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समालोचन

Home » पूर्वी उत्तर प्रदेश की उर्दू पत्रिकाएँ : शुभनीत कौशिक

पूर्वी उत्तर प्रदेश की उर्दू पत्रिकाएँ : शुभनीत कौशिक

जो स्थिति आज अंग्रेजी भाषा की है, मध्यकाल में लगभग वही स्थान फ़ारसी भाषा का था. 1837 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में फ़ारसी की जगह उर्दू को राजभाषा घोषित किया. उर्दू का पहला अख़बार ‘जाम-ए-जहाँनुमा’ हरिहर दत्ता ने कोलकाता से 1822 में निकाला था. लाला लाजपत राय के अख़बार ‘वंदे मातरम’ की भाषा उर्दू थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में उर्दू की पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं. औपनिवेशिक दौर में गोरखपुर, जौनपुर, आज़मगढ़, बनारस, बस्ती, ग़ाज़ीपुर, बलिया और मिर्ज़ापुर से निकलने वाली उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं की यहाँ चर्चा है. युवा इतिहासकार शुभनीत कौशिक की यह चिंता मुनासिब है कि पुस्तकालयों और संग्रहालयों के होने के बावजूद यह इतिहास आज विलुप्त होने के कगार पर क्यों है.

by arun dev
April 24, 2025
in आलेख
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पूर्वी उत्तर प्रदेश की उर्दू पत्रिकाएँ : शुभनीत कौशिक
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पूर्वी उत्तर प्रदेश की उर्दू पत्रिकाएँ
भाषाई अतीत का एक विस्मृत अध्याय
शुभनीत कौशिक  

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं ने भारत की आम जनता की राजनीतिक-सामाजिक चेतना जगाने का काम बख़ूबी किया. अंग्रेज़ी सरकार द्वारा बनाए गए वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट जैसे दमनकारी क़ानूनों के बावजूद भी इन पत्रों ने अपने पन्नों पर राष्ट्रवाद को मुखर अभिव्यक्ति देने में कोई झिझक नहीं दिखाई. अपने राष्ट्रवादी तेवर और अंग्रेज़ी राज की तीखी आलोचना करने की वजह से ऐसे पत्रों के सम्पादकों और उनमें लिखने वाले तमाम पत्रकारों ने जुर्माने भरे, ज़ब्तियाँ झेलीं और जेल-यात्राएँ भी कीं. मगर उनकी प्रतिबद्धता में रत्ती भर भी कमी नहीं आई. उत्तर भारत में हिंदी के साथ-साथ उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं ने भी राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

अगर आज़ादी से पहले युक्त प्रांत (यू.पी.) में छपने वाली पत्र-पत्रिकाओं के बारे में राष्ट्रीय अभिलेखागार (नैशनल आर्काइव) में उपलब्ध रिपोर्टों को देखें तो हमें अचरज होगा कि आज के पूर्वी उत्तर प्रदेश के ज़िलों से कितनी ही उर्दू की पत्र-पत्रिकाएँ उस वक़्त छपा करती थीं.[1] दैनिक से लेकर साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, तिमाही और छमाही उर्दू पत्र-पत्रिकाएँ. हैरत की बात है कि आज इन पत्रिकाओं को देखना तो दूर इनके बारे में कभी सुनने को भी नहीं मिलता.

