पेंटिग : Paresh Maity: SUNLIGHT अपर्णा मनोज कविताएँ लिख रही हैं, कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं और उनके अनुवादों ने भी ध्यान खींचा है. प्रस्तुत कविताओं का वितान वैश्विक है. दुनिया में जहाँ- जहाँ भी दर्द हैं ये कविताएँ वहां वहां जाती हैं. ये कवितायेँ हिंदी कविताओं की पहुंच का पता देती हैं. एक अर्थ में ‘लोकल’ […]
अपर्णा मनोज कविताएँ लिख रही हैं, कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं और उनके अनुवादों ने भी ध्यान खींचा है. प्रस्तुत कविताओं का वितान वैश्विक है. दुनिया में जहाँ- जहाँ भी दर्द हैं ये कविताएँ वहां वहां जाती हैं. ये कवितायेँ हिंदी कविताओं की पहुंच का पता देती हैं. एक अर्थ में ‘लोकल’ होने के साथ है हर व्यक्ति विश्व-प्राणी भी है. हर घटना घटनाओं का सिलसिला है. इन कविताओं में संवेदना, विचार और शिल्प की परिपक्वता दिखती है.
अपर्णा मनोज की कविताएँ
असहिष्णुता:
इसे मेरी असहिष्णुता ही समझ लिया जाए
और केवल इसलिए मेरी हत्या कर दी जाए
कि मुझे मास्टर जी जम नहीं रहे
कि स्कूल की वर्दी का कोई रंग मुझे माफ़िक नहीं आ रहा
कि ये ख़ास सिलाइयाँ, ये ख़ास टाँके
कि ये ख़ास जिस्म और ये ख़ास दिमाग
कि ये ख़ास तरह के खौफ़
ये ख़ास इमारतें, ये ख़ास इबारतें
कि मुझे दरी -पट्टी साथ
कि मुझे कलम- कागज़ साथ
बोलना चाहिए अब
मास्साब बीच से इस डंडे को हटाइए.
एक गैरमक्बूल सच के लिए
हमें बोलना चाहिए अब.
कि ये केवल पत्तों के टूटने की आवाज़ नहीं
कि ये रातभर फूलों का झड़ना नहीं
कि ओस और आसमान
परिंदे, नदियाँ और पहाड़
कि ये समंदर और सैलाब की निसाबे तालीम नहीं
निशानेराह और निशानेमील का सबक भी नहीं
ये केवल चौराहे से फूटती सड़कों की बात नहीं
ये केवल रेलों का आना-जाना भी नहीं
कि मैं इस कदर भी खल्वतगाह में नहीं रहना चाहती
कि मुझे गुमशुदा समझ लिया जाए
एक संकरी प्रेम गली में
क्या सच में वे दो समा नहीं सकते?
इतना तो पूछना चाहिए मुझे, मास्साब अब.
ख़त:
डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक
वे आ रहे हैं
रवांडा वे आ रहे –
बोस्निया के इतिहास, 1915 के मासूम आर्मीनिया
वे आ गए सूडान- डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक
दुनिया के कुओं-मैं अपने कबीले की सारी बाल्टियाँ और रस्सियाँ तुम्हें सौंपता हूँ
तुम्हारे मीठे जल के लिए कोई सदी फिर लौट आये मिलने तुमसे!
दुनिया के चारागाहों मैं बीजों की पोटली और मन्नत की घंटियाँ तुम्हारे हवाले करता हूँ कि एक दिन जब सुबह को सांझ का इंतज़ार हो
तो वह लौटे हमारे मवेशियों के साथ
मैं अपनी लड़कियां कहीं छिपा नहीं सका. मुझे माफ़ करना सितारों के सरदार!
पर मैंने ख़त भेजे हैं उनकी याद में –
दुनिया की घनी आबादियों को
खार्तूम और दुनिया की ख़ूबसूरत राजधानियों को
हर पार्लियामेंट को, संसद को, कॉंग्रेस, बून्देस्ताग और मजलिस को
मैंने साफ़-साफ़ लिखा है-
कि दुनिया की गलियों में
हमारी स्मृति में रैलियां निकालो, हर बच्चे को मोमबत्ती जलाना सिखाओ
हर युवा को मैंने छोटे-छोटे झंडे भेजे हैं –सेफ्टीपिन से अपनी जेब पर टांक लो
दुनिया के हर कवि को मैंने ‘शब्द’ पार्सल किये हैं
हर धर्म के पास मैंने इबादत भेजी है
मैंने अपना सारा सामान दुनिया के म्यूज़ियमों को भेजा है
जादू-टोने, मन्त्र और बुद्ध की मूर्तियों की अनगिनत प्रतियाँ दुनिया के महानायकों को भेज चुका हूँ.
यू एन ओ को ‘शांति’ की अपील भेजी है और साथ में अपने पेड़ों, बाग़-बगीचों, नदियों, मैदानों और पक्षियों के डी एन ए सैम्पल भी
मैंने तमाम अस्पतालों से कहा है कि हमारे एकमुश्त अंगों को ले जाओ
हमारी आँखें बहुत दूर तक देखती थीं
हमारे कंठ बहुत मधुर थे और खून बहुत साफ़
हमारे गुर्दे अब भी प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं
डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक, वे आ रहे हैं ..वे रौंदें
इसके पहले दुनिया के ‘महान जनवाद’
हमारी आत्माओं को किसी सुरक्षित जगह पहुंचा दो.
पहुंचा दो ……
प्यार और दुलार के साथ तुम्हारा डरफर!
छुटकारा:
दोस्त
छुटकारा कहीं नहीं है
हम जो कभी एक दूसरे से दूर भागते हैं
इसका अर्थ यह नहीं कि कोई ओर नहीं, छोर नहीं हमारा
और हम कहीं भी भाग छूटेंगे
पृथ्वी की परिधियों से आज तक कोई नाविक नहीं गिरा किसी शून्य में
सब चलते रहे
चलने की चाह में हम बार-बार वामन हुए
पृथ्वी भी साथ-साथ चलती रही, उठती रही, बढ़ती रही
कदमताल एक –दो, एक –दो –एक
अंतरिक्ष की गुफ़ा में
धरती एक ठिगना गोरखा.
फांक:
पहली-दूजी कक्षाओं तक मैं यह समझती रही कि
धरती एक नारंगी है
शरबती फांकोंवाली
मीठी खट्टी
पर बड़े होने पर फांक के अर्थ ही बदल गए
सचमुच की फांक बीच आ गई
नारंगी का ज़ायका फिलिस्तीनी हो गया
मुझे लगा कि मेरी देह में यहूदियों की प्राचीन बस्ती है
मुझे लगा कि मैं एक निर्वासित फांक हूँ
मुझे लगा कि नारंगी से छिटककर मैं कहीं दूर जा गिरी हूँ