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सबद – भेद : विज्ञापन में स्त्रियाँ : राकेश बाजिया
विज्ञापनों ने हमारे आस-पास अपनी चमकीली चुस्त दुनिया का एक घेरा बना लिया है. हम उसमें चाहते न चाहते हुए भी रहते हैं. सुबह के अख़बार से शुरू होकर देर रात टी.वी. बंद होने तक हम इसके नागरिक हैं. हमारे वास्तविक समाज के बरक्स इस दुनिया में स्त्रियाँ पर्याप्त रूप से अपने को रेखांकित कर […]
विज्ञापनों ने हमारे आस-पास अपनी चमकीली चुस्त दुनिया का एक घेरा बना लिया है. हम उसमें चाहते न चाहते हुए भी रहते हैं. सुबह के अख़बार से शुरू होकर देर रात टी.वी. बंद होने तक हम इसके नागरिक हैं. हमारे वास्तविक समाज के बरक्स इस दुनिया में स्त्रियाँ पर्याप्त रूप से अपने को रेखांकित कर रही हैं. इस लेख में इस छवि की देखा परखा गया है. क्या यह पारम्परिक छबियां ही हैं ? ऐसे ढेर सारे प्रश्नों से यह आलेख उलझता है. राकेश बाजिया इसी विषय पर शोध कार्य कर रहे हैं.
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विज्ञापन में स्त्री छवि की पड़ताल
राकेश बाजिया
आज सर्वाधिक रचनात्मकता की आवश्यकता मीडिया में विज्ञापन केक्षेत्र में होती है.प्रतिस्पर्धाकेइस दौर में बहुतकम समय मेंउपभोक्ता केमन पर गहरी छापछोड़ने की अपेक्षा विज्ञापन से की जाती है.औरविज्ञापन यह कामबखूबी करता है.आज विज्ञापनों में स्त्री की एक बहुत बड़ीभूमिका है.भूमंडलीकरण के दौर में जहाँबाजार सीधा महिलाओं के जरिये उपभोक्ताओं को लक्ष्य बनाता है.ऐसे में देखने वाली बात यह है की इनविज्ञापनों में स्त्री की छवि को किस रूप में प्रसारित किया जा रहा है.क्या स्त्रियाँ इनके माध्यम से अपनी परम्परागत छवियों से बाहर आ रही हैं ? या वास्तव में माँ ,पत्नी, और ग्रहिणी की परम्परागत छविइनके माध्यम से औरपुख्ता हो रही है? एक तरफ जहाँ सामंती अवशेष बचे हुए हैंवहां वाकई आज भीस्त्री का शोषण हो रहा है, वहीं वैश्वीकरण के दौर में जो स्त्रियाँ घरोंसे बाहर निकल कर काम कर रही हैं , जिन्हें सशक्त माना जा रहा है, साथ हीदावे किये जा रहे हैं की ‘वह बाजार को नचानेका सामर्थ्य रखती है, भले हीलगता हो की बाजार उसे नचा रहा है’ क्या वाकईवो अपनी कीमत खुद तय कर पारही हैं ? ब्रांड का प्रचार कर अधिकाधिक मुनाफे का लक्ष्य रखने वालेविज्ञापनों में क्या स्त्री छवि केवल बाहयप्रोडक्ट है ? यदि पुरुषों केउत्पादों से सम्बंधित विज्ञापनों में स्त्री की उपस्थिति नितांत अनिवार्यहै, तो कितने ऐसे स्त्री उत्पादोंके विज्ञापन हैं जहाँ पुरुष की भी सहजउपस्थिति हो ? आज भी हमारा समाज पुरुषों की अभिरुचियों को ही प्राथमिकतादेता हैक्यों ? ऐसे में विज्ञापन जो व्यक्ति के मन मस्तिष्क मेंसशक्त छाप छोड़ते हैं क्या स्त्रियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव नहीं बनाते ?
हालाँकि मीडियापुरुष को भी नहीं बख्सता जरूरत पड़ने पर ये उसकेभी कपडे उतरवाने में गुरेज नहीं करता, वरना ‘सर्वाधिक बिकने वाली चीज़ोंमें सेक्स और शाहरुख़’ ही क्यों होते ? आखिर किसी पुरुष का मजबूत (स्ट्रोंग) होना कहाँतक जरूरी है ? यदि वास्तव में इसके लिए उसपर दबाव है तो क्या उसे भी इस \”फेमिनिन\” खेमे में नहीं आ जाना चाहिए ? क्यों सेक्स की शुरुआत मर्द ही करसकता है ? औरत करे तो वह चरित्रहीन क्यों हो जाती है ? क्या बलात्कार का भयदिखाकर उसे घर में फिर से कैद करने की मंशा तो नहीं ?
यदि १९२०के विज्ञापन पर नजर डाली जाये तो पता चलता है कीउस समय उत्पाद से कहीं ज्यादा कंज्यूमर का महत्व होता था.फिर चाहे वहचोकलेट का विज्ञापन हो या परफ्यूम का.पर तभी अमेरिका में \’वार ओन फेट\’ शुरू होता है, इससे पहले ढीले ढले कपडे पहने जाते थे, ये सेक्सी वाली इमेजतब नहीं थी. १९३० तक अमेरिकी विज्ञापनों का स्तर बहुत ठीक था क्योकि वहअपने क्न्ज्युमरों को खुश रखने का प्रयास हमेशा करता था पर धीरे-धीरेविज्ञापन का स्तर बहुत कुछ गिरने लगा.और इसका कोई विरोध कंज्यूमर नेंनहीं किया जिसके फलस्वरूप यह और गिरता चला गया.१९४० में जब अमेरिका गृहयुद्धोंसे जूझ रहा था, तब वहां स्त्रियाँ बिलकुल अलग ढंग से विज्ञापनमें नज़र आनें लगीं थीं.जहाँ उसकी छवियों में भी परस्पर विरोधाभास था.एकतरफ वह मसालेदार जायकेदार खाने की बात कर रही थी तो दूसरी और देश की, जिसके लिए उसे खाने की कोई परवाह नहीं.१९५० में ज्यादातर विज्ञापन दैनिकजीवन में उपयोगी वस्तुओं के आनें लगे और अधिकतर विज्ञापनों में स्त्री कीपारम्परिक छवियों को दिखाया गया.उसे कमजोर सीधी-साधी घरेलू स्त्री के रूपमें प्रदर्शित किया गया हमारे यहाँ के हाजमोला आदि के पुराने विज्ञापनोंमें इन छवियों कोदेखा जा सकता है. १९६० में औरतों के पास बहुत सरेसोंदर्य प्रसाधन विज्ञापनों के माध्यम से आने लगे, और यही वह पायदान थाजहाँसे कंज्यूमर के शोषण की शुरुआत हुई. यहाँ उन्हें बताया जाने लगा कीतुम्हें सेक्सी और ज्यादा सेक्सी दिखना है, इस दिखने की होड़ में देखते ही देखते घरेलू स्त्रियों की छवियाँ धीरे-धीरे गायब होने लगीं.अब कंज्यूमरको सेक्स, पावर इन सब की और धकेला गया.इसी धकमपेल में विज्ञापन करने वालीस्त्री खुद कब विज्ञापित होने लगी उसे पता ही नहीं चला.अन्डरगारमेंट सेलेकर तमाम सोंदर्य प्रसाधनों की जैसे बाढ़ सी आ गयी.
१९७० के दौर में कंज्यूमर के सम्बन्ध में एक नयी चीज़ सामनेआई की विभिन्न छवियों के बीच में जो सबसे महत्वपूर्ण छवि है वह है गोरीत्वचा और उसमें भी सफलता और कामुकता के मिले जुले रूप को तवज्जो दी गयी.अपने यहाँके एक क्रीम केविज्ञापन में इसे हम देख सकते हैं जिसमे एकपिंक व्हाइट लड़की इसलिए छोड़ दी जाती है, क्योंकि वह व्हाइट नहीं है.क्रीम के इस्तेमाल से कुछ हुआ हो या नहीं पर लोगों की मानसिकतामें व्हाइटऔर पिंक व्हाइट काफर्क जरूरडालदिया गया है. यहऔर बात है की पिंक व्हाइट लड़की के किरदार में कोई और नहीं बल्कि विश्व सुंदरी रह चुकी एक भारतीयअभिनेत्री है.
१९८० के दौर में स्त्रियाँ स्वतंत्ररूप से अकेली तो रहने लगीं, पर इस समय सुन्दरता औरत के लिए एक अर्हता बन गयी.जिस तरह आदमी को धन से आँका जाता था औरत को सुन्दरता से आँका जाने लगा.१९९० के आसपास समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत कुछ बदल गयी थी , जिसमे हरतरह की प्रतिभा रखने वाली स्त्रियाँ आगे थीं.पर विज्ञापन जगत में अभी भीवही गोरी और पतली स्त्रीदिखाई दे रही थी. और तभी भारत एम. टीवी ,चेनलवी ,और वर्ल्ड वाइड वेब द्वारा दुनिया से जुड़ता है तो देखने वाली स्थितिबनती है ,स्वयं को लेंगिक रूप से तटस्थ बताने वाला बाज़ार इसके जरिये घर घरमें पहुँच जाता है, और लोगों को बताता है की अगर आप डीओ नहीं लगाते तो आपआउटडेटेड हैं, आपको काला नहीं गोरा दिखना है. फलांकम्पनी के जूते पहन कर आपकंही भी चढ़ सकते हैं, एक ड्रिंक पीकर आप वहां से वापस कूद सकते हैं, हैप्पीडेंटव्हाइट चबा कर आप अपनी बिजली का कनेक्सन कटवा सकते हैं.इन सब केसाथसामाजिक सन्देश देने वाले विज्ञापनों में ‘हम दो हमारे दो’ सेशुरू हुआ परिवार नियोजन का मुहावरा ‘हम दो हमारे एक’पर आकर एकाएक रुकजाता है, हो सकता है आज उसकी जरूरत ही नहीं रही हो क्योकि सबसे बड़ा बाजारजो यहाँ तैयार हो रहा है, आज बाजार के सबसे सॉफ्ट टारगेट स्त्रियाँ औरबच्चे हैं.जिनके जरिये वो सीधा उपभोक्ताओं को लक्ष्य बनता है, घर में सबकुछ स्त्री देखती है, साफ़-सफाईके विज्ञापन में तो हम देखते हैं की पुरुषउसे बताता है की तुम फला साधारण डिटरजेंट या साबुन इस्तेमाल करती हो तुम्हे ये करना चाहिए,इस तरह पुरुष उसकी बुद्धिमतापरभी सवाल उठाताहै.आज जिस तरह की छवियाँ हमे दिखायीं जा रहीं हैं उनमें स्त्री बच्चों कोसम्भालने के साथ पति की सेहत का ख्याल भी वह यह कहकर करती है\’आखिर मेरेदोनों बच्चों का ख्याल भी तो मुझे ही रखना पड़ता है\’ अब देखने वाली बात यहहै की इससे कहीं स्त्री की माँ ,पत्नी और ग्रहिणी वाली छवि पुख्ता तोनहीं हो रही ?
