Akbar riding the elephant Hawa\’I pursuing another elephant |
सतीश जायसवाल वरिष्ठ कथाकार – संपादक हैं. रचना में स्थानीयता और सार्वभौमिकता को लेकर लम्बी बहसें चली हैं. यह आलेख असरदार तरीके से इस गुत्थी से उलझता है और फिर सुलझाता है.
रचना साहित्य मेँ स्थानीयता-बोध
सतीश जायसवाल
हम किसी एक समय मेँ होते हैं.
हम किसी एक स्थान मेँ होते हैँ.
उस किसी समय मेँ उस किसी स्थान का होना एक स्थिति होती है.
उसमें हमारा होना हमारी विद्यमानता होती है. यह किसी समय और किसी स्थान के बिना नहीं हो सकता.
हमारा समय हमारी सामयिकता का पता देता है. यह सामयिकता तत्कालीन भी होतीं है और समकालीन भी होती है. जब हम ऐतिहासिक सन्दर्भों मेँ जाते हैं तो वह तत्कालीन. और जब हम अपने वर्तमान मेँ बने रहते हैं तो वह समकालीन.
हमारे पास उपलब्ध ऐतिहासिक सन्दर्भ हमें वह क्षमता प्रदान करते हैं कि हम उस किसी ततकालीन समय मेँ प्रवेश कर सकें और उस किसी स्थान तक पहुँच सकें जिस समय के उस स्थान मेँ हम नहीँ रहे होंगे.
यह स्थान वह भी हो सकता है जो हमसे पहले भी था और आज भी है और आज हम भी वहाँ पर हैं. फिर भी यह स्थान हमारे आज के स्थान से अलग होगा. वह तत्कालीन समय का स्थान होगा. और वह हमारे समकालीन समय के स्थान से अलग होगा.
साहित्य सृजन की रचना प्रक्रिया हमें यह विलक्षण सर्वकालिक क्षमता प्रदान करती है कि हम अपने समय का अतिक्रमण कर के अपने से पहले के समय मेँ प्रवेश कर सकेँ. अथवा उस समय की सृष्टि भी कर सकें जो समय आज नहीँ है बल्कि, वह हमसे आगे का समय होगा. वह भविष्य में होगा.
तत्कालीनता और समकालीनता, ये दो अलग-अलग समय – मान हैं. और इन दो विभिन्न समय-मानों में घटित-अघटित सन्दर्भ उस एक स्थान को दो अलग-अलग स्थानों में बदल देते हैं. एक – जिसका हमारे साथ पंचभौतिक सम्बन्ध होता है , जहाँ हमारी भौतिक-क्रियात्मक उपस्थिति होती है. और दो- जिसकी विद्यमानता हमारी स्मृतियों के लेखे-जोखे मेँ होती है. ये स्मृतियाँ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों मेँ सुऱक्षित होती हैँ या एक पीढ़ी से दूसऱी पीढ़ी को हस्तान्तरित होने वाली पारस्परिकताओं के सहज विश्वासों मेँ स्पंदित होती हैँ.
कलिंग का युद्ध एक ऐतिहासिक घटना है. उस काल में हम नहीं थे. फिर भी, हम उस युद्ध के हुये होने को इस तरह मानते हैं जैसे कि हम उसके हुये होने को जानते भी हैं. क्योंकि उसके विवरण ऐतिहासिक दस्तावेज़ों मेँ और पुरा-लेखों में दर्ज़ है. उन पर विश्वास कर लेना हमारा मान लेना है. यह, उनके साथ हमारा सहमत होना होता है. लेकिन युद्ध की उस ऐतिहासिक घटना को प्रामाणिक तौर पर जान लेना नहीं है. क्योंकि वह हमारे सामने की, हमारे अपने देखे की घटना नहीँ है. किसी हुए होने को जानना और उसे मान लेना, दो अलग विश्वास होते हैं. एक – हमारी प्रामाणिकता का विश्वास, जो हमारे अपने भौतिक साक्ष्य पर आधारित होता है. और दूसरा – हमारी तार्किकता का विश्वास, जो उपलब्ध साक्ष्यों से निर्मित होता है. ये उपलब्ध साक्ष्य किसी एक स्थान को (अर्थात उसी स्थान को ) हमारे माने हुये और जाने हुये, दो विभिन्न स्थानों मेँ बदल देते हैं.