उर्दू की ये पत्रिकाएँ तत्कालीन समय के अनुरूप ही विभिन्न रुझानों वाली थीं. वैचारिक रुझान की दृष्टि से देखें तो उर्दू की इन पत्रिकाओं में कुछ अपने विचारों में राष्ट्रवादी थीं तो कुछ उदारवादी. कुछ पत्रिकाएँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की समर्थक थीं, कुछ अंग्रेज़ी राज की समर्थक थीं और कुछ मुस्लिम लीग की राजनीति की हामी भी भरती थीं. विषयवस्तु की बात करें तो इनमें से कुछ स्कूल-कॉलेज की पत्रिकाएँ थीं, तो कुछ गम्भीर साहित्यिक और विचार-विमर्श की पत्रिकाएँ भी थीं और कुछ धार्मिक भी.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में आज़ादी से पहले छपने वाली ऐसी ही उर्दू पत्रिकाओं की ज़िलेवार चर्चा आगे इस लेख में हम करेंगे. इसके साथ ही एक नज़र हम उन ज़िलों में साक्षरता की तत्कालीन स्थिति पर भी डालेंगे. भारत जैसे देश में साक्षरता की दर या पत्र-पत्रिकाओं की प्रतियों की संख्या से पाठकों की संख्या और किसी पत्रिका के प्रसार का ठीक-ठीक अंदाज़ा नहीं लग सकता और ऐसा अनुमान लगाना ठीक भी नहीं होगा. कारण कि आज़ादी से पहले और आज़ादी के दशकों बाद तक भी हिंदुस्तान में अख़बार, पत्र-पत्रिकाएँ या किताबें सिर्फ़ साक्षर लोग ही नहीं पढ़ते थे. एक बड़ी तादाद उन्हें सुनने वालों की भी थी. लाइब्रेरियों में या किसी चौपाल या किसी सार्वजनिक स्थान पर किसी पत्र-पत्रिका या किताब का सामूहिक वाचन हिंदुस्तान के लिए कोई अनोखी बात नहीं थी. इसलिए पत्रिकाओं के प्रभाव को सिर्फ़ आँकड़ों के तराज़ू से तौलना उचित नहीं होगा. हमें औपनिवेशिक काल की व्यावहारिक स्थितियों का भी ध्यान रखना होगा.

ज़िलों की बात करें तो आज के पूर्वी उत्तर प्रदेश में आज़ादी से पहले गोरखपुर ज़िले से उर्दू की सर्वाधिक पत्र-पत्रिकाएँ छपा करती थीं, जिनकी कुल संख्या नौ थी. गोरखपुर के बाद जौनपुर (5), आज़मगढ़ (4), बनारस (3), बस्ती (2) और ग़ाज़ीपुर (2) आते थे. बलिया और मिर्ज़ापुर से भी उर्दू की एक-एक पत्रिका निकला करती थी. आइए अब हम सिलसिलेवार ढंग से इन ज़िलों से छपने वाली पत्रिकाओं की चर्चा करें. यहाँ यह ज़िक्र कर देना भी प्रासंगिक होगा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश से छपने वाली उर्दू पत्रिकाओं की यह सूची अधूरी है, जिसमें और भी नाम हमारी जानकारी के अभाव में छूट गए होंगे.

 

बनारस

उन्नीसवीं सदी में बनारस पश्चिमोत्तर प्रांत के सर्वाधिक साक्षर ज़िलों में से एक था. हालाँकि साक्षर लोगों की तादाद उस वक़्त बहुत कम थी. वर्ष 1881 की जनगणना में बनारस में पुरुषों की साक्षरता दर 8.37 फ़ीसदी थी, जबकि महिलाओं में साक्षरता केवल 0.37 फ़ीसदी ही थी. चालीस बरस बाद 1921 में साक्षरता की यह दर बढ़कर पुरुषों में 13.3 फ़ीसदी और महिलाओं में 2.1 फ़ीसदी हो गई. जबकि वर्ष 1931 में 16.4 फ़ीसदी पुरुष और 2.2 फ़ीसदी महिलाएँ साक्षर थीं.[2] बनारस से उर्दू के तीन पत्र छपा करते थे, जो दैनिक, साप्ताहिक और त्रैमासिक थे. उनका विवरण इस प्रकार है :

  • आवाज़ : बनारस से छपने वाले इस उर्दू दैनिक की रोज़ाना पाँच सौ प्रतियाँ छपती थीं. इसके मुद्रक थे एस. मुज़फ़्फ़र हुसैन ज़ैदी. जून 1940 में शुरू हुए इस पत्र में स्थानीय खबरें प्रमुखता से छपती थीं, जिसमें मुस्लिम समुदाय से जुड़ी ख़बरों को ज़्यादा तवज्जो दी जाती थी.
  • ख़ादिम जदीद : बनारस स्थित चौक से छपने वाले इस उर्दू साप्ताहिक की पाँच सौ प्रतियाँ छपा करती थीं. इसका वार्षिक सदस्यता शुल्क पाँच रुपए था. नवम्बर 1940 में इस पत्र का स्वामित्व तैयबा बेगम के पास था, जो एस.एम. जाफ़री की पत्नी थीं. इस साप्ताहिक में स्थानीय खबरें, ख़ासकर बनारस के म्यूनिसिपल बोर्ड से जुड़ी ख़बरें छपा करती थीं.
  • रुरल हाईस्कूल मैगज़ीन : बनारस के रामघाट स्थित हितचिंतक प्रेस से छपने वाली यह त्रैमासिक पत्रिका उर्दू सहित हिंदी, अंग्रेज़ी और बांग्ला भाषाओं में निकलती थी. निःशुल्क वितरण के लिए छपने वाली इस पत्रिका की चार सौ प्रतियाँ छपती थीं.

