‘गीत एक और ज़रा झूम के गा लूँ तो चलूं..’
हिंदी के प्रसिद्ध गीतकार ९३ वर्षीय गोपाल दास नीरज (४/जनवरी १९२५- १९ जुलाई २०१८) के न रहने से लोकप्रिय हिंदी कविता की परम्परा ठिठक सी गयी है, मंच पर उसके पास ऐसा कोई स्तरीय कवि अब नहीं बचा है.
नीरज जैसे कवि जनमानस का रंजन करते हुए उसे कविता के लिए भी तैयार करते हैं, इन्हीं गीतों से साहित्य का अंकुरण होता है और पाठक धीरे–धीरे परिपक्व बनता चलता है.
कवि संतोष अर्श ने क्या बेहतरीन ढंग से नीरज को याद किया है. यह स्मृति लेख उन्होंने समालोचन के आग्रह पर रात २ बजे तैयार किया.
नीरज की स्मृति को समर्पित यह अंक
दिल आज शायर है, ग़म आज नग़मा है !
(स्मृति शेष गोपाल दास ‘नीरज’)
संतोष अर्श
बाराबंकी के देवा शरीफ़ की सालाना नुमाइश में होने वाले मुशायरे में नीरज अक्सर आया करते थे. उनके लिए कवि-सम्मेलन और मुशायरे का कोई बंधन-भेद नहीं था. दोनों से उनकी रब्त-ज़ब्त व उनमें आमदो-रफ़्त थी. देवा मेले का यह समय कार्तिक का होता है. जब धान की फ़सल कटनी शुरू हो जाती है और रात के दूसरे पहर ओस के आँसू बहाने से पहले फ़िजाँ हल्की नीली धुंध का आँचल अपने सीने पर डाल लेती है. नीरज भीड़ बनाए रखने के लिए आख़िर तक बिठाए जाते थे. लोग उन्हें सुनने के लिए शॉल-चादर ओढ़े, गमछा-मफ़लर बाँधे या कुछ जड़ाते ही बैठे रहते थे. नीरज कितना भी कुछ सुनाएँ लेकिन उनसे ‘कारवाँ गुज़र गया’ की बहुत फ़रमाइश होती थी. नीरज आख़िरे-शब के हमसफ़र की तरह, ढलती जा रही रात के कान में अपनी लरजती और कभी-कभी गरज उठने वाली आवाज़ में सुनाते थे. उनके स्वर में शराब से तर गले की सी ख़राश होती थी. रात के सन्नाटे में ये ख़राश अपनी आवृत्ति में और स्पष्ट हो उठती थी:
जिस वर्ष मैं पैदा हुआ उस वर्ष नीरज की उम्र उतनी हो चुकी थी, जितनी किसी सरकारी महकमे के क्लर्क के रिटायर होने की होती है. और जब मैं रेडियो पर नीरज के लिखे गीत सुनने-समझने के क़ाबिल हुआ तब तक नीरज की उम्र अच्छी-ख़ासी हो गई थी और तभी जान पाया की नीरज के गीतों में ‘बादल बिजली चन्दन पानी’ की तासीर है. यह नौखेज़ और हैरतअंगेज़ उम्र होती है, फूलों के रंग से, दिल की क़लम से किसी को पाती लिखने की.
भारत की कम-अज़-कम तीन पीढ़ियों ने अपनी मसें भींगने के सिन में ‘प्रेम पुजारी’ का यह गीत सुन कर अपनी मुहब्बत के हसीन ख़्वाब सजाए होंगे. मुहब्बत हमेशा हसीन ख़्वाब सजाती है और उसके लिए नीरज के गीतों से गुज़रना ही पड़ा होगा. यह ऐसा गीत है जो बादल, बिजली, चन्दन, पानी जैसा प्यार किए बिना या किसी के सपने लेकर सोने और किसी की यादों से जागे बग़ैर नहीं लिखा जा सकता.
इस गीत में ‘पाती’ शब्द के प्रयोग से नीरज ने हिंदी की विकास परंपरा को ता-अमीर खुसरो से ता-बीसवीं सदी के सातवें दशक जोड़े रखा है. न आप आवें न भेजें पतियाँ. मुझे शदीद यक़ीन है कि जिसने भी प्रेम की पाती लिखी है, उसने नीरज के गीत सुने हैं. गरज़ यह कि बिना किसी ऐन-गैन के नीरज प्रेम का कवि है.
अपनी उम्र से तिगुने से भी अधिक आयु के नीरज से लखनऊ में मिलने के कई अवसर मिले, किन्तु नहीं मिल सका. मुनव्वर राणा जैसे शायरों से मिल भी चुका था. पिछले सालों में उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार ने नीरज को ख़ासा सम्मान दिया. भाषा संस्थान का अध्यक्ष पद और राज्यमंत्री का दर्ज़ा भी दे रखा था. इसका कारण राजनीतिक लोग ये बताते थे कि नेता जी मुलायम सिंह यादव और हिंदी के अतिलोकप्रिय गीतकार नीरज दोनों ही इटावा के जन्मे हैं और नीरज मुलायम सिंह यादव जी से पंद्रह वर्ष बड़े हैं. लेकिन इस बात पर मुझे बारहा संदेह होता था, क्योंकि नीरज को जो भी मिला हुआ था वह उसके (सु) योग्य, (सु) पात्र थे. बल्कि यह सब नीरज की मक़बूलियत के बरक्स कुछ क्षुद्र ही नज़र आता था.
नीरज से मिलने क्यों नहीं गया ? आज जब यह लिख रहा हूँ, तो सोचता हूँ कि ठीक ही किया. पीरों की उम्मत की जाती है, उनसे मिलकर उम्मत की उम्मीदवारी को हल्का करना है. नीरज हिंदी के अपने जैसे अकेले बुज़ुर्ग गीतकार थे, उनसे मिलकर उस ज़ादुई राग को ठेस पहुँचती जब अब तक बना हुआ है और अब आगे भी बना रहेगा.
बाराबंकी के देवा शरीफ़ की सालाना नुमाइश में होने वाले मुशायरे में नीरज अक्सर आया करते थे. उनके लिए कवि-सम्मेलन और मुशायरे का कोई बंधन-भेद नहीं था. दोनों से उनकी रब्त-ज़ब्त व उनमें आमदो-रफ़्त थी. देवा मेले का यह समय कार्तिक का होता है. जब धान की फ़सल कटनी शुरू हो जाती है और रात के दूसरे पहर ओस के आँसू बहाने से पहले फ़िजाँ हल्की नीली धुंध का आँचल अपने सीने पर डाल लेती है. नीरज भीड़ बनाए रखने के लिए आख़िर तक बिठाए जाते थे. लोग उन्हें सुनने के लिए शॉल-चादर ओढ़े, गमछा-मफ़लर बाँधे या कुछ जड़ाते ही बैठे रहते थे. नीरज कितना भी कुछ सुनाएँ लेकिन उनसे ‘कारवाँ गुज़र गया’ की बहुत फ़रमाइश होती थी. नीरज आख़िरे-शब के हमसफ़र की तरह, ढलती जा रही रात के कान में अपनी लरजती और कभी-कभी गरज उठने वाली आवाज़ में सुनाते थे. उनके स्वर में शराब से तर गले की सी ख़राश होती थी. रात के सन्नाटे में ये ख़राश अपनी आवृत्ति में और स्पष्ट हो उठती थी:
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आईना मचल उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक़्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का ख़ुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे.
इस गीत को मुहम्मद रफ़ी ‘नई उमर की नई फ़सल’ में 1966 में ही गा चुके थे और बेशक रफ़ी की आवाज़ का अलग जादू है, लेकिन इसे नीरज के मुँह से सुनने में एक अलग ही कैफ़ियत होती थी. हमने इस कैफ़ियत को नीरज की वृद्ध होती जाती आवाज़ में बरसों के हिसाब से सफ़र करते हुए महसूस किया है. यह हमारी पीढ़ी का गीत नहीं था लेकिन इसे हम अपनी डायरी में लिख कर रखते थे. और जब भी पढ़ते तो नीरज की मुशायरे के मंच के माइक पर खड़ी छवि सामने उभर आती. मेरे मन में इस गीत की टेक ‘गुबार देखते रहे’ को लेकर एक अलग तरह का बिम्ब बनता रहा है. उर्दू शायरी के अधिक नज़दीक रहने के चलते मुझे लगता कि कारवाँ जो गुज़र गया है उसमें एक महमिल (ऊँट की पीठ पर बनी डोली) है जिसमें लैला जैसी कोई परीज़ाद परदानशीं सवार है और नीरज कोई राजकुमार हैं. अलगरज़ नीरज को ‘गीतों का राजकुमार’ कहा भी जाता रहा है.
नीरज को मंचीय कवि मान कर हिंदी साहित्य से दूर करने की जो कोशिश जैसी की जाती रही, उसने हिंदी वालों को क्षुद्र ही बनाया है, ऐसा अब कह दिया जाना चाहिए. नीरज वास्तव में लोकमन के कवि हैं. लोकमन चित्तवृत्ति और कालचक्र के संतुलन से विकसित होने में दीर्घ समय लेता है, तब अपनी भाषा के कवि को ग्रहण करता है. कवि को भी उसके अनुरूप बनने-बिगड़ने में समय लगता है. हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि नीरज आज के से चिरकुट मंचीय कवियों जैसे कवि कभी नहीं रहे. न वे फ़िल्मी थे. फ़िल्म वालों ने तो स्वयं ही उन्हें बुलाया था, उन्हें नीरज जैसे गीतकार की गरज़ थी.
देवानंद को नीरज की ज़रूरत थी इसलिए उन्होंने ‘प्रेम-पुजारी’ के गीत उनसे लिखवाये. हम भूल जाते हैं कि नीरज गोपाल सिंह ‘नेपाली’ के जोड़ के कवि हैं. उन दिनों हिंदी कविता में गीतों की क्या अहमियत थी, यह हम शैलेंद्र में भी देखते हैं. नीरज हिंदुस्तान की कई पीढ़ियों के कवि का नाम है. सात वर्ष छोड़ दिये जाएँ तो नीरज भारत की एक सदी का कवि तो है ही. तिस पर उसकी भाषा और भाव देखिए ! बौद्ध दर्शन का दु:खवाद भी है उसमें.
लोकभाषा की परंपरा भी है. प्रेम तो अविरल और तरल है. हिंदी की प्रांजलता को फ़िल्मी गीतों में गूँथ कर उसे लोकप्रियता के शिखर तक ले जाना एक बड़ी चुनौती का कार्य है, जबकि लंबे समय तक हिंदी फ़िल्मों के गीतों पर उर्दू शायरी का दबदबेदार प्रभाव रहा है. नीरज ने उस दौर में भी लिखा है-
देखती ही रहो आज दर्पण न तुम
प्यार का ये महूरत निकल जाएगा (फ़िल्म- नई उमर की नई फ़सल)
और
उमरिया बिन खेवक की नैया
पाल नहीं पतवार नहीं और तेज़ चले पुरवइया
छिन उछरे छिन गोता खाए, न डूबे न पार लगाए
भटके इत-उत भँवर में जैसे बिछड़ी साँझ चिरईया (फ़िल्म- मांझिली दीदी)
अभिप्रेत यह है कि गुलो-बुलबुल और आशिक-महबूब-महबूबा-दिलरुबा वाले फ़िल्मी गीतों में दर्पण-महावर, नैया-चिरईया, मेघा-बैरन-निंदिया को लाना समय के हिसाब से कम चुनौतीपूर्ण नहीं था. यह शब्द विधान हिंदी की लोक-कविता (वोक्स पोयज़ी) का है, इसमें कोई शुबहा नहीं होना चाहिए.
देखती ही रहो आज दर्पण न तुम
प्यार का ये महूरत निकल जाएगा (फ़िल्म- नई उमर की नई फ़सल)
और
उमरिया बिन खेवक की नैया
पाल नहीं पतवार नहीं और तेज़ चले पुरवइया
छिन उछरे छिन गोता खाए, न डूबे न पार लगाए
भटके इत-उत भँवर में जैसे बिछड़ी साँझ चिरईया (फ़िल्म- मांझिली दीदी)
अभिप्रेत यह है कि गुलो-बुलबुल और आशिक-महबूब-महबूबा-दिलरुबा वाले फ़िल्मी गीतों में दर्पण-महावर, नैया-चिरईया, मेघा-बैरन-निंदिया को लाना समय के हिसाब से कम चुनौतीपूर्ण नहीं था. यह शब्द विधान हिंदी की लोक-कविता (वोक्स पोयज़ी) का है, इसमें कोई शुबहा नहीं होना चाहिए.
यह भी नहीं है कि नीरज साहित्यिक वैचारिकता और मेयार से भिज्ञ नहीं थे. एक अख़बारी इंटरव्यू में उन्होंने अपनी बात कहने के लिए इलियट की बड़ी महीन और वज़्नी उक्ति को कोट किया है. और वह है-
“Poetry is although creation of the individual mind but given to the national mind.”
इस संदर्भ में इलियट के प्रसिद्ध लेख ‘ट्रेडिशन एंड इंडिविज़ुअल टैलेंट’ (1921- दि सैक्रेड वुड) का स्मरण होना स्वाभाविक है. तो नीरज का टी.एस. इलियट को उद्धृत कर यह कहना कि ‘लोकमन एक दिन में नहीं बनता’ इस बात की तस्दीक करने के लिए है कि नीरज जैसा गीतकार एक दिन में नहीं बनता.
नीरज ने उम्र ए दराज़ पायी और जीवन के विभिन्न रंग-ढंग भी देखे. ये रंग-ढंग उनकी रचनाओं में हम सब देखते रहे हैं और उन्हें बहुत अधिक उद्धृत करने की यहाँ आवश्यकता भी नहीं है. एक इंटरव्यू में नीरज ने स्वीकार किया था कि स्त्री-सौंदर्य के प्रति उनमें बचपन से ही उद्दाम आकर्षण रहा है. यह आजीवन बना भी रहा. उसी इंटरव्यू में नीरज ने यह भी बताया था कि अपने बुरे और तंगदस्ती के दिनों में उन्होंने पान-बीड़ी बेचे थे. यहाँ तक कि तांगा भी हाँका था. तांगा हाँकने की बात पढ़ कर मुझे उनके लिखे ‘मेरा नाम ज़ोकर’ फ़िल्म के गीत ‘ऐ भाई ज़रा देख के चलो’(नीरज का ही लिखा हुआ है), की बरबस याद आ गई थी. इस गीत को बेस्ट लिरिक्स के लिए फ़िल्म-फ़ेयर अवार्ड मिला था. जीवनानुभवों का भाषा से कितना गहरा संबंध है ! भाषा का गीत की लय से कैसा अविच्छिन्न मेल है. और गीत का लोकमन से.
नीरज सच्चे अर्थ में हिंदी के लोकमन के कवि हैं. गीतों के राजकुमार हैं. शीशमहल में बरसों तक गुमसुम बैठे हुए आशाओं के राजकुमार की तरह, जो अब हमें उदास छोड़ कर चला गया है:
और हम डरे-डरे, नीर नैन में भरे
ओढ़ कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे.