिक शब्दावली का पारगमन भी अनूदित सामग्री में कैसे हो जिससे कि एक सर्वथा नई संस्कृति का पाठक भी मूल पाठ को अनाहत रूप आत्मसात कर सके – यह यक्षप्रश्न अनुवाद के सामने हमेशा से एक चुनौती के रूप में खड़ा रहा है. श्लायरमाखर मानते हैं कि व्याख्या (पैराफ्रेजिंग) और अनुकृति (इमिटेशन) के दोनों मौज़ूदा साधन अनुवाद की दृष्टि से अपर्याप्त हैं. वे पाठक पर मूल पाठ का Wirkung यानी प्रभाव आयत्त नहीं कर पाते. श्लायरमाखर की एक बड़ी प्रसिद्ध उक्ति है –
Either the translator leaves the author as much as possible in peace and moves the reader towards him or he leaves the reader in peace and moves the author towards him.
ख़ुद श्लायरमाखर की निष्ठा पहली स्थिति यानी विदेशीकरण में है. अपने इस रुख़ के कारण उन्हें आलोचना भी झेलनी पड़ी है. पाइम, वेन्युटी और बरमन जैसे सिद्धांतकारों ने उन पर आरोप लगाया कि मूल पाठ की स्वायत्तता या उसकी भाषा की मर्यादा कायम रखने की मंशा एक छद्म है. दरअसल इसकी आड़ में श्लायरमाखर जर्मन राष्ट् और भाषा के प्रति अपने राष्ट्रवादी पूर्वग्रहों को ही सुरक्षित रखना चाहते थे. वे जर्मन भाषा को विश्व-संस्कृति की भाषा बनाना चाहते थे. इस भाषा को लेकर उनके कुछ बुर्जूवा मंसूबे भी थे. ये लोग एक और मोर्चे पर श्लायरमाखर पर चोट करते हैं. वे कहते हैं कि यदि श्लायरमाखर के अनुवाद विषयक नीतिशास्त्र को माना जाए और उनकी राह पर अनुवाद अध्ययन को आगे बढ़ाया जाए तो संस्कृतियों के बीच संवाद के सेतुबंधों की कोई गुंजाइश ही नहीं बचेगी. इसके बावज़ूद श्लायरमाखर अनुवाद विमर्श की वह विभूति हैं जिनकी चर्चा जरूरी है क्योंकि वे अनुवाद और संस्कृति पर परवर्ती विचारकों के लिए एकमात्र प्रेरणा-स्तंभ हैं.
उन्होंने अनुवाद के संचार, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक आयामों की सैद्धांतिक मीमांसा प्रस्तुत की बल्कि एक अनुशासन में अनुवाद की सैद्धांतिकी भी गढ़ी जिसके अनुसार नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र और भाष्यशास्त्र तीनों अंतर्संबद्ध रूप से उसके साथ जुड़े हैं. वह आधुनिक युग का पहला भाष्यकार है जिसने किसी पाठ की व्याख्या और अनुवाद में अंतर को स्पष्ट किया. व्याख्या विज्ञान, वाणिज्य और व्यापार के क्षेत्र में चलेगी क्योंकि वहाँ भाषा से अधिक तरज़ीह तथ्यों के प्रकटीकरण को दी जाती है; लेकिन अनुवाद के साथ ऐसा नहीं है क्योंकि उसका नाता मुख्यत: दर्शन और साहित्य से है जहाँ भाषा का इस्तेमाल, निहितार्थों की शैली और आशयों के मायने सबसे महत्वपूर्ण होते हैं. इसीलिए वह तर्क देता है कि अनुवादक का काम मात्र इतना नहीं है कि वह मूल या स्रोत भाषा के किसी शब्द के बराबर वजन का कोई शब्द लक्ष्य भाषा के शब्दकोश से ढूँढ़ कर रख दे. बल्कि उसे दम लगाकर जिस हद तक संभव हो उस हद तक मूल भाषा के भाषिक एवँ सांस्कृतिक संदर्भों को अनूदित भाषा में भी सहेजकर लाना चाहिए एवँ उसे कायम रखना चाहिए.
भाषा या भाषा में लिप्यंतरित संस्कृति की इसी अन्यता को बचाए रखने के लिए ही शायद श्लायरमाखर ने अनुवाद में विदेशीकरण की वकालत की थी. इससे अनुवाद एक भाष्य होने से बच जाता है. सवाल मौजू है कि विधा की स्वतंत्र पहचान के लिए अगर ऐसा है भी तो क्या श्लायरमाखर गलत है? सच कहा जाय तो हाँ वह गलत है क्योंकि वह जर्मन राष्ट्रवाद की तर्ज़ पर अनुवादकों से नस्लीय दृष्टि से शुद्ध बच्चे पैदा करने की तरह शुद्ध भाषा की भी दरकार रखता है. ज़ाहिर है, नस्ल की शुद्धता अथवा संस्कृति की शुद्धता की अंधराष्ट्रभक्ति को हवा देने वाला विचार. इस पर जवाबी हमला बोलते हुए एंट्वएन बरमन ने कहा कि अगर अनुवाद का उद्देश्य लिखित रूप में किसी अन्य के साथ संबंध साझा करना और इस प्रकार स्रोत या मूल भाषा की मध्यस्थता में अपनी लक्ष्य भाषा को मिलाकर कोई खिचड़ी पकाना है तो यह संस्कृतियों के उस जातियताकेंद्रित ढाँचे के बिल्कुल ख़िलाफ़ जाता है जो यह मानता है कि दुनिया की हर नस्ल या प्रजाति नैसर्गिक रूप से आत्ममुग्ध होती है और आत्मरति में विचरण करती है और किसी भी कीमत पर अपनी नस्लीय शुद्धता के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहती है.
नस्ल के आधार पर गठित कोई भी समाज नस्लीय अपमिश्रण नहीं चाहता. लेकिन अनुवाद में यह नस्लीय पवित्रता खंडित होती है. यह तो एक नस्ल के साथ दूसरी नस्ल का सांस्कृतिक सहवास है जिसमें एक सुकुमार स्पर्श रक्तिम हिंसा का भी है. जर्मन दार्शनिक हर्डर ने एक बार अनूदित भाषा की तुलना अक्षतयोनि कुँवारी से करते हुए कहा था कि जब तक किसी भाषा को अनूदित नहीं किया गया हो तब तक उसे आप एक अक्षतयोनि भाषा कह सकते हैं. उसे मालूम था कि हक़ीकत में अक्षतयोनि भाषा यानी शुद्ध भाषा शुद्ध नस्ल की तरह महज़ एक कोरी कल्पना है.
इस बीच-बहस में देरिदा का उक्त विषय पर एक निबंध पढ़ने पर लगता है अनुवाद को एक रोचक मोड़ लिया गया. वे यह मानते हैं कि कभी भी ऐसा कोई विषय नहीं हो सकता जिसका अनुवाद न संभव हो और वैसे ही कोई भी ऐसा विषय नहीं है जिसका अनुवाद संभव हो. दरअसल देरिदा भाषा के एक ऐसे निरुक्तकार हैं जो शब्दार्थ विज्ञान के नज़रिए से मूल पाठ तथा अनूदित पाठ की अंतर्मध्यता में छिपे खाली स्थान की शिनाख़्त करते हैं और उसे कम करने के रास्ते तलाशते हैं. अनुवाद में यह फ़ासला जरा ज्यादा ही होने की संभावना होती है. वे इसी धुंधले प्रदेश पर अपनी नज़र गड़ाते हें. इसे वे तकनीकी शब्दावली में Economy of Interbetweenness कहते हैं.
अनुवाद के राजनीतिक आशयों को समझाने में इना फिट्जनर तथा क्रिस्टी मेरिल का अध्ययन मील के पत्थर हैं. फिट्जनर अनुवाद के विमर्श में वर्चस्व का तड़का लगाती हैं तो वहीं मेरिल रोलां बार्थ के अनुवादक की मृत्यु संबंधी दावे का डंके की चोट पर खंडन करती हैं और कहती हैं कि अनुवादक न तो मरा है और न ही वह पाठ में अदृश्य या पाठ से दूर चला गया है बल्कि उसने उत्तर-आधुनिकता के केंद्रीय पाठ के अनुवाद में अपना राज्याभिषेक कुछ इस तरह से कर लिया है कि पाठक उसे शब्दार्थ के शंहशाह की तरह देखता है. वास्तव में यही अनुवाद की राजनीति है और शब्दों की विनिमेयता का नीतिशास्त्र भी; जिसकी पगध्वनियाँ भाषा और संस्कृतियों के बीच फैले बीहड़ पर चहलकदमी में खनकती हैं.
अनुवाद का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता. भाषा की शुरूआत के साथ-साथ अनुवाद का श्रीगणेश भी हो गया था. अरब खास तौर से इराक में इस विधा को एक पुख्ता जमीन मिली. पुरातत्वविदों को जिल्गामेश के महाकाव्य तथा हमूराबी की संहिता के कई भाषाओं में अनुवाद प्राप्त हुए हैं. पंद्रहवीं सदी तक आते-आते अरब देशों में अनुवाद की कला बाजाफ्ता एक लोकप्रिय और स्थापित विधा बन चुका था. उन्होंने अनुवाद की दो विधियाँ अपनायी. पहली विधि प्रथम अनुवादक इब्न नयमा अल-हिम्शी के नाम से जानी जाती है. यह शाब्दिक अनुवाद की धारा है. अनुवाद की दूसरी धारा के प्रवर्तक अपने जमाने के दो उम्दा अनुवादक अल-बतरीक तथा उसका बेटा याह्या थे जिन्होंने पाठ के अर्थ के अनुवाद को महत्वपूर्ण माना. पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने यूनानी दर्शन और चिकित्सा पद्धति के महान ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया.
यदि इससे आगे बढ़कर देखा जाए तो अनुवाद की एक तीसरी धारा के लिए भी गुंजाइश बनती है. इस तीसरी धारा में खास बात उसकी रचनात्मक शक्ति है. इस अनुवाद में पाठ की वस्तु और उसके अर्थ दोनों का अनुवाद कलात्मक प्रतिभा के ऐसे सूक्ष्म स्तर पर किया जाता है जहाँ पाठ के सतह पर दिखने वाले रूप और अर्थ के पार का संज्ञान उभरकर सामने आ जाता है. इसका अधिवास संपूर्ण पाठ की शैली में कहीं खोजा जा सकता है. इसका एक आत्मीय संबंध लेखक की दृष्टि के साथ भी बनता है. यह एक प्रकार के रहस्य पर से पर्दा उठाने जैसा अनुभव है.
इस प्रकार एक अनुवादक दो भाषाओं की भिड़ंत के बीच खतरे में खड़ा रहकर एक नयी रचना का शिलान्यास करता है. उसे मूल पाठ के प्रति ईमानदार रहते हुए एक सर्वथा नया पाठ गढ़ना पड़ता है. यह काम आसान नहीं होता. कुछ विद्वान तो मानते हैं कि अनुवाद इत्र के मानिंद होता है. यदि इत्र को एक शीशी से दूसरी शीशी में ऊड़ेला जाए तो उसकी कुछ खुशबू तो उड़ ही जाती है. इसी प्रकार अनुवाद के बाद पाठ की कुछ खुशबू और उसकी कुछ रुह तो फना हो ही जाती है. बेंजामिन जैसे भाषाविद् मानते हैं कि अनुवाद संस्कृतियों के बीच एक पुल बना देता है. वह सिर्फ लक्ष्य भाषा का साहित्य समृद्ध नहीं करता. वह भाषाओं और संस्कृतियों के मिलाप से विश्वायतन को समझने का एक सांस्कृतिक इंक्यूबेटर बन जाता है.
१९८० के दशक में अनुवाद को विश्व स्तर पर एक सुव्यवस्थित अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठा मिली. १९७० का दशक इसको अपनी पहचान बनाने में बीत गया. १९९० को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया क्रांति का दशक माना जाता है. इस दशक में संस्कृतियों की साझेदारी और उनके बीच आवाजाही के नए मार्ग खुल गए. यह सब कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संभव हुआ. सरहदें नाकाफी हो गयीं. इस मीडिया की उड़ान के रास्ते में कोई सरहद बीच में नहीं आती. सूचना क्रांति ने वैश्वीकरण को संस्कृतियों के संदर्भ में समझने का अवसर दिया. लेकिन वैश्वीकरण का एक नकारात्मक पहलू भी है. सांस्कृतिक जड़ों को पुनर्परिभाषित करने और राष्ट्रों के बीच हितों के नए समीकरण और टकराव के क्षेत्रों में उभार भी इसी प्रक्रिया की विरासत है. ऐसे में अनुवाद तेजी से नस्ली और एथनिक दीवारों में बँटती जा रही इस उत्तर-वैश्वीकृत दुनिया को समझने का एक ताजादम अनुशासन बन रहा है.
अनुवाद एक सर्जना है या एक रणनीति
हाल-फिलहाल अनुवाद को सत्ता-विमर्श से भी जोड़कर उसका गंभीर अध्ययन किया जा रहा है. अनुवाद, इतिहास, संस्कृति नामक अपनी पुस्तक में आंद्रे लेफेवेरे कहते हैं कि अनुवाद का सीधा संबंध अथॉरिटी, लेजिटीमेसी और अंतत: सत्ता के साथ है. अनुवाद एक दूसरी दुनिया की तरफ खुलने वाली खिड़की मात्र नहीं है. A window opened on another new world. अनुवाद एक ऐसा चैनल भी है जिसके रास्ते बाहरी संस्कृति के प्रभाव स्थानीय संस्कृति पर पड़ते हैं. अनुवाद का इस चैनल के रूप में बहुधा इस्तेमाल किया जाता है. स्थानीय संस्कृति पर ऐसा अनुवाद आघात करता है. उसे कलुषित करता है. परायी वैचारिकी के रंग में रँगना शुरू कर देता है. विक्टर ह्युगो ने अनुवाद की इस छद्म ताकत को पकड़ा था. उन्होंने लिखा है कि जब आप किसी राष्ट्र को कोई अनुवाद पढ़ने के लिए देते हैं तो आप माने चाहे न माने राष्ट्र उसे अपनी अस्मिता पर एक हमले के रूप में लेता है (When you offer a translation to a nation, the nation will almost always look on the translation as an act of violence against itself).
एडविन जेंट्ज्टर मानते हैं कि सत्ता और अनुवाद के आपसी रिश्तों की पड़ताल करने का प्रथम प्रयास पिछली सदी के नौंवे दशक में आंद्रे लेफेवेयर एवँ सूसन बैसनेट ने किया। उनकी पुस्तक Translation, History and Culture की भूमिका में स्पष्ट कर दिया गया है कि अनुवाद की प्रविधियों में बदलावों की व्याख्या करने के लिए अनुवाद अध्ययन विशेषज्ञ को किसी समाज के भीतर सत्ता संरचनाओं में होनेवाले उलट-फेर और उसकी अनिश्चितताओं की गहराई में झाँकना पड़ेगा। उसे यह भी समझना पड़ेगा कि संस्कृति के उत्पादन में सत्ता के वर्चस्व की भूमिका क्या है और जिसके बड़े फलक पर अनुवाद का उत्पादन भी उसी का एक हिस्सा बन जाता है।
इधर अनुवाद की महत्ता काफी बढ़ी है. विश्व के अनेक दूरस्थ भागों व भाषाओं का साहित्य अब अंतर्राष्ट्रीय पाठक-वर्ग को कहीं अधिक सुलभ है जो अनुवाद के ही माध्यम से संभव हुआ है. आयरलैंड के विद्वान माइकल क्रोनिन ने अनुवादक को एक ऐसा यात्री बताया है जिसकी यात्रा एक स्रोत से दूसरे स्रोत तक होती है. निश्चित रूप से २१वीं सदी न केवल देशों के बीच एक महत्वपूर्ण यात्रा की साक्षी बनेगी बल्कि समय का एक नया वृतांत भी बनेगी.
अनुवाद का भारतीय परिदृश्य
भारत में १८५७ की क्रांति न सिर्फ स्वाधीनता संग्राम की दृष्टि से एक निर्णायक क्षण है बल्कि वह भारतीय मानस को बदल देने वाली एक अभूतपूर्व घटना रही है. इससे निकली चेतना नवजागरण की लिपि बनी. समूचे देश में नवजागरण हर स्तर पर प्रतिरोध और परिवर्तन के स्वर को मुखरित कर रहा था. साहित्य, कला, कविता, भाषा, चिंतन, पत्रकारिता सब कुछ एक प्रतिबद्धता और एक जज्बे से ओतप्रोत थे. वह जज्बा था – आत्मबोध का, भारतीयता की पहचान का. इसी भारतीयता के घनीभूत पुंज थे – भारतेंदु हरिश्चंद्र. वे हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की इस चेतना के अग्रदूत थे. उन्होंने नवजागरण की चेतना को साहित्य-संस्कृति के माध्यम से जनजीवन में जगाया. जनजागरण के अपने इस अभियान में भारतेंदु बाबू जिन दो सशक्त साधनों का इस्तेमाल किया वे थे – पत्रकारिता और अनुवाद. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपादन में १९०३ में सरस्वती पत्रिका निकली. यह मात्र पत्रिका नहीं; अपने समय का प्रामाणिक आख्यान थी. हिंदी में यह भारतीय मानस को पुनराविष्कृत करने वाली अदम्य और निर्भीक पत्रकारिता की शिखर उपलब्धि थी. सरस्वती में द्विवेदी जी ने इसमें मौलिक साहित्य के साथ-साथ अनुवाद को भी उदारता के साथ महत्व दिया था. दुनिया-भर के ज्ञान-विज्ञान से यह पत्रिका अनुवादों के माध्यम से हिंदी संसार को परिचित करा रही थी. दुनिया की जानकारी यहाँ जितनी लेखन से आती थी उससे कम अनुवादों के माध्यम से भी नहीं आती थी. नवजागरण का यह युग एक प्रकार से अनुवाद विधा के लिए भी वरदान साबित हुआ.
भारतेंदु हरिश्चचंद्र ने ख़ुद संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी आदि भाषाओं के कई नाटकों का हिंदी में अनुवाद किए थे. उन्होंने हर्ष के रत्नावली, विशाखदत्त के मुद्राराक्षस का बांग्ला से, कर्पूर मंजरी का प्राकृत से तथा शेक्सपियर के मर्चंट ऑफ वेनिस का दुर्लभ बंधु शीर्षक से हिन्दी अनुवाद किया था. अनुवाद की इस पुख्ता नींव पर आगे अनेक शीर्षस्थ लेखकों ने विश्व साहित्य की तमाम कृतियों के सुंदर अनुवाद प्रस्तुत किए. उस जमाने में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जोसफ एडिसन के लेख Pleasures of Imaginations का कल्पना का आनंद, हेकेल की पुस्तक The Riddle of the Universe का विश्व प्रपंच तथा एडविन आर्नोल्ड के Light of Asia का अनुवाद बुद्धचरित नाम से और श्रीधर पाठक ने ऑलिवर गोल्डस्मिथ की दो पुस्तकों The Hermit तथा Deserted Village का अनुवाद क्रमश: एकांत योगी और \’ऊजड़ग्राम\’ नाम से किया था. महाप्राण निराला ने बांग्ला से आंनद मठ, दुर्गेशनंदिनी, राष्ट्रकवि दिनकर ने मेघदूत तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर की चुनिंदा कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया. बाद में हिन्दी में विदेशी साहित्य के अनुवाद की एक समृद्ध परम्परा-सी बन गयी. अनुवाद विश्व साहित्य का वातायन बन गया.
भीष्म साहनी ने तो बाकायदा १९५७ से १९६३ के बीच अपने रूस प्रवास के दौरान एक अनुवादक के रूप में कार्य करते हुए लगभग २५ रूसी किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया था जिनमें टॉलस्टॉय का Resurrection भी शामिल है. कविवर बच्चन अपनी मधुशाला और बसेरे से दूर के कारण जितना प्रसिद्ध हैं उतना ही वे शेक्सपीयर के नाटकों के हिन्दी अनुवाद के लिए भी जाने जाते हैं. मोहन राकेश ने मृच्छकटिकम तथा शाकुंतलम का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद किया था. इसके अलावा रांघेय राघव, निर्मल वर्मा, कुँवर नारायण, मोहन राकेश राजेन्द्र यादव, विष्णु खरे, गंगा प्रसाद विमल जैसे बड़े लेखकों ने भी विश्व साहित्य की तमाम महत्वपूर्ण कृतियों के सुंदर अनुवाद से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है. उदय प्रकाश द्वारा पाब्लो नेरुदा, लोर्का, लुइस बोर्गेस, पॉल एलुआर, एडम जेड्रेवस्की, रोजेविस, मिखाइल सात्रोव के एक नाटक का लाल घास पर नीले घोड़े, कन्नड़ लेखक प्रसन्ना के एक नाटक का राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अभिमंच के लिए एक पुरुष डेढ़ पुरुष नाम से अनुवाद इस विधा को सशक्त बनाने वाले कार्य हैं. इसके अलावा अभय कुमार दुबे, अहलूवालिया, प्रभाती नौटियाल, सूरज प्रकाश,नीलाभ आदि भी अनुवाद विधा में लगातार काम कर रहे हैं.
अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों में से कई सिद्धहस्त अनुवादक भी रहे हैं. इनमें से शुरूआती दौर के लेखकों में श्री अरविन्द तथा पी.लाल के नाम अग्रगण्य हैं. उनकी स्रोत भाषा मुख्यत: संस्कृत रही. बाद के आधुनिक तेवर वाले दिलीप चित्रे, ए.के.रामानुजन, आर.पार्थसारथी तथा अरुण कोलातकर जैसे द्विभाषिक कवियों की स्रोत भाषा उनकी मातृभाषा रही. इनके अनुवाद का विषय मुख्य रूप से मध्यकाल का भक्ति-साहित्य था. रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा कबीर तथा श्री अरविन्द द्वारा विद्यापति का अनुवाद इस प्रकार के अनुवाद के प्रारंभिक उदाहरण हैं. दरअसल उस दौर में अनुवाद इन कवि-लेखकों के लिए अपनी आत्मा को उपनिवेशवादी चंगुल से मुक्त करने का एक सांस्कृतिक औजार था.
मेरा मानना हैं कि भाषाएं खुद ही बड़ी मायावी होती हैं. उनके साथ होना साँप की आँखों में देखना और फिर मोहाविष्ट हो जाना है. ऊपर से यदि दो भाषाएं एक साथ आपके सामने हों तो कल्पना करिए उनके इंटरप्ले से कितना बड़ा सम्मोहन पैदा होगा. और भाषाओं के परस्पर अभिसार और आलिंगन से यह सम्मोहन अनुवाद की धरती पर ही पैदा होता है. मैं पिछले दिनों अपने एक बहुत पढ़ाकू अग्रज द्वारा मुझे विशेष रूप से पढ़ने के लिए दिए गए चेक लेखक कारेल चापेक और महान रूसी कथाकार चेखव के दो कथा-संग्रहों के हिन्दी अनुवाद पढ़ रहा था. कहानियां तो ख़ैर सुंदर हैं ही; लेकिन वे महासुंदर बन पड़ी हैं – हिन्दी में अनूदित होकर. अब आप जानना चाहेंगे कि वे दोनों अनुवादक कौन हो सकते हैं?
पहले के निर्मल वर्मा और दूसरे के कृष्णकुमार. निर्मल के बारे में बहुत प्रसिद्ध कथन है – वे गद्य में कविता लिखते हैं. कहीं से लगता ही नहीं है कि कहानियां अनुवाद हैं. इसका एक कारण तो यह कि निर्मल वर्मा ने सीधे चेक भाषा से इन कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है. दूसरे, वे १९५९ से १९६८ तक प्राग में ही रहे थे. वहां की पहाड़ी, ब्रिज, चर्च, रेस्तरां कहां हैं; किन-किन रास्तों से उन जगहों पर जाया जा सकता है – इन सबसे परिचित हैं. उनके लिए अनुवाद दो भाषाओं के बीच फैले जंगल में अकेले निर्लिप्त और सब खतरों से मुक्त घूमना है. _____________________सुशील कृष्ण गोरे लेखक, अनुवादक, राजभाषा अधिकारी