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‘स्मृतियों की रोशनी में’ एक अन्य मायने में भी ध्यातव्य पुस्तक है. यह मराठी से अनूदित है लेकिन इस नाम की या इस सामग्री की कोई पुस्तक मराठी में प्रकाशित नहीं है. दरअसल, इसे चंद्रकांत पाटील की मराठी की दो अन्य पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के रविवारीय संस्करणों के लेखों से मिलाकर विशेष रूप से संपादित किया गया है. सन् 1976 से 2021 की कालावधि में यह लेखन फैला हुआ है. मूल रूप में ये सारे आलेख किसी निमित्तवश और पत्रकार मित्रों के सस्नेह- अनुरोध पर लिखे गये हैं लेकिन इसे साहित्यिक पत्रकारिता समझने की ग़लती हमें नहीं करनी चाहिए. इसका एक सुपरिणाम यह हुआ है कि अदृश्य पाठक को संबोधित होने के कारण शैली में सहजता, आत्मीयता और मित्र-भाव का समावेश हो गया है. लेकिन इसके लिए चंद्रकांत ने कोई मैत्रीपूर्ण या भावुक समझौते नहीं किये हैं बल्कि अपनी बात अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाकर भी कह दी है.
संस्मरणों के चयन में एक पक्ष पर जोर दिया गया है कि जिनके बारे में संस्मरण हैं वे लोग स्मृतिशेष हों. चाहे कुछ संस्मरण उनके जीवित होते हुए भी लिखे गये हों. इनमें मराठी पाठकों को संबोधित शैली का नाटकीय जायका भी हिंदी पाठकों को मिलेगा. और अब संबंधित लोगों के जीवित न होने का अहसास इन संस्मरणों को और भी जीवंत बनायेगा, मृत्युबोध के आयाम के बावजूद.
अनुवादक गोरख थोरात के अनुवाद में पूरी कोशिश झलकती है कि चंद्रकांत पाटील की लक्षणा और व्यंजना हिंदी में भी बरकरार रहे. हिंदी के पाठकों को बात ठीक से समझ में आ जाये इसके लिए परिशिष्ट में आवश्यक संदर्भ दिए गये हैं तथा चरित्रों का जीवन काल भी संक्षिप्त रूप से दर्ज है.
इस किताब का एक विलक्षण पक्ष यह भी है कि चंद्रकांत पाटील मराठी के सुप्रतिष्ठ कवि आलोचक होने के अलावा उतने ही महत्वपूर्ण मराठी-हिंदी अनुवादक भी हैं लेकिन इन संस्मरणों का अनुवाद उन्होंने नहीं किया. अपनी कविताओं के अनुवाद भी वह दूसरों से करवाते रहते हैं. अपनी रचना के स्वयं अनुवादक होने का खतरा या मोह वह नहीं उठाना चाहते. उनका अभिमत है कि यदि दूसरा कोई अनुवाद करे तो इससे रचना को अर्थान्वयन करने का नया अवसर या आयाम मिल सकता है.
चंद्रकांत का प्रथम प्रेम कविता है. जहाँ कहीं भी अच्छी और सच्ची रचना देखते-पढ़ते हैं तो उसके रचयिता से भी उन्हें प्रेम हो जाता है. एक-आध अपवाद छोड़ दें तो सारे के सारे संस्मरण कवियों के विषय में हैं. इन सभी रचनाकारों के साथ उनका निजी और सर्जनात्मक संबंध स्थापित था और कुछ कवि तो ऐसे मित्र बन गये कि जैसे बचपन से ही एक दूसरे को जानते हों. ऐसी अंतरंगता के बावजूद चंद्रकांत ने कभी अपनी पहचान का अवांछित लाभ नहीं उठाया, न कुछ छिपाया. सभी संबंधों को पारदर्शी रखा.
इस पुस्तक की एक विशेषता की ओर ध्यान आकर्षित करना जरूरी है. लेखक ने अपनी भूमिका को एक चौथाई सदी पहले लिखा ‘चेहरों का घना जंगल’ शीर्षक दिया है. व्यक्ति के यथार्थ की मुठभेड़ होने की प्रक्रिया में जब वह ‘बहुत आगे दूर निकल जाने के बाद, पीछे मुड़कर देखता है तब सम्मोहित करने वाली स्मृतियाँ तीव्रतर हो जाती हैं, जीने के धुंधले अर्थ निखर उठते हैं. इस प्रक्रिया में लेखक ‘शोर मचाने वाले असंख्य पलों के साथ असंख्य चेहरों के घने जंगल में खींचे जाने को अनुभव करता है. इस मनोवैज्ञानिक आत्मसंघर्ष को ‘इतनी-सी मनोभूमि पर कैसा भीषण महाभारत’ जैसे शब्दों में वह बखूबी व्यक्त करते हैं.
‘और अभी वह खत्म नहीं हुआ है. खत्म होगा भी नहीं. मुश्किल है. असम्भव है. जब तक जिंदगी है, तब तक इस महाभारत का समापन नहीं.’
यह अनुभव इस आलेख को प्रासंगिक बना देता है. चेहरों और मुखौटों के विशाल और घने अरण्य को शब्दों में कैद करने यह जिद है. यह चंद्रकांत के लिए अपने ही भीतर प्रविष्ट होकर एक रहस्यमयी यात्रा करने के लिए विवश करता है.
अरण्य का वर्गीकरण नहीं होता. फिर भी चंद्रकांत दो भेद करते हैं. चेहरे और मुखौटे! ‘चेहरों ने मुझे जगाया, मुखौटों ने मुझे छला.’ वह दोनों का कर्ज मानते हैं और सबको शब्दों की कील या सूली पर चढ़ाना चाहते हैं. इस प्रक्रिया में ‘स्वयं को भी सूली पर चढ़ाने’ की जरूरत महसूस करते हैं. संस्मरणों को आत्मसंघर्ष और आत्म-मुक्ति की ऊँचाई पर पहुँचा देने के इस आत्मनिवेदन की प्रासंगिकता से कैसे इनकार किया जा सकता है? लेकिन इस संकलन में उन्होंने मुखौटों के बारे में नहीं, चेहरों के बारे में ही लिखा है, ऐसे चेहरे जो ‘चौखट में न समाने वाले, चौखटों को तोड़कर बाहर आना चाहने वाले और चौखट के बाहर से देखने वाले चेहरे हैं.’ ये संस्मरण मानो एक ऐसे राग की बंदिशें हैं जिनमें विवादी स्वर लगता नहीं.
इस पुस्तक की एक ध्यानाकर्षक विशिष्टता यह भी है कि हिंदी के महत्वपूर्ण कवि, कथाकार और सिने-जानकार कुमार अंबुज जी ने इस पुस्तक को आर-पार देखा, पढ़ा और परखा है और इसकी सुविचारित भूमिका लिखी है. पुस्तक का शीर्षक भी उनकी एक पंक्ति से तय हुआ. स्मृतियों की रोशनी अपने आप में कुछ नहीं लेकिन जो कुछ है तो वह उसी रोशनी में दिखाई दे सकता है. वह दर्शन है, जीवन भी. उसी रोशनी में संस्मरण लेखन प्रक्रिया में होने वाली रचना और जीवन की मुठभेड़ दिखती है. अपनी भूमिका का शीर्षक कुमार अंबुज जी ने यही दिया है- ‘रचना और जीवन की मुठभेड़’, जिसकी पहली पंक्ति है- ‘यह संस्मरण के प्रचलित दायरों का अतिक्रमण है.‘
कुमार अंबुज जी इन संस्मरणों की निर्मिति में ‘भूमि’ का अर्थात् स्थान काल संदर्भ का ज़िक्र भी करते हैं कि इस तरह संस्मरणात्मक लेखन अपने समय की सार्वजनिक चेतना को अधिरोपित करता हुआ आगे बढ़ता है. चेहरों के अरण्य में चंद्रकांत पाटील किस स्थान और कोण से अपने चरित्रों को देखते हैं, किस तरह उनकी आलोचना करते हैं, उनकी कसौटियाँ क्या हैं, इस तरफ़ भूमिका में मर्मदृष्टि और विश्लेषण के साथ विचार किया गया है. वे उचित ही ध्यान दिलाते हैं कि चंद्रकांत पाटील की प्रगतिशील और रचनात्मक दृष्टि इन संस्मरणों को मात्र निजी नहीं रहने देती. वह सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण परिवर्तन के स्पष्ट संकेत देती है, उन्हें संबोधित करती है. संस्मरणों के सूत्रमय शीर्षकों की ओर भी अंबुज जी ने संबंधवाचक, स्पंदित रिश्ता इंगित किया है. इतने सारे रचनाकारों की गतिशील उपस्थिति उन्हें किसी डाक्यूमेंटरी से गुज़रने जैसा अनुभव देती है. यह भूमिका विशेष अंतर्दृष्टियों और वैचारिक उकसाहटों से भरी है, जो पाठकों को पढ़ने-गुनने का एक रचनात्मक नजरिया देने में समर्थ है.
संस्मरणों को पढ़ने से पहले तो इस भूमिका को पढ़ना ही चाहिए लेकिन संस्मरण पढ़ने के बाद एक फिर पढ़ना चाहिए. समझ कुछ और भी बढ़ जायेगी. हम इस भूमिका की शैली को ‘अंबुजीय’ शैली कहना चाहेंगे.
मराठी-हिंदी और अन्य भाषाओं के साहित्य के क्षेत्र में चंद्रकांत पाटील के सर्जनात्मक आवागमन को देखते हुए उन्हें ‘चंद्रकांत सेतु’ कहने की पेशकश कुमार ने की है. हमने यहाँ मराठी में बहुत पहले, विख्यात इतिहासकार लेखक पं. सेतुमाधवराव पगडी की तर्ज पर उन्हें सेतु चंद्रकांत राव कहना शुरु किया था. संयोग की बात कि इन संस्मरणों का प्रकाशक भी ‘सेतु’ प्रकाशन है.
(दो)
अब जिसे साठोत्तर कालखंड कहा जा सकता है, उसमें विश्व के स्तर पर युवा विद्रोह के स्वर बुलंद हो रहे थे और जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में छोटी-बड़ी क्रांतियाँ हो रही थीं. सत्ता-व्यवस्थाओं के खिलाफ आंदोलन उठ खड़े हो रहे थे. साहित्यिक सांस्कृतिक क्षेत्र में यह लघु पत्रिकाओं की उथल पुथल का माहौल था. भारत की भाषाओं में एक-दूसरे से संबंध स्थापित करने की जरूरत महसूस हो रही थी. इसी वातावरण में चंद्रकांत पाटील भारतीय और विशेष रूप से हिंदी कवियों से रूबरू हो गये. उनके लिए कविता ही सब कुछ थी. पाटील कहते हैं-
‘उन दिनों हम कविता पर मर मिटते थे और लगता था कि कविता में ही जीते रहें और कविता के विराट प्रवाह में अपने व्यक्तिगत सुख दुखों को भी घोल दें.’
इन संस्मरणों में हम देखते हैं कि अनायास कविता के कई सूत्रवाक्य, आलोचना के निश्चल, काव्यशास्त्र के सिद्धांत अनुभव सिद्ध होकर सामने आते हैं.
अरुण कोलटकर की तारीफ पाटील इसलिए करते हैं कि ‘जीवन भर केवल कविताएँ लिखने के व्रत का पालन करना अपने दौर की सबसे मूल्यवान बात है.’ पर्फेक्शनिस्ट अरुण ‘कवियों का कवि’ है क्योंकि ‘विशेषण की सभी पद्धतियों और औजार खत्म हो जाने के बाद भी अरुण की कविता बची रहती है.’ महान कविता का विकल्प क्या है? पाटील के अनुसार
’एक अच्छी कविता सिर्फ अच्छे शब्द चुनने से नहीं बनती. अच्छी कविता में भाषा और अनुभव का अद्वैत होना जरूरी होता है. यह अद्वैत ही महान कविता का एकमात्र विकल्प होता है.’
उनके अनुसार ‘बिंब प्रतीकों के चर्मरोग से ग्रसित कविता किताबी बन जाती है.’
शमशेर बहादुर को भी ‘कवियों का धाम’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनकी कविता में प्रयोग किया नहीं जाता, हो जाता है. पाटील कहते हैं, ‘प्रतिभाशाली कवि को प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं होती.’
पाटील को कविता की रचना प्रक्रिया के बारे में जिज्ञासा रहती है. हिंदी में केवल ग. मा. मुक्तिबोध और शमशेर बहादुर सिंह दो ही कवि हैं जो इस बारे में लिखते हैं. मराठी में शायद उन्हें कोई नहीं मिला.
दिलीप चित्रे की कविता के बारे में बात करते हुए पाटील कालजयी कविता का जैसे कार्य-कारण बता देते हैं ‘किसी भी कवि लेखक के सामने आर्थिक भौतिक समस्याएँ नहीं होंगी तो वह कालजयी कलाकृति का सृजन कर ही नहीं सकता.’
दोयम दर्जे की कविता के बारे में पाटील पहले ही कह चुके हैं कि ‘जब व्यक्तिगत दुख, अमूर्तता में गुम हो जाता है अथवा सामाजिक दुखों का उद्गम अमूर्तता में होने लगता है, तब दोयम दर्जे के व्यक्तियों और कवियों का जन्म होता है.’ हर एक संस्मरण में हमें कविता के बारे में ऐसा कुछ न कुछ मिलता जाता है जो सोचने के लिए प्रेरित करता है.
शमशेर बहादुर सिंह को कबीर सम्मान मिलने के अवसर पर चंद्रकांत आलेख लिखते हैं कि अब वह भारतीय कविता के केंद्र में आ जायेंगे. मंगलेश डबराल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर चंद्रकांत को दुगुनी खुशी होती है क्योंकि उनके साथ, मराठी के प्रिय अंतरंग मित्र कवि ना. धों. महानोर को भी साहित्य अकादमी मिला. साहित्य अकादमी पुरस्कारों में कविता संकलनों की अधिकता देखकर उन्हें प्रसन्नता होती है कि भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर कविता की छाया फैली हुई है. उन्हें लगता है कि ‘नये युग में संवेदनशील मनुष्य को सैद्धांतिक मीमांसा तथा आध्यात्मिकता की आवश्यकता ज्यादा रहती है और इसके लिए कविता जैसा दूसरा प्रभावशाली माध्यम मिलना मुश्किल है.’
अंत: प्रज्ञा, सहजानुभूति, आंतरिक स्वतंत्रता, अपार जिज्ञासा, संशय और पूर्वग्रह जैसे कुछ बिंदुओं को वे अधोरेखित करते हैं जो कविता को श्रेष्ठ सृजन की पंक्ति में ला बैठाते हैं. दो कवियों की वस्तुनिष्ठ तुलना कैसे दोनों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ उजागर करती है इसे देखना हो तो भुजंग मेश्राम और नामदेव ढसाल का तुलनात्मक विवेचन देखिए.
दरअसल चंद्रकांत एक कवि के साथ अनेक कवियों को याद करते हैं. हिंदी कविता परंपरा में स्थान बनाने के लिए किन कवियों के साथ मंगलेश डबराल को जद्दोजहद करनी पड़ी इसकी सूची में समकालीन प्रायः: सभी महत्वपूर्ण कवियों के नाम आ जाते हैं. ‘स्मृतियों की रोशनी में’ कवि और कविता का बेजोड़ वकालतनामा है.
(तीन)
मृत्यु के सार्वभौम साम्राज्य का जिक्र, स्मृतियों की रोशनी में मौत की परछाइयों का लगातार आना-जाना दिखाकर जो मृत्युबोध जगाता है वह भी प्रकारांतर से कविता की समझ को बढ़ाने वाला ही है. महत्वपूर्ण बात यह है कि ये संस्मरण न गलदश्रु श्रद्धांजलि हैं, न विलाप के मर्सिये. तुलसी परब पर लिखा आलेख तो उसके चार साल गुजर जाने के बाद लिखा गया तो विष्णु खरे का कुछ ही दिनों बाद. विष्णु का अंतिम लेख 7 सितंबर 2018 को नेशनल हेरॉल्ड में प्रकाशित हुआ- ‘रिमेम्बरिंग चंद्रकांत देवताले’. 19 सितंबर को विष्णु खरे नहीं रहे. चंद्रकांत पाटील की टिप्पणी है : ‘अपने प्रिय मित्र को यह एक अद्भुत श्रद्धांजलि थी.’
और इसी सिलसिले में पाटील का ध्यान एक अजीबोगरीब संयोग की ओर जाता है. ग.भा. मुक्तिबोध, चंद्रकांत देवताले और विष्णु खरे तीनों मध्य प्रदेश के कवि, व्यवस्था के कड़े आलोचक हैं. अखिल मानव जाति पर उत्कट प्रेम करने वाले इन तीनों का समापन दिल्ली जैसे अमानवीय शहर के अस्पतालों में हुआ. इसी प्रकार का संयोग तीन मराठी कवियों के साथ भी हुआ. नामदेव ढसाल, दिलीप चित्रे और अरुण कोलटकर, इन तीनों कवियों को कैंसर ने ग्रस लिया. पाटील इस दु:खद अनुभव को विचित्र दुर्योग कहते हैं.
हिंदी कविता के तीन महान कवि महज आठ महीनों में ‘मृत्यु के साम्राज्य में विलीन’ हुए: चंद्रकांत देवताले, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह के जाने के दुख को पाटील अनुभव करते हैं :
‘किसी भी सच्चे कवि का हमेशा के लिए चले जाना हमारे मन के कोने में एक शून्य का अहसास भर देता है लेकिन जब ऐसे कवि के साथ आपके व्यक्तिगत संबंध हों तो यह रिक्तता और भी ज्यादा घनी हो जाती है. ऐसा ही खिन्नता ने मुझे घेरा है.’
सतीश कालसेकर जैसे करीबी कवि मित्र की अचानक मृत्यु से पाटील शून्य स्थिति का अनुभव करते हुए मृत्यु के बारे में सोचते हैं- ‘लगता है कि मैं भी किसी अज्ञात जगह की ओर फिसलता जा रहा हूँ. सतीश चला गया, सतीश के पहले कई कवि मित्र चले गये. मेरा पीछे रह जाना अनकरणीय सा लगता है. मृत्यु के साम्राज्य में यह अराजक है या और कुछ रहस्यमयी योजना है, समझना कठिन है.’
इस तरह से मृत्युबोध के बावजूद पाटील जब कहते हैं कि मृत्यु के सार्वभौम साम्राज्य को समझने के लिए एक आधार कवि का सृजन होता है. ऐसे सृजन के लिए कवि को भारी कीमत चुकानी पड़ती है, हजारों बार मरना पड़ता है. सच्चे कवि मरणजीवी होते हैं.
किताब से गुजरते हुए सुखद आश्चर्य इस बात का है कि असीम आत्मीयता और स्नेह के बावजूद पाटील अपनी स्मृतियों की रोशनी में काल की पूरी कुंडली वस्तुनिष्ठता और तटस्थता के साथ, अनेक संदर्भों से युवा और खास निजी पहचान की अंतरंगता के साथ प्रस्तुत करते हैं. समग्रता की इस दृष्टि के कारण उनकी स्मृतियाँ अतिरंजना या रमणीयता, नोस्टालजिया की बीमारी का शिकार नहीं होतीं. इस दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता है कवियों की कविता में भारतीयता की और इसी रास्ते वैश्विकता की संस्कृति का परिप्रेक्ष्य.
सत्यदेव दुबे के रंगकर्म में वह भारतीयता के सूत्र पाते हैं तो नामवर सिंह में भारतीय आलोचना की संभावनाएँ तलाशते हैं. राजा ढाले प्रसंग में उनका सारांश यह है कि जड़ तक पहुँचकर सत्य को जानने का प्रयास करने वालों को, इतिहास से मिटाने की कोशिश न्यूनाधिक मात्रा में हमेशा होती रहती है लेकिन कोई मिटा नहीं पाता. असाधारण कलाकारों के कारण ही संस्कृति गतिशील बनी रहती है.’
साहित्य संस्कृति की सघन बुनावट के लिए रघु दंडवते जैसे लोग किसी एक धागे की पहचान के लिए या फटेहाल मुफलिस मनोहर ओक लेखन हेतु अपनी जिंदगी को दाँव पर लगा देते हैं. ऐसे लोग ही संस्कृति को समृद्ध करते हैं. लोकोत्तर और लोकप्रिय का विभाजन पाटील साहित्यिक संस्कृति के संदर्भ में करते हैं. लोकोत्तर कवि समकालीन कविता की धारा को मोड़ देते हैं. पीढ़ियों को प्रभावित करते हैं. लोकोत्तर कवियों की परंपरा से आम आदमी प्रायः परिचित नहीं होता लेकिन यही परंपरा साहित्यिक संस्कृति को संरक्षित और समृद्ध करती है. लिखते समय चंद्रकांत पाटील अपने आत्मीय कवियों की स्मृतियों में भावुक होकर खो नहीं जाते, उनको कहीं अधिक समग्रता में देखते हैं. समग्रता में देखना ही उन्हें समाज संस्कृति विमर्श की ओर ले जाता है.
कवियों की संवेदनशीलता की पहचान दुख के क्षणों में ही होती है. पाटील का यह विश्वास है कि कविता मूलतः दु:खमूल है और यही तत्व है जो वैश्विक होने में गतिशील होता है. इसी में कवि अपनी अंतरात्मा का विस्तार पाता है. ‘बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में’ संदर्भ से श्रीकांत वर्मा को याद करते हुए कहते हैं,
‘हर महान कवि का सृजन उसके द्वारा भोगे यातनामय अनुभवों की पूंजी पर टिका रहता है और मानवीय संस्कृति भी यातनामय अनुभवों का आतंरिकीकरण होने पर ही विकसित होती है.’
लगता है कि अपने प्रिय कवियों की तस्वीरों के लिए पाटील फलक पर पहले संस्कृति के रंगों को फैलाते हैं, फिर पार्श्वभूमि और पुरोभूमि को विपुल चेहरों, प्रसंगों, यादों आदि के संदर्भ से भर देते हैं, इस समग्र संकुलता में लकीरें अपने आप उभरने लगती हैं. पाटील के संस्मरणों में हम अमूर्तन के मूर्तन होने की प्रक्रिया को अनुभव करते हैं.
मृत्युबोध चंद्रकांत पाटील को पीड़ा तो देता ही है लेकिन निराश नहीं करता. श्रीकांत वर्मा के नहीं रहने पर कहते हैं, ‘लेकिन संस्कृति के लिए कितनी हितकारी बात है कि कवि चाहे चला जाए, उसका सृजन तब भी रह जाता है.’
केदारनाथ सिंह के जाने पर भी उन्होंने यह बात कही थी ‘अब वे हमारे साथ नहीं हैं, फिर भी उनकी कविता हमारे साथ रहेगी.’ कवि के शब्द आश्वस्त करते हैं कि ‘अंत सिर्फ एक मुहावरा है जिसे शब्द हमेशा अपने विस्फोट में उड़ा देते हैं.’
नारायण सुर्वे से तुलसी परब तक ग्यारह मराठी और शमशेर बहादुर सिंह से मंगलेश डबराल तक छह हिंदी रचनाकारों के साथ शक्ति चट्टोपाध्याय और सत्यदेव दुबे को चंद्रकांत पाटील की ‘स्मृतियों की रोशनी में’ देखना, संदर्भ-समृद्ध सृजनधर्मी चेहरों की नुमाइश को पढ़ना एक ऐसे चलचित्र से गुजरने का विलक्षण अनुभव पाना है जिसमें हर फ्रेम गतिशील बिंब बन जाता है और अपनी ही सीमाओं को तोड़ता है.
निशिकांत जी फ़िल्म सोसाइटी तथा विविध रंग मण्डलियों के साथ कार्यरत रहे हैं और अब तक उन्हें 15 राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पुरस्कारों और जीवन गौरव सम्मानों से नवाजा गया है. |
निश्चित ही यह पठनीय और संग्रहणीय किताब है। हिंदी और मराठी के कुछ प्रमुख लेखकों पर पहली बार एक साथ किसी पुस्तक में यह मूल्यवान लिखत है।
चन्द्रकान्त जी ने हिंदी कवियों के मराठी में बेहतरीन अनुवाद किये हैं।
बढ़िया आलेख है यह। किताब पढूंगी। हालांकि मैंने उनकी कविताएं नहीं पढ़ीं और निश्चित ही पढ़ना चाहूंगी।
यह किताब हिंदी- मराठी भाषाओं के अनुबंध को भी एकसाथ रेखांकित करती है. निशिकांत जी वरिष्ठ अनुवादक-आलोचक हैं और उन्होंने बहुत गहराई से इस किताब के महत्त्व को पहचाना है और इस आलेख में लिखा है. यह किताब हमें हिंदी-मराठी के कुछ महत्वपूर्ण लेखकों की ओर ‘यहाँ से देखो’ बताती है. समालोचन का आभार.