निर्मला पुतुल ख्यातनाम हैं. निर्मला के काव्य संसार में आदिवासी स्त्री अस्मिता के सरोकार नगाड़े की तरह बजते हैं. यह ऐसी पुकार है जिसने हिंदी कविता का भूगोल बदल दिया है. ये कविताएँ सम्बोधित हैं अपने समाज से और शेष संसार से भी. इसमें लगातार छले गए सबसे भले लोगों की वेदना है, नाराजगी है, और सबसे बड़ी बात इस छल को समझने और उससे जूझने की तैयारी है. वैश्विक पर साथ-ही-साथ एकअर्थी होते जाते समय में अपने शब्दों के ऐश्वर्य और साहस को बचाने की एक कोशिश है यहाँ.
नई कविताओं के साथ कुछ चर्चित कविताएँ भी दी जा रही हैं.
नगाड़े की तरह बजते शब्द (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली)
सम्प्रति
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
कुछ भी तो बचा नहीं सके तुम
तुम्हारे पास थोड़ा सा वक्त है…..
अगर नहीं तो निकालो थोड़ी फुर्सत
याद करो अपने उन तमाम पत्रों को
जिससे बहुत कुछ बचाने की बात करते रहे हो तुम
बताओ दिल पर हाथ रखकर सच-सच
तुमने क्या-क्या बचाया अपने भीतर
संकट के इस दौर में ………
बचा सके मेरा विश्वास
मेरी तस्वीर, मेरे खत, मेरी स्मृतियाँ
मेरी रींग, मेरी डायरी, मेरे गीत
मेरा प्यार, मेरा सम्मान, मेरी इज्जत
मेरा नाम, मेरी शोहरत, मेरी प्रतिष्ठा ?
निभा सके अपना वचन, अपनी कसमें
लड़ सके अपने अस्तित्व और इज्जत के लिए
अपने वादे, अपने विश्वास की रक्षा के लिए
लड़ सके वहाँ-वहाँ उससे
लड़ने की जरूरत थी
जहाँ विरोध की पूरी संभावना थी ?
माँगे हो कभी अपने आपसे उसका जवाब
सवाल करते रहे हो तुम एक पुरूष होकर, हजारों पुरूषों से.
आलिंगन, स्पर्श, चुंबन बचा सके तुम
जिसके दूर-दूर तक बचे रहने की कोई उम्मीद नहीं
ओैर न ही विश्वास दिलाने को पुख्ता सबूत ?
बचा पाये अपने भीतर, थोड़ी सी पवित्र जगह
जहाँ पुनर्स्थापित कर सको अपने खोए देवी को ?
अभी-अभी यह सब पढ़ते
किसी चील की झपटदार चंगुल से
बचा सकोगे इसे
जिसकी एक-एक शब्द
खून, आँसू, नफरत और प्रेम के
गाढ़े घोल में डूबी है.
कुछ भी तो बचा नहीं सके तुम
और तो और तन-मन भी बचा नहीं सके तुम
जिस पर थोड़ा सा भी गर्व करके
खुद को कर सकूँ तैयार
तुम्हारे वापसी पर ………..
मिटा पाओगे सबकुछ
भयानक काली रात को
जो बरबस उमड़ती घुमड़ती
चुभती है मेरी आत्मा को
कैसे मिटा पाओगे
मेरी यातनामय गूंगी चीत्कार
क्या करोगे क्रूर नजरों और नजरानों का
निपट अकेले जूझ रही हूं जिनसे
मेरी नाभी में उठते शूल को ?
मन सिंहासन पर विराजमान
इंसाफ माँगती स्त्री के उठते
बलात्कारित सवालों को
कैसे मिटा पाओगे?
क्या पाँव में चुभे
काँटो की तरह
कूरेद निकाल फेंकोगे
आत्मा में फंसी हुई पिन
गर्भ में गड़ी हुई जहर बुझी तीर
अन्दर ही अन्दर
नासूर बन टीसते टीस को
मिटा पाओगे किसी जन्म में?
