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समालोचन

Home » एडवर्ड सईद : प्राच्यवाद से पहले : शीतांशु

एडवर्ड सईद : प्राच्यवाद से पहले : शीतांशु

एडवर्ड सईद की पुस्तक ओरिएंटलिज्म ने पूरब को देखने के पश्चिमी नजरिए में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए गंभीर सवाल खड़े किए. औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पश्चिम ने पूरब की एक रहस्यमयी छवि गढ़ी, जिसके राजनीतिक निहितार्थ साम्राज्यवादी थे. इस बिंदु तक पहुँचने के लिए एडवर्ड सईद ने अथक बौद्धिक प्रयास किए. प्राच्यवाद की अवधारणा प्रस्तुत करने से पहले वे किन विचारकों से टकरा रहे थे- युवा आलोचक शीतांशु के इस आलेख का यही केंद्रीय विषय है. प्रस्तुत है यह आलेख.

by arun dev
April 30, 2025
in आलेख
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एडवर्ड सईद : प्राच्यवाद से पहले : शीतांशु
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एडवर्ड सईद
प्राच्यवाद से पहले


शीतांशु

1978 में जब ‘ओरिएण्टलिज़्म’ प्रकाशित हुई तो इसने अकादमिक जगत को अभूतपूर्व ढंग से प्रभावित किया. एडवर्ड सईद को एक प्रतिष्ठित बौद्धिक के रूप में इसी पुस्तक ने स्थापित किया. इस पुस्तक के कुछ ही समय बाद एडवर्ड सईद की दो और पुस्तकें प्रकाशित हुईं- द क्वेश्चन ऑफ पैलेस्टाइन (1979) और कवरिंग इस्लाम (1981). बौद्धिक दुनिया द्वारा इन दोनों पुस्तकों को ‘ओरिएण्टलिज्म’ के साथ जोड़ कर एक ट्रिलॉजी के रूप में देखा गया. इन तीनों किताबों को क्रम से पढ़ने से सईद की वैचारिक निर्मिति की बुनावट काफी हद तक समझ में आने लगती है.

हालांकि जब सईद की रचनाधर्मिता की विकास-प्रक्रिया की समीक्षा की जाएगी, तो मेरी समझ से, इन पुस्तकों को उनके वैचारिक विकास के दूसरे चरण के रूप में देखा जाएगा. वस्तुतः इन पुस्तकों से पहले सईद ने दो और पुस्तकें लिखी थीं जिनसे उनके लेखन में सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना की जैसे बुनियाद तैयार होती है. उनकी चिन्ताओं, विचार-सरणी, प्रस्थान-बिन्दु और शिल्प को समझने में, उसकी संरचना को पहचानने में उनकी ये प्रारंभिक दो पुस्तकें अत्यधिक कारगर साबित होती हैं.

सईद की पहली रचना का नाम था ‘जोसेफ कोनराद ऐंड द फिक्शन ऑफ ऑटोबायोग्राफी’ (1966). यह एडवर्ड सईद के पीएच.डी. शोध-कार्य का भी विषय था. पहला सवाल जो हमारे दिमाग में आता है वह यह कि कोनराद ही क्यों? सईद ने क्या सोचकर कोनराद से आरंभ किया. इसका जवाब इस पुस्तक के आरंभ में लिखी गई एन्ड्र्यू एन.रूबिन की सारगर्भित प्रस्तावना से मिल जाता है. वस्तुतः विस्थापन, निर्वासन और हाशियाकरण सईद के चिन्तन और लेखन की महत्वपूर्ण धुरी हैं. एक फिलिस्तीनी के रूप में प्राप्त इन अनुभवों को अपनी चेतना में वे जैसे हमेशा बनाए रखते हैं. रूबिन बताते हैं कि यही अनुभव उन्हें जैसे कोनराद की ओर खींच कर ले जाते हैं. रूबिन लिखते हैं-

“विस्थापन, निर्वासन और हाशियाकरण के विचलित कर देने वाले अनुभव दोनो के पास थे. दो दुनियाओं के बीच फँसे (ओझल होते जा रहे प्राचीन साम्राज्य और औपनिवेशिक दुनिया, जहाँ से वे विस्थापित हुए और नई, अपरिचित और अनिश्चित दुनिया, जहाँ वे अंततः पहुँचे और रहने लगे) होने के कारण, उनके सांस्कृतिक और राजनीतिक उन्मूलन के कारण, जरूरी हो गया था कि कुछ समझौते किये जाएँ, कुछ ‘व्यवस्थाएँ’ की जाएँ, कुछ ‘सामंजस्य’ बैठाया जाए.”(एडवर्ड सईद, जोसेफ कोनराद ऐंड द फिक्शन ऑफ ऑटोबायोग्राफी, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यू यॉर्क, 2008, प्रस्तावना से)

एक फिलिस्तीनी के रूप में सईद की पुरानी दुनिया उजड़ गई थी और उन्हें फिलिस्तीन के बाहर जो नई दुनिया मिली उसके साथ तारतम्यता बैठाना पड़ा था. फिलिस्तीनियों की नियति हो गई है कि उन्हें कोई दिशा नहीं मिल रही और वे अजीबोगरीब परिस्थितियों में जैसे खोते चले जा रहे हैं. फिलिस्तीन से बाहर चले गए फिलिस्तीनी, अपनी विकट परिस्थिति में खुद को चलाए जाने के लिए, अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अलग-अलग ढंग की कोशिशें करते हैं, व्यवस्थाएं करते हैं, नई स्थितियों से सामंजस्य बैठाने की कोशिश करते हैं. लेकिन उनकी नई दुनिया में हमेशा कुछ अपरिचित और अनिश्चित बना ही रहता है. सईद जब कोनराद का चुनाव करते हैं तो उनके जीवन से अपनी स्थितियों से जुड़े हुए कुछ तार उन्हें संचालित कर रहे होते हैं. रूबिन ने माना है कि ‘लॉस्टनेस और डिसओरिएण्टेशन’ के दुष्प्रभाव को कोनराद से बेहतर कोई उद्घाटित नहीं करता और विडंबना यह है कि वे इन स्थितियों को ‘अरेंजमेंट’ और ‘ऐकॉमॉडेशन’ से ‘रिप्लेस’ करने की कोशिश भी करते हैं. (वही, प्रस्तावना से) ऐसा लगता है कि इस पंक्ति को किसी विस्थापित फिलिस्तिनी के बारे में वैसे ही लागू किया जा सकता है जैसे इसे कोनराद के बारे में किया गया है. कोनराद सईद के अपने अनुभव का कुछ हिस्सा बन जाते हैं. उक्त पंक्तियों की तरह ही तमाम फिलिस्तीनी दुनिया के विभिन्न कोनो में जीवन यापन कर रहे हैं.

ओरिएण्टलिज्म से पहले लिखी गई इस पुस्तक में ओरिएण्टलिज्म के बीज तो मिल जाते हैं लेकिन उस स्तर के तर्क अभी नहीं दिखते जो बाद में दिखते हैं. सईद कोनराद की समीक्षा करते हुए यह जरूर पहचानने लगे कि साम्राज्य स्थापना और विस्तार में कौन-सी बातें कारगर होती हैं लेकिन जो राजनीतिक सचेतनता और तार्किकता बाद में दिखती है वह यहाँ एक अकादमिक के आवरण में रह जाती है. इसलिए यह जानते हुए भी कि कोनराद की नज़र से जो अफ्रीका हम देख रहे हैं वह वही नहीं है जो वास्तव में होना चाहिए, वे कोनराद को एक ऐसे अकादमिक की नज़र से ही देख पाते हैं जो एक अमरीकी विश्वविद्यालय में कार्यरत है. बाद में जब चिनुआ अचेबे कोनराद को ‘ब्लडी रेसिस्ट’ के रूप में रेखांकित करते हैं तो जो उत्तर-औपनिवेशिक लेखन सईद के चिन्तन से बहुत अधिक प्रभावित हुआ था वही कोनराद के अलग पाठ की ओर आगे बढ़ जाता है. यह पाठ निःसंदेह सईद के पाठ से काफी अलग था.

किन्तु यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भले ही सईद इस पुस्तक में कोनराद का वैसा विस्तृत पाठ नहीं कर पाते जैसा ओरिएण्टलिज्म पुस्तक में चयनिय पाठों में दिखाई देता है लेकिन यह जरूर है कि इसी पुस्तक से सईद की आलोचकीय क्षमता की विशेषताएँ दिखाई देनी शुरू हो जाती हैं. कोनराद की चिट्ठियों और लघु कथाओं में उतरकर उसकी भाषाई संरचना से जिस तरह वे विचार निकालकर लाते हैं वह एक नए लेखक के लिहाज से मानीखेज है.

वस्तुतः यहीं से दिखाई देने लगता है कि वे किसी लेखक की रचना को हमेशा व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में केन्द्रित कर उसका पाठ करते हैं. लेखक खुद एक पाठ की तरह दिखाई देता है. जहाँ ढेर सारे लेखक किसी रचना की कथा-वस्तु और उसके सौन्दर्य में भ्रमण करते रहते हैं वहीं सईद रचनाकार की मानसिक निर्मिति और पाठ की संरचना के सामाजिक कारक और पाठक के मानस पर उसके उत्तरोत्तर प्रभाव का भी अध्ययन करते चलते हैं. इसका आभास जोसेफ कोनराद के उनके अध्ययन से ही मिलने लगता है कि आलोचना एकरेखीय नहीं होनी चाहिए. अगले दस साल में उनका यह बहुलतावादी दृष्टिकोण पूरी गूढ़ता के साथ प्राच्यवाद पुस्तक के रूप में प्रकट होता है. सईद का कोई भी आलोचना-कर्म एक पाठ के सौन्दर्य तक सीमित नहीं रहता, बहुधा वह सभ्यता विमर्श में तब्दील हो जाता है.

आलोचना-कर्म में उनकी दृष्टि में पाठ की शिल्पगत परतें खोलने के साथ और क्या-क्या जरूरी है इसे इस पुस्तक में अपनाई गई पद्धति से भी समझा जा सकता है. सईद जब कोनराद के पत्रों के बारे में लिखते हैं कि

‘‘उनके पत्रों की बौद्धिक और आध्यात्मिक ऊँचाई- जब वे कोनराद के व्यक्तिगत इतिहास के बतौर देखी जाती हैं- न सिर्फ आत्मान्वेषण की आकांक्षा को पूरा करती हैं, बल्कि यूरोपीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण दौर के चरम से भी जुड़ती हैं. यह प्रथम विश्वयुद्ध का युग है.’’ (वही, पृ.xx)

तो वे अपने भविष्य की दिशा बताते दिखते हैं. बहुत सारे लेखकों को कोनराद की भाषा और शिल्प आकर्षित नहीं करता लेकिन सईद उनकी भाषा के रेटॉरिक और अनगढ़पन के पीछे छीपी बातों को तलाशते हैं. सईद को यह बात आकर्षित करती है कि एक विदेशी भाषा में वह व्यक्ति धुंधले अनुभवों को लिख रहा था. और कोनराद को यह बात पता भी थी. सईद के अध्ययन का तरीका यह होता है कि उसमें चेतना की पहचान होती है सिर्फ पाठ के अर्थों की नहीं. इसीलिए कोनराद में अतिरिक्त शब्दों की जो भरमार है उसका कारण सईद यह नहीं मानते कि वे एक असावधान लेखक थे बल्कि यह मानते हैं कि वे निरंतर खुद से संघर्ष कर रहे थे. अगर कहीं विशेषण बहुत ज्यादा हैं तो इसका कारण यह है कि वे अपने अनुभवों को स्पष्टतः रख पाने में एक बेहतर तरीका ढूँढने में असमर्थ थे. (वही, पृ.4) कोनराद के पत्र सईद के लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि इनसे बतौर लेखक कोनराद की कठिनाइयाँ समझ आती हैं. इनसे कोनराद की चेतना, उनका टेंपरामेंट, पीड़ा, आकांक्षा, चरित्र, द्वंद्व और सबसे अधिक लेखकीय चिन्ताएँ समझ आती हैं.

साथ ही यह भी दिखाई देने लगता है कि सिद्धांतों का पाठों से गहरा संबंध होना चाहिए. सईद यह बोध बना कर रखते हैं कि पाठ के माध्यम से प्रवेश करके ही सिद्धांत गढ़े जा रहे हैं. सिद्धांत ऊपर से आवरण की तरह नहीं हैं. यही प्रक्रिया जारी रखते हुए उन्होंने पाठों का संकलन और उसमें से एक तारतम्यता की पहचान जारी रखी जिसकी परिणति प्राच्यवाद के सिद्धांत में हुई. यह प्रविधि आकर्षक है जब तक वह अतिरंजना की शिकार न हो जाए, जो कि बाद में सईद के लेखन में कई जगहों पर होने लगती है.

इस पुस्तक में सईद की जो मूल समस्या है वह यह कि अभी भी वे यूरोपीय उपनिवेशवाद की मार झेलने वाले एक अफ्रीकी की नज़र तक नहीं पहुँच पाए थे क्योंकि वे एक फिलिस्तीनी अस्मिता के साथ पाठ में अधिक प्रवेश करते हैं. होता यह है कि जिस तरह उनके चिंतन और लेखन की अन्य विशेषताएँ बीज रूप में इस पाठ में दिखाई देने लगती हैं उसी तरह उनकी उक्त समस्या भी यहीं दिखाई देने लगती हैं. उनकी फिलिस्तीनी अस्मिता कई बार उनके पाठालोचन की प्रक्रिया पर इतनी हावी रहती है कि दूसरे महत्वपूर्ण पाठ उसके आवरण से बाहर नहीं निकल पाते. यह समस्या बाद की पुस्तकों में भी बनी रहती है.

सईद की दूसरी पुस्तक ‘बिगिनिंग्सः इंटेन्शन ऐंड मेथड’ अपने स्वरूप में साहित्य और पाठ से संबंधित सैद्धांतिक प्रश्नों से रूबरू कराने वाली बिल्कुल अलग ढंग की कृति जान पड़ती है लेकिन इसे निरंतरता में ही देखा जाना चाहिए क्योंकि सईद के शब्दों में

“हर लेखक, जो भी वह लिखने जा रहा है, उसके शुरुआत के बारे में उसका चयन सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि वह आगे जो आने वाला है उसे निर्धारित करता है बल्कि इसलिए भी है कि किसी कृति का आरंभ ही इसके प्रदेय का मुख्य द्वार है…. एक शुरुआत तुरंत ही पहले की कृतियों से संबंध कायम कर लेती है, या तो ये संबंध निरंतरता के होते हैं या विरोध के या फिर दोनों का सम्मिश्रण.’’ (एडवर्ड सईद, बिगिनिंग्सः इंटेन्शन ऐंड मेथड, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यू यॉर्क, 1985, पृ.3)

इस पुस्तक में संरचनावादी प्रश्नों और उसके सिद्धांतकारों से सईद का एक गहरा संवाद दिखाई देता है. संरचनावादी शब्द और अर्थ की व्याख्या करते हुए संकेतक-संकेतित, लांग और परोल के आधार पर उसे जैसे व्याख्यायित करने का प्रयास करते हैं, सईद ‘आरंभ’ और इसके पीछे अंतर्निहित पूरे परिवेश को व्याख्यायित करने का प्रयास करते हैं. इसे करने के क्रम में भाषा की संभावनाओं और सीमाओं को वो अपने विचार का हिस्सा बनाते हैं. इसके साथ ही साहित्यालोचन में एक नए रुझान को विकसित करने की दिशा में वे आगे बढ़ते हैं और साहित्यालोचन की ऐसी भाषा और उपकरण का विकास करने का प्रयास करते हैं जो अभी तक की चली आ रही आलोचना से अपने आपको अलग करती है.

