गंगा मस्जिद
यह बचपन की बात है, पटना की.
गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था.
गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”.
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती.
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती.
परिन्दे ख़ूब कलरव करते.
इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती.
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती.
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते.
मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल.
वुज़ू करता.
आज़ान देता.
लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते,
और चले जाते.
आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर.
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते.
सरकार ने अब वुज़ू के लिए
साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है.
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है.
गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है.
गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को.
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है.
.06/12/2010
इरोम शर्मिला
यह कविता इरोम पर नहीं है.
उन लोगों पर है
जो गाँवों, क़स्बों, गलियों, मुहल्लों में
लोकप्रियता और ख़बरों से दूर,
गाँधी की लाठी लिए चुपचाप कर रहे हैं संघर्ष.
यह कविता इरोम पर नहीं है.
यह धमकी है उस लोकतंत्र को,
जो फ़ौजी बूट पहने खड़ा है.
जो बन्दूक की नोक पर इलाक़े में बना कर रखता है शांति.
पिछले दस सालों में जितने बच्चे पैदा हुए हिमालय की गोद में,
उन्होंने सिर्फ़ बन्दूक़ की गोली से निकली बारूद की गँध ही जाना है,
और दर्शनीय स्थलों की जगह देखी हैं फ़ौज.
जहाँ बर्फ़ सी ठंडी है कारतूस का भाव.
यह कविता इरोम पर नहीं है,
बल्कि उस बारूद की व्याख्या है,
जिसकी ढेर पर बैठा है पूर्वोत्तर.
मुम्बई
मुम्बई को कौन चला रहा है यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता.
लोकल का रेला आपको ट्रेन में कैसे चढ़ा देता है पता भी नहीं चलता.
बस की क़तारों में खड़े आप कब बस में चढ़ कर
अपने गंतव्य पर ठीक ठीक कैसे उतर जाते हैं, पता नहीं.
वह कब चलना शुरु करती है, कब सुस्ताती है, किसी ने कभी देखा नहीं.
वास्तव में कभी सोचा नहीं कि क्यों चलती भी है.
घर के बाहर आप अपनी गाड़ियाँ छोड़ सकते हैं,
फिर भी मुम्बई अपनी गति से चलती ही रहेगी, उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.
दंगे, धमाके, मुठभेड़, हमले,
सब हो जायेंगे लेकिन औरों की तरह मुम्बई कभी रुकती नहीं.
जो भी उसकी लय में आ गया,
वह हो गया…… मुम्बई का.
फिर वह ट्रेनों की तरह एक जगह से खुल कर दूसरी जगह
और फिर वापस उसी जगह, घूम सकता है.
कोई कुछ भी कहे.
कोई आये.
कोई जाये.
कोई कितना भी रोए.
कोई कितना भी हँसे.
मुम्बई की गति नहीं रुकती.
अंबानी की सत्ताईसवीं मंज़िल से देखें
तो एक ऐसा खेत नज़र आता है,
जिसमें फूल गोभी से सुँदर सुँदर मॉल उगे हैं.
लहलहाती इमारतें उगी हैं.
और जहाँ ज़मीन या जंगल बचे हैं, वहाँ काम चालू आहे.
और मुम्बई चल रही है.
आपके पास हालांकि ढेरों सवाल हो सकते हैं, लेकिन
मुम्बई चुप्पी साधे बस चल रही है,
ब्रह्मांड की तरह.
पहले लगता था
पहले लगता था कि जो सरकार बनाते हैं,
वे ही चलाते हैं देश.
पहले लगता था कि संसद में जाते हैं
हमारे ही प्रतिनिधि.
पहले लगता था कि सबको एक जैसा अधिकार है.
पहले लगता था कि अदालतों में होता है इंसाफ़.
पहले लगता था कि अख़बारों में छपता है सच.
पहले लगता था कि कलाकार होता है स्वच्छ.
पहले लगता था कि ईश्वर ने बनाई है दुनिया,
पाप पुण्य का होगा एक दिन हिसाब.
पहले लगता था कि मज़हबी इंसान ईमानदार तो होता ही है.
पहले लगता था कि सच की होगी जीत एक दिन,
केवल आवाज़ उठाने से ही सुलझ जाता है सब.
अभी केवल इतना ही लगता है,
कि सूरज जिधर से निकलता है,
वह पूरब ही है,
और डूबता है वह पच्छिम में. बस.
पेंटिग : jai zharotia
लकड़-सुंघवा
रात में भी लोगों में रहने लगा है अब,
लकड़-सुंघवा का डर.
(तपती दुपहरी में लकड़ी सुंघा कर बच्चे को बेहोश करके बोरे में भरकर ले जाने वाला.)
::
लू के मौसम में,
जब सुबह का स्कूल होता है,
दोपहर को माँ अपने बच्चे से कहती है,
“सो जा बेटा, नहीं तो लकड़-सुंघवा आ जाएगा”.
“माँ, लकड़-सुंघवा को पुलिस क्यों नहीं पकड़ लेती?”
“बेटा, वह पुलिस को तनख़्वाह देता है”.
शाम को जब बच्चा सो कर उठता,
तो मान लेता है कि लकड़-सुंघवा आया
और बिना बच्चा चुराये चला गया.
पर एक रोज़ बस्ती में सचमुच आ गया लकड़-सुंघवा. पर रात में.
पूरनमासी की रात थी, पत्तों की खड़ खड़ पर कुत्तें भौंक रहे थे.
बिल्ली सा वह आया दबे पाँव.
सोये हुए लोगों की छाती में समा गई उसकी लकड़ी की महक.
जो भाग सके वे अँधे, बहरे, लूले, लंगड़े हो गये,
लेकिन ज़्यादातर नीन्द में ही सोये रह गये.
और धीरे धीरे जमने लगी धूल बस्ती पर.
जैसे जमती है धूल यादों पर, अदालत की फ़ाईलों पर,
पुलिस थाने की शिकायत पुस्तिका पर.
एक दिन धूल जमी बस्ती, मिट्टी में दब गई गहरी.
समतल सपाट मैदान ही केवल उसका गवाह था.
::
ज़मीन के अन्दर दबी बस्ती उभर आई अचानक.
जैसे पुराना कोई दर्द उखड़ आया हो ठंड के मौसम में.
पचीस सालों की खुदाई के बाद निकले कुछ खंडहर, कंकाल, साँप, बिच्छू.
कंकालों ने तत्काल खोल दीं आँखें,
खुदाई करने वाले सिहर उठे और फिर से उन पर मिट्टी डाल दी.
पुरातत्ववेत्ताओं ने दुनिया को बताया,
कि बस्ती प्राकृतिक आपदा से दब गई थी नीचे.
अब किसको इसकी सज़ा दें और किसको पकड़ें धरें.
इतिहास लिखने वालों ने अंततः वही लिखा,
जो पुरातत्ववेत्ताओं ने बताया.
खुदाई पूरी होने के इंतज़ार में खड़े लोग,
खड़े रह गये.
उन्होंने उतरना चाहा हालांकि अन्दर,
कि तभी शोर उठा,
लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!!
लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!!
जीना और सीना
रोज़ सुबह उठ कर वह सबसे पहले,
अपनी पत्थरीली हो चुकी हथेली को देखती है,
और आँखों से लगा कर चूम लेती है.
वह रोज़ उस शिलालेख में पढ़ना चाहती है अपना भविष्य.
रोज़ प्राचीन होती जाती है वह, और इतिहास भी.
उसका वर्तमान,
जीना है और सीना है.
वह अपना हिसाब मांगेगा
जिसे पता ही नहीं कि उसे बेच दिया गया है,
और एक दिन राह चलते अचानक ही उसे किसी ग़ैर से पता चले
कि उसे बेच दिया गया है.
तो आज नहीं तो कल,
वह अपना हिसाब मांगेगा ही.
पानी अपना हिसाब मांगेगा एक दिन.
लौट कर आयेगा पूरे वेग से,
वापस मांगने अपनी ज़मीन.
सोने की खान
एक कलाकार ने बड़ी साधना और लगन से यह गुर सीखा
कि जिस पर हाथ रख दे, वह सोना हो जाये.
उसकी हर कलाकृति सोना बनने लगी,
और हर बार दर्शक ख़ूब तालियाँ बजाते.
और हर बार सोना बनाने की उसकी ताक़त ख़ूब बढ़ती जाती.
उसने अपने आस पास की चीज़ों पर हाथ रखना शुरु कर दिया.
हर चीज़ सोना बनती गई.
उसकी कुर्सी, उसकी मेज़, उसके बर्तन.
उसके घर वालों ने ख़ूब तालियाँ बजाईं.
उसकी दीवारें, दरवाज़ें, खिड़कियाँ सब सोने की बन गई.
हर चीज़ जब बन गई सोना,
उसने माँ बाप को छुआ, बच्चों को छुआ.
उसकी बीवी जान बचा कर भागी.
उसने माथे पर हाथ रखा,
और उसका घर सोने की खान बन चुका था.
वह पहला कलाकार था,
जिसके घर से इतना सोना निकला.
डाकिया
चिलकती धूप में एक डाकिया एक घर की चौखट पर बैठा सुस्ता रहा था.
यह दृश्य उससे बिल्कुल अलग था,
कहानियों, कविताओं में जो पढ़ा था या सुना था.
अन्दर से पानी का एक लोटा आया.
उसने चेहरे पर पानी मार कर कुछ पिया.
उसके बाद भी वह बैठा रहा काफ़ी देर.
काफ़ी देर बाद मैं फिर गुज़रा उधर से.
तो वह जा चुका था.
हालांकि वह उसके बैठने की जगह नहीं थी,
फिर भी लग रहा है,
कि वह अपनी ही जगह से उठ कर गया है.
उस ख़ाली हुई जगह में डाकिया ही दिख रहा था.
ऐसा नहीं होता शायद, अगर उस घर का कोई फ़र्द
या कोई और राहगीर उस चौखट पर आकर बैठ जाता.
ख़ाली हुई जगह पर दिखता रहा डाकिया,
जब तक मैं देखता रहा उस जगह को.
जिस रास्ते से वह गया,
(एक ही रास्ता है यहाँ जाने के लिए)
उस ख़ाली और सुनसान रास्ते पर भी वही दिख रहा था और कोई नहीं.
चिलकती धूप, कच्ची सड़क, गर्म धूल और वह.
अब तक न जाने कितने लोग बैठ गये उस चौखट पर,
लेकिन मेरे लिए वह चौखट डाकिये की स्मृति की वजह बन गई.
घाव के निशान कभी नहीं मिटते हैं जैसे, भर जाते हैं लेकिन.
:::::
पटना के रहने वाले हैं .मुंबई में फिल्मों और टीवी के लिए रचनात्मक लेखन करते हैं.
फरीद खां की कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं