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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : सोमप्रभ

सहजि सहजि गुन रमैं : सोमप्रभ

(Waswo X. Waswo : The Flower Seller) सोमप्रभ को उनकी तीक्ष्ण, विवेकसम्मत टिप्पणियों से जानता था. यह भी समझा कि वह एक आवरणहीन खुद्दार युवा हैं. जैसा समय है उस में युवा होने का मतलब ही सशंकित होना है. उनकी पांच कविताएँ आपके समक्ष हैं- उन्हीं की तरह खुरदरी और गहरी. ये अपने समय में […]

by arun dev
February 20, 2017
in Uncategorized
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(Waswo X. Waswo : The Flower Seller)



सोमप्रभ को उनकी तीक्ष्ण, विवेकसम्मत टिप्पणियों से जानता था. यह भी समझा कि वह एक आवरणहीन खुद्दार युवा हैं. जैसा समय है उस में युवा होने का मतलब ही सशंकित होना है.

उनकी पांच कविताएँ आपके समक्ष हैं- उन्हीं की तरह खुरदरी और गहरी. ये अपने समय में गहरे धंस कर लिखी कविताएँ हैं, गठन में सुगठित हैं यह सौष्ठव मेहनतकश का है.

उनके मेल के दो हिस्से भी दे रहा हूँ. कवि को समझने में ये भी सहायक हैं.

सोमप्रभ अपने कवि को गम्भीरता से लें. कविता हर हाल में साथ देती है, चाहे कैसा भी बुरा समय हो.

 

_______

“नमस्ते सर. मै बढ़िया हूं. मन अस्थिर होता रहता है,लेकिन पढ़ने-लिखने से ठीक होता है. जॉब में मन नहीं लगा तो छोड़कर घर वापस आ गया. यहीं रहते हुए पढ़-लिख रहा हूं. कुछ घंटे पार्टटाइम काम करता हूं. आप जानते हैं कि कस्बाई जगहों में रहते हुए थोड़ी कठिनाई आती है. रहना, खाना आसान हो जाता है. समय खूब है लेकिन पढ़ने-लिखने वाले लोग बहुत मुश्किल से मिलते हैं. किसी से कुछ सीखना-जानना हो तो बहुत ही मुश्किल आती है. इसलिए बहुत बार एकाकी रहते हुए बहुत कुछ खुद से करना पड़ सकता है. इधर कई फिल्मकारों की बायोग्राफी मंगवाया है. फिलहाल फेलिनी को पढ़ रहा हूं. दिल्ली में जब लिखना एकदम छूट रहा था तो उसी दबाव में छोटी कहानियां लिखना शुरू किया था. फिर उसमें मजा आने लगा तो इधर कई कहानियां उसी तरह की लिखीं हैं. मटन शॉप जब भी पूरी होगी आपको भेजूंगा. कविताएं इधर कम ही लिखा है. जो पहले का लिखा हुआ है उसे ही देख-पलट रहा हूं. अपने इधर के इलाकों पर ‘उपत्यका’ नाम से एक कविता श्रृंखला लिख रहा था. इधर वह भी बंद है. सर, मैं बहुत सशंकित रहता हूं कि मैं क्या लिख रहा हूं. लेकिन मैं कुछ अच्छा लिखने के बारे में सोचता रहता हूं कि  कम ही सही कुछ लिख सकूं. मेरा ज्यादा समय ऐसे ही उहापोह में चला जाता है. ऐसे में आपका संदेश पाना मेरे लिए बहुत ही उत्साह बढ़ाने वाली बात है. आप जैसे वरिष्ठ की मेरे प्रति ऐसी संलग्नता मेरे लिए ऊर्जा पाने की तरह है.

कई बार कुछ लोगों को भेजा लेकिन पढ़कर कोई कुछ नहीं कहता. प्रकाशन के लिए तो मैं भेजने की हिम्मत नहीं कर पाता. अपने लिखे को लेकर बहुत सुनिश्चित भी नहीं हूं. अपनी आवाज ढूंढ पाना बहुत ही कठिन है. बीच-बीच में भटक जाता हूं. फिर दूसरा रास्ता पकड़ लेता हूं.”


