संजीव कुमार
हिंदी में ऐसे लेखक कम हैं जिनकी पाठकों के बीच ज्ञातव्य और ध्यातव्य ‘फ़ैन-फ़ालोइंग’ रही है. ‘पाठक’ कह रहा हूं, ‘आलोचक’ नहीं. पाठक वह जो आस्वाद के लिए पढ़ता है, मूल्यांकन करने या फ़ैसला सुनाने के लिए नहीं. परीक्षा पास करने या उपाधि हासिल करने या कक्षा पढ़ाने या पदोन्नति के साक्षात्कार में अपमानजनक स्थिति से बचने के लिए भी नहीं. हिंदी में इन सारे ‘नहीं’ यों पर खरे उतरने वाले ‘पाठक’ भी हैं, यह सूचना, संभव है, आपमें से बहुतों को आश्चर्यजनक लगे. पर सच जानिए, हैं, और इपंले (इन पंक्तियों का लेखक) भी जब कहीं उनसे मिलता है तो उसी तरह चकित होता है जिस तरह संप्रति आप हो रहे होंगे. हालांकि इपंले को चकित होना नहीं चाहिए, क्योंकि लेखक होने का दावेदार बनने से पहले काफ़ी समय तक वह खुद ऐसा ही पाठक रहा है… पर जिसने हिंदी में स्नातक-स्नातकोत्तर और दर्शन-निष्णात की उपाधि पायी हो और नीम चढ़े करैले की तरह अध्यापन के धंधे में भी हो, उसके बारे में कौन मानेगा यह बात!
न मानिए! पर यह बात तो आपको माननी पड़ेगी कि हिंदी में, थोड़े ही सही, ऐसे पाठक हैं, और इपंले ने उनके होने के बारे में समाजवैज्ञानिक विधि से साक्ष्य भले ही न इकट्ठा किये हों, उन्हें अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना ज़रूर है. (अब मान भी लीजिए! कहीं इपंलेवा दूसरी इंद्रियों का हवाला देने पर उतारू न हो जाए!)
ऐसे पाठकों के बीच जिन हिंदी लेखकों के अपने भक्त-संप्रदाय बन पाये–जैसे, कहानीकार ज्ञानरंजन, उदय प्रकाश, उपन्यासकार रेणु, मनोहर श्याम जोशी, व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई, आलोचक नामवर सिंह इत्यादि–उनमें से काशीनाथ सिंह भी एक हैं. कौन-से वाले? कहानीकार कि उपन्यासकार कि…? नहीं! न कहानीकार, न उपन्यासकार (किसी किताब को उपन्यास कह देने भर से उपन्यास हो जायेगा क्या?); वह है, आंखिन देखी का क़िस्सागो, संस्मरणकार काशीनाथ सिंह. वह काशीनाथ जिसकी त्रिलोचन और धूमिल और रवींद्र कालिया और ज्ञानरंजन जैसे नामीगिरामियों से लेकर अस्सी चैराहे के अनाम-बदनाम हरामियों तक पर लिखी गयी लाइनें लोगों को ज़ुबानी याद हैं. यह काशीनाथ आंखों देखे हाल को क़िस्सागोई वाले अंदाज़ में परोसने की कला का उस्ताद है. अब उसे आप संस्मरण कह लीजिए, रिपोर्ताज कह लीजिए, कथा-संस्मरण कह लीजिए या फिर कथा-रिपोर्ताज. जो भी नाम हो उसका, उसी विधा में उतर कर, आज से कोई बीस-बाइस साल पहले, साहित्य-जगत में काशीनाथ सिंह की भरपूर मदमाती जवानी के दिन शुरू हुए. कौन कहेगा कि जवानी पहले न थी–60 के दशक से ही कहानीकार के रूप में नाम कमाये और जमाये हुए थे–पर वह ऐसी भरपूर और मदमाती न थी जैसी 90 के दशक में हुई.
इपंले जब-जब ‘कहानीकार’ काशीनाथ सिंह के पास जाता है, यह महसूस करता है कि इस कहानीकार का यू.एस.पी. वही है जिसने आगे चलकर उसे विलक्षण संस्मरणकार और अपनी बहुत नज़दीक की दुनिया को बयान करने वाला बेमिसाल ‘कमेंटेटर’ बना दिया. अब आप इसे ‘टिलिआलजी’ कह लीजिए, पर इपंले अपनी स्थापना पर बज़िद है कि इस ‘कहानीकार’ का अंततः अकाल्पनिक गद्यवृत्तों की दिशा में जाना बहुत स्वाभाविक, यहां तक कि नियत था. आखि़र यह कैसे संभव है कि एक क्षमतावान व्यक्ति को कभी भी अपनी ‘कोर’ क्षमता का प्रत्यभिज्ञान, या सही-सही अंदाज़ा, न होने पाये! रेणु और निर्मल वर्मा को शुरू में ही अंदाज़ा हो गया था, इसलिए वे भटके नहीं; मनोहर श्याम जोशी कविता, कहानी और पत्रकारिता के कई घाटों का पानी पीने के बाद उस तरह की क़िस्सागोई में उतरे जो कि उनकी असली फ़ितरत थी; उदय प्रकाश अपनी वास्तविक क्षमता के प्रत्यभिज्ञान से सचेत स्तर पर लगातार आंखें चुराते हुए भी, यानी इस मुग़ालते में रहते हुए कि वे मूलतः कवि हैं, अद्भुत कहानियां लिखते रहे; ऐसे उदाहरण अनेक हैं जहां लेखक को रचनाकार के रूप में अपनी असलियत का बहुत जल्दी पता चल गया और अपने आलोचकत्व को पहचान कर वह दूसरों की रचनाओं पर फ़ैसला सुनाने के धंधे में उतर पड़ा; इपंले जैसे प्रत्यभिज्ञानी भी हैं जिन्हें अपनी आलोचनात्मक क्षमता की असलियत का पता चल चुका है, इसीलिए आलोचना में लालित्य पेल कर रायता फैलाने में लगे हैं.
