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Home » रंजना जायसवाल की कविताएँ

रंजना जायसवाल की कविताएँ

रंजना जायसवाल ३ अगस्त १९६८, पडरौना (उत्तर -प्रदेश) प्रेमचंद का सहित्य और नारी जागरण विषय पर पीएच. डी. (गोरखपुर विश्वविद्यालय) कविता संग्रह – मछलियाँ देखती हैं सपने (२००२) दुःख पंतग (२००७, अनामिका, इलाहाबद) जिन्दगी के कागज़ पर (२००९. शिल्पायन, नई दिल्ली) जब मैं स्त्री हूँ (२०१०,किताब घर, दिल्ली) कहानी संग्रह तुम्हें कुछ कहना है भतृहरि […]

by arun dev
June 23, 2011
in कविता
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रंजना जायसवाल
३ अगस्त १९६८, पडरौना (उत्तर -प्रदेश)
प्रेमचंद का सहित्य और नारी जागरण विषय पर पीएच. डी.
(गोरखपुर विश्वविद्यालय)
कविता संग्रह –
मछलियाँ देखती हैं सपने (२००२)
दुःख पंतग (२००७, अनामिका, इलाहाबद)
जिन्दगी के कागज़ पर (२००९. शिल्पायन, नई दिल्ली)
जब मैं स्त्री हूँ (२०१०,किताब घर, दिल्ली)
कहानी संग्रह
तुम्हें कुछ कहना है भतृहरि (२०१०,शिल्पायन, नई दिल्ली)
वैचारिक
स्त्री और सेंसेक्स (२०११, सामयिक नई दिल्ली)
सम्मान: अम्बिका प्रसाद दिव्य प्रतिष्ठा पुरस्कार (मध्य-प्रदेश)
स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान (रांची)
भारतीय दलित साहित्य अकादेमी सम्मान (गोंडा)
स्त्री मुक्ति और जनवादी साहित्य आयोजनों में सिरकत
सृजन के माध्यम से साहित्यक गोष्ठियों का आयोजन
फिलहाल : अध्यापन
ई पता– ranjanajaiswalpoet@gmail.com

समकालीन हिंदी कविता में रंजना जायसवाल का नाम जाना – पहचाना है. भाषा-संयम और परिष्कृत रचाव में स्त्री मन के संशय, दुख, पीड़ा और प्रेम की गहनतर अनुभूति के साथ ही समय और समाज की खुरदरी सच्चाइओं के गहरे निशान रंजना की कविताओं में मिलेंगे.

पूरब के संस्कार ने कविता को लोक गीतों जैसी सहजता दी है. रोजमर्रे के दृश्य कविता में आते ही गहरे संकेत करने लगते हैं, दातुन भी पिता की याद दिला जाता है.



नटखट बच्चा है सागर

जिदियाता है तो मान में नहीं आता
बार -बार उफनता है
खुश हो तो तट तक
दौड़ लगाकर
सब कुछ बटोर लाता है
कभी फेंक आता है
दिन भर खेलता है सूरज से
शाम को कट्टी कर
अनमना हो जाता है
फिर भूल -भालकर सब कुछ
खेलने लगता है चाँद से
बनाने नही देता किसी को घरौंदा
बिगाड़ -बिगाड़ कर भाग जाता है
डरने वाले को डराता है आवाज बदलकर
प्रेम करने वालो का सखा बन जाता है
लिखने देता है तट पर एक -दूजे का नाम
फिर फेरकर सब पर पानी
शैतानी से हँसता है
यह सागर कोई नटखट बच्चा है .

दातुन के बहाने

दातुन
कहाँ जानता था
पिता वृक्ष की बाहों में निश्चिन्त
झूलता मैं
कि किसी सुबह टहनियों सहित
खींच लिया जाऊंगा
फिर वस्त्र -विहीन कर
तेज चाकू से छील-काटकर
बना दिया जाऊंगा
छोटा सा दातुन
और बिकेगी बाजार में
मेरी हरी नाजुक देह
खरीदार सुबह -सबेरे
चबाकर मेरा सिर
बदल देंगे नरम कूंची में
साफ करेंगे गंदे दांत
बदबूदार मुंह में डालकर
दायें -बाएं, उपर -नीचे
लगातार रगड़ते हुए
रगड़ से टूटे कूंची के रेशे को
बेदर्दी से थूक देंगे दूर
इतने पर भी नही होगा मेरी यातना का अंत
चमकते ही दांत वे बीच से चीरकर मुझे
साफ करेंगे अपनी चटोरी जीभ
फिर फेंक देंगे धूल -मिटटी में
अपनी गंदगी के साथ
पैरों से कुचले जाने के लिए
आज पड़ा हुआ सड़क पर
घायल अधमरा मैं सिसक रहा हूँ
अपनी दशा पर याद आ रहे हैं पिता
क्या पिता को भी आती होगी
मेरी याद.