यह एक निर्मिति होती है. इस निर्मिति से किसी एक स्थान की स्थानीयता विकसित हो रही होती है, जो बहुधा हमारे पास उपलब्ध सन्दर्भों मेँ अनुपस्थित रह गईं होतीं है. किसी एक स्थान की स्थानीयता को मिल रही यह एक नई पहिचान भी होती है. और जब इस निर्मिति को साहित्य का रचनात्मक संस्पर्श प्राप्त होता है तो उसमेँ अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाएँ आपने अर्थ और अपने आकारो मेँ प्रसारित होने लगती हैं. स्पंदित होने लगती हैं.
हिन्दी के एक बड़े कवि श्रीकांत वर्मा की एक प्रसिद्द कविता –कलिंग\’\’ की ये कुछ पंक्तियाँ इस समय मेरे पास हैँ —
केवल अशोक लौट रहा है
और सब कलिंग का पता पूछ रहे हैं ,
केवल अशोक सर झुकाये हुये है
और सब विजेता की तरह चल रहे हैं
केवल अशोक के कानों में चीख गूँज रही है
और सब हँसते-हँसते दोहरे हो रहे हैं …
जो कलिंग का पता पूछ रहे हैं वो सैनिक हैं और कलिंग उनके लिये किसी बस, एक युद्ध भूमि है. लेकिन अशोक युद्ध-भूमि से वापस लौट रहा है. संहार से वापस लौट रहा है. वह अपने भीतर वापस लौट रहा है . अपने भीतर अपनी उन मानवीय संवेदनाओं के पास वापस लौट रहा है जो संहार के विरुद्ध होती हैं. इसलिए वह अकेला लौट रहा है. सब, जो विजेता की तरह लौट रहे हैं, उन्हें उस संहार का कोई पश्चात्ताप नहीं बल्कि वो विजय के मद मेँ हैँ. लेकिन अशोक अपने ही सम्मुख नत-शर है. वह आत्मग्लानि से व्यथित था और पश्चात्ताप कर रहा था.
एक बड़े कवि की यह कविता उस युद्ध की ऐतिहासिक घटना की विस्मयकारी स्थानीयता रचती है. उस युद्ध की ऐतिहासिक घटना को सरक्षित दस्तावेजीकरण से बाहर निकाल कर साहित्य की रचनात्मक शक्तियों के पास ले आती है. ये रचनात्मक शक्तियां हमारी मानवीय संवेदनाओं से उपजती हैं. इसलिए मुझे विश्वास हुआ कि यह कविता मुझे अपने साथ ले जाकर उस दया नदी के तट तक पहुंचाएगी जहाँ खड़ा वह विजेता सम्राट,अशोक अपनी ही विजय के सम्मुख परास्त है. वह पश्चात्ताप कर रहा है. इसलिए वह नत- शर है.
वहाँ मुझे दया नदी मिली. क्योंकि वहाँ दया नदी है. लेकिन वह दया नदीं मुझे नहीँ मिली जिसका जल रक्त से लाल था. मुझे जो दया नदी मिली उसके जल मेँ पश्चिम की तरफ़ को जाते हुए सूर्य की रक्तिम छाया पड रही थी. और जल का रंग लाल हुआ जा रहा था. वह दो अलग-अलग समय-मानों मेँ बंटी हुई एक नदी थी. एक इतिहास-काल की तत्कालीन दया नदी जिसके होने को मैंने माना. और एक हमारे समकालीन समय की दया नदी, जिसके होने को मैंने दो विभिन्न संवेदनात्मक प्राणिकीयताओं मेँ अनुभूत करने की और अपनी विस्मितताओं मेँ धारण करने की कोशिश की.