ग़रज़ कि अंततः हर लेखक खुद को पहचान ही लेता है, इस पहचानने को वह स्वीकार करे चाहे न करे. तो काशीनाथ सिंह ने भी खुद को पहचान लिया. उससे पहले वे लंबे समय तक क़िस्म-क़िस्म की कहानियां लिखते रहे. उतनी क़िस्में उनके दूसरे समकालीनों के यहां शायद ही मिलें. 23 साल की उम्र में जब कहानियां लिखनी शुरू कीं, तभी का नज़ारा देखियेः पहली लिखी हुई कहानी—‘सुख’ (रचना-वर्ष 1960; प्रकाशन-वर्ष 1964) और पहली छपी हुई कहानी—‘संकट’ (रचना-वर्ष और प्रकाशन-वर्ष 1960). दोनों एकदम दो तरह की कहानियां. ‘संकट’ में वे जीयनपुर से काशी तक फैली, अपने प्रत्यक्ष अनुभव वाली दुनिया की ओर मुंह करके बैठे हैं,‘सुख’ में उसकी ओर पीठ देकर वे चिंतनशील, दार्शनिक टाइप के साहित्य-समाज की ओर उन्मुख हैं. जब वे अपने देखे-भाले लोगों की आदतों, बोली-बानी, रंग-ढंग, नाज़ो-अंदाज़, सुख-दुख, उनकी मस्ती और यातना के क्षणों को सामने रख कर कहानी लिखते हैं तो कोई बड़ा सत्य कह जाने की सजगता के साथ नहीं लिखते. अपनी ओर से वे कहानी भर कह रहे होते हैं, किसी महान सत्य की ओर इशारा नहीं कर रहे होते. सत्य–बड़ा या छोटा, महान या साधारण–उसमें खुद-ब-खुद आ जाता है. ‘संकट’ ऐसी ही कहानी है. कमाल के गपोड़पन के साथ कहानीकार फ़ौज के सिपाही राधो के घर आने और पत्नी के जच्चा बनने की वजह से उसका शारीरिक-सुख न उठा पाने के दुख की कहानी कहता है. राधो का भांति-भांति से प्रकट होने वाला क्षोभ, उसके बोलने का ढंग जिसमें फ़ौजी होने का हास्यास्पद आत्मविश्वास मज़ेदार तरीक़े से मौजूद है, अपने दुख को छुपाने और दिखा देने का तनाव–ये सब कहानी में बड़े विश्वसनीय रूप में आते हैं. कहानीकार किसी बड़े सत्य का बयान करने के प्रति गंभीर नहीं है, पर कौन कहेगा कि बिना उसकी गंभीरता के जो सच यहां बयान हो रहा है, वह बड़ा नहीं है!
‘सुख’ एकदम अलग तरह की कहानी है. जैसा कि मैंने कहा, यहां कहानीकार अपने गहरे परिचय वाली दुनिया की ओर पीठ देकर साहित्य-समाज की तरफ़ उन्मुख है. अपना नैसर्गिक गपोड़पन तो वह पूरी तरह छोड़ नहीं पाता, पर एक बड़ा सत्य कह जाने के प्रति पर्याप्त गंभीर है और व्याख्या-उख्या करने में सक्षम दार्शनिक-चिंतक टाइप लोगों को प्रभावित करना चाहता है. ‘सुख’ की सराहना का रिकार्ड बताता है कि उसने प्रभावित कर भी लिया. उसका आखि़री प्रसंग, जहां भोला बाबू भोकार पारके रोने लगते हैं और साथ में उनका पूरा परिवार भी, वह कितना भी अस्वाभाविक हो, अपना लोहा मनवा ले गया. शायद इसलिए कि अस्वाभाविक की व्याख्या करने में जो मज़ा है, वह स्वाभाविक की व्याख्या करने में नहीं! जो सहज विश्वसनीय न लगे, ऐसे प्रसंग को पढ़ कर आप आपत्ति करेंगे कि भाक्, ऐसा भी कहीं होता है! तब व्याख्याकार सामने आयेगा, कहेगा कि नहीं होता, फिर भी कहानीकार ऐसा बता रहा है, इसका मतलब, कोई गहरी बात है. तुम्हें समझ न आई तो लो, मैं बताता हूं. इपंले ने भी ऐसा व्याख्याकार बनने के मज़े खूब लूटे हैं. पर ‘सुख’ को लेकर उसे व्याख्या-कौशल आज़माने का सहज उत्साह महसूस नहीं होता. उसे लगता है, यहां मामला यह नहीं है कि बात गहरी है, मामला यह है कि कहानीकार यहां मुश्किल में पड़ गया है कि एक ज़बर्दस्त ‘आइडिया’ को आगे किस तरफ़ ले जाया जाये. ज़बर्दस्त ‘आइडिया’ यह है कि सेवानिवृत्ति के बाद एक आदमी जीवन और प्रकृति के सुख-सौंदर्य को नये तरीक़े से अन्वेषित कर पाता है, लेकिन इस अन्वेषण का साझा करने के लिए उसे लोग नहीं मिलते, क्योंकि वे उसी तरह जीवन की आपाधापी में मुब्तिला हैं जैसे सेवानिवृत्ति से पहले यह आदमी था. लिहाज़ा, सुख-सौंदर्य का यह अन्वेषण अंदर-ही-अंदर घुटता है और पहले खीझ, फिर अवसाद का कारण बन जाता है. पर अंत की ओर बढ़ते हुए कहानी इस अवसाद को जिस अस्वाभाविक अतिरेक तक ले जाती है, वह इपंले को कहानी और कहानीकार की बड़ी कमज़ोरी लगती है. यह अंत एकदम गढ़ंत है, जैसे कहानीकार को समझ नहीं आ रहा हो कि अब कहानी को कहां ले जाये. जब ऐसा समझ नहीं आता, तभी अतिवादी अंत नियोजित किये जाते हैं. अपने अतिवादी अंत के चलते ‘सुख’ इपंले को उन्माद-अवसाद की आवृत्ति वाले मनोरोग (बाइ-पोलर डिसार्डर) की कहानी प्रतीत होती है. पहले सुख और सौंदर्य की एक अद्भुत-अपूर्व अनुभूति और उसके बाद उतना ही गहरा अवसाद. जिस ज़बर्दस्त ‘आइडिया’ की पीछे चर्चा की गयी थी, उसकी पूरी समृद्धि को यह अंत गड़प कर जाता है, एक ऐसा अंत जो सामान्यतः अस्वाभाविक है और अगर असामान्यतः स्वाभाविक है भी तो एक ‘डिसार्डर’ के रूप में ही. इसीलिए इपंले को लगता है कि अगर वह कोशिश करे भी तो अधिक-से-अधिक एक ऐसे ‘डिसार्डर’ यानी गड़बड़ी की व्याख्या कर पायेगा जिसके लिए परिस्थितियों का घात-प्रतिघात कम ज़िम्मेदार प्रतीत होता है, शारीरिक रसायनों का असंतुलन ज़्यादा.
निस्संदेह, काशीनाथ सिंह की असली ताक़त ‘सुख’ जैसी कहानियों में नहीं छुपी है. वह ‘संकट’ जैसी कहानियों में है जहां अपने आस-पास की ज़िंदगी को खूब बारीक़ी से देखने और उसकी एक-एक चीज़ नोट करने वाला कहानीकार हमारे सामने आता है; जहां व्याख्येय संकेतों और प्रतीकों में फंसने के बजाय वह ज़िंदगी को ऐसे ब्यौरों के साथ चित्रित करता है जिन पर हमने अन्यथा बहुत ग़ौर नहीं फ़रमाया था; जहां वह चैकन्नी रचनात्मक दृष्टि और बहुत उम्दा लेंस वाले कैमरे के साथ अपने लोगों की तस्वीरें उतारता है, आधुनिक पेंटिंग की तरह व्याख्येय किंवा व्याख्यासापेक्ष आकृतियों और रंगों का खेल नहीं खेलता. इस कहानीकार के अंदर ज़िंदगी को अपनी सारी इंद्रियों से छक कर पीने और रम कर/जम कर उसकी तस्वीर उतारने वाला जो चितेरा बैठा है, वह उसी के अंदर के विचारक-चिंतक की बनिस्पत बहुत वज़नी है. इसीलिए इपंले को लगता है कि ‘सूचना’ और ‘लोग बिस्तरों पर’ जैसी कहानियां ‘लाल क़िले के बाज’ और ‘चोट’और ‘पहला प्यार’ और ‘एक लुप्त होती हुई नस्ल’ और ‘कहानी सरायमोहन की’ जैसियों के मुका़बले, और लोककथा वाले अंदाज़ में लिखी गयी ‘सदी का सबसे बड़ा आदमी’ के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरतीं. गली के मुहाने पर पड़ी लाश के सुनहले दांतों में बंधी दफ़्ती पर यह ‘सूचना’, कि ‘कृपया मक्खियां उड़ाने की हिम्मत न करें, वे भूखी हैं’, इपंले को बिल्कुल प्रभावित नहीं कर पाती, जबकि जीयनपुर के दादू और पुराने (‘एक लुप्त होती हुई नस्ल’) का क़िस्सा पढ़ कर वह अभिभूत हो जाता है; उसे लगता है कि उसके अनुभव का दायरा एकाएक थोड़ा फैल गया है. अपने परिवारों के लिए निहायत अनुपयोगी हो चुके दो बूढ़े, जिन्हें अपने घर पर रहते हुए बहुओं-बेटों से रात-दिन ठूंसने, लीलने, पधोरने, भकोसने, हूरने, हगने, छेरने के ताने मिलते रहते हैं, किस तरह साल के अधिकांश समय अपने गांव से बाहर लड़कियों के लिए वर तलाशने के काम में अपनी उपयोगिता ढूंढ़ते हैं और साथ ही घर के तानों व रूखे-सूखे भोजन से अस्थायी मुक्ति भी–इस बीज विचार को अद्भुत कौशल के साथ यहां कहानी में ढाला गया है. करुण के साथ कोई समझौता किये बग़ैर इतने मज़ेदार ढंग से एक कारुणिक कहानी कही जा सकती है, इसका अनुकरणीय नमूना है ‘एक लुप्त होती हुई नस्ल’. ‘सूचना’ और ‘लोग बिस्तरों में’ का विचारवान कथाकार, जो अपने तईं किसी आंदोलन-वांदोलन की प्रतिनिधि कहानी लिख रहा होगा, जीयनपुर से काशी तक फैले चरित्रों और जीवन-प्रसंगों की नब्ज़ थामने वाले विदग्ध क़िस्साग़ो के सामने कहां ठहरता है!
