सिद्धेश्वर सिंह की कविताएँ
वे भरथरी गायक थे
पता नही कहाँ चले गए सारंगी बजाते बजाते
वे अक्सर अवतरित होते थे गांव की कच्ची गैलपर
और ठूंठी टहनियों पर खिल जाते थे गेरुआ फूल
मनसायन हो जाते थे घर दुआर
उनके आने से और हरियर हो जाती थीं फसलें
कुएं के जल में भर जाती थी और मिठास
दिन की तो बात ही क्या
रात में ज्यादा उजले दिखाई देते थे चांद तारे
वे सुनाते थे वैराग्य की कथाएं
किन्ही बीते युगों के राजा रानियों और जोगियों की
माया मोह से बंधे गृहस्थों में
जगा जाते थे जीवन का सुरीला राग
वे जादूगर थे सचमुच के
अपनी गुदरी में बांधकर ले जाते थे सबके दुःख
और उनके आने से
थोड़ा पास सरक आता दिखता था सुख
वे भरथरी गायक थे
वे शायद इसीलिए नहीं आते अब
कि दिनोदिन भारी होती जा रही है दुखों की खेप
और मन को उदास कर जाती है सारंगी की आवाज.
कविता में मन रमता है
मन में रमती है कविताएं
जीवन का गद्य कुछ हो जाता है आसान
\’इति सिद्धम\’ के मुहाने तक पहुँचते दिखते हैं
रोजमर्रा के कामों के निर्मेय – प्रमेय
हो सकता है यह आत्मतोष हो
या कि कोई स्वनिर्मित शरण्य
फिर भी
कविता में मन रमता है
मन में रमती है कविताएं.
कामकाज के बीच समय मिले यदि थोड़ा
तो खुल जाती है कविता की किताब
या फिर शुरू होता है
अधूरी कविताओं को पूरा करने का काम
यह न भी तो हो सोच की सीढ़ियों से
चुपचाप उतरते आते हैं पंक्तियों के पांव
सहकर्मी मुस्कयाते है
कनखियों से देखते हैं बार – बार
ऐसे जैसे कि मैंने चुरा लिया हो
कोई जरूरी गोपनीय दस्तावेज
और चुपके से उसकी नक़ल कर रहा हूँ तैयार.
कक्षा से लौटता हूँ
चॉक से सने हाथ लिए
अभी -अभी पढ़ाया है काव्यशास्त्र
जेहन में अब भी मथ रहा है रससिद्धांत
पता नहीं यह कैसी निष्पत्ति है
पता नहीं किस किस्म का साधारणीकरण
कि स्टाफ रूम तक
बात – बहस करते
साथ चले आए हैं भरतमुनि
बाथरूम में हाथ धोने जाता हूँ
तो मिल जाते हैं विद्यापति गुनगुनाते –
\’सखि हे ,की पूछसि अनुभव मोय\’
आलमारी खोलता हूँ
तो वहां से आवाज देते हैं घनानंद –
\’तलवार की धार पै धावनो है\’
और मैं हो जाता हूँ लगभग सावधान
गोया कविता लिखना हो कोई खतरनाक काम.
ऐसे ही चल रहा है जीवन
ऐसे उभर रहा है राग विराग
ऐसे ही निभ रहा है कविता का साथ
गुणीजन भले ही मानें इसे पुनरुक्ति दोष
फिर -फिर कहूँगा
कि कविता में मन रमता है
मन में रमती है कविताएं.
पता नहीं यह कब से है
आई कहाँ से
अवतरित हुई किसी अन्य लोक से
या कि जन्मी यहीं की मिट्टी पानी से
जो भी जैसा भी रहा हो इतिहास
मुझे कुछ -कुछ पता है इसके होने का
इसने यहीं के पत्थरों को पुचकार कर
राह बनाई सजल होने की
और लहर दर लहर उभरती रही कविता की धार
यह कवि की नदी है
इसे प्यार से देखा जाना चाहिए चुपचाप
असंख्य नदियाँ है इस धरा पर
मनुष्यों के अशेष रेवड़ में
कवियों की गिनती का भी नहीं कोई पारावार
किताबों से बाहर आकर
कभी ध्यान से सुनो अगर
इस पर बने पुल से गुजरती रेलगाड़ी को
तो साफ सुनाई देगा –
मैं नदी
मैं केन
मैं कवि
मैं केदार !
चलता रहा कछुआ चाल
अपनी मौज में
आसपास खूब उछालें भरते रहे खरगोश
आंधियां आईं तो डरपा जी
लेकिन थाम ली वह छरहरी शाख
जिस पर टिका हुआ था घोंसला
अपनी पूरी ताकत से
पानी बरसा तो तान लिया
हथेलियों का चंदोवा
नम होती रही भाग्यरेख
पर छूटी नहीं आस की पतली डोर
शबो रोज़ के इस तमाशे में
पास बैठे बतियाते रहे ग़ालिब
हम चलते रहे थोड़ी दूर तक
हर इक तेज़-रौ के साथ
लेकिन हर बार होती रही राहजन की पहचान
राजनादगांव पर कुछ धीमी हुई रेलगाड़ी
झपट कर डिब्बे में सवार हो गए मुक्तिबोध
लगे पूछने – पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?
मैं क्या कहता नहीं सूझा कोई त्वरित व माकूल जवाब
वे मुस्कुराये बतियाते रहे देर तक
लगभग आत्मालाप जैसा कुछ असंबद्ध बेतरतीब
और जब नागपुर आया तो उतर गए तेजी से
यह कहते हुए कि सुनो – तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़
चांद का मुंह अब भी टेढ़ा है
और खतरे कम नहीं हुए हैं अंधेरे के
यह नागपुर था
संतरों के चटख रंग बिखरे हुए थे चारो ओर
इसी रंग में घुलती चली जा रही थी हर चीज
एक बार को मन हुआ कि स्थगित कर दूं यात्रा
चला जाऊं वर्धा या पवनार
गांधी और विनोबा की स्मृतियों में डूबकर
मुक्त होने की कोशिश करूं रोज रोज के खटराग से
यह भी सोचा कि फोन लगाऊं कवि वसंत त्रिपाठी को
चौंका दूं कि देखो तुम्हारे शहर से गुजर रही है मेरी रेल
और मैं याद कर रहा हूँ तुम्हारी कविताओं को
यह अलग बात है कि कुछ और कह गए है मुक्तिबोध
थोड़ी देर पहले ही
अलसा गया वातानुकूलन की सुशीतल हवा में
सोचा कि भोपाल में उतर लूँगा
देख आऊंगा भारत भवन का जलवा
अगरचे वह अब भी है बरकरार
पूछ लूँगा की कहाँ है काम पर जाते वे बच्चे
जो बताए गए थे राजेश जोशी के हवाले से
फिर सोचा
भगवत रावत तो अब रहे नहीं
आखिर किससे मिलकर मिलेगा जी को तनिक आराम
छोड़ दिया यह विचार भी
और देखता रहा खिड़की के शीशे के पार
दूसरी ओर एक दुनिया थी जिसके होने का बस आभास
गोया कि एक प्रतिसंसार
गुजरा ग्वालियर
गई झांसी
छूटा मुरैना धौलपुर
पता नहीं कब निकल गए आगरा मथुरा
और दिल्ली के स्टेशन पर खड़ी हो गई गई अपनी ट्रेन
खड़ा हूँ देश के दिल दिल्ली में
अब धीरे धीरे छूट रही है कविताओं की डोर
धीरे धीरे घर कर रहा है भीड़ में खो जाने का डर
ठीक से टटोलता हूँ अपना सामान
और ऑटो पकड़ कर
तेजी से चल देता देना चाहता हूँ आईएसबीटी आनंदविहार
वहीं से मिलेगी
अपने कस्बे की ओर जाने वाली आरामदेह एसी बस
एक पिट्ठू बैग है पीठ पर लदा
बैग में कुछ किताबें हैं कविताओं की
कविताओं में एक दुनिया है छटपटाती हुई
जैसे कि कोई पुकारती हुई पुकार
जैसे कि अंधेरे में उतरती हुई सीढ़ियों पर कोई पदचाप
जैसे कि कमल ताल में किसी बेचैन मछली की छपाक
बार बार परेशान करती है ये आवाजें
और मैं जीन्स की जेब में हाथ घुसाकर
हड़बड़ी में टटोलने लगता हूँ ईयरफोन
(प्रिय कवि वीरेन डंगवाल को याद करते हुए)
चतुराईयों की चकाचौंध से
दूर ही रहे बेचारा चित्त
भले ही इत – उत
व्यापे अनुप्रास की छटा भरपूर !
पल प्रतिकूल
फूल बिच छिपे अनगिन शूल
माथे पर जमी गर्द धूल
समय सरपट भागता कुटिल क्रूर !
छूटने न पाए
संगियों का साथ
धीरे -धीरे चलते रहें कदम
भले ही गंतव्य दीखता रहे कुछ दूर- दूर !
हँसे जग
डोंगी हो डगमग
बात लगे अपनी मूरखपन लगभग
फिर भी बना रहे कवि का यकीन
कि देखना
एक दिन उजले दिन आएंगे जरूर !
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(11 नवंबर 1963, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश)
कविता संग्रह- हथिया नक्षत्र एवं अन्य कवितायें, कर्मनाशा प्रकाशित
अन्ना अख्यातोवा और हालीना पोस्वियोत्सीका आदि की कविताओं के अनुवाद
संपर्क : ए-3, आफीसर्स कालोनी, टनकपुर रोड, अमाउँ पो. खटीमा
जिला उधमसिंह नगर (उत्तराखंड) पिन 262308