• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सबद – भेद : विज्ञापन में स्त्रियाँ : राकेश बाजिया

सबद – भेद : विज्ञापन में स्त्रियाँ : राकेश बाजिया

विज्ञापनों ने हमारे आस-पास अपनी चमकीली चुस्त दुनिया का एक घेरा बना लिया है. हम उसमें  चाहते न चाहते हुए भी रहते हैं. सुबह के अख़बार से शुरू होकर देर रात टी.वी. बंद होने तक हम इसके नागरिक हैं. हमारे वास्तविक समाज के बरक्स इस दुनिया में स्त्रियाँ पर्याप्त रूप से अपने को रेखांकित कर […]

by arun dev
April 27, 2015
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
विज्ञापनों ने हमारे आस-पास अपनी चमकीली चुस्त दुनिया का एक घेरा बना लिया है. हम उसमें  चाहते न चाहते हुए भी रहते हैं. सुबह के अख़बार से शुरू होकर देर रात टी.वी. बंद होने तक हम इसके नागरिक हैं. हमारे वास्तविक समाज के बरक्स इस दुनिया में स्त्रियाँ पर्याप्त रूप से अपने को रेखांकित कर रही हैं.  इस लेख में इस छवि की देखा परखा गया है. क्या यह पारम्परिक छबियां ही हैं ? ऐसे ढेर सारे प्रश्नों से यह आलेख उलझता है. राकेश बाजिया इसी विषय पर शोध कार्य कर रहे हैं. 
____________                                                                                                                                      
विज्ञापन में स्त्री छवि की पड़ताल            

राकेश बाजिया 

आज सर्वाधिक रचनात्मकता की आवश्यकता मीडिया में विज्ञापन के  क्षेत्र में होती है.  प्रतिस्पर्धा  के  इस दौर में बहुत  कम समय में उपभोक्ता के  मन पर गहरी छाप  छोड़ने की अपेक्षा विज्ञापन से की जाती है.  और विज्ञापन यह काम  बखूबी करता है.  आज विज्ञापनों में स्त्री की एक बहुत बड़ी भूमिका है.  भूमंडलीकरण के दौर में जहाँ  बाजार सीधा महिलाओं के जरिये उपभोक्ताओं को लक्ष्य बनाता है.  ऐसे में देखने वाली बात यह है की इन विज्ञापनों में स्त्री की छवि को किस रूप में प्रसारित किया जा रहा है.  क्या स्त्रियाँ इनके माध्यम से अपनी परम्परागत छवियों से बाहर आ रही हैं ? या वास्तव में माँ ,पत्नी, और ग्रहिणी की परम्परागत छवि  इनके माध्यम से और पुख्ता हो रही है? एक तरफ जहाँ सामंती अवशेष बचे हुए हैं  वहां वाकई आज भी स्त्री का शोषण हो रहा है, वहीं वैश्वीकरण के दौर में जो स्त्रियाँ घरों से बाहर निकल कर काम कर रही हैं , जिन्हें सशक्त माना जा रहा है, साथ ही दावे किये जा रहे हैं की ‘वह बाजार को नचाने  का सामर्थ्य रखती है, भले ही लगता हो की बाजार उसे नचा रहा है’ क्या वाकई  वो अपनी कीमत खुद तय कर पा रही हैं ? ब्रांड का प्रचार कर अधिकाधिक मुनाफे का लक्ष्य रखने वाले विज्ञापनों में क्या स्त्री छवि केवल बाहयप्रोडक्ट है ? यदि पुरुषों के उत्पादों से सम्बंधित विज्ञापनों में स्त्री की उपस्थिति नितांत अनिवार्य है, तो कितने ऐसे स्त्री उत्पादों  के विज्ञापन हैं जहाँ पुरुष की भी सहज उपस्थिति हो ? आज भी हमारा समाज पुरुषों की अभिरुचियों को ही प्राथमिकता देता है  क्यों ? ऐसे में विज्ञापन जो व्यक्ति के मन मस्तिष्क में सशक्त छाप छोड़ते हैं क्या स्त्रियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव नहीं बनाते ?

हालाँकि मीडिया  पुरुष को भी नहीं बख्सता जरूरत पड़ने पर ये उसके भी कपडे उतरवाने में गुरेज नहीं करता, वरना ‘सर्वाधिक बिकने वाली चीज़ों में सेक्स और शाहरुख़’ ही क्यों होते ? आखिर किसी पुरुष का मजबूत (स्ट्रोंग) होना कहाँ तक जरूरी है ? यदि वास्तव में इसके लिए उसपर दबाव है तो क्या उसे भी इस \”फेमिनिन\” खेमे में नहीं आ जाना चाहिए ? क्यों सेक्स की शुरुआत मर्द ही कर सकता है ? औरत करे तो वह चरित्रहीन क्यों हो जाती है ? क्या बलात्कार का भयदिखाकर उसे घर में फिर से कैद करने की मंशा तो नहीं ?


यदि १९२०  के विज्ञापन पर नजर डाली जाये तो पता चलता है की उस समय उत्पाद से कहीं ज्यादा कंज्यूमर का महत्व होता था.  फिर चाहे वह चोकलेट का विज्ञापन हो या परफ्यूम का.  पर तभी अमेरिका में \’वार ओन फेट\’ शुरू होता है, इससे पहले ढीले ढले कपडे पहने जाते थे, ये सेक्सी वाली इमेज तब नहीं थी. १९३० तक अमेरिकी विज्ञापनों का स्तर बहुत ठीक था क्योकि वह अपने क्न्ज्युमरों को खुश रखने का प्रयास हमेशा करता था पर धीरे-धीरे विज्ञापन का स्तर बहुत कुछ गिरने लगा.  और इसका कोई विरोध कंज्यूमर नें नहीं किया जिसके फलस्वरूप यह और गिरता चला गया.  १९४० में जब अमेरिका गृह युद्धों से जूझ रहा था, तब वहां स्त्रियाँ बिलकुल अलग ढंग से विज्ञापन में नज़र आनें लगीं थीं.  जहाँ उसकी छवियों में भी परस्पर विरोधाभास था.  एक तरफ वह मसालेदार जायकेदार खाने की बात कर रही थी तो दूसरी और देश की, जिसके लिए उसे खाने की कोई परवाह नहीं.  १९५० में ज्यादातर विज्ञापन दैनिक जीवन में उपयोगी वस्तुओं के आनें लगे और अधिकतर विज्ञापनों में स्त्री की पारम्परिक छवियों को दिखाया गया.  उसे कमजोर सीधी-साधी घरेलू स्त्री के रूप में प्रदर्शित किया गया हमारे यहाँ के हाजमोला आदि के पुराने विज्ञापनों में इन छवियों को देखा जा सकता है.  १९६० में औरतों के पास बहुत सरे सोंदर्य प्रसाधन विज्ञापनों के माध्यम से आने लगे, और यही वह पायदान था जहाँ  से कंज्यूमर के शोषण की शुरुआत हुई. यहाँ उन्हें बताया जाने लगा की तुम्हें सेक्सी और ज्यादा सेक्सी दिखना है, इस दिखने की होड़ में देखते ही देखते घरेलू स्त्रियों की छवियाँ धीरे-धीरे गायब होने लगीं.  अब कंज्यूमर को सेक्स, पावर इन सब की और धकेला गया.  इसी धकमपेल में विज्ञापन करने वाली स्त्री खुद कब विज्ञापित होने लगी उसे पता ही नहीं चला. अन्डरगारमेंट से लेकर तमाम सोंदर्य प्रसाधनों की जैसे बाढ़ सी आ गयी.

१९७० के दौर में कंज्यूमर के सम्बन्ध में एक नयी चीज़ सामने आई की विभिन्न छवियों के बीच में जो सबसे महत्वपूर्ण छवि है वह है गोरी त्वचा और उसमें भी सफलता और कामुकता के मिले जुले रूप को तवज्जो दी गयी.  अपने यहाँ  के एक क्रीम के विज्ञापन में इसे हम देख सकते हैं जिसमे एक पिंक व्हाइट लड़की इसलिए छोड़ दी जाती है, क्योंकि वह व्हाइट नहीं है. क्रीम के इस्तेमाल से कुछ हुआ हो या नहीं पर लोगों की मानसिकता  में व्हाइट और पिंक व्हाइट का  फर्क जरूर  डाल  दिया गया है. यह  और बात है की  पिंक व्हाइट लड़की के किरदार में कोई और नहीं बल्कि विश्व सुंदरी रह चुकी एक भारतीय अभिनेत्री है.


