Debashish-Dutta
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कवयित्री प्रो.पुष्पिता अवस्थी भारतीय दूतावास एवं भारतीय सांस्कृतिक केंद्र, पारामारिबो, सूरीनाम में प्रथम सचिव एवं हिंदी प्रोफेसर के रूप में वर्ष 2001 से 2005 तक वह कार्यरत रहीं. वर्ष 2006 से वह नीदरलैंड स्थित \’हिंदी यूनिवर्स फाउन्डेशन\’ की निदेशक हैं, वर्ष 2010 में गठित अंतर्राष्ट्रीय भारतवंशी सांस्कृतिक परिषद की वह महासचिव भी हैं. पुष्पिता अवस्थी का विस्तृत लेखन कार्य है और विदेशों में रहकर साहित्य और संस्कृति में आ रहे बदलावों को देखने परखने का अनुभव भी. पुष्पिता अवस्थी ने इस लेख में संस्कृति के क्षेत्र में हो रहे बदलावों को लक्ष्य किया है. इस क्रम में उदारतापूर्वक ‘समालोचन’ का भी ज़िक्र है. इस भाव को मैं सहित्य और कला के क्षेत्र में रहकर काम करने वाले अपने सभी मित्रों के प्रति भी समर्पित करता हूँ.
सांस्कृतिक आतंकवाद से गहराता साहित्य और कला पर संकट
प्रो.पुष्पिता अवस्थी
विश्व की सभ्यता और सांस्कृतियों के इतिहास ने मनुष्यता को कला संगीत और साहित्य के माध्यम से समृद्ध किया है. विभिन्न तरह के युद्धों और विश्वयुद्धों के बावजूद हमारी मानव जाति का एक तबका अभावों में जीते हुए….जीवन से जूझते हुए कला, संगीत और साहित्य को बचाने में संघर्षरत रहा है. जिसमें, विश्व के अनेक जनजातियाँ और आदिवासी जातियों भी शामिल हैं. कैरेबियाई देश–द्वीपों और लातिन अमेरिका का सम्पूर्ण भूखंड का कलात्मक और सांस्कृतिक वैभव विकसित राष्ट्रों के कला–प्रेमी संस्कृतिकर्मियों से ओझल है. वैज्ञानिक और कम्प्यूटर तकनीक ने समृद्धि और सम्पन्नता के साथ–साथ अपनी तरह का घातक आतंकवाद भी रचा है. जिसने कला, संस्कृति और संगीत को सिर्फ चोट ही नहीं पहुँचायी है बल्कि इसके पोषकों को भी घायल किया है– नयी पीढ़ी द्वारा ईजाद–फास्ट–फूड, फास्ट–म्यूजिक…फास्ट लाइफ…लाउड एक्सप्रेशन…एब्स्ट्रेक्ट (कला) आर्ट ऐसे भावबोध के उफान ने अपनी तरह से संस्कृति के भीतर एक तरह का विध्वंसात्मक आतंकवाद रचा है जो अपनी रफ्तार के आतंक में सबकुछ नष्ट करता जा रहा है. लेकिन इस बिना रुके की रफ्तार से आखिर पाना क्या है? रफ्तार का आलम यह है कि लोगों के पास सम्मेलनों और गोष्ठियों में एक–दूसरें को सुनने का समय नहीं है विचार–विमर्श–निष्कर्ष और समाधान तो बहुत दूर की बात है जबकि इनके आयोजनों में लोग कितना समय, ऊर्जा और धन व्यय करते हैं– यात्राओं का जोखिम उठाते हुए न जाने कितनी जद्दोजहद झेलते हैं. भारत ही नहीं…विश्व के नामी–गिरामी प्रकाशकों के पास कविता–संग्रहों के प्रकाशन का कोई मोह और लोभ नहीं है. सम्पादक भी–पत्रिकाओं में कविताओं को छापने की विवशता के कारण–कविताएँ छाप देते हैं पर धीरे–धीरे संवेदनहीन और अकुलीन हो रहे हमारे प्रकाशन–संसार की यही सच्चाई है.
वर्तमान समय के इकोनामिक क्राइसिस के बावजूद पूँजीवाद ने अंतहीन लाभ कमाया है. जिसका खामियाजा आम जनता और पर्यावरण को लगातार भुगतना पड़ रहा है. साहित्य की महत्वतपूर्ण विद्या–कविता–बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा अर्जित अन्य कलाओं की तरह संवेदनशील प्राकृतिक संसाधनों में से एक है. वास्तविक कविता–निश्चित रूप से पाठकों को अधिक मानवीय और संवेदनशील बनाती है. आज जो विश्व की महत्वपूर्ण ताकत बन सकती है, उसे अन्य कलाओं और सांस्कृतिक उपादानों का आश्रय प्रदान करना तो दूर की बात है, उसे हाशिए से भी बाहर ठेल दिए जाने के षडयन्त्र रचे जा रहे हैं– थियेटर पोयट्री–पोस्टर पोयट्री का जैसे चलन ही उठता जा रहा है. ऐसे में, अरूण जी द्वारा रची ‘आर्ट इन पोयट्री’ या ‘पोयट्री विथ आर्ट’, डच भाषा में कहें तो ‘पोयजी मेत आर्ट’ की कौशलपूर्ण कोशिश आकर्षित करती है और अपनी तरह से साहित्य में कविता–विधा को सजीव सार्थकता प्रदान करती है. वे कविता के बीच कला के गोसे रचते हैं. उसमें चित्रों और मूर्तियों की जीवंतता के साथ प्राण–प्रतिष्ठा करते हैं. जिससे कविताओं में अपनी तरह की सजगता ओर दृष्टि–सम्पन्नता आ जाती है. इससे कला को शब्द और शब्द को कला सहज ही प्राप्त हो जाते हैं. तब ऐसा लगता है जैसे देह को प्राण और प्राण को जीवन प्राप्त हो गया है. मानव–जीवन के बीच संवेदनाओं के बंजर होते हुए इस धूसर–परिवेश में अरूण देव सरीखी, कलात्मक–दृष्टि (आर्टिस्टिक–विज़न) की गहरी जरूरत है, जिससे (कल्चरर टेरीरिज़्म) सांस्कृतिक आतंकवाद से कला साहित्य–संगीत और संस्कृति की रक्षा हो सकेगी और इसी बहाने से मानवीय–सभ्यता और संस्कृति का कलेवर भी बचा रह सकेगा. इसके लिए सिर्फ ”इन्टेशन“ की जरूरत है– दृष्टि और सक्रियता अपने आप आदत में शामिल हो जायेगी.
आज, जब कविता और कला दोनों ही जीवन से बेदखल किये जा रहे हैं, जीवन से जीवन लुप्त होता जा रहा है. व्यक्ति जीवित रहते हुए भी कहीं न कहीं मर रहा है, क्योंकि वह अकेलेपन और संवादहीनता की घुटन का शिकार है. उसके अपने ही सपने उसके चक्रव्यूह बन गये हैं, जबकि जीवन को पूरी संजीदगी से चलाये और बचाये रखने के लिए सम्पूर्ण विश्व में अनके प्रभामण्डल हैं, विज्ञापन एजेंसिया हैं, साहित्य कम्पनियां हैं, फिल्म उद्योग है….. आध्यात्मिक संगठन है…… मनोरंजन समितियां हैं…… पुरस्कार कमेटियां हैं फिर भी-“मानव जीवन’’ और उसका “वास्तविक जीवन–सुख संकट“ में है. क्योंकि– अधिकांश प्रदर्शन भर हैं– शो–बिजनेस से अधिक कुछ नहीं है. इसीलिए इनका कोई स्थायी परिणाम लक्षित नहीं हो पाता है और जीवन तथा कविता की संवेदनशीलता में तो कोई बढ़ोत्तरी हो ही नहीं पाती है. ‘मेटरलिस्टिक वर्ल्ड ’ के यह ऐसे घाव हैं, जिनकी सर्जरी सम्भव नहीं है.
जिस तरह से दुनिया भर में भागमभाग मची हुई है– कि आश्चर्य होता है– कि लोग क्षण भर को भी थमकर सोचना नहीं चाहते हैं, जिससे आये दिन जीवन दबाया–कुचला जा रहा है. सारी उन्मुकतता और स्वतन्त्रता के बावजूद लोग ‘आत्महत्याएं’ करके शहीद हो रहे हैं– आत्मोत्सव के सारे सोपान पार करने के बावजूद इतनी भीषण आत्महीनता का शिकार होने का कारण यह (कल्चरर–टेरीरिज़्म) सांस्कृतिक आतंकवाद है– जो अपनी तरह से अमानवीय है ओर मनुष्यों को आत्मकेन्द्रित बनाता है.