सईद ‘बिगिनिंग्स’ के संदर्भ में कहते हैं,

‘‘आरंभ सिर्फ एक तरह की क्रिया नहीं है, यह एक मानसिक अवस्थिति है, एक तरह का काम, एक प्रवृत्ति, एक चेतना…. किसी लेखक के लिए आरंभ करना प्रस्थान के एक निर्धारित बिन्दु से जुड़ने जैसा है.’’ वे कहते हैं कि इस पुस्तक में ‘‘मेरा उद्देश्य सिर्फ यह दिखाना नहीं है कि किस तरह की भाषा और विचार प्रयोग में लाए जाते हैं जब कोई आरंभ करता है या आरंभ के बारे में सोचता या लिखता है. बल्कि मैं यह भी दिखाने की आकांक्षा रखता हूँ कि उपन्यास जैसे रूप और पाठ जैसी अवधारणाएँ विश्व में अस्तित्वमान होने के और आरंभ के ही रूप हैं.’’ (वही, पृ. xv-xvi)

इस अवधारणा को वे संस्कृतियों के आरंभ और विकास की हमारी चली आ रही समझ पर भी लागू करते हैं और उस पर नए सिरे से सोचने के लिए प्रेरित करते हैं. ओरिएंटलिज्म की ओर उनके प्रस्थान को ऐसे भी समझा जा सकता है.

संक्षेप में,

‘‘आरंभ का पद सामन्यतः बाद में आने वाले उद्देश्य के पद को शामिल किए चलता है….आरंभ किसी उपल्ब्धि या प्रक्रिया जिसकी एक अवधि या अर्थ हो उसका प्रथम बिंदु (देश, काल या क्रिया में) है. यानी आरंभ, अर्थ के उद्देश्यपूर्ण उत्पादन की दिशा में पहला कदम है.’’ (वही, पृ.5)

वे रेखांकित करते हैं कि किसी प्रक्रिया को आरंभ (बिगिनिंग) तभी कह सकते हैं जब कुछ स्थितियों को विकसित होते देखा जाए-

‘‘सबसे पहले आकांक्षा, दृढ़ इच्छा होनी चाहिए, फिर खुद को ही उलट देने की पूरी आजादी, फिर ‘रप्चर’ और ‘डिसकॉन्टिन्यूटी’ के खतरों को स्वीकार करने की आजादी…. हालांकि एकदम नई शुरुआत के साथ आरंभ करना बहुत कठिन है. अनेक पुरानी आदतें, वफादारियाँ और दबाव एक स्थापित उद्यम (एंटरप्राइज) के बरक्स एक नए की स्थापना को रोकते हैं.’’ (वही, पृ.34)

सईद की अगली पुस्तक ‘ओरिएण्टलिज्म’ को पढ़ते वक्त ‘आरंभ’ के संदर्भ में उक्त प्रवृत्तियों को सहज ही चिह्नित किया जा सकता है. इच्छा-आकांक्षा ही नहीं बल्कि अपनी आजादी का पूरा उपयोग करते हुए परंपरा से चली आ रही निरंतरता को तोड़ना और फिर नए सिरे से उसकी व्याख्या करना. कोनराद के अपने पाठ से इस पुस्तक में वे कहीं आगे निकल जाते हैं. प्राच्यवाद इस संदर्भ में सईद की मान्यताओं का सर्वोत्तम उदाहरण है. यह अंग्रेजी आलोचना की उस दौर तक चली आ रही परंपरा संबंधी समझ को भी प्रश्नांकित करती है. संरचनावाद के गर्भ से निकली नई दृष्टियों को आत्मसात करती है और इन सबके साथ कुछ नया करने की लेखक की निजी आकांक्षा को भी प्रत्यक्ष करती है.

‘बिगिनिंग्सः इंटेन्शन ऐंड मेथड’ इस बात का प्रमाण है कि सईद के पास साहित्य के गंभीर सैद्धांतिक प्रश्नों से जूझने की अकूत क्षमता थी. बिगिनिंग्स के कुछ निबंध 1965 के तुरंत बाद के वर्षों में लिखे गए थे. यह साफ दिखाई देता है कि मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी आक्रामकता के बाद जो बदलाव आए, उसने सईद द्वारा अध्ययन के लिए चुने गए प्रश्नों की दिशा बदल दी. यह वही दौर था जब मध्य-पूर्व की स्थितियों में और भी तीव्र बदलाव आ रहे थे. 1967 और 1973 की हिंसात्मक घटनाएँ सईद के जीवन और लेखन को गहरे निर्धारित करती हैं. बिगिनिंग्स का प्रकाशन पहली बार 1975 में होता है और इसी के बाद हम देखते हैं कि सईद रचना के शिल्प और संवेदना से जुड़े सैद्धांतिक प्रश्न से आगे जाते हुए ‘ओरिएण्टलिज्म’ की ओर बढ़ जाते हैं जिसमें विषय का चुनाव और उसकी संरचना दोनों ही गहरे स्तर पर विचारधारात्मक हो जाते हैं और समय और समाज से राजनीतिक स्तर पर भी संवाद करने में कायम होते हैं. ऐसा तब होता है जब सईद को यह पता ही नहीं था कि ओरिएण्टलिज्म का अभिग्रहण क्या होगा, लेकिन इसके तुरंत बाद सईद का पूरा लेखन ओरिएण्टलिज्म से उठे प्रश्नों और उनकी राजनीतिक चिन्ताओं से प्रभावित हो जाता है और सईद की चिन्ताधारा एक खास दिशा में आगे बढ़ जाती है. हालांकि, यह भी रोचक है कि ‘बिगिनिंग्स’ और ‘ओरिएण्टलिज्म’ का पाठ करने वाले अगर रचनाकार से परिचित न हों तो यह कहना मुश्किल हो जाएगा कि संवेदना के स्तर पर ये एक ही लेखक की रचनाएँ हैं, शिल्प के स्तर पर भले ही कोई यह पहचानने में समर्थ हो.