इतिहास के समय-काल से निकल कर रचना-समय में प्रवेश करते ही वह पश्चात्ताप की नदी मेँ बदल गयी. और अनुभूतियों के संसर्ग मेँ आते ही नदी का अर्थ पानी के अलग अलग संस्कारों मेँ व्याख्यायित होने लगे. एक नदी-तट उस संहारक युद्ध से उपजी मानवीय संवेदना को कविता मेँ अभिव्यक्त करने लगा. या स्वयं उस कविता की प्रतिध्वनि बन गया.
दुनिया के किसी ऐसे अन्य युद्ध का मुझे स्मरण नहीं जिसमें एक विजेता सम्राट अपनी ही विजय के सम्मुख उस तरह परास्त होता है. और वह संहारक युद्ध-स्थल दुनिया भर के शान्ति-कामियों के लिये एक तीर्थ-स्थल बन जाता है. किसी एक स्थानीयता का यह विश्व-व्यापीकरण विस्मयकारी है.
साहित्य में स्थानीयता के सन्दर्भ को लेकर हम कुछ बेहद गैर ज़रूरी संशयों से घिरे रहे. जब किन्हीं शब्दों का और उनके अर्थो का क्षरण होता है तब ऐसे संशय उपजते हैँ. \’\’संवेदनशीलता\’\’ और \’\’स्थानीयता\’\’ – जब इन संशयों से ग्रस्त होते हैं तो उनके अर्थों का प्रकटीकरण संकीर्ण राज्नीतिक-सामाजिक सन्दर्भों में होने लगता है. लेकिन जब साहित्य इन्हें ग्रहण करता है और रचनात्मक संस्पर्श प्रदान करता है तब इनकी संशय-मुक्ति होती है. और इनके अर्थ अपनी व्यापकताओ मेँ खुलने लगतें हैँ. कलिंग युद्ध की ऐतिहासिक घटना भी जब काव्य का संस्पर्श पाती है तब वह ऐसे ही, व्यापक अर्थों से युक्त स्थानीयता की रचना करती है.
आधुनिक हिन्दी साहित्य का रचना समय अपने यहां के किसी युद्ध अथवा युद्ध के प्रत्यक्ष संहारों से सुरक्षित बचा रह सका. चीन और पाकिस्तान के साथ हुये युद्ध भी सीमाओं पर लड़े गए. इसलिए हमारा केंद्रीय समांज उनकी संहारकताओं से सुरक्षित बचा रह सका. फिर भी, दुनिया में कहीं भी हो रहे युद्ध से उपजने वाली मानवीय त्रासदियोँ के प्रति आधुनिक हिन्दी साहित्य उदासीन नहीँ रहा. उन त्रासदियों को हमारे यहाँ संवेदना के स्तर पर ग्रहण किया गया. और उस पर उस पर रचना के स्तर पर प्रतिक्रिया भी की गयी.
इसी काल मेँ, हमारे नजदीक का देश, वियतनाम संभवतः सबसे दीर्घावधि युद्ध के दौर से होकर गुजर रहा था. उस पर, विश्व पदयात्री सतीश कुमार ने अपनी साहित्यिक त्रैमासिक- विग्रह\’\’ में \’\’वियतनाम\’\’ शीर्षक से ही एक कविता लिखी थी. वह कविता थी —
वहाँ
युद्ध हो रहा है
यहां
हम बातें कर रहे हैं…. \’\’
मेरे अपने पढ़े हुये में से, अपने आकार मेँ, वह शायद सबसे छोटी लेकिन अपनीं मारकता मेँ शायद सबसे बड़ी और उससे भी गहरी कविता थी.
युद्ध पर प्रतिक्रिया कर रही इस कविता मेँ प्रत्यक्ष इंगित भौगोलिक स्थानिकता भी उपस्थित है, जो उसके शीर्षक मेँ ही है, और वहाँ का स्थानीय समाज हमारी समझ मेँ साफ़ तौर पर उभरता है जो एक दीर्घावधि युद्ध की यंत्रणाओं को झेल रहा है. इस कविता के अन्य संकेतात्मक सन्दर्भ भी हमें ठीक वहीं पर पहुंचाते हैँ. वहाँ, जहां युद्ध हो रहा है.