 

आज़मगढ़ 

वर्ष 1881 में हुई जनगणना के समय आज़मगढ़ में पुरुषों की साक्षरता दर 3.4 फ़ीसदी थी और महिलाओं की साक्षरता महज़ 0.4 फ़ीसदी. इसके पचास साल बाद वर्ष 1931 की जनगणना में इस स्थिति में मामूली सुधार ही हुआ. तब पुरुषों की साक्षरता 8.1 फ़ीसदी और महिलाओं की साक्षरता 0.6 फ़ीसदी थी.[3] आज़मगढ़ से उर्दू के चार पत्र छपा करते थे, जो साप्ताहिक और मासिक थे. उनका विवरण निम्न है :

 

मारिफ़
  • मारिफ़ : अल्लामा शिबली नोमानी (1857-1914) द्वारा स्थापित दारुल मुसन्नेफ़ीन के शिबली मंज़िल प्रेस से छपने वाले इस महत्त्वपूर्ण उर्दू मासिक के सम्पादक थे इस्लामिक धर्म-दर्शन के प्रख्यात विद्वान सैयद सुलेमान नदवी. जो शिबली एकेडमी के सचिव थे और ख़िलाफ़त आंदोलन में भी शामिल रहे थे. मार्च 1916 में शुरू हुए इस पत्र का संचालन शिबली एकेडमी के प्रबंधक मुंशी मसूद अली नदवी करते थे. एक हज़ार प्रतियों में छपने वाले इस पत्र की वार्षिक सदस्यता पाँच रुपए थी. इस पत्र में इतिहास, साहित्य, धर्म, दर्शन से जुड़ी सामग्री प्रकाशित होती थीं और इसका प्रसार युक्त प्रांत ही नहीं हिंदुस्तान के विभिन्न इलाक़ों तक था.
  • सुहैल : मिल्लत प्रेस (आज़मगढ़) से छपने वाले इस उर्दू साप्ताहिक के सम्पादक और प्रकाशक थे अफ़ज़लुल्लाह शेख़. वे असहयोग और सिविल नाफ़रमानी आंदोलन में भागीदार हुए थे. पर बाद में वे मुस्लिम लीग से जुड़ गए. तीन रुपए वार्षिक सदस्यता वाले इस पत्र की साढ़े पाँच सौ प्रतियाँ छपा करती थीं.
  • हुकूमत : आज़मगढ़ के अहसान प्रेस से छपने वाला उर्दू साप्ताहिक, जिसका प्रकाशन मुहम्मद अहसान द्वारा किया जाता था. कांग्रेस से जुड़े रामबहादुर सक्सेना इस उदारवादी पत्र के सम्पादक थे, जिसका प्रकाशन जनवरी 1937 में शुरू हुआ. तीन रुपए वार्षिक सदस्यता वाले इस पत्र की सौ प्रतियाँ छपा करती थीं.
  • इंसाफ़ : यह उर्दू साप्ताहिक आज़मगढ़ के आज़मी प्रेस से छपता था. मिर्ज़ा मुहम्मद ख़लील शेख़ इसके प्रकाशक और सम्पादक थे. यह मुस्लिम समुदाय के सरोकारों को उठाने वाला पत्र था.
मारिफ़ के संपादक सैयद सुलेमान नदवी. स्रोत: विकी कॉमन्स

गोरखपुर

वर्ष 1881 की जनगणना में गोरखपुर में पुरुषों की साक्षरता दर 3.6 फ़ीसदी थी, जबकि महिलाओं में साक्षरता महज़ 0.08 फ़ीसदी थी. आज़ादी के चार बरस बाद वर्ष 1951 की जनगणना में गोरखपुर में साक्षरता की यह दर बढ़कर पुरुषों में 15.4 फ़ीसदी और महिलाओं में 2.2 फ़ीसदी हो गई.[4] गोरखपुर से उर्दू के नौ पत्र छपा करते थे, जो साप्ताहिक, मासिक और छमाही थे. उनका विवरण इस प्रकार है :