१९८० के दौर में  स्त्रियाँ स्वतंत्र रूप से अकेली तो रहने लगीं, पर इस समय सुन्दरता औरत के लिए एक अर्हता बन गयी. जिस तरह आदमी को धन से आँका जाता था औरत को सुन्दरता से आँका जाने लगा. १९९० के आसपास समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत कुछ बदल गयी थी  , जिसमे हर तरह की प्रतिभा रखने वाली स्त्रियाँ आगे थीं.  पर विज्ञापन जगत में अभी भी वही गोरी और पतली स्त्री  दिखाई दे रही थी. और तभी भारत एम. टीवी ,चेनल वी ,और वर्ल्ड वाइड वेब द्वारा दुनिया से जुड़ता है तो देखने वाली स्थिति बनती है ,स्वयं को लेंगिक रूप से तटस्थ बताने वाला बाज़ार इसके जरिये घर घर में पहुँच जाता है, और लोगों को बताता है की अगर आप डीओ नहीं लगाते तो आप आउटडेटेड हैं, आपको काला नहीं गोरा दिखना है. फलां  कम्पनी के जूते पहन कर आप कंही भी चढ़ सकते हैं, एक ड्रिंक पीकर आप वहां से वापस कूद सकते हैं, हैप्पी डेंट व्हाइट चबा कर आप अपनी बिजली का कनेक्सन कटवा सकते हैं.  इन सब के साथ  सामाजिक सन्देश देने वाले विज्ञापनों में ‘हम दो हमारे दो’ से शुरू हुआ परिवार नियोजन का मुहावरा ‘हम दो हमारे एक’  पर आकर एकाएक रुक जाता है, हो सकता है आज उसकी जरूरत ही नहीं रही हो क्योकि सबसे बड़ा बाजार जो यहाँ तैयार हो रहा है, आज बाजार के सबसे सॉफ्ट टारगेट स्त्रियाँ और बच्चे हैं.  जिनके जरिये वो सीधा उपभोक्ताओं को लक्ष्य बनता है, घर में सब कुछ स्त्री देखती है, साफ़-सफाई  के विज्ञापन में तो हम देखते हैं की पुरुष उसे बताता है की तुम फला साधारण डिटरजेंट या साबुन इस्तेमाल करती हो तुम्हे ये करना चाहिए,  इस तरह पुरुष उसकी बुद्धिमता पर  भी सवाल उठाता  है.  आज जिस तरह की छवियाँ हमे दिखायीं जा रहीं हैं उनमें स्त्री बच्चों को सम्भालने के साथ पति की सेहत का ख्याल भी वह यह कहकर करती है \’आखिर मेरे दोनों बच्चों का ख्याल भी तो मुझे ही रखना पड़ता है\’ अब देखने वाली बात यह है की इससे कहीं स्त्री की माँ ,पत्नी और ग्रहिणी वाली छवि पुख्ता तो नहीं हो रही ?

भारत की विज्ञापन इंडस्ट्री  २०१६   दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी विज्ञापन इंडस्ट्री बनने जा रही है.  ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं.  जापान ११.५ और चीन १४.७   के बाद  भारत का ५.७ बिलियन डॉलर का कारोबार होने का अनुमान है.  देखा जाये तो आज अम्बानी, आडवानी या अरमानी किसी का भी काम बिना विज्ञापन के नहीं चल सकता.  आज भारत में सभी भाषाओं के ७००  से अधिक टीवी चैनल हैं.  और विज्ञापन से सम्बंधित नियंत्रण के लिए एसोसिएसन  ऑफ़ एडवर्टईजिंग स्टैण्डर्ड काउन्सिल ऑफ़ इंडिया जैसी संस्था भी है.  साथ ही सी. सी. सी. ( कंज्यूमर कम्प्लेन कमेठी ) जैसी स्वतंत्र  संस्थाएं भी अस्तित्वमान  हैं.  