वहाँ के मनुष्य समाज तक, जो उस दीर्घावधि युद्ध की यंत्रणाओं को झेल रहा है. और यहां — जहां हम उनकी यंत्रणाओं को, उनकी त्रासदियों को जान तो रहे हैं लेकिन कुछ कर नहीं पा रहे हैं. हम असहाय हैं.
यह असहायता एक ऐसी दारुण स्थानीयता की रचना करती है जो उधर भी है और इधर भी है. और यह दारुण स्थानीयता उस युद्ध से भी दीर्घावधि है. वियतनाम उस दीर्घावधि युद्ध से मुक्त हो चुका है. फिर भी वह युद्ध इस कविता मेँ बना हुआ है कि वहाँ युद्ध हो रहा है और यहां हम बातेँ कर रहे हैं. दो अलग-अलग स्थानीयताओं और उनकी असहायताओं से उपजा वह स्थानीयता-बोध अब हमारी स्मृतियों मेँ अपनी स्थायी जगह बना चुका है.
चाहे हमारा अपना रचना-समय अपने यहां हुये किसी युद्ध अथवा युद्ध के प्रत्यक्ष संहारों से सुरक्षित बचा रह सका, लेकिन हम उन विषादकारी संवेदनाओं से सुरक्षित नहीं बच सके जो भारत-पाक विभाजन की त्रासदियों से उपजीं. ये त्रासदियां किन्हीं भी योरोपीय देशों के प्रत्यक्ष युद्ध अनुभवों से कम अमानवीय नहीँ थीं. और हमको उतना ही असहाय बनाने वाली भी थीं. उस तरफ़, लाहौर और इस तरफ़ अमृतसर –एक जैसी अनेक व्यथा-कथाओं के केन्द्र में रहे.
फिर धीरे-धीरे एक दूसरे से दूर होते गये. लाहौर के लिए अमृतसर और अमृतसर के लिये लाहौर. लेकिन, क्या एक दूसरे से दूर होने का यह विशाद क़िसी एक के लिये भी, किसी दूसरे से कम हो सकता है ? वस्तुतः यह दो विशिष्ट स्थानीयताओं का एक जैसी विषादयुक्त संवेदनाओं मेँ विलीनीकरण है. लाहौर का अमृतसर में और अमृतसर का लाहौर मेँ. अंततोगत्वा दोनों का एक जैसी संवेदनाओं मेँ बदल जाना.
प्रेम को युद्ध की सबसे रचनात्मक प्रतिक्रिया के रूप मेँ देखा और ग्रहण किया जा सकता है. कम से कम, दूसरे विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि से उपजी, चन्द्रधर शर्मा \’\’गुलेरी\’\’ की कालजयी कहानी — उसने कहा था \’\’ तो यही है. इसमें युद्ध है, \’\’लाम\’\’ पर जा रहे सिपाही हैं और वह स्थान भी है जहां पर युद्ध हो रहा है. फिर भी –उसने कहा था \’\’ एक कोमल प्रेम आख्यान है, जो अमृतसर मेँ उपजता है. वह अमृतसर में ही हो सकता था क्योंकि इस आख्यान का प्रेम उसी सांस्कारिकता के तत्वों से निर्मित होता है जो अमृतसर की अपनी स्थानीयता का खालिस तत्व है.
लेकिन अमृतसर की यही स्थानीयता भीष्म साहनी की कहानी –अमृतसर आ गया \’ तक पहुंचते ना पहुंचते मनुष्य के दूसरे चरित्र के स्थानीय तत्व का संकेतक हो जाती है. भारत -पाक विभाजन का पीड़ित पात्र जो उस तरफ़, याने लाहोर से चला था तो किस कदर भयभीत और दयनीय था. और इस तरफ, याने अमृतसर पहुंचते ही शेर हो जाता है. और अमृतसर की स्थानीयता एक शरण्यक मेँ परिवर्तित हो जाती है.