सोमप्रभ



 

सोमप्रभ की कविताएँ        

रात

रात दिल्ली में बारिश होती रही
रात दोस्त खून की उल्टियां करता रहा
अस्पताल के वार्ड में लोग चीखते रहे
हम क्या कर सकते थे
सहमें रहने के सिवाय
हमें तो कोई नहीं जानता था
यहां तक कि इस विशालकाय शहर में असंख्य लोगों के होने के बाद भी
कैसे कोई अधिकारी कर्मचारी पहचानता
कैसे कोई डॉक्टर हमारी बात सुनता
फिर कोई सरकार, बड़ा अफसर हमें जानता होता इसका सवाल ही कहां
वह आदमी जिसे कुछ लोगों ने चुना था कि हमारे काम आएगा
अपने शानदार बंगले में सो रहा था
और असंख्य लोग एक पुराने टुटहे मकबरे के अहाते में बारिश से बचने के लिए शरण ले रहे थे
वे, कबूतर और कुत्ते

यह वही इमारत थी जिस पर एक अखबार अतिक्रमण और कब्जे की खबर छाप रहा था

चूंकि मैं ईश्वर को नहीं मानता
इसलिए रात उस आदमी के सामने गिड़गि़ड़ा रहा था
जिसने ईश्वर की तरह के सफेद कपड़े पहने हुए थे.

पत्ते गिर रहे हैं

उनके अब बनाए जाएंगे दोने और पत्तलें
पान के बीड़े लपेटे जाएंगे
बकरियां और दूसरे जानवरों का पेट भरेगा

हाथ-हाथ  की जरूरत
जो उन्हें उठा लाते हैं
यह कोई वृंत पर वापसी तो नहीं
लेकिन
मृत हो रही चीजें इस तरह और दिन रह जाती है


पत्ते गिर रहे हैं.

मैं अकेला नहीं था


दिन तो दिन
रात इतनी रोशनी से रहा भरा
सुई भी याद-गुम में जो दिखने का दावा किया जा सकता है
चमक इतनी है हर तरफ
जैसे हर चीज मांज दी गयी हो
त्वचा के भीतर की खरोंच तक
जो ऊपर से लीप दी गयी हो
तमाम किस्म के सुंदर बनाने के मल्हमों से


अजीब है पर रिवाज है
कि त्वचा की रंध्र में
भरा जा रहा है सुंगधित मल्हम
कि दुख दिखाने के लिए नहीं है
हंसना और हंसते रहना एक अंतहीन प्रदर्शन है


मैं जिस उम्र में हूं
उसमें सबसे ज्यादा दर्ज कर पाता हूं
वह मेरी निराशा है
कि यह मेरी गिनने की भी नाकामी

घटनाएं इतनी हैं
कि वह दुनिया के कुल आदमियों के हाथ और पैर की उंगलियों पर भी नहीं गिनी जा सकतीं
कि मैं इतने बड़े संसार में चंद चीजें जान पाता हूं

मेरी बेरोजगारी मेरे जीवन की तरह खिंची चली जाती है
प्रेम की इच्छा तारे की तरह डूब गयी है
मेरा चेहरे फोड़े की तरह दिखता है
मवाद से भरा
पर मैं उसमें मल्हम नहीं भर सकता हूं
मैं अकेला नहीं हूं
बहुत से हैं मेरी तरह
जिनके पास एक ही विकल्प है
कि हम अपनी देह के भीतर चले जाएं

और नींद में जागते रहें

रोशनी के उस विशाल वृत्त से जिसमें हम कैद हैं
तितलियों का एक झुंड अपने पंखो का रंग खोते हुए उड़ा जा रहा है
घोसले वृक्षों पर निरर्थक लटके हुए हैं.

उम्र दराज औरतें जो छत्तीसगढ में रहती हैं

चांद पर अब नहीं रहती है कोई बूढ़ी औरत
जिसकी उम्र सैकड़ों वर्ष है

औरत जो सूत कातती हैं
वह नहीं रहती हैं चांद पर

छत्तीसगढ़ में रहती हैं संसार की सबसे उम्र दराज औरतें
मजे की खुशहाल, स्वस्थ, कामकाजी
चांद पर उतनी उम्र में कातती थी जो औरत तकली से सूत
वह पुरखिन थी इन औरतों की
जो छत्तीसगढ में रहती हैं
उसी बुढिया की पांच सौ बरस उम्र की बेटियाँ
पांच सौ बरस की उम्र में साइकिल चलाती झूमती, गाती चली जा रही हैं
वे चली जा रही हैं अपनी नयी चमकीली साइकिलों पर
सिलाई मशीनें लादें सरपट
ताज्जुब होता है यह जानकर
यह जानते हुए कि औरतें इतनी उम्र तक इस देश में नहीं जिया करतीं हैं
वे कई बार मार दी जाती हैं पैदा होते ही
या औसत उम्र जीते हुए मरती रहती हैं
इसलिए सोचता हूं फिर से –

मिथक तक में नहीं पाता हूं जीवित किसी औरत को
तो कोई औरत पांच सौ बरस की उम्र में अब तक रही जीवित कैसे

अगर वह जीवित रही भी
तो उसे क्यूं नहीं मार दिया गया
क्यूं दी गयी साइकिलें उसे
क्यूं दी गयी उसे सिलाई मशीन
भला कैसे उसे अब जीवित रहने दिया गया इस देश में.

(छत्तीसगढ़ की एक खबर पर आधारित जिसमें सरकारी योजनाओं में 500 बरस से अधिक उम्र में साइकिल और सिलाई मशीन देने की बात कही गयी थी.)

शब्द चाहिए


घटना हो चुकी है
एक आदमी मारा जा चुका है
और इसे ठीक से बयान करने के लिए शब्द चाहिए

घटना की मूक दर्शक भीड़ शब्द खोज रही है
पुलिस को रपट के लिए शब्द चाहिए
जिन्होंने न देखा, न सुना उन्हें भी शब्द चाहिए
टेलीविजन को शब्द चाहिए
अखबार, पत्रिकाओं को शब्द चाहिए
सत्ता पक्ष को, नेता विपक्ष को, पत्रकार को, लेखक को, कवि को

सामाजिक कार्यकर्ता को, समाजशास्त्रियों को शब्द चाहिए
शब्द चाहिए वकीलों को, न्यायाधीश को शब्द चाहिए कचहरियों को

तलाशे जा रहे हैं शब्द
तराशे जा रहे हैं शब्द
कि कैसे हुई एक आदमी की  मौत
उसके लिए क्या शब्द हो सकता है भला उपयुक्त
जो सर्वथा नया हो, सटीक हो
कि भीड़ खुद को बचा सके
पुलिस रफा-दफा कर सके
राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता फिर सफल रहें
समाजशास्त्री सिद्धांत प्रतिपादित कर सके

और कचहरियां बनी रहें कुल संदेहों के बाद भी न्याय की जगहें

मैं इतना हताश और निराश हूं कि
मैं टेलीविजन और अखबार की भूमिका पर कोई बात नहीं करना चाहता हूं
मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि
एक आदमी की लाश जमीन पर धरी है
हो सकता है कि वह हत्या से मरा हो
हो सकता है कि उसने आत्महत्या की हो

हो सकता है कि वह भूख से मर गया हो
या फिर किसी की गाड़ी से टकराकर
हो सकता है कि यह दंगे की रणनीति हो
कौन जानता है कि जो आदमी मरा उसका ठीक–ठीक क्या कारण  हो सकता है?

मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि
इस एक लाश के साथ
अदृश्य कर दी गयी हैं अनगिनत लाशें
वे सड़-गल गयी होंगी
इस अमर और महान देश की  जमीन के भीतर
मुझे लगता है कि
इस विशाल देश में  हताश हो जाने और विद्रोह कर देने के हजार कारण मौजूद हैं

ताज्जुब है कि हम ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे हैं
तो हम भीड़, पुलिस,कचहरी,  नेता, टेलीविजन कुछ भी हो सकते हैं

धारदार हत्यारा चाकू भी.

______________

 सोमप्रभ
tosomprabh@gmail.com

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