विश्व में, तेज झंकार वाले संगीत समारोहों के आये दिन आयोजन होते रहते हैं. गायक–गायिका खड़े होकर चीखते–चिल्लाते हुए पुकारते और गाते हैं, जिसे हजारों–लाखों की संख्या में दर्शक खड़े हुए ही सुनते हैं– साथ में गाते हैं और झूमते हैं. अपने साथी को आलिंगन में लिए हुए चूमते हैं. प्रेम और जीवन का शमा बंधा हुआ दीखता है जो होता नहीं है… सिर्फ लगता है. यह संगीत पर अपने तरह का हिंसात्मक आतंकवाद है, जिससे अपनी तरह की क्षणिक विस्फोटक सुखानुभूति तो अवश्य होती है, लेकिन यह ज्वार–भाटा सदृश ही है– जो संगीत के शोर के साथ चढ़ती है और उसके हटते ही खत्म हो जाती है. उसमें संगीत की वह मधुरता नहीं होती है, जिसकी रसमयता जीवन को सरस बनाती है. जिसका आनन्द सिर्फ कई दिनों तक ही शेष नहीं रहता है, बल्कि जीवन भर के लिए बचा रह जाता है, क्योंकि उस संगीत में जीवन है,,,, कविता है,,, राग है.
नीदरलैण्ड देश में रैंब्रा, माओफ और फान गॉग (डच उच्चारण) वान गॉग चित्रकारों का जीवन है, इतिहास है, पेन्टिंग्स हैं, संग्रहालय है, उनके चित्रों में उनका समय है, परिवेश है, प्रकृति है, उनके चित्रों में जीवन है, उसकी धड़कनें हैं, इसीलिए वे चित्रकाव्य हैं, उनके जीवन के……. जगत के. उनमें नीदरलैण्ड देश की प्रकृति ओर संस्कृति उजागर है. विश्व के अन्य देशों के चित्रकारों के साथ भी ऐसा ही है, लेकिन जब से ‘अमूर्तन धारणा’ (एब्सट्रेक्ट कानसेप्ट) का चलन बढ़ा है. रंग और रेखाओं का बाहुल्य है– जिसमें रंग और रेखाओं का स्पंदन नहीं है– कला का गुंजलक प्रतिभाषित होता है, आज चित्रों में जीवन और सौन्दर्य (लाइफ एण्ड ब्यूटी) की रेखाएं खींचना कठिन होता जा रहा है. इसीलिए चित्रों को रचने की आधुनिक तकनीक में अमूर्तन का आतंक इतना अधिक है कि चित्रों की सृजनधर्मिता और मार्मिकता लुप्त होती जा रही है. नयी पीढ़ी के लिए पेन्टिंग का मतलब सिर्फ रंग और रेखाएँ हैं–प्रकृति और चरित्र नहीं. इसलिए भी कविताओं के साथ कला का तालमेल कम ही देखने को मिलता है, क्योंकि इसके लिए गहरी कलात्मक जीवन दृष्टि की आवश्यकता है. जिससे कला और कविता दोनों ही एक–दूसरे के प्रतीत हो.
कला, संस्कृति, साहित्य और संगीत जीवन से उद्भूत है, जीवन के लिए जीवन एक कला है. जीने के विभिन्न तरीके भी कला हैं. कविता, ‘जीवन की कला’ का और ‘कला के जीवन’ का जीवंत दस्तावेज है, जिसमें वैविध्य है….. आरोह–अवरोह है….उतार–चढ़ाव है….रंग और रेखाएँ हैं. अपनी तरह से वैश्विक संस्कृति और उसका इतिहास कविता में समाहित रहता है, इसीलिए कविता की अपनी संस्कृति है जो उसकी नितान्त निजीविरासत है. कविताएँ पढ़े और सुने जाने के बाद निरन्तर संवादरत रहती है. वे बोलती हैं और अपने बोलने में खुद को खोलती हैं. जिसमें वर्तमान के साथ–साथ भविष्य और अतीत झलकता हुआ महसूस होता है–जिसकी अपनी झनकार है……रुनझुन है…..जिसमें संगीत के वाद्ययन्त्रों का प्राकट्य, मुखर रूप से नहीं महसूस होता है. बावजूद इसके, संगीत की अपनी तरह की लयमयता कविताओं में गूँजती हुई अनुभव होती है कि सितार का निनाद…वायलिन की टेर,…तबले की थाप…घुंघरूओं की झनकार और ढोलक की ठनक बजती हुई अनुभव होती है. कविता में संगीत की प्रत्यक्षतः अनुपस्थिति के बावजूद स्पन्दित संगीत महसूस होता है. जो जीवन के संगीत से जन्म लेता है. कवि चित्रकार और फिल्मकार की तरह भी कविताओं में चित्र उकेरता है जिसकी छवि, पाठक और श्रोता के चित्र में अवतरित होती है, श्रेष्ठ कवितओं के साथ यह सब घटित होता है, जो कई तरह की कलाओं का सुख एक साथ प्रदान करती है.
कवि के जीवन….कला और अनुभव के इन्हीं स्रोतों से निर्मित कविताओं की प्रस्तुति भी यदि इन्हीं उपादानों का आधार लेकर होती है तो कविता और अधिक जीवंत और जीवनदायी होकर कला–प्रेमियों के लिए स्मरणीय और संग्रहणीय संजीवनी शक्ति बन जाती है. अरूण देव जी अपने सम्पादन में साहित्य और विशेषकर कविताओं की प्रस्तुति में कलात्मक सृजनशीलता का न केवल सिर्फ ध्यान ही रखते हैं. बल्कि पूर्ण संवेदनशीलता के साथ उसकी सृजनात्मक प्रस्तुति करते हैं. जो आज के असांस्कृतिक हो रहे कलात्मक समय और जीवन के लिए अपरिहार्य हैं. उनके समालोचना के आले में ‘कला और संस्कृति के दिये उजलते हुए दिखायी देते हैं. जिनका प्रकाश साहित्य के शब्दों में अहर्निश प्रतिबिम्बित रहता है.
कल्चरर टेरीरिज्म के मूल में ‘फास्ट’ शब्द है. इसकी मोदकता बहुत आक्रामक और घातक है जो तेज होने का बोध कराती है. हर तरह से तेज…होने का अहसास. जो अपने दूरगामी परिणामों में घातक है. इससे बहुत तरह की चोटें लगती हैं जो उस समय तो महसूस नहीं होती है पर बाद में उसकी क्रूरता और कठोरता का भीषण अहसास होता है. जो मृत्यु पर्यन्त सालता रहता है. जिस तरह से किसी दुर्घटना में या यूँ ही गिर–पड़ जाने से चोट लगती है–खून बहता है. दर्द होता है, वह मरहम–पट्टी करता है….दर्द के लिए दवा लेता है और सोचता है…..सबकुछ ठीक है….कुछ बहुत नहीं बिगड़ा है. समय रहते सब ठीक हो जायेगा. लेकिन, व्यक्ति उस समय अपनी भीतरिया चोट से अनजान रहता है, जो भविष्य में उभरती है और किसी इलाज से खत्म नहीं हो पाती है. फास्ट और ग्लोबल होने का कल्चरर टेरीरिज़्म इसी तरह की घातक चोट दे रहा है, जिससे विश्व के कला सांस्कृति और साहित्य के पहरुओं को सजग के पहरुओं को सजग हो जाने की जरूरत है.
भौतिकवादी दुनिया (मेटेरिलिस्टिक वल्र्ड) के पूँजीवादी तेवर (कैपीटीलिस्टक एडिच्यूड) ने पूरे विश्व में सांस्कृतिक आतंकवाद का जाल फैलाया है. जिससे वे अपनी भुक्खड़ चाहतों को तृप्त कर सकें. सभ्यता की सारी उपलब्धियों के बावजूद, इन्होंने ही मानव–जाति को असन्तोष और ऊतृप्ति के उस कगार पर खड़ा कर दिया है. जहाँ से कला और साहित्य की सृजनात्मक प्रभावित होनी शुरू होती है.–
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पुष्पिता अवस्थी :
अपने सूरीनाम प्रवास के दौरान पुष्पिता ने अथक प्रयास करके एक हिंदीप्रेमी समुदाय संगठित किया जिसकी परिणति उनके द्धारा अनुदित और संपादित समकालीन सूरीनामी लेखन के दो संग्रहों \’कविता सूरीनाम\’ (राजकमल प्रकाशन, 2003) और \’कहानी सूरीनाम\’ (राजकमल प्रकाशन, 2003) में हुई. \’सूरीनाम\’ शीर्षक से उन्होंने मोनोग्राफ़ भी लिखा, जिसे राजकमल प्रकाशन ने वर्ष 2003 में प्रकाशित किया .
अपने सूरीनाम प्रवास के दौरान पुष्पिता ने अथक प्रयास करके एक हिंदीप्रेमी समुदाय संगठित किया जिसकी परिणति उनके द्धारा अनुदित और संपादित समकालीन सूरीनामी लेखन के दो संग्रहों \’कविता सूरीनाम\’ (राजकमल प्रकाशन, 2003) और \’कहानी सूरीनाम\’ (राजकमल प्रकाशन, 2003) में हुई. \’सूरीनाम\’ शीर्षक से उन्होंने मोनोग्राफ़ भी लिखा, जिसे राजकमल प्रकाशन ने वर्ष 2003 में प्रकाशित किया .
पुष्पिता के कविता संग्रहों \’शब्द बनकर रहती हैं ऋतुएँ\’ (कथारूप, 1997), \’अक्षत\’ (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2002), \’ईश्वराशीष\’ (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2005), \’ह्रदय की हथेली\’ (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2008) और कहानी संग्रह \’गोखरू\’ (राजकमल प्रकाशन, 2002) प्रकाशित. आलोचना के क्षेत्र में वर्ष 2005 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक \’आधुनिक हिंदी काव्यालोचना के सौ वर्ष\’ विशेष रूप से चर्चित रही. विद्यानिवास मिश्र से उनके संवाद \’सांस्कृतिक आलोक से संवाद\’ (भारतीय ज्ञानपीठ, 2006) को समकालीन हिंदी और हिंदी समाज की विकासयात्रा को दर्ज करने के अनूठे प्रयास के रूप में देखा/पहचाना गया है. वर्ष 2009 में मेधा बुक्स से \’अंतर्ध्वनि\’ काव्य संग्रह और अंग्रेजी अनुवाद सहित रेमाधव प्रकाशन से \’देववृक्ष\’ पुस्तक का प्रकाशन हुआ. साहित्य अकादमी, दिल्ली से वर्ष 2010 में \’सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य\’ पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसका लोकार्पण जोहान्सवर्ग में वर्ष 2011 में आयोजित हुए नवें विश्व हिंदी सम्मलेन में हुआ. वर्ष 2010 में ही नेशनल बुक ट्रस्ट से उनकी \’सूरीनाम\’ शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई. एम्सटर्डम स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ने डिक प्लक्कर और लोडविक ब्रंट द्धारा डच में किये उनकी कविताओं के अनुवाद का एक संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित किया. नीदरलैंड के अमृत प्रकाशन से डच, अंग्रेजी और हिंदी में वर्ष 2010 में \’शैल प्रतिमाओं से\’ शीर्षक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ .
पुष्पिता को अपनी कविताओं के पाठ के लिए जापान, मॉरिशस, अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्युजीलैंड सहित कई यूरोपियन और कैरिबियन देशों में आमंत्रित किया जा चुका है. विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में मानवीय संस्कृति तथा भारतवंशी संस्कृति पर विशेष व्याख्यान उन्होंने दिए हैं . मॉरीशस स्थित हिंदी लेखक संघ का उन्हें मानद सदस्य बनाया गया है . सूरीनाम में वर्ष 2003 की जनवरी से प्रकाशित पत्रिका \’शब्द शक्ति\’ की वह संस्थापक संपादक रहीं . सूरीनाम की संस्कृति और प्रकृति पर उनके द्धारा बनाई गई दो घंटे की डॉक्यूमेंटरी फिल्म वर्ष 2003 में आयोजित हुए विश्व हिंदी सम्मलेन में प्रदर्शित की गई थी . इसके आलावा, महान हिंदी साहित्यकार व उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल, प्रोफेसर विद्यानिवास मिश्र और प्रोफेसर शिवप्रसाद सिंह के कृतित्व-व्यक्तित्व पर उनके द्धारा बनाई गईं डॉक्यूमेंटरी फिल्मों का लखनऊ दूरदर्शन से प्रदर्शन हुआ है . पुष्पिता अवस्थी विश्व की अनेक आदिवासी प्रजातियों तथा भारतवंशियों के अस्तित्व और अस्मिता पर विशेष अध्ययन और शोधकार्य से भी संबद्ध रहीं हैं .
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Professor (Dr.) Pushpita Awasthi
Director – Hindi Universe Foundation
Winterkoning 28
1722CB Zuid Scharwoude
NETHERLANDS
0031 72 540 2005
0031 6 30 41 0778
Email : pushpita.awasthi@bkkvastgoed.nl
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