दूसरी तरह से देखें तो प्रेम, यहां युद्ध के रचनात्मक प्रतिकार से अलग हटकर, हमें एक पराजय-बोध मेँ मिलने लगता है. यह पंजाब के स्थानीय चरित्र से अलग है. पंजाब का स्थानीय चरित्र वहां की लोक-गाथाओं से निर्मित होता है जिनकी व्याप्ति आज तक सरहदो की दोनोँ तरफ़ अपनी उंसी विस्तारिता मैं बनी हुयी है जो विभाजन के पहले से रही आई है. ये लोक-गाथाएं हीर-रांझा या सोनी-महिवाल या सस्सी-पुन्नो की प्रेम-गाथाएं है.
शायद, हीर-रांझा या कि सोनी-महिवाल ? मैं अक्सर इन दोनों के बीच उलझ जाया करता हूँ. और अपनी इस उलझन को बनाये रखना मुझे अच्छा लगता है. क्योंकि उतनी देर तक मैं एक साथ दो प्रेम-गाथाओं से जुड़ा रहता हूँ. बीच में एक नदी होती है — चनाब. जिसके एक तट पर हीर का गॉंव है –झंग. और दूसरे तट पर उसके रांझा का गांव है –तख़्त हजारां, जहाँ हीर को आना है. अब ये दो गांव पाकिस्तान मेँ कहीं मिलेंगे या नहीं, क्या पता ? लेकिन मेरे मन मेँ एक नक्शा है और उस नक्शे में मैं इन दोनों गांवों मेँ, उन दोनों के घरों को ढूंढा करता हूँ.
ये प्रेम-गाथाएं हिन्दी का अपना रचनाए-साहित्य नहीं बल्कि, हिन्दी संवेदनशीलता की आत्मग्राही रचनात्मकता है. पंजाब की इन अमर प्रेम-गाथाओं के केंद्रीय तत्व को पँजाब से नीचे वाले मैदानी भूभाग मेँ बहुत दूर तक इस तरह आत्मसात कर लिया गया कि उनका हिन्दी से इतर होना लगता ही नहीं. और हम चनाब नदी के दो तटों पर बसे उन दो गॉंवों –झंग और तख़्त हजारां को, इन दो गांवों मेँ हुये उन दो अमर गाथा-पात्रों को अपने करीब, अपने पड़ोस मेँ अनुभूत करने लगें. यह किसी एक विशिष्ट स्थानीयता के उन संस्कारों के सघन प्रभावों का विस्मयकारी विस्तारण है. इसे किसी एक विशिष्ट स्थानीयता की गतिशीलता के अर्थ में ग्रहण करना होगा. तभी हम पक्के तौर पर समझ सकेंगे कि कोई स्थानिकता कहीं स्थित-स्थिर या स्टैटिक होती है. और स्थानीयता किसी एक स्थान के सँस्कार, वहां कि चारित्रिक पहिचान की गतिशीलता मेँ निहित होती है.
भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक विजय शेषाद्रि को उनकी कविताओं के लिये, अभी -अभी पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. विजय शेषाद्रि मूलतः बंगलुरु के रहने वाले हैं. और अपनी कविता के विषय मेँ बात करते हुये उन्होंने कहीं कहा कि उनकी कविताओं मेँ भारत उपस्थित रहता है. क्या किसी कवि की उपस्थिति को उसकी अपनी कविताओं से अलग कहीं और तलाशना चाहिये ?अपनी कविताओं मेँ भारत की उपस्थिति को, उसकी व्याप्ति को रेखांकित करते हुये विजय शेषाद्रि अपनी स्थानीय पहिचान का रेखांकन कर रहे थे. और ठीक इसके साथ भारत का उल्लेख भी कितने गहरे स्थानीय सन्दर्भ मेँ कर रहे थे ? इसे समझ लेना स्थानीयता बनाम वैश्विकता बनाम भूमंडलीकरण को, उनकी पारस्परिकताओं मेँ और उनके अंतरावलम्बी संबंधों मेँ समझ लेना होगा. और यही समझ ठीक भी है.
एक और निर्मूल किस्म की भयग्रस्तता ने आधुनिक हिन्दी साहित्य के एक धड़े को किसी ना किसी रूप मेँ इस दुविधा मेँ ड़ाल रखा है कि अपनी स्थानीयता के प्रति अपना लगाव जताते ही वैश्विक समुदाय मैं उनकी पहिचान पिछड़ जाएंगी. या पिछड़ी हुयी मान ली जायेगी. कहीं ना कहीं, यह अपनी देसी पहिचान से छुटकारा पाने का ऐसा आवरण रचना होगा जो उन्हेँ स्थान-निरपेक्ष, और अंततोगत्वा स्थानीयता-विहीन कर सकता है. उनकी अपनी पहिचान से ही वन्चित कर सकता है.
क्या हिन्दी साहित्य का आधुनिक-काल अपना पूरा जीवन जी चुका ? और क्या उसकी उत्तर-आधुनिकता आने मेँ अभी देर है ? इन प्रश्नों से परे का यथार्थ अभी भी यही है कि हमारी पहिचान, हमारी अपनी देसी स्थानीयता से हीं बनती है. विजय शेषाद्रि अपने घर- परिवार के सम्बन्ध में दो महत्वपूर्ण बातें करते हैं — कि वो और उनका परिवार दुनिया में कहीँ भी रहा, लेकिन उनकी माँ ने घर क परिवेश भारतीय (स्थानीय) ही बनाये रखा. और यह कि, वो अपने बेटे को भारत दिखाना चाहते हैं. उनका यह कथन एक साथ तीन पीढ़ियों की अपनी स्थानीय पहिचान को अपनीं सांस्कृतिक निरंतरता में बनाये रखने का संकल्प है. एक वो स्वयं, एक उनकी माँ और एक उनका बेटा. और अपने संस्कारगत चरित्र मेँ यह पहिचान उसके स्थानीय देसीपने मेँ सुरक्षित मिलतीं है. और यह देसीपना क्या है ? लोगों की नैतिक आदतें और स्वभावगत स्थानीय नैतिकताएं.
आधुनिक हिन्दी रचना साहित्य की चिन्हांकित स्थानीयता एक लम्बे समय तक गंगा – यमुना के दो-आबे वाले उत्तरप्रदेश में केन्द्रित रही. और इस पर मुंशी प्रेमचंद का गहरा प्रभाव रहा. और इससे भी पहले से चली आ रही, तुलसी और कबीर की परंपरा ने भी गंगा-यमुना से सिंचित इस मैदानी भूभाग को जितनी गहरी सांस्कृतिक पहिचान दी उसकी व्याप्ति किसी एक संकीर्ण स्थानीयता मेँ सम्भव नहीं थी. वह, एक तरह से, आस्थावादी भारतीय समाज की विस्तारित स्थानीयता थीं.
मुंशी प्रेमचंद की रचना परम्परा मेँ दलितों और वंचितों को केन्द्रिय स्थान प्राप्त हुआ. उनकी असहायता और पीड़ा ने हिन्दी रचना साहित्य मेँ एक अलग किस्म की ग्रामीण- सामजिक संरचना की. इस संरचना ने हमारा साम्मुख्य वहाँ के जिन स्थानीय रीति- रिवाज़ों और प्रथाओँ से कराया उनमें भेद-भाव, यातना और अन्याय के तत्व प्रबल थे जो मनुष्य को अपमानित करते हैं और असहाय बनाते हैं. इनका प्रतिकार प्रेमचंद की रचना शक्ति थी.
बाद में फणीश्वर नाथ \’\’रेणु\’\’ ने पूर्वी बिहार की जिस स्थानीयता से अपने रचना-संसार की सृष्टि की उसमें भी वह सब था — भेद-भाव, यातना और अन्याय– जो मनुष्य को अपमानित करता है और असहाय बनाता है. एक तरह से यह प्रेमचंद की रचना-दृष्टि का ही विस्तार था. लेकिन कुछ ऐसा भी था जो रेणु के पास \’\’रेणु\’\’ का अपना था. और यह उन्हें प्रेमचंद से अलग, ऊनकी अपनी पहिचान देता था.
मनुष्य को अपमानित करने वाले और असहाय बनाने वाले तत्वों का प्रतिकार प्रेमचंद की रचना-शक्ति बनी. लेकिन \’\’रेणु\’\’ ने उन दलितों और वंचितों को ही रचना-शक्ति में बदल दिया. इसके लिए उन्होंने, इस चिन्हांकित स्थानीयता मेँ व्याप्त उस लोक-तत्व का संधान किया जिसकी रसार्द्रता मनुष्य के लिये जीवनी-शक्ति का संचार करती है. इस जीवनी- शक्ति के साथ वह अपने दुर्भाग्य से संघर्ष कर सकता है. अथक संघर्ष.
\’\’रेणु\’\’ ने पूर्वी बिहार के पूर्णिया से लगाकर नेपाल की तराई तक फैली आंचलिकता को कुछ -कुछ वैसी ही विशिष्टता प्रदान की जैसा हमें, अंग्रेज़ी साहित्य मेँ, टॉमस हार्डी के \’\’वेसेक्स\’\’ में मिलता है. \’\’वेसेक्स\’\’ का अपना भू-दृश्य (टोपोग्राफी) है, उसकी मिट्टी के रंग, वहाँ के लोगों के ढंग, उनकी बोली-बानी– सब कुछ अलग से पहिचाने जाते हैं. और वैसा ही दिखते हैँ जैसा टॉमस हार्डी दिखाना चाहते हैँ.
ऐसा ही कुछ-कुछ शिमला, हमें निर्मल वर्मा के गद्य-लेखन में मिलता है. वह बिलकुल निर्मल वर्मा की तरह मिलता है. जैसा वो दिखाना चाहते हैं, बिल्कुल वैसा ही दिखता है. पहाड़ो पर बर्फबारी का मौसम हो,खिड़की से बाहर सफ़ेद सड़क हो या बन्द कमरे के भीतर \’\’फायर प्लेस\’\’ में बनी हुयी आग की स्मृतिजीवी (नॉस्टॅल्जिक) गर्मी हो. निर्मल वर्मा की शिमला-अनुभूति इतनी सघन और रागात्मक है कि वह अपने से अलग होकर हम तक पहुंचने मेँ भी संकोच करतीं सी लगती है. कई बार तो लगता है कि निर्मल वर्मा के बिना हिन्दी का रचना -संसार चीड़ के पेड़ों या लाल टीन की छत की सौन्दर्यानुभूति से वंचित रह जाता. और इनके बिना शिमला को ही कैसे जाना जा सकता था ?
निर्मल वर्मा का शिमला सपनीला है. और जैसे सपनों की चित्रकारी करता हुआ मिलता है. चित्र में, बहुत कोमल धुनो मेँ बजने वाले वैसे किसी संगीत की रचना कर रहा होता है जो पहले से बजता आ रहा है. हमसे पहले वहाँ कोई था, जो उसे वैसा ही बजता हुआ छोड़ कर, अभी-अभी कहीं निकल गया है.
और जब हम उस छूटे हुये संगीत के प्रभाव से मुक्त होते हैं तो शिमला एक आंचलिकता मेँ प्रसारित होता हुआ मिलता है. कथाकार एस० आर० हरनोट की कहानियां हमें अपने साथ लेकर वहाँ तक पहुंचाती हैं. हरनोट की कहानियों में हिमाचल की आंचलिकता दो धाराओं के समन्वय से विकसित होती है. \’\’रेणु\’\’ की आंचलिक रसार्द्रता और हिमांचल के पर्वतीय जन-समाज में व्याप्त विसंगतियाँ. हरनोट का यह अंचल जितना कथात्मक है, उतना ही यथार्थ भी है.
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