मैनेजर पाण्डेय से अरुण देव की बातचीत |
१.
हिंदी आलोचना पर बातचीत की शुरुआत आचार्य रामचंद्र शुक्ल से की जानी चाहिए. आखिर ऐसा क्या है उनमें कि वह आज भी आवश्यक बने हुए हैं.
आचार्य शुक्ल ने हिंदी आलोचना को अपने समय की, दुनिया की आलोचना के समकक्ष खड़ा किया. उनका अंग्रेजी आलोचना से एक ओर तो दूसरी ओर संस्कृत काव्यशास्त्र से गहरा नाता था. इसमें ख़ास बात यह है कि वह न तो संस्कृत काव्यशास्त्र के किसी सिद्धांत से और न तो अंग्रेजी के किसी आलोचक से अभिभूत थे. वह दोनों परम्पराओं के विचारों को अपने समय और समाज की कसौटी पर कसकर, जिसे हिंदी और हिंदुस्तान के लिए उपयोगी समझते थे, उसे ही स्वीकार करते थे.
उनकी आलोचना की प्रक्रिया के भीतर दो तरह की स्थितियाँ दिखाई देंगी. कई बार जो सैद्धांतिक ढांचा आचार्य शुक्ल निर्मित करते हैं उसको रचनाओं के विश्लेषण के समय छोड़ देते हैं. भक्तिकाल की आलोचना के संदर्भ में इसे देखा जा सकता है. विशेष रूप से सूरदास के प्रसंग में याद दिलाना चाहूँगा- कि उन्होंने सूरदास को अपने में सिमटे, अपनी मानसिकता में खोये कवि के रूप में स्थापित किया है. उनके अनुसार सूर का समय और समाज प्रत्यक्ष वर्णन के रूप में उनके काव्य में प्रस्तुत नहीं है लेकिन अप्रस्तुत विधान के रूप में उन्होंने इस कमी को पूरा किया है. शुक्ल जी के इस बात के विश्लेषण के क्रम में मैंने सूर की काव्य भाषा पर काम करते हुए किसान जीवन की छवियों, अनुभवों और समस्याओं की उपस्थिति की चर्चा की है.
आचार्य शुक्ल गहरे स्तर पर स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े हुए आलोचक हैं. इसके दोनों पक्ष उनके यहाँ दिखाई देते हैं- एक अतिवाद यह है कि वह जिन चीजों को पसंद नहीं करते उसको पराया या विदेशी कहकर खारिज़ करते हैं पर साथ ही दूसरी कई विदेशी और पराई चीजों को हिंदी के लिए उपयोगी समझकर उनका स्वागत और उपयोग करते हैं. आचार्य शुक्ल कुल मिलाकर रीतिकाल और रीति कविता के विरोधी हैं. इसके बावजूद उन्होंने इस सम्बंध में कुछ बातें ऐसी खोजी, जो आगे चलकर बाद की हिंदी आलोचना के लिए दिशा–निर्देशक बनीं. रीतिकाल के भीतर उनको घनानंद लगभग आधुनिक कवि की तरह से सहज, स्वछन्द और अनुभूति प्रवण कवि के रूप में मिले. उन्होंने अपने एक लेख में घनानन्द की काव्य भाषा की तुलना छायावादी कवियों की काव्यभाषा से की है. इस प्रसंग में एक बात और ध्यान में रखने की है रीतिकाल के बड़े कवियों की काव्यभाषा की उन्होंने जिस तरह से गहरी, सटीक और सधी हुई व्याख्या की है, वह अलग से सीखने लायक है. रीतिकाल के कवियों के सामाजिक दृष्टिकोण को वह बहुत पसंद नहीं करते हैं, लेकिन उनकी भाषिक संरचना की गुणवत्ता को वह देखते हैं.
आधुनिक काल में भी आचार्य शुक्ल आमतौर से ऐसी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि को महत्व देते थे जिनका संबंध कम से कम दो चीजों से दिखाई दे एक तो अपने समय के भारतीय समाज से, उसकी वास्तविकता से, उसकी समस्याओं से या किसी न किसी स्तर पर स्वाधीनता आंदोलन से. आचार्य शुक्ल ऐसे अकेले आलोचक हैं जिन्हें मैं पूर्ण आलोचक समझता हूँ. आलोचना के लिए आवश्यक सभी चीजें उनके यहाँ मिलती हैं. सैद्धांतिक ढांचे का निर्माण मतलब हिंदी का अपना साहित्य शास्त्र निर्मित करना , जो न केवल संस्कृत के काव्य शास्त्र पर निर्भर हो और न केवल पश्चिम के आलोचना शास्त्र पर आधारित हो. तथा इस सैद्धांतिक ढांचे के अंतर्गत रचनाकारों की रचनाशीलता की व्यावहारिक व्याख्या और मूल्यांकन का कार्य जो विशेष रूप से उन्होंने भक्तिकाल के कवियों के संदर्भ में किया है. हिंदी साहित्य का इतिहास के माध्यम से उन्होंने इतिहास दृष्टि का निर्माण किया है.
२.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी रचनाकार के साथ-साथ आलोचक भी हैं. उनकी आलोचना दृष्टि को आलोचक शुक्ल का पूरक क्यों न माना जाए.
हिंदी आलोचना को समग्रता में देखें तो द्विवेदी जी आचार्य शुक्ल के पूरक के रूप में ही सामने आते हैं. इस पूरक शब्द की थोड़ी व्याख्या जरूरी है. पूरक कहने से लोग मन में छोटा होने का बोध पाल लेते हैं. पूरक का मतलब होता है मूल में जो न हो उसको जो पूरा करें. वही पूरक होता है. पूरक कहने से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्व कम नहीं हो जाता. कुछ लोगों ने आचार्य द्विवेदी को आचार्य शुक्ल के विरोध में खड़ा करने की कोशिश की है. जब आचार्य द्विवेदी ने आलोचना लिखने की शुरुआत की उस समय तक आचार्य शुक्ल अपनी आलोचना लिख चुके थे.
आचार्य द्विवेदी की जो सबसे महत्वपूर्ण आलोचना-पुस्तक है, वह है– हिंदी साहित्य की भूमिका. इसे लिखते समय आचार्य द्विवेदी के सामने आचार्य शुक्ल आदि से अन्त तक खड़े हैं. इसमें वह यह प्रयत्न करते हैं कि आचार्य शुक्ल ने जो छोड़ दिया है, जो अपने इतिहास में नहीं किया है, जिन पक्षों की उपेक्षा की है, उन सबको समेट कर हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी दृष्टिकोण का निर्माण करें और इतिहास लेखन का भी कार्य करें. इस दृष्टि से भी वह पूरक ही हैं.
उनकी एक प्रारम्भिक किताब है सूर साहित्य, आचार्य शुक्ल की सूर संबंधी कमियों को पूरा करने का एक प्रयास यहाँ दिखता है. उसमें द्विवेदी जी ने प्रेम स्वाधीनता से जुड़ा हुआ भाव है, यह मूल स्थापना की है. आचार्य शुक्ल का यहाँ एक नैतिक आग्रह है जो एक सीमा के बाद इस स्वाधीनता को पसंद नहीं करता है. भ्रमर गीत सार की भूमिका में आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि सूर की गोपियाँ शेली के पक्षियों की तरह स्वतंत्र हैं. गोपियों की ऐसी स्वतंत्रता आचार्य शुक्ल को बहुत पसंद नहीं थी. आचार्य द्विवेदी ने इस स्वतंत्रता के महत्व को पहचाना, उसकी व्याख्या की. यह उनकी नवीन दृष्टि भी है और स्थापना भी.
आचार्य द्विवेदी की आलोचना की सबसे महत्वपूर्ण किताब कबीर पर है. शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि के केन्द्र में तुलसीदास हैं, इसलिए जब तुलसीदास ही कबीरदास को पसंद नहीं करते तो जो तुलसीदास के व्याख्याकार हैं उन्हें कबीर दास क्यों कर पसंद आते. इसलिए कबीर पर कुछ महत्वपूर्ण बातें कहने के बावजूद कबीर की जो महत्ता है उसे उन्होंने कभी ठीक से स्वीकार नहीं किया, और अनके प्रसंगों में उनकी आलोचना भी की है. यह सब आचार्य द्विवेदी के सामने था, इसलिए इसके ठीक विपरीत कबीर की कविता की गहरी और व्यापक सामाजिकता की पहचान करते हुए, कबीर की एक सामाजिक क्रांतिकारी की छवि बनाई आचार्य द्विवेदी ने. जो उनकी एक उपलब्धि भी है और आचार्य शुक्ल से छूट गए एक काम को पूरा करने का प्रयास भी है.
आचार्य द्विवेदी एक बड़े रचनाकार भी हैं, बड़े उपन्यासकार और निबन्धकार भी. यह जो रचनाशीलता है वह आचार्य द्विवेदी की आलोचना में भी है. वह भाषा के स्तर पर है और सोच के स्तर पर भी है. रचनाकार तो शुक्ल जी भी हैं पर द्विवेदी जी के स्तर के रचनाकार वह नहीं हैं. शुक्ल जी कवि थे पर कवि के रूप में उनकी वह हैसियत नहीं है जो उपन्यासकार के रूप में आचार्य द्विवेदी की है. इन दोनों की रचनाशीलता के स्तर का प्रभाव उनकी आलोचना पर भी दिखता है. इन दोनों के निबन्धों को अगर ध्यान में रखा जाए तो केवल एक बात कहूँगा कि शुक्ल जी के निबन्धों में एक बौद्धिक की सह्रदयता दिखाई देती है पर द्विवेदी के निबन्धों में एक सहृदय व्यक्ति की बौद्धिकता दिखाई देती है.
३.
रामविलास शर्मा ने हिंदी आलोचना के आधार का विस्तार किया है और उसे एक सुसंगत वैचारिक आधार भी दिया है. यह विस्तार और आधार बहस तलब हैं.
डॉ. रामविलास शर्मा के लेखन और चिंतन का दायरा बहुत विस्तृत था. उनके लेखन और चिंतन के दायरे पर सोचें तो वह हिंदी के एकमात्र लेखक चिन्तक राहुल सांकृत्यायन से तुलनीय हैं. रामविलास जी भाषा विचारक हैं, वे इतिहास–दर्शन, प्राचीन भारतीय साहित्य और संस्कृति के व्याख्याकार हैं, वे भारतीय समाज और स्वाधीनता आंदोलन के इतिहासकार भी हैं. जहां तक आलोचक रामविलास शर्मा का सवाल है तो उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने हिंदी भाषा को जनतांत्रिक बनाया. रामविलास जी अंग्रेजी के प्रोफेसर थे, विद्वान थे. यह देखकर आश्चर्य होता है कि उनकी आलोचना भाषा पर अंग्रेजी का न कोई दबाव है न कोई आतंक. हिंदी के अनेक आलोचक हिंदी में अंग्रेजी का ऐसा दुरुपयोग करते हैं कि उनकी आलोचना पाठकों का बोध बढ़ाने की जगह उनका बोझ बढ़ा देती है.
उनकी आलोचना दृष्टि हिंदी साहित्य में भक्ति आंदोलन से शुरू होकर प्रगतिशील आंदोलन तक फैली है. समाजोन्मुख, जनतांत्रिक, अग्रगामी और संवेदनशील बनाने वाली प्रवृत्तियों की पहचान और मूल्यांकन का कार्य रामविलास जी ने किया है. उन्होंने आचार्य शुक्ल की तरह सीधे हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं लिखा है. यह जरूर है कि भारतेंदु से लेकर प्रगतिशील आंदोलन तक का इतिहास उनके लेखन में आ गया है.
रामविलास जी छायावाद में निराला को हिंदी नवजागरण से जोड़ कर देखते हैं. उसका जो कुछ भी सार्थक, सकारात्मक और मूल्यवान है उसकी खोज वह निराला की कविता में करते हैं और उसका विस्तार निराला के गद्य में भी करते हैं. इस प्रक्रिया में उनकी सीमाएं भी उजागर होती है. पहली सीमा यह है कि कोई भी कवि या लेखक चाहे वह वाल्मीकि हों, कालिदास हों या नागार्जुन हों वे अपने समय की सीमाओं से घिरे हुए कवि-लेखक होते हैं. इसका मतलब यह है कि बड़े से बड़े लेखक का भी सब कुछ हमेशा प्रासंगिक नहीं होता. एक आलोचक को यह फर्क करना चाहिए की किस कवि या लेखक का कितना और कब प्रासंगिक है या नहीं है.
रामविलास ने भारतेंदु से लेकर नागार्जुन तक जो कुछ भी लिखा है या जिस पर आपने विस्तार से काम किया है– महावीरप्रसाद द्विवेदी.. उन सब की बहुत अच्छाइयां हैं तो कुछ बुराइयाँ भी. रामविलास जी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह कभी भी अपने प्रिय लेखकों,आलोचकों और विचारकों की किसी कमी पर कभी ध्यान नहीं देते. उसका हिंदी आलोचना पर दुष्प्रभाव यह पड़ा है कि कुछ दूसरे लोग उन कवियों, लेखकों, आलोचकों, विचारकों में कमी के अलावा कुछ नहीं देखते. मतलब रामविलास जी ने जो छोड़ दिया है उसे ही लेकर हिंदी में कुछ लोग आलोचक बने हुए हैं. मूल्यांकन की समग्रता में अंतर-विरोधों की पहचान भी होती है. इस अधूरेपन के कारण रामविलास जी की आलोचना कई समस्याएं पैदा करती है.
रामविलास अपनी आलोचना में जीवन भर बहस करते रहे हैं. बहस की लोकतांत्रिकता की पहली मांग यह है कि आप दूसरों को भी महत्व दें. सारे संसार से हमेशा असहमत ही हों तो बहस का कोई अर्थ नहीं है. रामविलास जी दूसरों के मत का खंडन करते हैं यह मान लेने के बाद भी कि इस मत में दम है. वह स्वीकार करने और अपने विचारों में सुधार करने की कोई कोशिश नहीं करते हैं. मेरे पास इसके लिखित और अलिखित व्यक्तिगत प्रमाण हैं.
हिंदी में अच्छी आलोचना का विकास करना हो तो रामविलास जी से अपनी असहमतियों की ताकत को पहचानने की क्षमता होनी चाहिए. आपकी असहमतियां पूर्वाग्रह न हों, उसका आधार हो और वे सार्थक हों तो मुझे ऐसा लगता है कि उसमें से नए सोच- विचार की संभावनाएं दिखाई देंगी. यह हमेशा मैंने महसूस किया है.
४.
अन्त में वह वेदों की ओर लौट गए..
कुछ लोग यह आपत्ति उठाते हैं कि रामविलास जी ऋग्वेद की ओर गए ही क्यों. परम्परा के मूल्यांकन की भूमि पर जो वैचारिक संघर्ष होता है उसका गहरा संबंध वर्तमान के वैचारिक संघर्ष से होता है. और वह भविष्य की दिशा भी तय करता है. ऋग्वेद पर लिखने और बोलने का एकाधिकार इस देश के पंडितों, पुरोहितों और संतो को ही नहीं है. ऋग्वेद एक ग्रंथ है उसका एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व और मूल्य है, इसे हर आदमी जानता है. तब उस पर बात करने और विचार करने का अधिकार रामविलास शर्मा या किसी को क्यों नहीं है. हाँ, रामविलास जी ने वहां क्या देखा और उस पर क्या लिखा इस पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए. केवल उनके उधर जाने की आलोचना का कोई मतलब नहीं है. रामविलास जी ने उसमें जन जीवन की विभिन्न स्थितियों,समस्याओं आदि को देखा है. ऐसा तो है नहीं कि जब ऋग्वेद लिखा जा रहा होगा तब वहां जनता या जन नहीं होगा. ऋग्वेद में जन भी है, प्रकृति भी है और संस्कृति भी है. इन तीनों की पहचान की कोशिश रामविलास जी ने की है.
इस प्रसंग में मुझे यह कहना है कि रामविलास जी के ऋग्वेद संबंधी मत के खंडन का अधिकार उसे है जिसका ऋग्वेद के बारे में अपना मत भी हो. अतीत की ओर जाना अगर अपराध है तो अपराधी ३०० साल पहले जाने वाला भी है और ३००० साल पहले जाने वाला भी. उनकी इस सम्बन्ध में जो सीमा मुझे दिखती है वह यह है कि जीवन के आखिरी दिनों में वह ऋग्वेद से इतने प्रभावित हुए कि वह तुलसीदास ही नहीं निराला की कविता में भी ऋग्वेद की छाया देखने लगे. है .. दोनों के यहाँ उसकी छाया है. देखिए कई बार ऐसा होता है कि जो छाया होती है वह कई बार दूर से घूम कर आती है. जिसे हम लोकाचार कहते हैं, कई बार उसमें भी वेद और कुरान की छाया होती है.
इस छाया के होने से मेरी आपत्ति नहीं है दिक्कत तब होती है जब तुलसीदास और निराला ऋग्वेद की जिस चीज का विरोध कर रहे हों रामविलास जी उसका नोटिस नहीं लेते. ऋग्वेद के सबसे बड़े देवता हैं इंद्र. जयशंकर प्रसाद का इस पर एक लेख भी है की इंद्र आर्यों के पहले सम्राट हैं. उस इंद्र की जितनी निंदा तुलसीदास ने रामचरितमानस में की है वैसी निंदा पूरे भारतीय साहित्य में कहीं नहीं मिलती है. इस बात को रामविलास जी नहीं देखते हैं. अवध में जो किसान आंदोलन हुआ उसके नेता थे बाबा रामचन्द्र. इंद्र की आलोचना में जो दोहे और चौपाइयां तुलसीदास ने लिखी थीं, बाबा रामचन्द्र उनका इस्तेमाल जमींदारों की निंदा और आलोचना में करते थे. निराला की एक कविता है वेदों का चरखा चला. निराला ने वर्ण व्यवस्था की इसमें कड़ी निंदा की है. अब इस कविता को रामविलास जी भूल जाते हैं.
अपनी व्याख्या में उन्होंने ऋग्वेद की सीमा का कहीं ज़िक्र नहीं किया है. ऋग्वेद के अपने अध्ययन में उन्होंने वर्ण व्यवस्था के ढांचे का भी कहीं कोई ज़िक्र नहीं किया है. ऋग्वेद के अध्ययन की दो परम्पराएँ भारत में है एक ऐतिहासिक और दूसरी रूपकात्मक. रामविलास जी को कहीं तो इतिहास दिखता है और जहां असमंजस पैदा करने वाले पक्ष हैं वहां वह रूपकात्मक व्याख्या करने लगते हैं.
५.
आलोचना की यात्रा के आपके सहयात्री नामवर सिंह आज भी सक्रिय हैं और कुछ हद तक सार्थक भी हैं, उनकी दृष्टि पर आपका दृष्टिकोण ….
नामवर जी के मार्क्सवाद के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ लिखा गया है. उस पर मैं कुछ नहीं कहूँगा. हिंदी का अच्छा आलोचक होना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि वह मार्क्सवादी है या नहीं है. हिंदी में पहले भी ऐसे आलोचक हो चुके हैं जो मार्क्सवादी नहीं थे, आचार्य शुक्ल, आचार्य द्विवेदी, नन्ददुलारे वाजपेई आदि. निर्द्वन्द्व और निर्भ्रांत रूप से कहा जा सकता है कि ये लोग बड़े आलोचक हैं.
नामवर सिंह की साहित्य से अटूट प्रतिबद्धता है और यही प्रतिबद्धता उनकी आलोचना की ताकत है. इस प्रतिबद्धता से साहित्य के संबंध में उनकी जो दृष्टि बनती है उसे लेकर मतभेद तो है पर उसके महत्व को ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. नामवर जी की आलोचना दृष्टि का सबसे पहला पता उनकी छायावाद नामक पुस्तक से लगता है. इसमें कविता की साहित्यिकता की व्याख्या और पहचान है. छायावाद की कविता को समझने में इसके महत्व को सब लोग स्वीकार करते हैं. इसमें भी साहित्य से जुड़ने का भाव ही अधिक है. उनकी दूसरी किताब कहानी और नई कहानी है. उन्होंने इसमें कहानी की शास्त्रीय और प्राध्यापकीय आलोचना को तोड़ कर पहली बार हिंदी में कहानी की गम्भीर आलोचना की शुरुआत की है.
नामवर सिंह अत्यंत पढ़े लिखे आलोचक हैं. इतना बहु पठित मैं हिंदी में सिर्फ रामचंद्र शुक्ल को पाता हूँ. समकालीन दुनिया की आलोचना से वह पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से जुड़े रहे हैं. इसका असर उनकी आलोचना दृष्टि से लेकर उनकी भाषा तक पर है. कहानी और नई कहानी में कहानी की आलोचना की जो प्रक्रिया और पद्धति है उसमें एक ताज़गी है. आज भी उनके मूल्यांकनों से यदा कदा मतभेद होते हुए भी उनको खारिज़ नहीं किया जा सकता.
उनकी आलोचना का अगला महत्वपूर्ण पड़ाव कविता के नए प्रतिमान है. इसकी आलोचना भी हुई है. नामवर सिंह के प्रसंग में मुझे जार्ज लुकाच की याद आती है. उन्होंने अपने जीवन में अपनी कई किताबों को disown किया. उसी तरह नामवर सिंह ने अपनी कई किताबों और मान्यताओं को disown किया है. इनमें उनकी दो महत्वपूर्ण किताबें हैं- एक तो इतिहास और आलोचना और दूसरी किताब कविता के नए प्रतिमान. पर मैं D.H. Lawrence की उस बात पर विश्वास करता हूँ कि कहानी पर विश्वास कीजिए कहानीकार पर नहीं. तो नामवर सिंह के own, disown को छोड़कर उनकी कविता के नए प्रतिमान को ध्यान में रखें तो पाएंगे कि उसका मूल्य उसके विवादास्पद होने में ही है. नामवर जी ने उसमें दो तरह के विवाद किए है – एक विवाद डॉ. नगेन्द्र और उनकी आलोचना दृष्टि और इनकी कविता संबंधी समझ से है, दूसरा विवाद अज्ञेय की कविता से है.
नगेन्द्र के संदर्भ में नामवर सिंह रामचंद्र शुक्ल को ध्यान में रखते हैं और अज्ञेय के प्रसंग में मुक्तिबोध को रखते हैं. हिंदी आलोचना में विचारों के विकास में बहस की भूमिका की अगर किसी दिन खोज़ और खबर ली जायेगी तो कविता के नए प्रतिमान का यह योगदान स्वीकार किया जायेगा. कविता के नए प्रतिमान की शुरुआत रामचंद्र शुक्ल के प्रसिद्ध निबन्ध कविता क्या है से होती है. ऐसा लगता है जैसे नामवर सिंह यह चाहते हो कि रामचन्द्र शुक्ल ने कविता के जैसे नए प्रतिमान बनाए उसी तरह की उम्मीद इस किताब से भी की जाए. बाद में खुद नामवर सिंह ने यह स्वीकार किया कि उसमें इस तरह का कोई नया प्रतिमान नहीं है.
उनका आखिरी महत्वपूर्ण कार्य है दूसरी परम्परा की खोज. इसकी भाषा बहुत ही सृजनशील है. नामवर सिंह की भाषा बहुत ही जानदार है और इसी लिए वह असरदार आलोचना लिखते हैं और बोलते हैं. नामवर सिंह की आलोचना की भाषा पर उनकी वक्तृता का गहरा असर है. दूसरी परम्परा की खोज में हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना और रचनाशीलता की नई व्याख्या की कोशिश है, पर रामचन्द्र शुक्ल के महत्व को कम करने के लिए इसमें जो तर्क दिए गए है वह गले नहीं उतरते. कुल मिलाकर उनकी आलोचना में साहित्य के प्रति जो प्रतिबद्धता है वही मुझे मूल्यवान लगती है.
६.
समकालीन आलोचना-परिदृश्य कैसा लगता है..
समकालीन आलोचना की जो प्रवृत्तियां हैं वह चिंताजनक अधिक हैं, उत्साहवर्धक कम हैं. पत्र–पत्रिकाओं में छपने वाले लेखों और समीक्षाओं को ध्यान में रखें तो यह देखने को मिलता है कि आलोचना और रचना की परम्परा के गम्भीर ज्ञान का अभाव है. यह नितांत समकालीनता तक सीमित हो गई है. अक्सर समकालीन कवियों, कहानीकारों और उपन्यासकारों की समीक्षा ही आलोचना के रूप में सामने आ रही हैं. मैं केवल पुस्तक समीक्षा को आलोचना नहीं मानता. रचना के केन्द्र में स्थित समाज और विचार से अगर आलोचना की टकराहट नहीं है तो वह आलोचना नहीं है.
सबसे चिंताजनक पहलू इसका व्यक्तिगत राग–द्वेष से संचालित होना है. जिससे आपका राग है उसके लिए अतिरंजित प्रशंसा और जिससे आपका द्वेष है उसकी रक्तरंजित निंदा की जा रही है. पर मैं यह भी कहूँगा,.. इस चिंता, संकट और अवसरवाद के बावजूद ऐसी आलोचनाएं भी दिखती हैं जो आलोचना के भविष्य को लेकर आश्वस्त करती हैं और उम्मीद भी जगाती हैं. गोपाल प्रधान, नन्द भारद्वाज ऐसे ही आलोचक हैं. शमशेर पर आलोचक ज्योतिष जोशी की किताब भी आई है. इनसे हिंदी आलोचना को बहुत उम्मीदें हैं.
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अरुण देव
devarun72@gmail.com
साक्षात्कार में प्रश्नों का बहुत महत्त्व होता है। यह एक सुंदर जुगलबंदी होती है।पांडेय जी ने हिंदी आलोचनाओं का जितना सहज,सुंदर और सार्थक विवेचन किया है, ऐसा आज के समय में केवल वही कर सकते हैं। सबसे प्रभावशाली उनकी आकर्षक मौलिकता है जिसमें कहीं लेश मात्र भी पूर्वाग्रह नहीं दिखाई पड़ता है ओर किसी तरह की अहम्मन्यता भी नहीं दिखाई देती। निश्चय ही यह साक्षात्कार समकालीन हिंदी आलोचना दृष्टि के लिए एक मानक स्थापना जैसा है। समालोचन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि। बधाई।