  • सुलह : गोरखपुर के सुलह प्रेस से छपने वाले इस उर्दू साप्ताहिक के सम्पादक और प्रकाशक थे क़ाज़ी मुहम्मद अली अकबर. वे एक ज़मींदार परिवार से ताल्लुक़ रखते थे और मुस्लिम लीग के समर्थक थे. इस पत्र का प्रकाशन अगस्त 1930 से शुरू हुआ और इसकी तीन सौ प्रतियाँ प्रकाशित होती थीं. पाँच रुपए वार्षिक सदस्यता वाले इस साप्ताहिक में मुख्यतः स्थानीय खबरें छपा करती थीं.
  • अल-अज़ीज़ : रिफ़ा-ए-आम प्रेस से छपने वाला यह उर्दू मासिक जॉर्ज इस्लामिया मियाँ साहिब इंटरमीडिएट कॉलेज से निकलता था. जिसके सम्पादक उसी स्कूल के सहायक शिक्षक मुंशी बदीउज़्ज़माँ अज़ीम थे. इसकी दो सौ प्रतियाँ छपा करती थीं. इसका वार्षिक सदस्यता शुल्क एक रुपए आठ आना था. यह पत्र शिक्षा से सम्बन्धित विषयों पर सामग्री प्रकाशित करता था.
  • बेदार : जनवरी 1938 से शुरू हुए इस साप्ताहिक के सम्पादक और प्रकाशक थे वसी हैदर. बेदार प्रेस से छपने वाले इस पत्र का वार्षिक सदस्यता शुल्क चार रुपए था और इसकी सौ प्रतियाँ छपा करती थीं. अपने वैचारिक रुझान में यह पत्र मुस्लिम लीग का समर्थक था.
  • मियाँ साहिब गवर्नमेंट इंटरमीडिएट कॉलेज मैगज़ीन : यह एक छमाही कॉलेज मैगज़ीन थी, जो उर्दू के साथ-साथ अंग्रेज़ी और हिंदी में भी छपा करती थी. स्कूल के ही एक शिक्षक एस. आफ़ाक़ अहमद इसके सम्पादक थे और स्कूल के प्रिंसिपल इसका प्रबंधन देखते थे. इसकी चार सौ प्रतियाँ छपा करती थी और इसका वार्षिक सदस्यता शुल्क एक रुपए आठ आने था.
  • मुल्क : गोरखपुर से छपने वाला उर्दू साप्ताहिक जो अनियमित निकलता था. इसकी वार्षिक सदस्यता चार रुपए थी. अप्रैल 1934 से नक़ी कुरेशी के सम्पादन में निकलने वाला यह पत्र अपने विचारों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थक था.
  • मुराद : गोरखपुर के मुराद प्रेस से छपने वाला यह उर्दू साप्ताहिक हकीम अमजद हुसैन नज़र द्वारा सम्पादित था, जो कभी ख़िलाफ़त आंदोलन में शामिल रहे थे. तीन रुपए आठ आने वार्षिक सदस्यता वाले इस पत्र की दो सौ प्रतियाँ छपा करती थीं. यह पत्र नवम्बर 1934 में प्रकाशित होना शुरू हुआ. यह पत्र मुस्लिम लीग का समर्थक था.
  • मुस्लिम ख़वातीन : दावत प्रेस से छपने वाला उर्दू मासिक, सरवरिया रब्बानी इसके सम्पादक थे और इसके मुद्रक थे सैयद तज़ामुल हुसैन. एक रुपए वार्षिक सदस्यता वाले इस पत्र की एक सौ प्रतियाँ प्रकाशित होती थीं. यह पत्र मुस्लिम समुदाय से जुड़े मुद्दों को उठाता था.
  • नशेमन : गोरखपुर के आसी प्रेस से छपने वाला मासिक, जिसके सम्पादक थे नवाबज़ादा सैयद अली कबीर. जनवरी 1940 में शुरू हुआ यह मासिक एक साहित्यिक पत्र था. इसका वार्षिक सदस्यता शुल्क तीन रुपए था और इसकी पाँच सौ प्रतियाँ छपा करती थीं.
  • मशरिक़ : गोरखपुर के मशरिक़ प्रेस से छपने वाला यह साप्ताहिक क़ुर्बान वारिस द्वारा सम्पादित था. मुसम्मात हाशमी बेगम इस पत्र की प्रबंधक थीं. पाँच रुपए वार्षिक सदस्यता वाले इस पत्र की तीन सौ प्रतियाँ छपा करती थीं. जुलाई 1929 में शुरू हुआ यह पत्र आरम्भ में तो कांग्रेस समर्थक था, मगर धीरे-धीरे यह मुस्लिम लीग का समर्थक बन गया.

 

जौनपुर

1881 की जनगणना में जौनपुर में पुरुषों के बीच साक्षरता 4.1 फ़ीसदी थी, जबकि महिलाओं में साक्षरता मात्र 0.1 फ़ीसदी थी. पचास बरस बाद वर्ष 1931 में साक्षरता की यह दर बढ़कर पुरुषों में 9.6 फ़ीसदी और महिलाओं में 0.6 फ़ीसदी हो गई.[5] जौनपुर से उर्दू के पाँच पत्र छपा करते थे, जो साप्ताहिक थे. उनका विवरण निम्न है :

 

  • हिंद जदीद : जौनपुर के हिंद जदीद प्रेस से छपने वाले इस उर्दू साप्ताहिक के सम्पादक और प्रकाशक थे हादी हुसैन खाँ. फ़रवरी 1924 से शुरू हुए इस उदारवादी पत्र में प्रायः स्थानीय खबरें छपा करती थीं. एक रुपया आठ आना सालाना सदस्यता वाले इस पत्र की डेढ़ सौ प्रतियाँ छपती थीं.
  • नई दुनिया : अनीक़ प्रेस (जौनपुर) से हर हफ़्ते छपने वाले इस उर्दू पत्र के सम्पादक और प्रकाशक थे ज़फ़रुल-हसन सिद्दीक़ी. सुधारवादी विचारों वाले इस राष्ट्रवादी पत्र की वार्षिक सदस्यता दो रुपए थी और इसकी सवा दो सौ प्रतियाँ छपती थीं.
  • मुस्तक़बिल : जौनपुर से छपने वाले इस उर्दू साप्ताहिक के सम्पादक मुहम्मद शईस नादरी थे और प्रकाशक थे क़ाज़ी ज़ियाउल्लाह. तीन रुपए वार्षिक सदस्यता वाले इस पत्र की दो सौ प्रतियाँ जौनपुर प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित होती थीं.
  • फ़ितरत : सैदी प्रेस (जौनपुर) से प्रकाशित होने वाले इस उर्दू साप्ताहिक पत्र के सम्पादक थे मुर्तज़ा हुसैन खाँ. नवम्बर 1933 में शुरू इस पत्र में स्थानीय ख़बरों के साथ-साथ कहानियाँ भी छपा करती थीं. एक रुपए आठ आना सदस्यता वाले इस पत्र की अस्सी प्रतियाँ छपा करती थीं.
  • अल हादी : जौनपुर के अल हादी प्रेस से छपने वाले इस उर्दू साप्ताहिक का सम्पादन और प्रकाशन अली हादी खाँ करते थे. इसका प्रकाशन अक्टूबर 1933 में शुरू हुआ. उदारवादी रुझान वाले इस पत्र में प्रायः स्थानीय खबरें छपा करती थीं. एक रुपया आठ आना सालाना सदस्यता वाले इस पत्र की सौ प्रतियाँ छपती थीं.

 

बस्ती

1881 की जनगणना में बस्ती में पुरुषों के बीच साक्षरता 3.7 फ़ीसदी थी, जबकि महिलाओं में साक्षरता मात्र 0.06 फ़ीसदी थी. पचास बरस बाद वर्ष 1931 में साक्षरता की यह दर बढ़कर पुरुषों में 5.9 फ़ीसदी और महिलाओं में 0.4 फ़ीसदी हो गई.[6] बस्ती से उर्दू के दो पत्र छपा करते थे, जो साप्ताहिक थे. उनका विवरण इस प्रकार है :

 

  • हुकूमत : बस्ती से छपने वाला यह साप्ताहिक गोरखपुर के आसी प्रेस से छपा करता था. तीन रुपए वार्षिक सदस्यता वाले इस पत्र की तीन सौ प्रतियाँ छपा करती थीं. जून 1934 में शुरू हुए इस पत्र के सम्पादक थे अब्दुल हाफ़िज़ खान. यह पत्र अपने दृष्टिकोण में मुस्लिम लीग और ज़मींदारों का समर्थक था.
  • जम्हूर-ए-हिंद : बस्ती के पक्का बाज़ार स्थित इंसाफ़ प्रेस से छपने वाला उर्दू साप्ताहिक. तीन रुपए वार्षिक सदस्यता शुल्क वाले इस पत्र की तीन सौ प्रतियाँ छपती थीं. नज़ीरुद्दीन अहमद मीनाई इसके सम्पादक और प्रकाशक थे. यह पत्र अंग्रेज़ी सरकार का समर्थक था. इसका इस्तेमाल डिस्ट्रिक्ट वार बोर्ड द्वारा प्रोपेगेंडा के लिए भी होता था.

 

ग़ाज़ीपुर 

 

वर्ष 1881 की जनगणना के अनुसार ग़ाज़ीपुर में पुरुषों की साक्षरता पाँच फ़ीसदी से भी कम थी और महिलाओं की साक्षरता एक फ़ीसदी भी नहीं थी. इसके पचास साल बाद यानी 1931 में दस फ़ीसदी से कुछ अधिक पुरुष साक्षर थे, जबकि सौ में एक महिला ही साक्षर हो सकी थी.[7] ग़ाज़ीपुर से उर्दू के दो पत्र छपा करते थे, जो साप्ताहिक और मासिक थे. उनका विवरण निम्न है :

     

  • अनीस-ए-हिंद : ग़ाज़ीपुर के अंजुम प्रेस से छपने वाले इस निःशुल्क साप्ताहिक के सम्पादक थे ज़ाकिर हुसैन. वे नाइब-रजिस्ट्रार कानूनगो के पद से सेवानिवृत्त हुए थे. इस पत्र में ग़ाज़ीपुर ज़िले की स्थानीय खबरें प्रमुखता से छपती थीं. नवम्बर 1931 में शुरू हुए इस पत्र की तीन सौ प्रतियाँ छपा करती थीं.
  • एजुकेशनल मैगज़ीन : वर्ष 1907 में इस उर्दू मासिक का प्रकाशन शुरू हुआ. इसके प्रकाशक और सम्पादक थे पांडे राम शरण लाल. इस मासिक पत्र में शिक्षा सम्बन्धी ख़बरें प्रकाशित होती थीं.

 

 

बलिया 

वर्ष 1881 में हुई जनगणना में बलिया में पुरुषों की साक्षरता दर चार फ़ीसदी से कुछ अधिक थी, जबकि महिलाओं में साक्षरता केवल 0.1 फ़ीसदी थी. पचास बरस बाद वर्ष 1931 में साक्षरता की यह दर बढ़कर पुरुषों में 10.6 फ़ीसदी और महिलाओं में 0.9 फ़ीसदी हो गई.[8] बलिया से निकलने वाली एकमात्र उर्दू पत्रिका साप्ताहिक थी. इसका विवरण इस प्रकार है :

  • रफ़ीक : बलिया से प्रकाशित होने वाली उर्दू की इकलौती पत्रिका. इस उर्दू साप्ताहिक का प्रकाशन मुहम्मद रफ़ीक़ आबिद द्वारा किया जाता था, जो बिलासपुर स्थित मदरसा इमदादिया में फ़ारसी के शिक्षक थे. ‘रफ़ीक’ का मुद्रण गोरखपुर के रफ़ीक प्रेस से होता था. इसकी वितरण संख्या तीन सौ थी और इसका सदस्यता शुल्क तीन रुपए सालाना था.

 

 

मिर्ज़ापुर

1881 की जनगणना में मिर्ज़ापुर में पुरुषों के बीच साक्षरता 5.4 फ़ीसदी थी, जोकि प्रांत की औसत साक्षरता दर 4.5 फ़ीसदी से कहीं बेहतर थी. महिलाओं में साक्षरता महज़ 0.16 फ़ीसदी थी. बीस बरस बाद वर्ष 1901 में साक्षरता की यह दर बढ़कर पुरुषों में 7 फ़ीसदी हो गई.[9] मिर्ज़ापुर से निकलने वाला एकमात्र उर्दू पत्र साप्ताहिक था. जिसका विवरण निम्न है :

  • मज़ाक़ : मिर्ज़ापुर में वेलेजलीगंज स्थित जदीद प्रेस से छपने वाले उर्दू साप्ताहिक के सम्पादक और प्रबंधक थे लियाक़त अली सिद्दीक़ी. सितम्बर 1934 में इसका प्रकाशन शुरू हुआ. इसमें व्यावसायिक मसलों पर और ज़मींदारों से जुड़े मुद्दों पर ख़बरें छपती थीं. इसका वार्षिक सदस्यता शुल्क तीन रुपए बारह आने था और इसकी एक हज़ार प्रतियाँ छपा करती थीं.

 

और आख़िर में…

कभी हज़ार-पाँच सौ प्रतियों में छपने वाली ये तमाम पत्रिकाएँ क्यों आज हमारे आर्काइव और लाइब्रेरियों से ग़ायब हैं या साहित्येतिहास और स्थानीय इतिहास से जुड़ी पुस्तकों तक में क्यों इनका उल्लेख भी नहीं मिलता, यह सवाल उठना वाजिब है? यही नहीं सवाल तो ये भी है कि कभी हमारे अपने इलाक़ों से छपने वाली ये पत्रिकाएँ क्यों आज हमारी सामूहिक स्मृति से भी विलोपित हो गईं हैं? क्या यह एक समृद्ध भाषाई अतीत का ‘इरेज़र’ नहीं है? क्या यह सामूहिक विस्मृति (कलेक्टिव एम्नेसिया) का उदाहरण नहीं है, जहाँ लोगों ने अपने भाषाई इतिहास के पूरे अध्याय को ही भुला दिया है? निश्चय ही यह उत्तर भारत के भाषाई इतिहास से जुड़ा एक ऐसा ‘इरेज़र’ है – जिसमें भारतीय राज्य, आर्काइव और लाइब्रेरियाँ, उत्तर भारतीय समाज और यहाँ की अकादमिक दुनिया – सभी बराबर की हिस्सेदार रही हैं.

दारुल मुसन्नेफ़ीन शिबली एकेडमी (आज़मगढ़) से 1916 में प्रकाशित होना शुरू हुई ‘मारिफ़’ को छोड़ दें तो आज शायद ही इनमें से किसी पत्रिका की प्रतियाँ भारत की लाइब्रेरियों या आर्काइव में होंगी. ऐसा क्यों हुआ कि उर्दू, अरबी और फ़ारसी के अभिलेख, दस्तावेज़ और पत्र-पत्रिकाओं के संग्रह का काम रज़ा लाइब्रेरी (रामपुर), ख़ुदा बख़्श ओरिएंटल लाइब्रेरी (पटना) जैसी चंद लाइब्रेरियों के ज़िम्मे छोड़ दिया गया. और राज्य अभिलेखागारों तथा राज्य द्वारा वित्तीय सहयोग पाने वाली लाइब्रेरियों ने उर्दू या अरबी-फ़ारसी के दस्तावेज़ों, पत्र-पत्रिकाओं से मुँह फेर लिया.

यह सब तब हुआ है जबकि उर्दू को 1989 से उत्तर प्रदेश की दूसरी राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है और उर्दू की तरक्की के लिए जनवरी 1972 में ही उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी भी बन चुकी है. मगर जहाँ तक इस इलाक़े में उर्दू की अदबी रिवायत और उसके अतीत को सहेजने-सँजोने की थी, हालात दिन-ब-दिन बदतर ही होते चले गए. आज ज़रूरत इस बात की है कि इन पत्रिकाओं को गुमनामी के अंधेरे से बाहर निकाला जाए और राष्ट्रीय आंदोलन में इनकी भूमिका और इनके अवदान पर व्यवस्थित काम हो.