इतना सब होने के बावजूद भी आज विज्ञापनों में बहुत  बड़ी भूमिका निभाने वाली स्त्री के हितो की अनदेखी हो रही है.  उन्हें विज्ञापन के जरिये चाहे जैसे परोसा  जा रहा है.  गुड मोर्निंग से लेकर गुड नाईट तक हर किसी उत्पाद में वो है. यहाँ सहज रूप से उपरोक्त दूसरे प्रश्न से रूबरू होना पड़ेगा,  क्या मुनाफे के लिए सिर्फ बने विज्ञापनों में स्त्री – छवि केवल बाईप्रोडक्ट है ?  उसकी जूझती हुई छवि क्यूँ नहीं दिखाई देती हमेशा मिथ्या चेतना को ही क्यों प्रसारित किया जाता है ?

यदि पुरुषों के उत्पादों में उसकी उपस्थिति नितांत आवश्यक है, तो जाहिर है स्त्री के उत्पादों वाले विज्ञापनों में भी पुरुष की सहज उपस्थिति होनी चाहिए जो ढूँढने पर भी एक आधे  विज्ञापन में मिलती है वो भी पिता की छवि में गोण सी जहाँ-तहां. एक विज्ञापन लीजिये -आयुर्वेद के खजाने से ५००० साल पुराना निखार का फार्मूला निकालकर जब पिता बेटी को सौन्दर्य  प्रतिस्पर्धा के लिए भेजता है, तो हर कोई बोल उठता है – हाऊ  चेंज? ये है आयुर्वेद की शक्ति! ये बात और है की बेटी को आधुनिक दिखाने के लिए पिता को ५००० साल पीछे जाना पड़ा. 
कुछ पुरुष उत्पादों के विज्ञापनों में तो कामुकता का चरम है देखकर आभास  होता है जैसे  विवाह की कोई पुरुष निषेध परम्परा ( टूट्या ) का विजन हो वह भी खुले आम. नदी पर नहाने और कपडे धोने गयी स्त्रियों के बीच पुरुष के एक  अंडरवियर ने बवाल मचा रखा है क्योंकि \’ये तो बड़ा टॉइंग  है\’  अमूल माचो. गेट इट  राइट, गेट इट टाईट  जैसे सूत्र वाक्य बनाकर 18 अगेन बेचीं जा रही है, लोगों की मानसिक बुनावट में विज्ञापन कहीं  न कहीं काम करता है, और रोज़ रोज ये एक जैसी छवियाँ देखकर लोगों में जिस प्रकार की मानसिकता का निर्माण होता है उसका भुगतान अकेली स्त्री जाति  करती है जो कहाँ तक सही है?

वैसे विज्ञापन की दुनिया में स्त्री की यही एक छवि केवल नहीं है उसकी रचनात्मक छवि भी है जो हाल  ही में वीज़ा  डेबिट के स्कूल क्लोजर  वाले विज्ञापन में दिखाई देती है जहाँ राजस्थान के रेगिस्तान में स्त्री शिक्षा की बदतर हालत को देखकर एक जागरूक  महिला कार्यकर्ता परिधानों पर आखर बनवाकर सिद्ध करती है \’की लड़कियां  स्कूल नहीं जा सकती तो क्या हुआ स्कूल तो इनके पास आ सकता है \’.


आज  बड़े पैमाने पर विज्ञापनों की पड़ताल यदि की जाये तो एक ख़ास तरह का ‘मर्दवादी नजरिया’ इनसे झांकता है.  दिन भर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में बहुतेरे विज्ञापन सेक्स को एक खास एंगल  बनाकर प्रदर्शित करते नज़र आते हैं.  फिर चाहे  वह कार हो, कॉफ़ी हो या कोल्डड्रिंक . \’ मेरे पास लड़की पटाने के दो-दो आइडियाज हैं \’ जैसे संवादों के जरिये ऐसे  विज्ञापनों में साफ तोर पर दिखाया जाता है की लड़की पटाने के लिए मोबाईल  जरूरी है.  एक डियो  किसी भी रिश्ते को बनाने बिगाड़ने के लिए काफी है, आइसक्रीम और चोकलेट की आड़ में ऐसे कंडोमों के फ्लेवर बताये जाते हैं जो सोचने पर मजबूर करते हैं की ये रोकथाम के लिए हैं या यौन इच्छा बढ़ाने के लिए.  तिसपर मिडिया से जुड़े लोगों की  दलीलें होती हैं की उन्हें इसके लिए 90 सेकंड सिर्फ मिलते हैं यदि वे सामाजिक संदर्भों में जाने लगे तो उनका मॉल धरा रह जायेगा.  तो क्या वास्तव में विज्ञापन का काम सिर्फ बेचना है ? आज जिस तरह स्त्री को उत्पाद बनाकर विज्ञापन बेचे जा रहा है, क्या उसकी अस्मिता का ख्याल करना इनकी नैतिक जिमेदारी नहीं ?क्या विज्ञापन के बाज़ार का कोई सामाजिक संदर्भ नहीं होना चाहिए ?

यहीं  वाशिंग पावडर निरमा के विज्ञापन पर यदि हम नज़र डालें तो देखते हैं की उसमें दिखने वाली लड़कियां फंसी हुई एम्बुलैंस को निकल कर कीचड से सने कपड़ों में बाहर  आती हैं ,’ये महेश भट्ट की उतर आधुनिक अदाकाराएँ नहीं हैं , ये वे उतर आधुनिक लड़कियां हैं जो दिल्ली में किसी स्त्री के साथ गलत होने पर पूरे देश में एकजुट हो जाती हैं’, और ये ही वे स्त्रियाँ हैं जो वास्तविक रूप में पारम्परिक छवियों से बाहर आ रहीं हैं.  

\’आज  समाज में सभ्यता का स्तर इतना ऊँचा नहीं है जिसमें सभी पुरुष संयम के स्तर का निर्वाह कर सकें इस समय प्रस्तर काल से लेकर आधुनिक सोच तक सभी प्रकार के लोग समाज में एक साथ रह रहे हैं, यह सही है की सभ्यता किसी भी व्यक्ति की उन्मुक्त स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती है लेकिन सभ्यता स्वयं का विकास भी तो नहीं कर सकती. \’पर यदि बनायीं गयी आधुनिक संस्थाएं आज की त्रुटियों को ठीक करने का प्रयास करेंगी , यदि वे अपने दायित्वों पर खरा उतरेंगी और देखने वाला दर्शक अपनी प्रतिक्रिया खुद से आगे आकर दर्ज़ करवाएगा  तो हो सकता है भविष्य में कोई लक्ष्मण रेखा विज्ञापन में स्त्री छवियों को लेकर बने. जिससे स्त्रियों  की छवि  निर्धारित हो सके साथ ही वे तय कर सकें की दूसरों के विचारों के अनुरूप जाने की बजायउन्हें स्वयं की दृष्टि निरुपित करने की आवश्यकता आज है.
___________
राकेश बाजिया (जयपुर)
अंग्रेजी एवम विदेशी भाषा विश्वविद्यालय हैदराबाद में शोधार्थी
भूमंडलीकरण विषय पर शोध कार्य
09571690016
ShareTweetSend
Previous Post

सहजि सहजि गुन रमैं : पंकज पराशर

Next Post

१९ वीं शताब्दी का भारतीय पुनर्जागरण: नामवर सिंह

Related Posts

सूसन सौन्टैग: एक पाठक की दुनिया में: प्रियंका दुबे
आलेख

सूसन सौन्टैग: एक पाठक की दुनिया में: प्रियंका दुबे

अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ के दोहे: दीपा गुप्ता
शोध

अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ के दोहे: दीपा गुप्ता

सपना भट्ट की कविताएँ: सन्तोष अर्श
आलेख

सपना भट्ट की कविताएँ: सन्तोष अर्श

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक