मोनिका कुमार की कविताएँ
नींद के रहस्य
मैं सोकर उठती हूँ
तो देखती हूँ
मेरा एक बाजू पलंग से दूर
बिस्तर से विमुख
सिर को टेक देती
देह से अलग थलग
छिटकी पड़ी है
मैं एक पेड़ लग रही हूँ
जिसकी शाख ने हवा में अलग ठिकाना कर लिया है
बस करो नींद के रहस्यो
बख्श दो मेरी बाजू को
सूर्य ! रहना मेरे अंग संग हरदम
अपने आलोक में रखना मुझे
तुम्हारी ऊष्मा का संरक्षण
है मेरा प्रतिकार.
रक्तचाप
माँ से पहली बार मार खाने के बाद
वह सुबक रही थी
उसने रोटी खायी
उसे सुकून मिला
सहेलियों ने उसकी उपेक्षा की
वह रो रही थी
उसने मीठा खाया
उसे अच्छा लगा
उसका दिल टूटा
उसे घुटन हो रही थी
उसने चाकलेट खाई
उसे हल्का लगा
दुखों के सामने
छोटी मोटी बुद्धि, धूर्तता, चालाकी
और हास्य बोध किसी काम नहीं आता
दुखों को सहने में इनकी भूमिका संदिग्ध बनी रहती
जबकि आलू और गुलाबजामुन खाकर
तुंरत राहत मिलती थी
इस तरह
इससे पहले
कि दुःख उसे घेरते
वह कुछ ना कुछ खाने की इच्छा से घिर जाती
बस एक दिल था
बोझिल नाड़ियों से खून सींचता
हायतौबा करने लगा था
और रक्तचाप की भाषा में
दिल के नए दुःख सुना रहा था.
(फिल्म ‘आँखों देखी’ में संजय मिश्रा की आवाज़ के लिए)
अनजान नम्बर से फोन करने पर भी
लोग हैलो से हमें पहचान जाते हैं
हम इतरा जाते हैं
धूल चढ़ी इस आवाज़ के बावजूद
फानी दुनिया में हम कोई तो वजह रखते हैं
हैलो की आवाजें पृथ्वी के निर्वात को
मेहनत और लगन से भरती हैं
इन आवाजों में मध्यांतर की तरह
बर्तन गिरने
बम फटने
कुहासे, अँधेरे और लापरवाही के कारण भिड़ती गाड़ियों की
गर्म तेल में जीरे के फूटने की
बाँध से रुकते हुए पानी की
झींगुरों की
और
बच्चों के गुब्बारे फटने की
आवाजें आती है
लेकिन प्रथम पुरस्कार मिलता है हैलो को
इसकी नियमितता और अनुशासन निमित्त
इस मान पत्र के साथ कि हैलो की आवाजें
पृथ्वी को गृहस्थ ग्रह तस्दीक करती हैं
एक लड़का अपनी आवाज़ सुनने के लिए
पहाड़ पर चढ़ कर चिल्लाता है हैलो
जवाब में चिल्लाती हुई आवाज़ आती है हैलो
यह सुनकर मुझे संता की याद आती है
संता बंता को फोन करता है
और पूछता है
कौन बोल रहा है
बंता कहता है
मैं बोल रहा हूँ
संता कहता है कमाल है यार !
इधर भी मैं बोल रहा हूँ
इस तरह हम हैलो हैलो करते
कमज़ोर नेटवर्क की शिकायत करते हैं
और नैराश्य में आँखें बंद कर लेते हैं
कुंद हुई आँखें हर तरफ हैलो देखती हैं
प्रश्न में हैलो और उत्तर में भी हैलो है
जबकि उसने मान लिया वह एक हैलो है
किसी और को पड़ता हुआ घूसा राजे बाबु की आँख में पड़ता है
आँख ऐसी खुलती है
कि वह संयुक्त परिवार के व्यस्त आंगन में
सुबह उदघोष करता है
कि वह हैलो नहीं है.
सब्जी जलना
सब्जी जलने से एक बिंदु पहले
घर में मोहक गंध फैलती है
यह गंध उस बिंदु का आगमन है
जब घी बर्तन से छूटने लगता है
स्वाद और सुगंध विरक्ति में परिणित होते हैं
वह हल्के हाथों से सब्जी हिलाकर
करछुल की ठक ठक से
अग्नि को विदा देती है
किसी दिन वह अंतिम स्पर्श से चूक जाती है
मोहक गंध से उसे झपकी आती है
वह झुंझला कर उठती
कोयला हुई सब्जी देखती है
खिड़कियाँ दरवाज़े खोल कर
दिन भर उदास रहती है
छुट्टियों में पेड़ों को भूल जाओ
ईमारत के प्रथम तल पर बने
अपने दफ्तर में पहुँचते ही
ऊंचे पेड़ों को स्पर्श करती हूँ
इन्हें छूते ही विचार आता है
मुझे दिमाग को ठंडा रखना चाहिए
आखिर हम दुनिया में
बातों का अच्छा बुरा मानने नहीं आये हैं
फिर भी माहवार ऐसे दिन होते हैं
जब घर की चाभी से दफ्तर का ताला खोलने की कोशिश करती हूँ
निर्भर करता है उन दिनों मैं कितना मिली जुली
कैसे घुली मिली दुनिया में
तीन दिन के अवकाश के बाद
मैं सुबह दफ्तर आई
पेड़ों को देखकर यह ख्याल आया
इन छुट्टियों में
मुझे एक बार भी इन पेड़ों की याद नहीं आई
कदंब के फूल जिन्हें देखकर लगता है
इतना सुन्दर भी न हुआ करे कोई
विस्मृत हो गए थे
मुझे नहीं आते याद ये पेड़ लंबी छुट्टियों में
फिर भी यहाँ लौट कर तस्सली करती हूँ कि वे हैं
बदलते मौसम के साथ गहरे प्रेम में
हवा के एक झोंके पर झूलने के लिए आतुर
इतने कातर इतने भावुक
जितने स्थिर उतने आकुल
मेरे पेड़ों ने कहा मुझसे
अच्छा है सुन्दरता को भूल जाना
छुट्टियों में उसे याद न करना
झूठा लगने की हद तक
लौट कर प्रेम जताना
बार बार छूना
और कहना
कैसे रही मैं इतने दिन तुमसे दूर
दुनिया में बहुत काम करने आये हैं हम
उस में यह भी ज़रूरी काम है
दुनिया में खो जाना
लोगो की बातों का अच्छा बुरा मानना
नष्ट करना अपने एकांत को
पछतावे के लिए
और विनय करना पेड़ों से
इसकी बहाली के लिए.
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मोनिका कुमार
११ सितम्बर १९७७, नकोदर, जालन्धर
कविताएँ, अनुवाद प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित
सहायक प्रोफेसर (अंग्रेजी विभाग) राजकीय महाविद्यालय चंडीगढ़
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