इस प्रसंग में ‘चायघर में मृत्यु’ की याद आना स्वाभाविक है. इस कहानी में अस्तित्ववादी मृत्युबोध से ग्रस्त साहित्यकारों–मुक्तिदूत जी, नचिकेता जी और धूमकेतु जी–की मृत्युसंबंधी विचारवान बातों को सुन कर चायघर में ही बैठा डाकिया ‘क’ उन्हें अपनी एक फूआ की कहानी सुनाता है. एक हवाई सोच को यहां ठेठ गांव-गंवई के एक अनुभव से भिड़ा दिया गया है. हवाई सोच कैसी है?
‘‘मैं जब भी रात में सोता हूं, मुझे लगता है,’’ मुक्तिदूत जी अधखुली पलकों से बोल रहे थे, ‘‘लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि मैं सोए-सोए मर जाऊं. मुझे मृत्यु का अहसास भी न हो और मैं मर जाऊं. और जब भी ऐसा होता है, मैं मारे डर के कांपने लगता हूं और सारी रात जगा रह जाता हूं.’’ मुक्तिदूत जी कहते-कहते कांपने लगे थे.
धूमकेतु जी ने अपनी आंखें सड़क से हटाईं और मुक्तिदूत जी के चेहरे पर गड़ा दीं, ‘‘आप रात को कहते हैं और मैं बताऊं कि हम प्रत्येक क्षण मर रहे हैं. आपने चाय मांगी, वह नहीं आई और आप मर गये. मैं पूछता हूं, क्या आप इस समय ज़िंदा हैं?’’
यह हवाईपन आगे भी जारी रहता है. तब ‘क’ संवाद में उतरता है.
‘‘आपने मौत देखी है?’’ क ने सहसा मुक्तिदूत जी से प्रश्न किया.
सबकी आंखें क की ओर खिंच गईं. कोई नहीं बोला.
क प्रश्न करके चुप हो गये और काफ़ी देर तक चुप रहे.
‘‘अगर देखी होती, तो शायद ऐसी बातें न करते….
फिर वह फूआ की कहानी सुनाता है. फूआ बार-बार मौत के एकदम क़रीब चली जातीं, यहां तक कि लोग रोने-धोने लगते, दाह-संस्कार का इंतज़ाम करने लगते, और तब वे ज़िंदा हो उठतीं. बाद में ऐसा होने पर लोगों ने रोना-धोना तो दूर, आना-जाना भी बंद कर दिया. ‘‘लोगों का कहना था कि फूआ मरतीं नहीं, सबको तंग करने में मज़ा लेती हैं.’’ फूआ अक्सर विचार करतीं कि अब उन्हें मर ही जाना चाहिए, लेकिन कभी खेत में खड़ी अधपकी फसलों को देख कर सोचतीं कि जब ये पक कर खलिहान में पहुंच जाएं, तब मरना ठीक होगा; कभी घर की किसी गर्भवती बहू को देख कर सोचतीं कि अभी मर जाऊं तो लोग कहेंगे बच्चा पालने के डर से मर गयी, इत्यादि. अंततः जब वे मरीं, ‘‘मैंने उस क्षण फूआ के चेहरे पर जीने की भूख देखी थी. मैं जानता हूं, मरने से पहले उन्हें फसलें याद आई होंगी–मटर और छीमियां, चने के होरहे, गेहूं की उम्मियां, होली का त्योहार, सतुआन की एकादशी–बहुत कुछ याद आया होगा और उन्होंने चार महीने और जी लेने की इच्छा की होगी. केवल चार महीने….’’ दाह-संस्कार के लिए लोग उन्हें लेकर चले तो लगातार सशंकित थे कि पता नहीं, कब वे उठ बैठें. इन आशंकाओं के बीच किसी तरह उनका दाह-संस्कार हो गया और ‘क’ को लगता रहा कि जिसे जलाया गया, वह लाश नहीं थी.
‘क’ से काशीनाथ. ‘चायघर में मृत्यु’ का ‘क’ एकदम काशीनाथ है जो हवाई चिंतन-मुद्रा को ठोस और ठेठ गंवई जीवनानुभव से भिड़ा कर उसका खोखलापन उजागर कर देता है. कहानीकार जैसे यहां अपनी असली ताक़त की निर्भ्रान्त पहचान कर रहा है. शायद उसे यह अहसास भी है कि ये मुक्तिदूत जी, धूमकेतु जी और नचिकेता जी थोड़े बदले हुए तेवर के साथ कहीं-न-कहीं उसके अंदर भी हैं. इस तरह एक स्तर पर यह कहानी काशीनाथ सिंह के अपने रचना-संसार का रूपक बन जाती है–वह रचना-संसार जहां साहित्य और विचार की दुनिया से हासिल की गयी संवेदनाएं अपने आसपास धड़कती ज़िंदगी से हासिल संवेदनाओं के मुक़ाबले बहुत कमतर, यहां तक कि नक़ली ठहरती हैं; जहां अख़बार में ‘‘गल्ले का भाव’’ पढ़ कर दुःखी होने वाला ‘क’, ‘‘कामू सूंघते, काफ़्का फांकते, कविता खांसते, कहानियां कांखते’’ नचिकेताओं और धूमकेतुओं पर बहुत भारी पड़ता है.
‘दलदल’ शीर्षक कहानी में वाचक शायद इसी ‘क’ के पक्ष को बहुत स्पष्ट शब्दों में रख रहा होता है जब वह कहता हैः ‘‘कोई कैसे बता सकता है कि चीज़ों को देखने का यह ढंग है, यह नहीं. लेकिन जहां तक मैं सोचता हूं–चीज़ों को वहां से देखो, जहां तुम्हारे पैर हों. जहां उन्होंने खड़ा होने के लिए अपनी जड़ें मज़बूत जमा ली हों.’’ इसके साथ-साथ त्रिलोचन पर लिखे गये संस्मरण के ये वाक्य भी मिला दें तो बात मुकम्मिल होती हैः ‘‘देखना एक कठिन क्रिया है. देखने का अर्थ है आंखों के रास्ते उस आदमी के दिल तक पहुंच जाना, उसके दिमाग़ के कोने-अंतरे तक झांक आना, उसकी आंतों में चक्कर लगा आना.’’
यह चीज़, जिसे इपंले ने काशीनाथ सिंह का यू.एस.पी. कहा है, घलुए में नहीं मिल जाती–कि साहब, ज़िंदगी का छकके तज़ुर्बा कीजिए, कहानी का माल तो अपने-आप निकल आयेगा. नहीं. इसके लिए अपनी इंद्रियों के प्रत्यक्ष संपर्क में आने वाले जनजीवन के पीछे उसी तरह पड़ना पड़ता है जैसे किसी गिलहरी का पीछा करते-करते जिज्ञासु बच्चा पूरा उपवन छान मारता है, यह देखने के लिए वह कैसे चलती है, कैसे बैठती है, क्या खाती है, कहां जाती है, कैसे सोती है इत्यादि. काशीनाथ उसी जिज्ञासु बच्चे की तरह ज़िंदगी के पीछे पड़े रहे हैं, टकटकी लगा कर चीज़ों को देखते और कान चुनिया कर गप्पें सुनते रहे हैं, उस सब को नोट भी किया है, तब जाकर यह समृद्धि संभव हुई है. इपंले को कभी-कभी लगता है कि उनकी कहानियों में आने वाली ज़्यादातर चीज़ें सीधे-सीधे उनकी देखी-सुनी हुई हैं. यानी कहानियां भी एक तरह का संस्मरण या अकाल्पनिक गद्यवृत्त ही हैं. उनके अंदर का रचनाकार इन विधाओं को बहुत अलग-अलग करके नहीं देखता रहा है. तभी तो अस्सी का आंखों देखा हाल लिख कर वह उसे कभी कहानी, कभी कथा-रिपोर्ताज और कभी उपन्यास कहता रहा. की फ़रक पैंदा? यह रचनाकार जानता है कि बिना कल्पनाशीलता के संस्मरण नहीं बनते और बिना देखे-सुने तथ्य के कहानियां नहीं बनतीं. तो फिर असली अंतर तो इसी बात का रह जाता है ना कि आप उसके कहानी होने का दावा करते हैं या संस्मरण होने का!
यहां इपंले काशीनाथ सिंह की एक कहानी और उनके ही एक संस्मरण में आये समान प्रसंगों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता है. कहानी 1978 की है, ‘अधूरा आदमी’, और संस्मरण है 1990 का, ‘जी ही जाने है आह मत पूछो’. ‘अधूरा आदमी’ का केंद्रीय चरित्र है ज्वान, और जिस संस्मरण का ज़िक्र किया गया, वह धूमिल पर है. पहले ‘अधूरा आदमी’का थोड़ा लंबा उद्धरणः
उसका मूड ठीक करने के इरादे से मैं उसे फ़िल्म दिखाने ले गया–नाम था ‘वक़्त’.
किसी स्थल पर मेरे मुंह से निकला, ‘‘ज़रा यह लड़की तो देखना, कितनी अच्छी है?’’
‘‘क्या मैं कोई चमार हूं कि बैठे-बैठे चमड़ी की तारीफ़ करूं?’’ उसने झल्ला कर कहा.
मैं चुप हो गया.
‘‘निहायत वाहियात,’’ मध्यान्तर से पहले ही वह उखड़ गया, ‘‘देश में इतनी अधिक समस्याएं हैं और एक भी इसमें नहीं. सेठों की मोटी-मोटी लड़कियां हैं साली, जो छाती उघार कर और जांघें खोल कर प्यार करती हैं…. इससे अच्छी तो कहीं ‘मुहब्बत और जंग’ थी जो कोई बात तो कहती थी, भले ही उसका सारा विद्रोह और क्रांति बारह स्क्वायर फीट में ही होता हो. चलो बाहर चलें.’’
हम चुपचाप चलते रहे कि फुटपाथ पर एक लड़का ‘कम्युनिज़्म’ विरोधी किताबें बेचता हुआ दिखाई पड़ा. उसने एक दफ़्ती पर लिख कर टांग रखा था, ‘‘यहां बिकने वाली किताबें कम्युनिज़्म विरोधी हैं. हर किताब की क़ीमत पंद्रह पैसे.’’
वहां टोपी लगाये हुए एक सज्जन खड़े थे और कोई किताब पलट रहे थे.
‘‘इस किताब की क़ीमत!’’ ज्वान ने एक मोटी-सी किताब उठा ली.
‘‘पंद्रह पैसे,’’ लड़का बोला.
ज्वान किताब फेंकते हुए बोला, ‘‘और तुम्हारी क़ीमत?’’
लड़का हें-हें करने लगा.
टोपी वाले सज्जन ने घूर कर ज्वान को देखा, साठ पैसे फेंके और चार किताबें उठा लीं.
‘‘सिर के इन बिचारे बालों को क्या मालूम कि इस टोपी के नीचे कितने अपराध तह-तह करके रखे हैं,’’ ज्वान ने अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कहा.
(‘अधूरा आदमी’, कहनी उपखान, 2003, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 187-88)
अब 1990 में धूमिल पर लिखे गये संस्मरण के इन अंशों को देखें:
एक बार ऋषिकेश में हम दोनों अलकनंदा के तट पर बैठे थे कि सामने से एक गोरी-चिट्टी बेहद खूबसूरत लड़की आती हुई नज़र आई. मैंने धूमिल से कहा–‘वह लड़की देखो, कितनी खूबसूरत है.’
उसने बिगड़ कर कहा–‘तुम्हीं देखो. क्या मैं चमार हूं कि बैठे-बैठे चमड़ी की तारीफ़ करूं?’ (‘जी ही जाने है आह मत पूछो’, याद हो कि न याद हो, 2009 (1992), राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 87)
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धूमिल जब कभी कचहरी से लौटता, वहां की किसी-न-किसी घटना का बयान ज़रूर करता–
—कचहरी के पास एक लड़का कम्युनिस्ट विरोधी किताबें बेंचता है. उसने वहां दफ़्ती पर लिख कर टांग दिया है–यहां बिकने वाली किताबें कम्युनिस्ट विरोधी हैं.
और बेचने वाला यह आदमी? मैंने उसी से पूछा.
वह हें-हें करने लगा.
मैंने उसे देखा और कहा–यह लो पंद्रह पैसे और इसकी एक किताब दो. लेकिन ये पैसे तुम्हारी किताब के नहीं, ‘हें-हें’ के दे रहा हूं. (वही, पृ. 90)
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वक़्त’ देखने के बाद जब बाहर निकले तो बोला–‘निहायत वाहियात. देश में इतनी समस्याएं हैं और उनमें से एक भी इसमें नहीं. सेठों की मोटी-मोटी लड़कियां हैं साली, जो छाती उभार कर और जांघें उघार कर प्रेम करती हैं. इससे तो कहीं अच्छी ‘मुहब्बत और जंग’ जो कोई बात तो कहती है, भले ही उसका सारा विद्रोह और क्रांति बारह स्क्वायर फीट में ही होता है.’ (वही, पृ. 94)
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वह बतियाते समय भी सूक्तियां बोला करता था–कभी सार्थक, कभी निरर्थक, मगर हमेशा उत्तेजक. जैसे–
एक कांग्रेसी को देख कर–सिर के इन बालों को क्या मालूम कि इस टोपी के नीचे कितने अपराध तह किए हुए रखे हैं. (वही, पृ. 96)
‘अधूरा आदमी’ के ज्वान और ‘जी ही जाने है आह मत पूछो’ के धूमिल में यह समानता क्यों? कहानी पहले लिखी गयी, संस्मरण बाद में. तो क्या कल्पना का माल वास्तविक चरित्र पर चस्पां कर दिया गया? नहीं. संस्मरण भले ही बाद में लिखा गया हो, उसमें आई हुई चीज़ें तो पहले ही दिमाग़ के किसी हिस्से में या किसी नोटबुक में दर्ज करके रख ली गई थीं. वहां से वे पहले कहानी में गईं और बाद में धूमिल पर लिखते हुए उसमें भी शामिल की गईं, क्योंकि सचमुच में तो यह सब धूमिल के साथ ही घटित हुआ था.