पिता

हवा में
उड़ रहे हैं पत्ते
पेड़ विवश और चुप
देखने को अभिशप्त
उसकी देह के हिस्से
स्वेद -रक्त से बने
सुख -दुःख में
साथ -साथ
झूमे
झुलसे
भींगे
कंपकंपाये पत्ते
इस कदर बेगाने
कि
उड़े जा रहे हैं
बिना मुड़े ही
तेज हवाओं के साथ
जाने किस ओर
भूल चुके हैं
साथ जीए सच को
क्या उन्हें याद होंगी
वे किरणें
जो सुबह नहलाती थी
गुनगुने जल से उन्हें
चिड़ियाएँ
जो मीठे गीत सुनाती थीं
की नई यात्रा के रोमांच में
भूल चुके होंगे सब कुछ
पर कैसे भूला दे
जमीं से जुड़ा पेड़
वह तो पिता है .

घास के फूल::

घास में खिले हुए हैं
नन्हें कोमल टीम -टीम करते
लाल पीले बैंगनी
कई रंगों के फूल
घास हरी -भरी पूरी है ख़ुशी से
देख -देखकर
चिढ रहे हैं
नाटे मझोले लम्बे
फूल वाले सभी पेड़ -पौधे
पीला हो रहा है कनेर
पलाश लाल
गुलाब भी प्रसन्न नही है
जबकि जानते हैं
छिले जाने ..रौंदे जाने काटे जाने
या जानवरों का आहार बनने की
घास के फूलों की नियति
जानते हैं
कवि और प्रेमियों के सिवा
देखता तक नहीं कोई इन्हें
लोगों की संभ्रांत पसंद में भी
शामिल नही हैं ये दलित फूल
देवताओं पर भी नही चदाये जाते
फिर भी इनके खिलने से
परेशान हैं
नाटे -मंझोले –लम्बे
फूल वाले सभी पेड़ –पौधे.

बारिश हो रही है

बारिश हो रही है
बड़े पेड़ जवान लड़कों की तरह
मस्ती में झूमते हुए
एक -दूसरे की झप्पी ले रहे हैं
हो -हो कर कहकहे लगा रहे हैं मंझले
कम नहीं हैं छोटे भी
बच्चों की तरह
उछल- उछलकर
नाच -गा रहे हैं
घास तो इतनी मगन है
कि नाक बंदकर पानी में
डुबकी लगाती है
तो देर तक उतराती नहीं
कीट -पतंग ,पशु -पक्षी अराजक हो गये हैं
दिन के तम का लाभ लेकर आशिकों की तरह
इश्क फरमा रहे हैं
हो रही है वर्षा
जिनको करना है घर-बाहर का काम
प्रार्थना कर रहे हैं -नन्ना रे नन्ना रे
जबकि बच्चे गा रहे हैं -बरसो रे मेघा मेघा
मजदूर बैठे ठोंक रहे हैं खैनी जैसे अपना माथा
उनकी स्त्रियाँ टटोल रही है हांड़ी
रात की रोटी की चिंता में
अमीरों के लिए शराब -कबाब का मौसम है
स्लम के लिए फांके का
चूहे, मेढक, सांप ही नहीं
बेघर होने के डर में हैं
मुसहर बंसफोर भी
सबकी नजरें आकाश की ओर उठी
फरियाद कर रही हैं
परेशान हैं बादल
किसकी सुनें

साजिश

उठती है कोई औरत
उठती हूँ मैं
गिरती है कोई औरत
गिरती हूँ मैं
नदी हूँ
और दुनिया की सारी औरतें मेरी धाराएँ
छन भर न लगे दुनिया बदलने में
सारी धाराएँ एक हो जाएँ
वे हममें ईर्ष्या के बीज बोते हैं
लड़ाते हैं
ताकि सेंक सकें स्वार्थ की रोटियां
और कह सकें ताल ठोंककर
\’औरतें ही होती हैं औरत की सबसे बड़ी शत्रु\’
ऐसा कहने में वे सफल हो जाते हैं
क्योंकि औरत के खिलाफ औरत के इस्तेमाल की
कला जानते हैं वे
कि औरत की डोर उनके हाथ में है
जिस पर नाचेगी ही वह
अपने हर रूप में
वे जानते हैं औरत के उस प्रेम को
जो उनके लिए है
और जो कुछ भी करा सकता है उससे
माँ की कोख में ही समझ गयी थी मैं
औरत के भोले प्रेम
और उनकी साजिशों को
चुप -चुप या कि मुखर
औरत की तकलीफ से छटपटaती रहती हूँ मैं
क्योकि मैं नदी हूँ
और दुनिया की सारी औरतें मेरी धाराएँ