हजारों स्त्रियों के
बचाव में लड़ती
जो खुद को बचा नहीं सकी
तेरी हैवानियत से
हजारों स्त्रियों की उफनती बेबसी को
मेरे बलात्कारित होने का जबाव दे
क्या मिटा पाओगे उन सबकी बेबसी ?
अभी-अभी जब बता रही हूँ
क्या सुन रहे हो मेरी आवाज
क्या समझा सकोगे खुद को ही
अपने जीवन और जन्म के रहस्य?
सीधे-सीधे पूछती हूँ तुमसे
रात के सन्नाटे में
क्या कभी काँपती नहीं है तुम्हारी रूह
क्या कुछ भी तुम्हें याद नहीं आता
सुनाई नहीं देती औरतों की हिचकियाँ
और मेरी चुप्पी
क्या तुम्हें सुनाई नहीं देता
क्या तुम सो पाते हो
बेखबर हो नींद में
ले पाते हो खुली साँस
क्या पलक ढंपी आँखों से
दिखता नहीं मेरा मासूम चेहरा
अपनी निरीहता का सबूत माँगते ?
क्या तुम्हें नहीं लगता कि
तुमने किया है कत्ल मेरे विश्वास का
मेरी आबरू को सहेजने के बजाय
चढ़ा दी बलि
ऐसे में तुम पर समर्पित हो
कैसे कर लूँ यकीन
क्या करूं न करूं
बोलो न
कैसे मिटा पाओगे मेरा यह संशय
यह दुख यह दर्द
और अंधेरा
जो जून से जून तक फैला है.
आखिर कहें तो किससे कहें
वे कौन लोग थे सिद्धो-कान्हू
जो अंधेरे में सियार की तरह आए
और उठा ले गए तुम्हारे हाथों से तीर-धनुष
तुम्हारी मूर्ति तोड़ीवे कौन लोग थे,
तुम आज जिन्दा होते तो
शायद ही ऐसा दुस्साहस करता कोई.
सुनी नहीं जिन्होंने तुम्हारी वीरता की गाथा
पढ़ा नहीं तुम्हारा इतिहास
वे तीर और तीर के लक्ष्य नहीं जानते
तभी तो इतिहास के पन्नों से
मिटाना चाहते हैं तुम्हारा नामों निशान.
वे कितने नादान हैं, बेईमान
कभी लुच्चा लंपट बता-बता कर
छोटा करते रहे तुम्हारी कद
और तुम्हारे आंदोलन को
देश की आजादी न मानकर
एक झूठी कहानी को बताते रहे सच.
आदिवासीयत के नाम पर
तुम करते रहे सच्ची वीरता की विरासत का बंदरबांट
देखते रहे तुम्हें हिकारत से वे
उड़ाते रहे मजाक तुम्हारी लंगोटी का
सोतार कह अभी भी
तुम्हारे वंशजों को चिढ़ाते बाज नहीं आते.
वे कौन लोग हैं
चाहते क्या हैं, जानते क्या हैं,
जो उठाते रहे सवाल तुम्हारे कुर्बानी पर
ताकि साबित कर सके तुम्हें आवारा बदमाश
फिर उतना बड़ा योगदान आदिवासियों का
कैसे रास आएगा भला उन्हें
हमारे किए करते हैं राज
और हमें आदमी तक नहीं मानते
उन्हें यह बात चुभती है, पेट में पथरी सी
उबकाई आती है उन्हें
दरअसल वे डरते हैं तुमसे सिद्धो-कान्हू
तभी तो गहरी रात में उठा ले जाते हैं तुम्हारे तीर धनुष.
और किसका क्या कहना
अपने बुशी सोरेन को देखो
राजभवन के दरवाजे पर डंका पीटते हुए
आर-पार की लड़ाई की करते हैं घोषणा
उन्हें आज तक नहीं मिली
तुम्हारे निहत्थे कर दिए जाने की खबर
और तो और
जिस रोज कायरों ने तोड़ी प्रतिमा तुम्हारी.