इसीलिए इपंले ने कहा कि अपने परिवेश में मौजूद ज़िंदगी के पीछे पड़ कर उसकी एक-एक चीज़ को कहीं दर्ज करते जाना काशीनाथ सिंह का बुनियादी स्वभाव और शगल है. इसी ने उनकी कहानियों में वह चीज़ पैदा की जो उन्हें साठोत्तरी पीढ़ी के दूसरे कहानीकारों से अलग करती है और इसी ने उन्हें अंततः एक बेमिसाल संस्मरणकार और फिर कहानी, संस्मरण, रिपोर्ताज इत्यादि को फेंट-फांट कर बनाई गई एक अनोखी विधा का जनक बनाया. उन्हें किसी चरण में यह महसूस होना ही था कि कहानी के साथ उनकी ‘‘बोलचाल बंद-सी हो रही’’ है--उसके ‘‘छंद के कारण, उसकी सख़्ती ओर अनुशासन के कारण, इस कारण कि वह मुझे जीवन के समूचे उल्लास के साथ खुल कर खेलने का मौक़ा नहीं दे रही..’’ (‘मित्रों से’, याद हो कि न याद हो). उन्हें एक ऐसी विधा चाहिए थी जो उनके पूरे खज़ाने को भरपूर इस्तेमाल करने का अवसर और अवकाश दे. पहले संस्मरण के रूप में उन्होंने उस विधा की पहचान की, लेकिन संकलन बनाने का समय आते-आते — तब तक यह लेखन पत्रिकाओं में आकर ख़ासा चर्चित हो चला था –- पसोपेश में पड़ गये. लिखा,
‘‘आपमें से कइयों ने मुझसे कहा कि ये ‘संस्मरण’ नहीं हैं, ‘रिपोर्ताज’ या रेखाचित्र भी नहीं हैं, क्योंकि इनमें जीवन का उल्लास है; मगर ये कहानियां भी नहीं हैं, क्योंकि इनके पात्र परिचित,विशिष्ट और विख्यात हैं. तो इन्हें इन सबका घोल कहें क्या? मुझे खुद नहीं मालूम कि ऐसी रचना को क्या कहना चाहिए जिसमें पात्र और घटनाएं ही नहीं, उनके समय और संवाद भी इतने सच हों कि उनके आगे कहानियां बेमज़ा और झूठी पड़ जाएं! मगर साहित्यिक हलक़े में नज़र आने वाले किसी अनजान चेहरे को नाम देना या उसके नाम से जानना ज़रूरी है क्या? अगर हो, और यह काम मुझे ही करना पड़े तो आप और आलोचक किसलिए हैं?’’ (‘मित्रों से’, याद हो कि न याद हो)
आलोचकों ने यह काम नहीं किया. (इपंले की भी–जो खुद को ‘आलोचकों’ में नहीं गिनता, ‘आप’ में भले ही गिन ले–ऐसा कर गुजरने की कोई साध नहीं है.) लिहाज़ा काशीनाथ मन मार कर मनमानी करते रहे. और उपाय भी क्या था! ठीक-ठिकाने की एक जातिवाचक संज्ञा के बगैर आप साहित्यिक हल्के में चीज़ों को उतार दें तो उनके खो-बिला जाने का वास्तविक ख़तरा रहता है. नगेंद्र द्वारा संपादित हिंदी साहित्य का इतिहास देखें तो छह-सात सौ पृष्ठों की उस किताब (भुसकोल विद्यार्थी का बस्ता मोटा?)में आपको बिल्लेसुर बकरिहा जैसी अद्भुत कृति का कहीं नाम नहीं मिलेगा. क्या कारण हो सकता है? यही कि विधा के मामले में यह रचना गफ़लत में पड़ी रही है. तो छायावादोत्तर उपन्यास पर लिखने वाले ने उसे अन्य गद्य विधाओं के खाते में मान लिया और छायावादोत्तर अन्य गद्य विधाओं पर लिखने वाले ने सोचा कि उपन्यास वाले ने ज़िक्र कर दिया होगा. इस चक्कर में बिल्लेसुर महाराज इतिहास से ही बाहर हो गये.