राजनीति

जिनके कान
बड़े हैं हाथी के कान से भी
जुबान
सड़क से भी लम्बी
क्यों नहीं होते दंगों के शिकार
जब होते हैं शिकार
अबोध बच्चे
कुचली जाती है उनकी
उजली हंसी
क्यों महफूज रहते हैं
उनके कहकहे- ठहाके
होते हैं जिनके हाथी से भी बड़े कान
सड़क से भी लम्बी जुबान

२
आप जान गये हैं
हाथ तभी रह सकते हैं
सलामत
जब वे
सलामी बजाना
सीख लें

३
व्यवस्था
एक कागजी नांव
उस पर सवार आदमी
चुप भी असहाय भी
जिसको छोड़ दिया गया है
धार में

४
बहेलिया
प्रसन्न है
उसने अन्न के ऊपर
जाल बिछा दिया है
भूख की मारी चिड़िया
उतरेगी ही

नियति

गुड़िया
घरेलू हो
या कामकाजी
नियति एक -सी
दूसरों के हिसाब से ढलना
सबको खुश रखना
तभी तो चाहते हैं पिता
गुड़िया -सी बेटी
भाई गुड़िया -सी बहन
पति को भी चाहिए
पतली कमर पुष्ट वक्ष
सुनहरे बालों वाली गुड़िया खेलने के लिए
गर्म जेब वालों को
अच्छी लगती है
शो -केस में सजी
बैटरी से संचालित
बोलने वाली बार्बी गुड़िया
पर वही बोलने वाली
जो चाहते हैं वे
वही करने वाली
मर्जी है जो उनकी
गुड़िया कभी आजाद नही होती .





चित्र Ashish Avikuntak के 

प्रेम – राग

१.

जाने क्या तो है
तुम्हारी आँखों में
मन हो उठा है अवश
खूशबू एसी कि महक उठा है
तन उपवन
बंध जाना चाहता है मेरा
आजाद मन
कुछ तो है तुम्हारी आँखों में
की यह जानकर भी कि
गुरुत्वाकर्षण का नियम
चाँद पर काम नहीं करता
छू नहीं सकता आकाश
लाख ले उछालें
समुंद्र
अवश इच्छा से घिरा मन फिर
क्यों पाना-छूना चाहता है तुम्हें
असंभव का आकर्षण
पराकाष्ठा का बिंदु
कविता की आद्यभूमि

२
गणित में माहिर तुम
प्रेम भी गणित ही रहा
तुम्हारे लिए
जोड़ते रहे -प्रेम एक
प्रेम -दो प्रेम -तीन
बढती रही संख्याएं
भर गयी
तुम्हारी डायरी
प्रेम की अगणित संख्याओं से
गर्वित हुए तुम अपनी उपलब्धि पर
गर्वित हुई मै भी अपने प्रेम पर
जहाँ दो मिलकर होते हैं एक
संख्याएं जहाँ घटती जाती हैं
दो से एक में विलीन होते हुए निरंतर
अंत में शून्य में विलीन हुई मैं
शून्य जो
प्रेम का उत्कर्ष है ब्रह्मांड
समाया है
जिसमें सबकुछ
प्रेम करती मुझमें
समाए हो
तुम भी

३.

पूरी उम्र लिखती रही मै
एक ही प्रेम-कविता
जो पूरी नही हुई अब तक
क्योकि इसमे मै तो हूँ तुम ही नही रहे
क्या ऐसे ही अधूरी रह जाएगी मेरी प्रेम -कविता .
प्रेम खत्म नही होता कभी
दुःख उदासी थकन अकेलेपन को थोडा-सा और बढ़ाकर जिन्दा रहता है .
प्रेम धरती पर लहलहाती फसलों जैसा
रेशम -सी कोमल भाषा जैसा
जिसे सुनती है सिर्फ जमीन.
जेठ की चिलचिलाती धूप में नंगे सर
थी मै
और हवा पर सवार बादल की छांह से तुम
भागते रहे निरंतर
तुम्हारे ठहरने की उम्मीद में
मै भी भागती रही तुम्हारे पीछे
और पिछड़ती रही हर बार

४.


सीपियों में
मोती का बनना
छीमियों में दानों का उतरना
जाना
तुमसे मिलने के बाद
कहाँ जानती थी क्या होता है प्रेम
तुमसे मिलने से पहले
भरोसा भी कहाँ था
किसी पर
कहाँ पता था यह भी कि प्रेम
एक बार ही नहीं होता
जीवन में..कल्पना में ..बसते हैं
असंख्य प्रेम
कहाँ जाना था तुमसे प्रेम से
पहले
अब जबकि हो दूर
फड़कते होंगे
तुम्हारे होंठ
जब तितली होती हूँ यहाँ
पढ़ते होगे तुम वहां मेरी सांसों की लिखी चिट्ठी
किसी चुराए क्षण में
सच कहना
क्या नहीं .
::::

मैं कविता क्यों लिखती हूँ 


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