कल तक जो तुम्हारे साथ
एक जुट हो लड़ रहे थे
वे आज अपनी-अपनी कुर्सी के लिए लड़ रहे हैं
पर तुम तो कभी कुर्सी के लिए लड़े नहीं
और उस वक्त कोई कुर्सी नहीं थी.
देखो न
तुम्हारे नाम भुनाकर जो सत्ता पर काबिज हैं
लड़वा रहे हैं हमें आपस में ही अब
चाहे वो बुशी सोरेन हो या जुन मुंडा हो
टिफिन मराण्डी हो या नील सोरेन हो.
भूल गये वे आज
जिस कुर्सी पर विराजमान हैं
वह तुम्हारी हथेलियों पर टिकी है.
अंग्रेजों के अप्रत्यक्ष उत्तराधिकारी अभी भी
अपनी मानसिकता के साथ सक्रिय हैं सिद्धो-कान्हू
काश! तुम होते तो देखते
तुम्हारे नारे से हमारे ही विरूद्ध
और तुम्हारे विरूद्ध लड़ रहे हैं वे.
कैसे लड़े इनसे
कैसे निपटे हम
हमारे तीर-धनुष सब इनके कब्जे में ही तो है.
और फादर टोप्नो की सुनो
वे तुम्हारे आंदोलन को बता रहे हैं
महाजनों और जमींदारों की लड़ाई
इन मगजहीनों का हम क्या करें
इनसे कैसे शुरू करें लड़ाई
पर करना तो होगा कुछ न कुछ
देखो न पड़ा है नगाड़ा किनारे उदास
और भाई सब हड़िया पीकर कैसे दिमलाए हैं यहाँ-वहाँसिद्धो मैं पीटती हूँ नगाड़ा
कि इसकी आवाज सुन
तुम आओगे कहीं न कहीं से
मैं पीटती हूँ नगाड़ा.
जब टेबुल पर गुलदस्ते की जगह बेसलरी की बोतलें सजती हैं
यह कहते हुए
शर्मिन्दा महसूस कर रही हूँ
कि बाजार में घूमते
जब प्यास लगती है
तो पानी से ज्यादा
पेप्सी और स्प्राइट की तलब होती है
पता नहीं कब
हमारी प्यास में घुस गया यह सब.
सभा सम्मेलनों में आते-जाते
कब बोतल बंद पानी ने
जगह बना लिया हमारे भीतर
कि अब हम अपनी यात्राओं में भी
बेसलरी की बोतल साथ रखते हैं.
वे सारे लोग
जो हममे देशज संस्कृति तलाशते हैं
झारखण्डी अस्मिता पर बोलवाते हैं
और जल-जंगल-जमीन के मुद्दे पर
हमारी राय चाहते हैं
वही लोग बेसलरी की बोतलें बढ़ाते हैं
बोलते-बोलते जब प्यास लगती है सभा में.
अब जबकि गुलदस्ते की जगह
सम्मेलनों में हमारे टेबुलों पर बेसलरी बोतलें सजती हैं
न चाहते हुए भी पानी पी-पीकर बोलना पड़ता है
अपने इलाके के सूखे स्रोतों पर.
ऐसे में जब बाजार से गुजरते
एक ग्लास पानी मिलना कठिन हो गया है
और पेप्सी आसान
नहीं चाहकर हम आसान रास्ते अपना लेते हैं दोस्त ! आखिर वे लोग
जो हमारे भीतर
जल-जंगल-जमीन बचाने का जज्बा देखते हैं
झारखण्डी अस्मिता और देशज संस्कृति तलाशते हैं
उन्हीं की संगति ने हमारी भाषा बिगाड़ दी
और प्यास बुझाने के लिए
पेप्सी और स्प्राइट का चस्का लगा दिया.
क्या तुम जानते हो
उतनी दूर मत ब्याहना बाबा !