भारत विश्व में अपने मोक्ष, पुनर्जन्म आदि दार्शनिक मान्यताओं के कारण भी जाना जाता है. हजारो विकल प्राणी मोक्ष की तलाश में तमाम गुरुओं के पास भटकते रहते हैं. जनता को जन्म जन्मान्तर के बन्धनों से मुक्त करने के इस व्यापार में खुद गुरुओं के पास ऐश्वर्य के पहाड़ खड़े हो गए हैं. सवाल यह है कि ये दर्शनिक मान्यताएं विशेषताएं हैं कि समस्याएं ?
युवा समाज वैज्ञानिक संजय जोठे ने आचार्य रजनीश और श्री श्री रविशंकर की दार्शनिक निष्पत्तियों और सांसारिक ‘उपलब्धियों’ की अच्छी पड़ताल की है. इन गुरुओं की \’उपयोगिता\’ और दिख रही प्रतियोगिता के विषय में आप भी तो कुछ सोचते ही होंगे ?
भारतीय अध्यात्म का व्यावसायिक माडल और भारत का पतन
संजय जोठे
आधुनिक समय के दो प्रसिद्ध भारतीय गुरुओं को ध्यान से देखिये, इन दोनों की शिक्षाओं और शैलियों के अध्ययन से आप समझ सकेंगे कि भारत की सनातन समस्याओं का स्त्रोत क्या है. इन गुरुओं ने जिस तरह का आभामंडल और भक्त समुदाय बनाया है उसके मनोविज्ञान को नजदीक से देखने पर और अधिक निराशा भी होती है लेकिन यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि इन गुरुओं ने जिस चीज को समाधान की तरह प्रचारित किया है वह समाधान ही सबसे बड़ी समस्या है. वैसे तो भारतीय समाज की हजारों समस्याएं हैं और हजारों प्रश्न हैं जो एक एक करके बहुत लंबी बहस की मांग करते हैं लेकिन दो ऐसे महत्वपूर्ण और प्रतिनिधि प्रश्न हैं जो सभी प्रश्नों को अपने गर्भ में समेटे हुए हैं. ये दो प्रश्न हैं – भारत इतनी सदियों तक गुलाम क्यों रहा और यह कि भारत इतने हजार सालों के ज्ञात इतिहास में विज्ञान क्यों पैदा नहीं कर सका?
ये दो प्रश्न भी असल में एक ही प्रश्न के दो पहलू भर हैं. जो समाज अवैज्ञानिक होता है वह गुलाम होता है और जो गुलाम होता है वह विज्ञान से डरने लगता है. इस तरह इन दो में से किसी एक का भी उत्तर इन गुरुओं से पूछा जाना चाहिए. ये गुरु लोग इन प्रश्नों के आसपास जन्मे उप प्रश्नों का उत्तर देते हुए एक झूठा वैचारिक आन्दोलन जरुर छेड़ते हैं लेकिन इन प्रश्नों की पीड़ा से जन्मे उत्तरों को व्यवहार में लागू करने का कोई वर्केबल रोड मेप नहीं देते हैं. यहाँ आकर इनकी समझ और नीयत पर प्रश्न खड़ा होता है. यह मानना गलत होगा कि इतने बुद्धिमान, घाघ और इतने बड़े साम्राज्यों को बनाने या चलाने वाले ये गुरु समस्या को नहीं पहचान पा रहे हैं. ये जरुर ही समस्या को समझ पा रहे हैं. लेकिन इनके काम करने की शैली इतनी गलत है कि वो समस्या को बढाती जाती है, कम तो बिलकुल ही नही करती.
हम अपने मूल प्रश्नों पर लौटते हैं. भारत की अवैज्ञानिकता और गुलामी का विमर्श ही वास्तविक भारत विमर्श है. यह रोगी को उसके रोग से समझने का प्रयास है. लेकिन ये दो आध्यात्मिक गुरु रोगी को उसके स्वस्थ होने की संभावना के आईने में झलकाकर परिभाषित करते हैं, और स्वास्थ्य भी ऐसा जो अभी तक किसी ने नही देखा या जाना. सरल शब्दों में कहें तो वे भारत और भारतीय समाज की समस्याओं को एक झूठी आशावादी दृष्टि से हल करते हैं और प्रचार करते जाते हैं कि भारत का समाज अध्यात्मिक नैतिक और उन्नत समाज है. वे अभी आंख के सामने ही पल रहे रोग की चर्चा नहीं करते बल्कि स्वस्थ हो जाने के बाद क्या संभव है उसकी चर्चा करते हैं. वे अभी की जरूरतों की बात नहीं करते बल्कि स्वर्णयुग की इबारत लिखते हैं और उसी के चारों तरफ अपनी खुद की महिमा और गुरुडम की बुनाई भी करते जाते हैं. वे स्पष्ट शब्दों में ये नहीं कहते कि इतने लंबे समय तक धर्म अध्यात्म तंत्र मन्त्र योग कुण्डलिनी इत्यादि करने के बावजूद या इसी के कारण ये देश सड़ रहा है, बल्कि वे अभी भी यही कहते हैं कि भारत के लोगों को और अध्यात्मिक और धार्मिक बनने की जरूरत है ताकि सारी समस्याएं मिटाई जा सकें. ये दोनों गुरु यह नहीं कहते कि भारतीय आध्यात्मिकता का माडल ही असली जहर है, बल्कि इसके विपरीत वे इसी माडल की कास्मेटिक सर्जरी करके इसी को सुन्दर और जहरीला बनाते जाते हैं.
भगवान रजनीश ने हालांकि अपने करियर की शुरुआत में गौतम बुद्ध और मार्क्स से प्रभावित होकर बहुत ही सही दिशा में प्रश्न उठाये थे. वे एक खालिस नास्तिक या अज्ञेयवादी की मुद्रा में बात करते थे और एकदम चुभते हुए सवाल उठाते थे. वे पूछते थे कि इतना धर्म कर्म सत्संग और संन्यास होने के बावजूद इस देश में सामान्य सी प्राकृतिक नैतिकता क्यों नहीं है. लोग यहाँ एकदूसरे के साथ मिलकर समाज बदलने का प्रयास क्यों नहीं करते. महिलाओं की हालत इतनी खराब क्यों है और भारतीय शिक्षा संस्थान और वैज्ञानिक दुनिया में सबसे पिछड़े क्यों हैं इत्यादि. उनकी पुरानी हिंदी की किताबों में बहुत स्पष्टता से ये देखा जा सकता है. उनकी दो महत्वपूर्ण किताबे हैं – भारत के जलते प्रश्न और गांधी पर पुनर्विचार. इन दोनों किताबों में वे बहुत वैज्ञानिक ढंग से प्रश्न उठाते हैं और उत्तर भी देते हैं. लेकिन जब वे खुद जब इन प्रश्नों के उत्तरों को अमल में लाने की दृष्टि से समर्थ हो जाते हैं तब आश्चर्यजनक ढंग से स्वयम ही भगवान् बनकर लोगों को तन्त्र मन्त्र कुण्डलिनी और रहस्यवाद इत्यादि सिखाने लगते हैं. साठ के दशक में वामपंथी और मार्क्सवादी शैली में बात करने वाले आचार्य रजनीश जब समाज में पैठ बना लेते हैं तो सत्तर के दशक की शुरुआत में ही संन्यास देने की घोषणा करते हैं और समाज क्रान्ति की सारी बातें भूलकर आध्यात्मिक क्रान्ति की बात करने लगते हैं. आध्यात्मिक क्रान्ति का सीधा सीधा अर्थ है कि मनुष्य साधना करके मोक्ष को कैसे हासिल करे इस जमीन पर गरीबी मिटाने की बजाय स्वर्ग का ऐश्वर्य कैसे हासिल करे.
यह नितांत वेदान्तिक ढंग का एकांगिक और आत्मकेंद्रित माडल है जिसमे सामूहिक शुभ और समाज के लाभ की कोई प्रेरणा नहीं होती है. आप अपना तन्त्र मन्त्र लेकर चुपचाप अपने कमरे में बैठे रहें और आपके पडौस में ही अन्याय होता है तो उसके बारे में आपको सोचना तक नहीं है. यह भारत का सनातन वेद सम्मत आध्यात्मिक अनुशासन है. इसी का प्रचार रजनीश खुद को भगवान् घोषित करके करते हैं. अब चूँकि उन्होंने शुरुआत में बुद्ध की नास्तिकता और मार्क्स की सामाजिक क्रान्ति दृष्टि का उपयोग करके लोगों को प्रभावित कर लिया है इसलिए लोग उनसे पूछते हैं कि महाराज वो पुरानी क्रांतिकारी बातों का क्या हुआ? तो भगवान रजनीश उत्तर देते हैं कि जीवन विरोधाभास है एक सांस अंदर आती है तो दूसरी बाहर जाती है, दिन के साथ रात है, पक्षी दो पंखों पर उड़ता है इत्यादि इत्यादि.
इस पूरे खेल में वे लाखों लाख लोगों को उलझा लेते हैं और वे सभी लोग जो उन्हें सामाजिक बदलाव का पक्षधर मानते आए थे वे उनसे दूर चले जाते हैं. बचे रह जाते हैं खालिस भक्त और मोक्ष का संधान करने वाले भाग्यवादी, अन्धविश्वासी और स्वार्थी लोग जिन्हें समाज और दुनिया की कोई समझ नहीं है और चिंता भी नहीं है. बस ले देकर चक्र कुण्डलिनी समाधि इत्यादि की बात करते हैं और भद्दे और स्त्री विरोधी जोक्स सुनाते रहते हैं. आज भी उसी दौर के स्वार्थी अन्धविश्वासी और व्यक्तिपूजक शिष्य उनकी विरासत संभाले हुए हैं.
अभी अभी ओशोके नाम पर एक नया आश्रम शुरू हुआ है जो चौरासी दिनों में चौरासी लाख योनियों से मुक्ति दिलाने का दावा करता है और तीन दिनों में पूर्वजन्म की यात्रा करवा देता है, ज्योतिष और देवी देवताओं का आह्वान करना सिखाता है. ये रजनीश की कन्फ्यूज्ड और मूर्खतापूर्ण शिक्षाओं का स्वाभाविक परिणाम है. फलों से पता चलता है कि पेड़ कैसा था. उनके अन्य आश्रम और ध्यान केंद्र भी जो समाज में बड़े बोल्ड होकर खुद को पेश करते हैं वे भी समाज को बदलने की बिलकुल चिंता नहीं करते बल्कि अत्यंत स्वार्थी ढंग के ध्यान समाधि में ही अपनी ऊर्जा लगाए रखते हैं. उनके शिष्यों में अधिकाँश लोगों से बात करने पर साफ़ दिखाई देता है कि आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म सहित मोक्ष इत्यादि के अंधविश्वास कितनी गहराई से उनके मन में जमे हुए हैं. यहाँ तक कि आनंद उत्सव के नाम पर जिस तरह का हास्यबोध रजनीश उन्हें देकर गये हैं उसमे भी स्त्रीविरोधी और नस्लीय चुटकुलों की भरमार है. खासकर सरदारों, स्त्रियों, सिंधियों और मारवाड़ियों को उन्होंने चुटकुलों में खूब इस्तेमाल किया है. उनके शिष्यों मे भी इसी तरह का भयानक जातिवाद, स्त्री विरोधी मानसिकता और पलायनवाद सहित ज्योतिष इत्यादि का सम्मोहन बना हुआ है.
इस उदाहरण से समझ में आता है कि भगवान रजनीश किस तरह से भारत के लिए समाधान नहीं बल्कि समस्या देकर गये हैं.
इसी तरह श्री श्री रविशंकर जो कि महर्षि महेश योगी के शिष्य हैं उन्होंने भी अपनी शुरुआत से ही अध्यात्मिक उपलब्धियों और मानसिक शान्ति के लिए उपायों को अपनी चर्चा के केंद्र में रखा. प्राणायाम और आसनों की व्यवस्था सहित मन्त्रों इत्यादि के अनुशासन से लोगों को मानसिक शान्ति और स्वास्थ्य का आश्वासन दिया गया. एक शहरी और उपभोक्तावादी जीवनशैली में व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं का समाधान करने के उद्देश्य से उनकी प्रस्तावनाएँ रची गईं हैं. कामकाजी युवा मध्यम वर्ग की तनाव और प्रतियोगिता से जन्मी समस्याओं का उन्होंने हल पेश किया. उनकी अध्यात्मिक पहल में हालाँकि मोक्ष, समाधि और चक्र, कुण्डलिनी इत्यादि का वैसा ज्वार नहीं है जितना भगवान रजनीश की प्रस्तावनाओं में है लेकिन फिर भी उनका पूरा अनुशासन मोक्ष और समाधि की धारणा का ही विस्तार है. व्यक्तिगत शुभ और व्यक्तिगत मोक्ष की आत्मघाती धारणा से जन्मा एकान्तिक और स्वार्थी ढंग का आध्यात्म उनके अनुशासन का मुख्य स्वर है. सुदर्शन क्रिया या अन्य प्राणायाम और कीर्तन इत्यादि असल में तनाव दूर करने के और शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य को बढाने के उपाय हैं. इन सबको एक सामूहिक ढंग से करने का तरीका भी बतलाया गया है जो एक नये ढंग की सामूहिकता और टीम का आभास देता है. उपर-उपर से लगता है कि रजनीश के सन्यासियों की तरह ही रविशंकर के शिष्य भी ध्यान कीर्तन इत्यादि के माध्यम से एकदूसरे के निकट आ रहे हैं और समाज में एक तरह का संश्लेषण और एकीकरण हो रहा है. लेकिन ज़रा कुरेदकर देखिये ये संश्लेषण और एकीकरण झूठा और बनावटी है. न केवल यह बनावटी है बल्कि असली एकीकरण और सामूहिकता बोध की संभावना का सबसे बड़ा दुश्मन भी है.
आइये इसकी गहराई में प्रवेश करते हैं. रजनीश और रविशंकर दोनों ही जिन मौलिक मान्यताओं पर खड़े हैं वे हैं आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म और मोक्ष या बुद्धत्व. ये मान्यताएं दुनिया की सबसे घातक अन्धविश्वासी अवैज्ञानिक और क्रान्ति विरोधी मान्यताएं हैं. इनमे उलझने वाले किसी भी समाज ने आज तक न तो विज्ञान दिया है न तकनीक, न ही समतामूलक और लोकतांत्रिक समाज दिया है. लिंग, वर्ण, भाषा और जाति के भेद इन्ही मान्यताओं के गर्भ से आते हैं. अब ऐसे गुरु जब पश्चिमी क्रांतिदृष्टि को भारतीय पुराण दृष्टि से मिलाकर खिचड़ी बनाते हैं तो वो ऐसी जहरीली रचना होती है जो न पश्चिम के काम आती है न पूर्व के. अब इन गुरुओं की प्रस्तावनाओं को दुबारा देखिये, ये दैनिक जीवन का जो अनुशासन देते हैं और जिस तरह के प्रवचन पिलाते हैं वह एक पक्ष है, फिर जिस तरह से मनुष्य और दुनिया के भविष्य को चित्रित करते हैं वो दुसरा पक्ष है. और मजा ये कि ये दोनों पक्ष एकदूसरे के विरोध में हैं. यही इनकी मूर्खता का स्त्रोत है. दोनों ही एक भयानक पाखंडी विरोधाभास पर खड़े होकर दुनिया को मूर्ख बनाते हैं.
एक तरफ आत्मा का सिद्धांत सिखाते हैं और दूसरी तरफ कहते हैं कि आत्मभाव – मैं मेरा से मुक्ति ही मोक्ष है. अब ये गजब की पाखंड लीला है. अगर आत्म भाव से मुक्ति ही लक्ष्य है तो आत्मा और पुनर्जन्म का सिद्धांत क्यों सिखाते हो? तब क्यों नहीं बुद्ध की अनत्तासिखाते हो? या तो आत्मा सिखाओ या फिर निर्वाण सिखाओ दोनों एकसाथ क्यों सिखाते हैं? एक तरफ समझाते हैं कि आत्मा अजर अमर अविनाशी और एक से दूसरे गर्भ में जाने वाली चीज है उसे नष्ट नहीं किया जा सकता. फिर ये भी सिखायेंगे कि अपने होने का बोध यानी आत्मभाव या अहम् को त्यागना ही मोक्ष है. अरे भाई जब त्यागना ही है तो आत्मा की बकवास सिखाते ही क्यों हैं आप? यही इनके धंधे का असली राज है. जब आप पुनर्जन्म मानकर चलेंगे तो आप स्वार्थी होने लगेंगे, जब स्वार्थ की बातें करेंगे तो ये परमार्थ की सितार छेड़ देंगे. बस जलेबी पर जलेबी बनाते जायेंगे. ये गुरु लोग एक हाथ में जहर की पुडिया और दूसरे हाथ में दवाई लेकर चलते हैं बिमारी और इलाज दोनों से कमाई होती रहे. रात में दीवार पर कीचड़ डालते हैं और सुबह गली-गली में चिल्लाते हैं दीवार साफ़ करवा लो. ये धर्म और आध्यात्म का विशुद्ध बाजारीकरण हैं और रजनीश सहित रविशंकर इसमें बहुत ही कुशल हैं.
ये दोनों गुरु सिखाते हैं कि व्यक्तिगत जीवन में आनंदित कैसे हों, दैनिक जीवन के तनाव और प्रतियोगिता सहित यौन कुंठाओं और शारीरिक व्याधियों से भी कैसे मुक्त हों. यह बात बहुत सुन्दर है. एक शुरुआत के रूप में बहुत अच्छी बात है. लोग संन्यास लेकर या दीक्षा लेकर या बेसिक कोर्स या एडवांस कोर्स करके आगे बढ़ते जाते हैं. प्राणायाम, मंत्रजाप, आसन त्राटक या कीर्तन आदि से कुछ तनाव कम करते हैं और अपने जीवन में सुख और शिथिलता का अनुभव करते हैं. इस बात की प्रशंसा होनी चाहिए. लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब ये व्यक्तिगत समाधान सामूहिक समाधान बन पाने की यात्रा में एकदम से असफल हो जाते हैं. उदाहरण के लिए व्यक्तिगत जीवन में तनाव कम करके हजारों लोग जब आपस में मिलकर सामूहिक जीवन और समाज का नक्शा बनाने बैठते हैं तब वे समाज निर्माण की चिंता की बजाय अपने मोक्ष की चिंता में घुस जाते हैं. आत्मा और पुनर्जन्म की धारणा उन्हें अपने ही भावी जन्म सहित मोक्ष की चिंता में इतना उलझा लेती है कि इन गुरुओं के शिष्य समाज के लिए रत्ती भर भी योगदान नहीं करते.
इसका ये अर्थ हुआ कि एक उपभोक्तावादी और तनावपूर्ण जीवनशैली में जीते हुए जब मन और शरीर थकने लगता है तब इन गुरुओं की शरण में आकर इनसे मदद ली जाती है. जब तनाव व रोग कम होते हैं तो दुगुनी ताकत से उसी जीवन व्यवस्था और स्वार्थी मोक्ष की धारणा की सेवा करने लग जाते हैं. इसी बिंदु पर जिद्दु कृष्णमूर्ति इन गुरुओं की खूब खबर लेते हैं और इनके पाखण्ड को नंगा करते हैं. यह बहुत बारीक बात है लेकिन रजनीश और रविशंकर दोनों के शिष्य इसे समझने में असफल रहे हैं. यह आज ही की बात नहीं है. इनके गुरु और उनकी पुरानी परम्पराओं ने भी यही सब किया है. इसीलिये इतने लंबे इतिहास में इस देश में राजतन्त्र, सामंतवाद, तानाशाही, गुलामी और धर्मसत्तावाद इत्यादि सब मिलेगा लेकिन लोकतंत्र का नामो निशान तक नहीं मिलेगा. लोकतंत्र कभी इस जमीन पर ही जन्मा था लेकिन वह आजीवकों और बौद्धों का काल था. अशोक बौद्ध होने के पहले आजीवक थे, चन्द्रगुप्त भी आजीवक थे. उस समय भौतिकवाद का दर्शन था जो आत्मा परमात्मा को नहीं बल्कि शरीर और मनुष्य सहित प्रकृति के सम्मान पर खडा था. इसीलिये उन्होंने उस समय में चिकित्सा, भेषज, मूर्तिकला, कृषि सहित अन्य सभी कलाओं को विक्सित किया. लेकिन जैसे ही आत्मा परमात्मा स्टाइल धर्म हावी हुआ ये मुल्क अंधविश्वास और कर्मकांड में डूब गया.
हालाँकि भगवान रजनीश को अमेरिका से सबक मिलने के बाद बहुत बड़ी शिक्षा मिली थी. अपनी विश्वासपात्र शिष्या शीला से और अन्य शिष्यों से धोखा खाने के बाद उन्हें समझ में आया कि आत्मा परमात्मा और गुरुभक्ति किसी भी तरह से किसी की चेतना में कोई बदलाव नहीं लाती बल्कि ऐसे सभी लोग मौके के इन्तेजार में बैठे रहते हैं और गुरु के बीमार या कमजोर होते ही खुद सत्ता चलाने लगते हैं. इस बोध से रजनीश को असली बुद्धत्व मिला. इसीलिये अमेरिका से लौटकर उन्होंने जिस अंदाज में अपनी बातें रखीं हैं वो एकदम अलग ही बात है. वही ओशो का असली सौंदर्य है उतना भर हिस्सा बचाने योग्य है और उसी से भारतीय अध्यात्म की मूर्खता के इलाज की कोई उम्मीद है. लेकिन उनके अपने शिष्य उनकी अनत्ता और शून्य पर आधारित बातों को छुपा रहे हैं. जब वे स्वयं को गौतम बुद्ध में समर्पित करते हैं उसके बाद की उनकी किताबें गायब की जा रही हैं. कापीराईट के झगड़ों में उन्हें अदृश्य बनाया जा रहा है. भगवान रजनीश तो अपने विरोधाभासों में खुद ही कमजोर होकर ब्राह्मणवाद का चारा बन चुके हैं अब उनका अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण अवतार ओशो उनके लालची और पाखंडी शिष्यों के हाथों नष्ट हो रहा है.
श्री रविशंकर अभी मौजूद हैं, लेकिन उनकी शिक्षाओं के अनुशीलन से ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि वे कभी भी स्व, आत्मा और पुनर्जन्म आधारित अध्यात्मिक माडल का विरोध करेंगे. वे और उनके गुरु महेश योगी विशुद्ध वेदांती हैं. वे पुनर्जन्म के बिना चल ही नहीं सकते. और जब तक पुनर्जन्म की या स्व के या आत्म की निरंतरता का सिद्धांत इस देश में चलता रहेगा ये देश स्वार्थी और अवसरवादी बना रहेगा. इसमें सामूहिक शुभ और लोकमंगल की धारणा नहीं आ सकेगी. उपर उपर सर्वे भवन्ति सुखिनः कहते रहेंगे लेकिन अपने ही घर में स्त्री को शास्त्र पढने या मंदिर जाने की अनुमति नहीं देंगे. अपनी बेटियों को आजादी से और मनमर्जी से विवाह करने की इजाजत नहीं देंगे. कण-कण में ब्रह्म का दर्शन करेंगे लेकिन एक शूद्र को तीन फूट ऊपर से धार गिराकर पानी पिलायेंगे वह छू न जाए इस बात का पूरा ध्यान रखेंगे. वसुधैव कुटुंबकम की ढपली भी बजायेंगे और शादी ब्याह के इश्तिहारों में धर्म, जाति और उपजाति का बखान भी करते रहेंगे.
भगवान रजनीश और रविशंकर की शिक्षाओं और उनके शिष्यों के मनोविज्ञान को ध्यान से पढ़िए आपको आश्चर्य होगा कि ये लोग इस शताब्दी में विज्ञान और तकनीक के साथ जी रहे हैं. वे एक पाषाण युग के चलते फिरते जीवाश्म नजर आते हैं. उनकी स्वार्थ दृष्टि अंधविश्वास और पलायनवाद देखकर समझ में आता है कि इस देश पर इतनी छोटी छोटी कौमों ने कैसे इतनी आसानी से कब्जा किया होगा. ऐसे गुरुओं और इनके आध्यात्म से इस देश को बचाने की सख्त जरूरत है. भारत के समाज में जो थोड़ी सी प्रगतिशीलता, वैज्ञानिकता और नैतिकता बची हुई है तो वो इन गुरुओं की वजह से नहीं बल्कि इनके बावजूद बची हुई है.
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संजय जोठे university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com
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