________

शीतांशु आलोचना में विशेष रुचि रखते हैं. फिलहाल हिंदी विभाग, असम विश्वविद्यालय, दीफू परिसर में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं. कंपनी राज और हिन्दी शीर्षक से उनकी एक पुस्तक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है. प्रकाशन संस्थान से उनकी दो संपादित पुस्तकें (प्रो.ओमप्रकाश सिंह के साथ संयुक्त रूप से संपादित) प्रकाशित हैं- पाठ और पाठ्यक्रम, उपन्यास का वर्तमान.
संपर्कः sheetanshukumar@gmai..com

Tags: 20252025 आलेखएडवर्ड सईदप्राच्यवाद से पहलेशीतांशु
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Comments 13

  1. Jayant singh Tomar says:
    3 weeks ago

    अच्छा लेख। किंतु जटिल। अकादमिक दृष्टि से उत्कृष्ट। साधारण पाठक के लिए ऐसे महत्वपूर्ण लेखों को थोड़ा रोचक बनाने की जरूरत।

    Reply
  2. रवि रंजन says:
    3 weeks ago

    आम पाठक के लिए ‘प्रच्यावाद’ को समझने में सहायक संक्षिप्त एवं सारगर्भित आलेख.

    Reply
  3. Rajat Mishra says:
    3 weeks ago

    शीतांशु एक प्रतिभाशाली युवा समालोचक हैं, परंतु अपनी समालोचनाओं में वे विचारों की गहराई के बजाय शब्दों की प्रस्तुति पर अधिक जोर देते हैं, जिससे लेखन कभी-कभी केवल शब्दों का बोझ बनकर रह जाता है। यदि वे भावों और विचारों के विश्लेषण पर भी उतना ही ध्यान दें, तो उनकी रचनाएँ अधिक प्रभावशाली और रोचक हो सकती हैं। यह भी सच है कि एडवर्ड सईद की रचनात्मक दृष्टि समय के साथ विकसित हुई। प्राच्यवाद से पहले उन्होंने पाश्चात्य लेखकों की दृष्टि का गहन अध्ययन किया, जो आगे चलकर उनके स्वतंत्र और मौलिक चिंतन का आधार बना।

    Reply
  4. रुस्तम सिंह says:
    3 weeks ago

    मैं यह कहना चाहता हूँ कि एडवर्ड सईद orientalism का critique करने वाले पहले विद्वान नहीं थे। उनसे पहले, और शायद सबसे पहले, मिस्र के विद्वान अनुआर अबदेल-मलेक (Anouar Abdel-Malek) ने 1963 में अपनी पुस्तक Orientalism in Crisis में orientalism का गहरा critique किया था और एडवर्ड सईद उस पुस्तक से प्रभावित हुए थे और उन्होंने मलेक के विचारों को ही आगे बढाया और उन्हें और विस्तार दिया। यह ज़रूर है कि सईद ने orientalism के बारे में ज़्यादा विस्तार से लिखा। लेकिन orientalism का critique करने का सारा और पहला श्रेय उन्हें नहीं दिया जा सकता, जैसा कि आम तौर पर किया जाता है।

    नीचे मैं अनुआर अबदेल-मलेक और उनकी पुस्तक के बारे में कुछ सूचनाएं paste कर रहा हूँ:

    “Orientalism in Crisis” is a book by Anouar Abdel-Malek published in 1963. It critiques the traditional field of Orientalism, arguing that it is inherently biased and shaped by European power structures, rather than a purely objective academic pursuit. The book explores the ways in which Western scholars have historically viewed and represented the East, highlighting the limitations of their perspectives and methods.

    Key Points of “Orientalism in Crisis”:

    Critique of Traditional Orientalism:
    Abdel-Malek argues that traditional Orientalism was not solely focused on academic scholarship but also served colonial interests by providing knowledge that facilitated European dominance.

    Problematic Assumptions and Methods:
    The book points out how Orientalists often relied on biased assumptions and methods that reinforced European superiority and marginalized the perspectives of the East.

    Importance of Rethinking Oriental Studies:
    Abdel-Malek emphasizes the need for a critical re-evaluation of Orientalism, moving away from Eurocentric perspectives and towards a more inclusive and nuanced understanding of the East.

    Focus on the East as a Subject:
    The book advocates for viewing the East as a subject of study, rather than merely an object of Western observation and interpretation.

    Influence on Edward Said’s Work:
    “Orientalism in Crisis” is considered a precursor to Edward Said’s book “Orientalism”. Said’s work builds upon Abdel-Malek’s analysis, further developing the critique of Orientalism and its impact on Western scholarship and culture.

    Reply
    • शीतांशु says:
      3 weeks ago

      जी रुस्तम जी। आपने जिस ओर इशारा किया है उसे कई इतिहासकारों ने बताने की कोशिश की है। कभी इस विषय पर लिखूंगा तो चर्चा करूंगा इसकी। इस आलेख का उद्देश्य अलग था। सिर्फ सईद के प्रारंभिक लेखन पर बातचीत की गई है। बहुत शुक्रिया।

      Reply
    • शीतांशु says:
      3 weeks ago

      इन टिप्पणियों के लिए आप सभी को धन्यवाद।

      Reply
  5. Jey Sushil says:
    3 weeks ago

    पूरा लेख पढ़ने और रुस्तम जी की टिप्पणी के बाद दो छोटी छोटी बातें कहना चाहूंगा। अंग्रेजी साहित्य पढ़ने वाले चाहे वो वी एस नायपॉल हों, चिनुआ अचेबे हों या फिर एडवर्ड सईद हों…….कोनराड एक महत्वपूर्ण टेक्सट रहा है कई कारणों से. एक तो ये कि कोनराड पोलिश थे। अंग्रेजी उनकी पहली भाषा नहीं थी और दूसरे कि उनके उपन्यासों में अफ्रीका या दुनिया के दूसरे देश आते हैं तो वह एक तरह से अंतरराष्ट्रीय लेखन जैसा कुछ हो जाता है जैसे कि रूडयार्ड किपलिंग हुए। कोनराड से प्रभावित नायपॉल भी थे और हार्ट ऑफ डार्कनेस की तर्ज़ पर नायपॉल ने एरिया ऑफ डार्कनेस लिखा। लेख से जुड़ी बात यह है कि ओरिएंटलिज़्म को पब्लिश करना टेढ़ी खीर रहा। उस किताब को पब्लिशर नहीं मिल रहे थे जबकि सईद कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे थे। एक छोटे पब्लिशर ने छापा था पहले लेकिन इस पुस्तक का उद्गम कोनराड में खोजने की बजाय एरिक ऑउरबाक्ख की माइमेसिस में खोजा जाना चाहिए. Mimesis एक मॉडल था जिसकी संरचना पर सईद ने ओरिएंटलिज्म लिखा है जिसमें पश्चिमी साहित्य की चुनिंदा पुस्तकों की आलोचना की गई है और यह स्थापना दी गई है कि ओरिएंटलिज्म एक ऐसी अवधारणा है जो पश्चिम के बरक्श पश्चिम ने खड़ी की। इस पुस्तक को उनके कोनराड वाली पुस्तक के आलोक में देखना कितना उचित होगा कहना मुश्किल है। रुस्तम जी ने ठीक चिन्हित किया है कि ओरिएंटलिज्म की अवधारणा की आलोचना लोग पहले भी करते रहे थे मसलन कि अब्देल मलेक का काम। इससे पहले चिनुआ अचेबे थिंग्स फॉल अपार्ट लिख चुके थे और अपने इंटव्यू्ज़ में वो जोसेफ कोनराड की किताब की आलोचना भी कर चुके थे। हालांकि कोनराड पर केंद्रित उनका निबंध ओरिएंटलिज्म के बाद आया। एन इमेज ऑफ अफ्रीका। ओरिएंटलिज्म से पहले न्गूगी के कुछ लेख और भाषण साठ के दशक में आए थे जिसकी तासीर पश्चिम की आलोचना और कमोबेश पोस्टकलोनियल पुट है जो बाद में ओरिएन्टलिज्म के प्रकाशित होने के बाद तेजी़ से स्थापित हो जाती है। साठ के ही दशक में ही सैय्द तालिब का उपन्यास सीज़न ऑफ माइग्रेशन टू नॉर्थ आता है अरबी में जो अंग्रेजी अनुवाद के बाद बेहद लोकप्रिय हो जाता है। यह उपन्यास उस पश्चिमी अवधारणा का जबरदस्त क्रिटिक है जो पूरब (भारत, अफ्रीका आदि आदि) को ओरिएन्टल नज़रिए से देखता है। मैं कहना बस यह चाहता हूं कि कोई भी चीज़ चाहे सईद की ओरिएन्टलिज़्म हो या कोई भी बड़ी थ्योरी वो अचानक नहीं पनपती है इसलिए पहले दूसरे का मसला नहीं होना चाहिए। हां यह ज़रूर है कि चूंकि सईद पश्चिम में थे. एक बड़ी यूनिवर्सिटी में थे तो उनके काम को जितना महत्व मिला उतना महत्व अब्दल मलेक के काम को नहीं मिला। यह एक तथ्य है ही। हालांकि ओरिएंटलिज्म को भी बाद में सईद ने रिफाइन किया जो कल्चर एंड इम्पीरियलिज्म के नाम से नब्बे के दशक में आया।

    Reply
  6. Jey Sushil says:
    3 weeks ago

    कुछ सालों में हर तीसरा अकादमिक लेख डिकलोनाइजेशन की बात करता है ( शीतांशु का लेख नहीं ) फूड से लेकर, कल्चर, सिलेबस सब डिकलोनाइज़ हो रहा है लेकिन इस डिकलोनाइजेशन के युद्ध में पश्चिमी टेक्सट की आलोचना तो होनी चाहिए लेकिन यह दिखाना भी ज़रूरी हो जाता है कि पूरब में क्या टेक्सट उपलब्ध है। अमेरिका की एकेडेमी आलोचना के अपने दृष्टांत में यह भूल जाती है कि वह खुद एक कलोनियल साम्राज्य का हिस्सा है चाहे जितना भी कह ले कि वह सत्ता या सरकार से अलग है। यूनिवर्सिटियां फेडरल फंडिंग लेती हैं अमेरिका की अब तो यह बात बच्चा-बच्चा जान गया है। हां यह बात भी है कि यहां की यूनिवर्सिटियों में सरकार का वैसा दखल नहीं है जैसा भारत में है क्योंकि यहां की यूनिवर्सिटियां प्राइवेट रही हैं। प्राइवेट होने के पीछे किस तरह से गुलामी प्रथा का पैसा लगा था वह भी जॉर्ज फ्लायड केस के दौरान सामने आया। येल यूनिवर्सिटी के संस्थापक गुलाम रखा करते थे। ऐसी और कई बातें हैं। यह भी तथ्य ही है कि यूनिवर्सिटियों के पास एनडाउमेंट के नाम पर जो अरबों डॉलर रखे हुए हैं उनका निवेश कहां होता है। छात्र आंदोलन में इसी निवेश पर ही तो सवाल थे कि कम से कम हथियारों के निवेश से पैसा यूनिवर्सिटियां निकाल लें। इन यूनिवर्सिटियों के प्रोफेसरों ने परमाणु बम बनाए। फिर उसका इस्तेमाल जापान में हुआ यह भी हम सब जानते हैं। Robert Oppenheimer बर्कले में पढ़ाते ही थे जिन्हें परमाणु बम का जनक माना गया। वो खुद को उस त्रासदी से सिर्फ इस आधार पर अलग नहीं कर सकते कि मैं तो वैज्ञानिक था। सबकी जिम्मेदारियां होती ही हैं। लेकिन जैसा कि कहते हैं यूनिवर्सिटी प्रोफेसरों के पास एक आइवरी टावर होता है। हालांकि पिछले दो सालों में प्रोफेसरान खुद ही इस पर सवाल उठा रहे हैं लेकिन अब देर हो गई है। अमेरिका में सब जानते हैं कि यूनिवर्सिटियों में आर्ट्स (यहां ह्यूमैनिटीज़ कहते हैं) के प्रोफेसरों की कोई नहीं सुनता। जो चलती है वो साइंसेस की चलती है और साइंस के लोग अपने लैब से इतर कुछ नहीं सोचते आदि आदि आदि। इन सारे संदर्भों में एडवर्ड सईद के काम युगांतकारी लगता है क्योंकि वह फलस्तीनी सवाल उठाते रहे हैं अकादमिक और पब्लिक लेखों द्वारा। जबकि वह मुस्लिम नहीं थे. वह अरब-ईसाई थे। जेएनयू में कई लोग उन्हें मुस्लिम स्कॉलर मानते थे सईद नाम के कारण जबकि यह ग़लत है। सईद की पृष्ठभूमि भी बहुत मायने रखती है। उनके पिता अमेरिकी फौज में कुछ समय रहे थे तो उनके लिए फलस्तीन से लेबनान आना और वहां से अमेरिका आना आसान रहा किसी गरीब फलस्तीनी की तुलना में। चूंकि उनकी शिक्षा दीक्षा मिश्र और फिर अमेरिका में ही हुई तो वह एलीट तो थे ही जैसे कि हमारे सलमान रश्दी साहब हुए। रश्दी और सईद की गहरी मित्रता रही। सईद की ओरिएंटलिज्म के दो साल बाद ही मिडनाइट चिल्ड्रन्स आई और पोस्टकलोनियल लिटरेचर में मील का पत्थर बनी। इस पोस्टकलोनियल हौव्वे का अब खत्म होना ज़रूरी है। यह तिलस्म अब टूट रहा है। पूरी तरह कब तक टूटेगा यह देखना है। माफी चाहूंगा बात कहां से शुरू हुई और मैं कहीं और लेकर चला गया।

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    • शीतांशु says:
      3 weeks ago

      आप बात बहुत सही दिशा में ले गए सुशील जी। एजाज अहमद और इरफान हबीब ने पोस्ट कोलोनियल लेखन की पद्धतिगत समस्याओं के संदर्भ में अपनी चिंता काफी पहले ही जाहिर कर दी थी। वर्ग की और साम्राज्य की सीमित होती जा रही समझदारी की ओर हबीब ने इशारा कर दिया था काफी पहले ही। विश्वविद्यालयों में जो समस्याएं आ रही थीं उन्हें एजाज ने इन थ्योरी पुस्तक में काफी रेखांकित किया है। असल में बाद में सईद भी इस चीज से परेशान होने लगे थे कि उन्हें ही अस्मिता के नकारात्मक की राजनीति का पितामह बना दिया जा रहा है। सुमित सरकार ने लम्बा आलेख लिखा कि कैसे अतीत की प्रतिक्रियावादी चीजों को भी भारतीयता के नाम पर डिकोलोनियल होने की प्रक्रिया के नाम पर बचाया जा रहा है। वे पहले खुद इस लेखन से जुड़े थे।
      कहने का मतलब है कि अगले कुछ वर्षों में चीजें और बदलेंगी। पोस्ट कोलोनियल में जो हिस्सा फैशन जैसा है, वे वैसे ही बदलेंगी जैसे कुछ वर्षों फैशन बदलता है, जो ठोस है हम उनका उपयोग करेंगे। सईद को इसी निगाह से पढ़ना चाहिए। फिलिस्तीनी मुक्ति के लिए उस बौद्धिक ने जो परिश्रम किया है वह हम सब के लिए मिसाल है। अगला आलेख इसी पर लिख रहा हूं। जिन मुद्दों की ओर आपकी नज़र है उससे संबंधित दो आलेख लिखे हैं मैंने जो अन्यत्र प्रकाशित है, –
      एडवर्ड सईद के मार्क्स और रामविलास शर्मा (आरोह) असम विश्वविद्यालय की पत्रिका।
      बुद्धिजीवी की रिहाईश: एडवर्ड सईद (वनमाली )

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  7. शीतांशु says:
    3 weeks ago

    फिलिस्तीनी संदर्भ में सईद क्यों आवश्यक हैं इस पर दो आलेख वायर में भी लिखा है मैने, अगर आपमें से किसी की रुचि हो तो। इस आलेख में जो कुछ है वह एक विशेष उद्देश्य से है। बस यह बताने के लिए कि प्राच्यवाद पर लिखने से पहले सईद क्या और कैसे सोच रहे थे? इसे बिना समझे उस पुस्तक की रचना प्रक्रिया को नहीं समझा जा सकता। उसकी भाषा के गठन की पृष्ठभूमि क्या है, उसकी संवेदना का विचारधारात्मक प्रस्थान बिंदु कहां तैयार होता है, यह समझना बहुत जरूरी है। सईद के लेखन में बहस के लिए बहुत कुछ है और यही उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण है। जूझते रहने के लिए वे आमंत्रित करते हैं। फिलिस्तीन को जितना उन्होंने जिंदा रखा है वह अपनी भूमिका के संदर्भ में हमारी आँखें खोल देता है।

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    • शीतांशु says:
      3 weeks ago

      सईद ने संरचनावादियों से काफी संवाद किया है और उन्हें कई स्थलों पर लगातार अस्वीकार किया है। लेकिन चीजें निरंतरता में घटित होती हैं। आरम्भ के संदर्भ में जब वे लिखते हैं तो यह एक प्रक्रिया के ही अगले चरण की तरह दिखता है, भले ही उसके विरोध में हो। मुक्ति के प्रयास भी निरंतरता में होते हैं। संरचनावाद, उत्तर संरचना या विखंडन में सिर्फ विरोध या संबंध न ढूंढ कर एक निरंतरता भी देखना चाहिए। अगर संरचनावाद का विकास नहीं हुआ होता तो आरम्भ की सईद की सैद्धांतिकी के लिए प्रस्थान बिंदु भी न मिलता। लेखन की पद्धतियों के संदर्भ में बात कही गई है न कि सस्यूर की तलाश का कोई प्रयास किया गया है। बल्कि यह कहने की ही कोशिश है कि तब तक विकसित साहित्यिक आलोचना से आगे निकलने का प्रयास है, जिसमें संरचनावाद भी शामिल है।
      आपकी टिप्पणियो के लिए बहुत धन्यवाद। लेख को भविष्य में और व्यवस्थित और संप्रेषणीय बनाने में इनसे काफी मदद मिलेगी। शुक्रिया।

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  8. Faqir Jay says:
    3 weeks ago

    कोनराड को लेकर सईद को कोई मुगालता नही था। उसकी दक्षिण पंथी विचारधारा से वे परिचित थे । मगर साहित्य विचार धारा का उल्था नही होता। बल्कि जिस विचार धारा (जिन अर्थो में मार्क्स के जर्मन इडियोलॉजी में इडियोलॉजी या विचारधारा शब्द का प्रयोग हुआ है) से निकसता है उससे दूरी बना सकता है। जैसे बाल्जाक घोषित रूप से पुरातन पंथी था मगर उसका लेखन वैसा नही है। फिर जैसा कि ईगलटन ने कहा कि कोनराड या इलियट जैसे कंजरवेटिव लेखन को कंडेम करने की जगह एक्सप्लेन करना जरूरी है। यही सईद ने किया है। अतः उसकी तुलना एक अफ्रीकी राजनीतिक नेता के बयान से कर उसे पिछड़ा हुआ आलोचन कहना उचित नही है। प्राच्यवाद पूर्व सईद के लेखन को ठीक से समझा नही गया। जो अंतर पूर्व के लेखन के साथ दिखता है वह फूको और फ़ैंनन के प्रभाव के कारण है। साठ के दशक आते आते संरचनावाद का पराभव शुरू हो चुका था और सईद सहित तमाम उत्तर औपनिवेशिक लेखक इससे मुक्त थे। अतः सईद के भीतर संरचनावाद या सस्यूर को खोजना अनक्रोनिक है

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  9. प्रमोद says:
    7 days ago

    अच्छा लेख है। मेरे लिए तो बहुत ही सूचनाप्रद। इस विषय पर व अन्य विषयों पर भी, आपके कुछ और लेख भी पहले पढ़े थे। इस छोटे से लेख को पढ़ने से आभास होता है कि आपकी आलोचना की भाषा उत्तरोत्तर प्रौढ और गहरी होती जा रही है।

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