इसलिए अस्सी के काशी की मनमानी एकदम वाजिब है. ‘देख तमाशा लकड़ी का’ को उन्होंने पहले ‘याद हो कि न याद हो’ में संकलित कर दिया, जो कि प्रकाशन के ब्यौरों के अनुसार ‘मेम्वायर्स’ में आता है. फिर ‘काशी का अस्सी’ में उसे शामिल किया, जिसके बारे में उनका दावा उपन्यास का है. ‘पांडे कौन कुमति तोहें लागी’ काशी का अस्सी शीर्षक उपन्यास का एक अध्याय है और नेशनल बुक ट्रस्ट से छपी ‘काशीनाथ सिंहः संकलित कहानियां’ में बतौर कहानी भी है. ध्यान रखें कि यह संकलन 2008 में छपा है, अस्सी के छपने के बाद और जहां तक मेरी जानकारी है, इस शृंखला में छपी किताबों में अपनी रचनाओं का चयन लेखकों का खुद का किया हुआ है. यानी उसे अस्सी के साथ-साथ कहानियों में भी शुमार करना खुद काशीनाथ सिंह का किया-धरा है. यह भी ध्यान रखें कि 2003 में काशीनाथ जी की संपूर्ण कहानियों का संग्रह ‘कहनी उपखान’ प्रकाशित हुआ था. उसमें ‘पांडे़…’ को शामिल नहीं किया गया था. 2003 में उसे कहानी कहने का आइडिया नहीं आया था, 2008 में आया. क्या दिक़्क़त है? रचनाकार तो आइडिया का गुलाम होता ही है!
यानी कुल मिला कर बाबू साहब ने अच्छा घोर-मट्ठा मचा रखा है. और मचाना ही चाहिए. ऐसा घोर-मट्ठा पुरानी विधागत श्रेणियों की जगह नयी श्रेणियों का अकादमिक निर्धारण होने की पूर्वसंध्या पर मचता है. इसीलिए स्वागतयोग्य है. और यह भी याद रखें कि ऐसा घोर-मट्ठा वही मचाता है जिसके पास अपने तरह की विलक्षणता होती है. यहां ज.ने.वि. की संगोष्ठी में कही हुई काशीनाथ जी की एक बात याद आती है. ‘रेहन पर रग्घू’ के बारे में बोले कि वह तो उन्होंने बस यह दिखाने के लिए लिखा था कि जिस तरह का और लोग लिखते हैं, वैसा भी लिख सकता हूं. ऐसा नहीं है कि चले आते साहित्यरूपों पर से पकड़ छूट गयी है इसलिए संस्मरण वग़ैरा लिख रहा हूं.
अपनी चर्चित हो रही कृति के बारे में इस तरह की अनासक्त टिप्पणी करना (साहित्य अकादमी पुरस्कार घोषित होने के बाद भी उन्होंने मिलती-जुलती बात कही थी) काशीनाथ सिंह के ही बस की बात है, यानी ऐसे आदमी के बस की बात जो व्युत्पत्ति और अभ्यास की लंबी प्रक्रिया से गुज़र कर अपनी प्रतिभा के विलक्षण पहलू की पहचान कर चुका है और उस पहलू की छाप जिन रचनाओं पर नहीं है, उन्हें खुद ही औसत रचनाशीलता का उदाहरण मानने में सबसे आगे है.
वह पहलू है, अपने प्रत्यक्ष संपर्क में आई दुनिया को उन सारे ब्यौरों के साथ पकड़ना जो हमारे औसत अवलोकन से छूट जाते हैं, और उस बेलौस गपोड़पन के साथ बयान करना जिसके लिए स्थापित साहित्य-विधाओं की रूपात्मक शर्तें हर समय इजाज़त नहीं देतीं.
ऐसी प्रतिभा विधाओं की स्थापित रीति-नीतियों पर बदचलन ठहराये जाने के लिए तो अभिशप्त होती ही है. पर क्या इस तरह की बदचलनी से ही रीति-नीतियों और रस्मो-रिवाजों की पुनर्परिभाषा का दौर शुरू नहीं होता? (‘बदचलनी’ के इस सारगर्भित इस्तेमाल के लिए इपंले अपने दोस्त रविकांत का ऋणी है जिसने कभी यह अमर वाक्य कहा था, ‘भाषाएँ बदचलनी से ही विकसित होती हैं’.)
संजीव कुमार, नवम्बर 1967, पटना
बहुत अलग-अलग तरह के मुद्दों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कई निबंध-टिप्पणियां प्रकाशित.
एक आलोचना-पुस्तक ‘जैनेन्द्र और अज्ञेय: सृजन का सैद्धांतिक नेपथ्य’ प्रकाशित, जिस पर 2011 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान मिला;
2013 में प्रकाशित ‘तीन सौ रामायणें एवं अन्य निबंध / ए.के.रामानुजन का आलेख: विवाद और विमर्श’ पुस्तक का संपादन
वसुधा डालमिया के साथ सह-संपादन में भारतेंदुद्वारा निकाली गई हिंदी की पहली स्त्री-पत्रिका ‘बालाबोधिनी’ की पूरी फ़ाइल एक ज़िल्द में शीघ्र प्रकाश्य;
‘सारिका’, ‘कथादेश’ और ‘बनास जन’ में कहानियां प्रकाशित; पिछले पांच सालों से जलेस केंद्र की पत्रिका ‘नया पथ’ के संपादन से संबद्ध.
संप्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कालेज में अध्यापन.