संदर्भ

[1] देखें, स्टेटमेंट ऑफ़ न्यूज़पेपर्स एंड पीरियाडिकल्स पब्लिश्ड इन द यूनाइटेड प्रोविंसेज़ ड्यूरिंग 1940 (इलाहाबाद : सुप्रिंटेंडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, 1941) [राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली]. लेख में आगे दी गई सूचनाएँ इसी रिपोर्ट पर आधारित हैं.
[2] ईशा बसंती जोशी (संपा.), वाराणसी : : उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर्स (इलाहाबाद : सुप्रिंटेंडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, 1965),  पृ. 310.
[3] बलवंत सिंह (संपा.), आज़मगढ़ : उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर्स (इलाहाबाद : सुप्रिंटेंडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, 1989),  पृ. 225.
[4] ओम प्रकाश (संपा.), गोरखपुर : उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर्स (इलाहाबाद : सुप्रिंटेंडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, 1985),  पृ. 230-31.
[5] एन.एल. गुप्ता (संपा.), जौनपुर : उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर्स (इलाहाबाद : सुप्रिंटेंडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, 1986),  पृ. 233.
[6] कैलाश नारायण पांडे (संपा.), बस्ती : उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर्स (इलाहाबाद : सुप्रिंटेंडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, 1986),  पृ. 205.
[7] डी.पी. वरुण (संपा.), ग़ाज़ीपुर : उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर्स (इलाहाबाद : सुप्रिंटेंडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, 1982),  पृ. 204.
[8] परमानंद मिश्र (संपा.), बलिया : उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर्स (इलाहाबाद : सुप्रिंटेंडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, 1986),  पृ. 197.
[9] परमानंद मिश्र (संपा.), मिर्ज़ापुर : उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर्स (इलाहाबाद : सुप्रिंटेंडेंट प्रिंटिंग एंड स्टेशनरी, 1988),  पृ. 204.

युवा इतिहासकारों में उल्लेखनीय शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.
जवाहरलाल नेहरू और उनके अवदान पर केंद्रित पुस्तक ‘नेहरू का भारत: राज्य, संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण’ (संवाद प्रकाशन, 2024) का सह-सम्पादन किया है.  पत्र पत्रिकाओं में हिंदी अंग्रेजी में लेख  आदि प्रकाशित हैं.

ईमेल : kaushikshubhneet@gmail.com

 

Tags: पूर्वी उत्तर प्रदेश की उर्दू पत्र-पत्रिकाएँशुभनीत कौशिक
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सैयद हसन असकरी और उनका इतिहासलेखन :शुभनीत कौशिक

Comments 5

  1. अजय कुमार मिश्र says:
    4 weeks ago

    बहुत अच्छी जानकारी ,भाई शुभनीत जी . इस भागीरथ प्रयास के लिए हार्दिक बधाई. शिक्षा व्यवस्था के बारे में एक वाक्य जोड़ना चाहूंगा कि आजादी से पहले मिडिल स्कूल की पढ़ाई तक दीगर जुबान के रूप में उर्दू पढ़ना अनिवार्य था और उस समय के अधिकांश पढ़े लिखे लोग न केवल उर्दू भाषा जानते थे बल्कि पढ़ और लिख भी लेते थे. मुझे आश्चर्य इस बात पर हो रहा है कि उस समय इन जिलों में से किसी जिले में किसी हिन्दू कांग्रेसी नेता ने उर्दू में कोई पत्र नहीं निकला सिवाय मौलाना सुलेमान नदवी के . इस पर भी टिप्पणी दें.

    Reply
  2. तेजी ग्रोवर says:
    4 weeks ago

    महत्वपूर्ण आलेख।

    एक अदीबी रिसाला मेरे पिता भी अमृतसर से निकला करते थे। फ़ैज़ और अहमद नदीम क़ासमी जैसे शाइर भी इस रिसाले में छपते थे। नाम था निगारिश।

    Reply
  3. Suhail waheed says:
    4 weeks ago

    Wonderfully written about the Urdu magazines, it should not be confined within the boundaries of some districts.

    Reply
  4. Gopal ji Rai says:
    4 weeks ago

    आईना ए तहजीब साप्ताहिक गाजीपुर से 1882को प्रकाशित होता था।प्रकाशक बाबू शिवप्रसाद और प्रबंधक मोहम्मद यादों शफाक थे।
    गुलकदा शफाक मासिक 1883 में छपती थी

    Reply
  5. Anonymous says:
    3 weeks ago

    मऊ में निखार प्रेस था वहां से एक उर्दू मैगज़ीन निकलती थी जिसका नाम निखार अदब था इसके संपादक बक़ा आज़मी थे। इस के कुछ ख़ास शुमारे निकले थे जिसमें किशन चंदर पर एक शुमारा काफ़ी चर्चित रहा। रेख़्ता पर इसके शुमारों का अवलोकन किया जा सकता है।

    Reply

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