भारत की विज्ञापन इंडस्ट्री२०१६ दुनियाकी तीसरी सबसे बड़ी विज्ञापनइंडस्ट्री बनने जा रही है.ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं.जापान ११.५ औरचीन १४.७ के बादभारत का ५.७ बिलियन डॉलर का कारोबार होने का अनुमानहै.देखा जाये तो आज अम्बानी, आडवानी या अरमानी किसी का भी काम बिना विज्ञापनके नहीं चल सकता.आज भारत में सभी भाषाओं के ७००से अधिक टीवी चैनल हैं.और विज्ञापन से सम्बंधित नियंत्रण के लिए एसोसिएसनऑफ़ एडवर्टईजिंगस्टैण्डर्ड काउन्सिल ऑफ़ इंडिया जैसी संस्था भी है.साथ ही सी. सी. सी. (कंज्यूमर कम्प्लेन कमेठी ) जैसी स्वतंत्रसंस्थाएं भी अस्तित्वमानहैं.
इतना सब होने के बावजूद भी आज विज्ञापनों में बहुतबड़ी भूमिकानिभाने वाली स्त्री के हितो की अनदेखी हो रही है.उन्हें विज्ञापन केजरिये चाहे जैसे परोसाजा रहा है.गुड मोर्निंग से लेकर गुड नाईट तक हरकिसी उत्पाद में वो है. यहाँ सहज रूप से उपरोक्त दूसरे प्रश्न से रूबरू होना पड़ेगा,क्या मुनाफे के लिए सिर्फ बने विज्ञापनों मेंस्त्री – छवि केवल बाईप्रोडक्ट है ?उसकी जूझती हुई छवि क्यूँ नहीं दिखाईदेती हमेशा मिथ्या चेतना को ही क्यों प्रसारित किया जाता है ?
यदिपुरुषों के उत्पादों में उसकी उपस्थिति नितांत आवश्यक है, तो जाहिर हैस्त्री के उत्पादों वाले विज्ञापनों में भी पुरुष की सहज उपस्थिति होनीचाहिए जो ढूँढने पर भी एक आधेविज्ञापन में मिलती है वो भी पिता की छविमें गोण सी जहाँ-तहां. एक विज्ञापन लीजिये -आयुर्वेद के खजाने से५००० साल पुराना निखारका फार्मूला निकालकर जब पिता बेटी को सौन्दर्यप्रतिस्पर्धा के लिए भेजता है, तो हर कोई बोल उठता है – हाऊचेंज? ये है आयुर्वेद की शक्ति! ये बात और है की बेटी को आधुनिक दिखाने के लिए पिता को ५००० साल पीछे जाना पड़ा.
कुछपुरुष उत्पादों के विज्ञापनों में तो कामुकता का चरम है देखकर आभासहोताहै जैसेविवाह की कोई पुरुष निषेध परम्परा ( टूट्या ) का विजन हो वह भीखुले आम. नदी पर नहाने और कपडे धोने गयी स्त्रियों के बीच पुरुष के एकअंडरवियर ने बवाल मचारखा हैक्योंकि \’ये तो बड़ा टॉइंगहै\’ अमूलमाचो. गेट इटराइट, गेट इट टाईटजैसे सूत्र वाक्य बनाकर 18 अगेनबेचीं जा रही है, लोगों की मानसिक बुनावट में विज्ञापन कहीं न कहीं कामकरता है, और रोज़ रोज ये एक जैसी छवियाँ देखकर लोगों में जिस प्रकार कीमानसिकता का निर्माण होता है उसका भुगतान अकेली स्त्री जातिकरती है जोकहाँ तक सही है?
वैसे विज्ञापन की दुनिया में स्त्री की यही एक छवि केवल नहीं हैउसकी रचनात्मक छवि भी है जो हालही में वीज़ाडेबिट के स्कूल क्लोजरवालेविज्ञापन में दिखाई देती है जहाँ राजस्थान के रेगिस्तान में स्त्री शिक्षाकी बदतर हालत को देखकर एक जागरूकमहिला कार्यकर्ता परिधानों पर आखर बनवाकरसिद्ध करती है \’की लड़कियांस्कूल नहीं जा सकती तो क्या हुआ स्कूल तो इनकेपास आ सकता है \’.
आजबड़े पैमाने पर विज्ञापनों की पड़ताल यदि की जाये तो एकख़ास तरह का ‘मर्दवादी नजरिया’ इनसे झांकता है.दिन भर दिखाए जाने वालेविज्ञापनों में बहुतेरे विज्ञापन सेक्स को एक खास एंगलबनाकर प्रदर्शितकरते नज़र आते हैं.फिर चाहेवह कार हो, कॉफ़ी हो या कोल्डड्रिंक .\’ मेरेपास लड़की पटाने के दो-दो आइडियाज हैं\’ जैसे संवादों के जरिये ऐसेविज्ञापनों में साफ तोर पर दिखाया जाता है की लड़की पटाने के लिए मोबाईलजरूरी है.एक डियोकिसी भी रिश्ते को बनाने बिगाड़ने के लिए काफी है, आइसक्रीम और चोकलेट की आड़ में ऐसे कंडोमों के फ्लेवर बताये जाते हैं जोसोचने पर मजबूर करते हैं की ये रोकथाम के लिए हैं या यौन इच्छा बढ़ाने केलिए.तिसपर मिडिया से जुड़े लोगों कीदलीलें होती हैं की उन्हें इसके लिए 90 सेकंड सिर्फ मिलते हैं यदि वे सामाजिक संदर्भों में जाने लगे तो उनकामॉल धरा रह जायेगा.तो क्या वास्तव में विज्ञापन का काम सिर्फ बेचना है ? आज जिस तरह स्त्री को उत्पाद बनाकर विज्ञापन बेचे जारहा है, क्या उसकीअस्मिता का ख्याल करना इनकी नैतिक जिमेदारी नहीं ?क्या विज्ञापन के बाज़ारका कोई सामाजिक संदर्भ नहीं होना चाहिए ?
यहींवाशिंग पावडर निरमा के विज्ञापन पर यदि हम नज़र डालेंतो देखते हैं की उसमें दिखने वाली लड़कियां फंसी हुई एम्बुलैंस को निकल करकीचड से सने कपड़ों में बाहरआती हैं ,’ये महेश भट्ट की उतर आधुनिकअदाकाराएँ नहीं हैं , ये वे उतर आधुनिक लड़कियां हैं जो दिल्ली में किसीस्त्री के साथ गलत होने पर पूरे देश में एकजुट हो जाती हैं’, और ये ही वे स्त्रियाँ हैं जो वास्तविक रूप में पारम्परिक छवियों से बाहर आ रहीं हैं.
\’आजसमाज में सभ्यता का स्तर इतना ऊँचा नहीं हैजिसमें सभी पुरुष संयम के स्तर का निर्वाह कर सकें इस समय प्रस्तर काल सेलेकर आधुनिक सोच तक सभी प्रकार के लोग समाज में एक साथ रह रहे हैं, यह सहीहै की सभ्यता किसी भी व्यक्ति की उन्मुक्त स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती हैलेकिन सभ्यता स्वयं का विकास भी तो नहीं कर सकती. \’पर यदि बनायीं गयीआधुनिक संस्थाएं आज कीत्रुटियों को ठीक करने का प्रयास करेंगी , यदि वेअपने दायित्वों पर खरा उतरेंगी और देखने वाला दर्शक अपनी प्रतिक्रिया खुदसे आगे आकर दर्ज़ करवाएगातो हो सकता है भविष्य में कोई लक्ष्मण रेखा विज्ञापन में स्त्री छवियों को लेकर बने.जिससे स्त्रियोंकी छविनिर्धारित हो सके साथ ही वे तय कर सकें की दूसरों के विचारों के अनुरूप जाने की बजायउन्हें स्वयं की दृष्टि निरुपित करने की आवश्यकता आज है.
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राकेश बाजिया (जयपुर)
अंग्रेजी एवम विदेशी भाषा विश्वविद्यालय हैदराबाद में शोधार्थी