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Home » फ़रीद ख़ाँ की कविताएँ

फ़रीद ख़ाँ की कविताएँ

कोरोना, क्वारनटीन और लॉक डाउन ने समूचे विश्व को प्रभावित किया है,  रहने, देखने और सोचने में फ़र्क आया है. यह फ़र्क घर से शुरू हुआ है.  घरेलू ब्योरे कविता में लौटे हैं. घर के बाहर  पलायन का जो सैलाब आया था उसने भी क़लम में जख्म और दर्द भर दिए हैं. आदमी का असहाय […]

by arun dev
July 14, 2020
in कविता
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कोरोना, क्वारनटीन और लॉक डाउन ने समूचे विश्व को प्रभावित किया है,  रहने, देखने और सोचने में फ़र्क आया है. यह फ़र्क घर से शुरू हुआ है.  घरेलू ब्योरे कविता में लौटे हैं. घर के बाहर  पलायन का जो सैलाब आया था उसने भी क़लम में जख्म और दर्द भर दिए हैं. आदमी का असहाय हो जाना इतना कभी नहीं दिखा था.

फ़रीद ख़ाँ की कविताएँ सब देखती हैं. इस पूरे (अ)काल खंड की ह्रदयहीनता और मायूसी को दर्ज़ करती हैं. 
उनकी कुछ नई कविताएँ प्रस्तुत हैं.


फ़रीद  ख़ाँ  की कुछ कविताएँ                             

मैंने पहली बार रसोई देखी

मैंने पहली बार रसोई देखी, अभी. 
जब हर किसी के लिए पूरा शहर बंद है
और कुछ लोगों का चूल्हा भी बुझ गया है.
मैंने सत्य को सुलगता देखा.  
रसोई तो पहले भी देखी थी पर असल में देखी नहीं थी.
जैसे हम कभी अपने उस पैर को नहीं देखते
जिसके सहारे ही हम खड़े हैं या चल पाते.
जब वह थक कर चूर हो जाता है,
जब वह कुछ भी करने से कर देता है इंकार. 
तब ही देखते हैं हम अपने पैर को.
तो, मैंने पहली बार रसोई देखी,
चूल्हे से निकलती लपटें देखीं.
गरम गरम कड़ाही देखी.
फूलती पिचकती रोटी देखी.
भगौने से उठता भाप देखा.
उसमें उबलता दूध देखा.
धुआँ देखा.
चिमटा देखा.
हाथ को आग से जलते देखा.
नल का ठंडा पानी देखा.
सब पहली बार. सब पहली बार देखा.
जब पोर पोर में पसीना देखा.
उसमें अपनी माँ को देखा.
माँ को तवे पर सिंकते देखा.
भात के साथ उबलते देखा.
दाल के साथ बहते देखा.
धैर्य को देखा, धैर्य से देखा.
एक जीवन को जलता देखा.
मैंने पहली बार भूख को देखा. 
मुँह में घुलते स्वाद को देखा.
पेट में उतरता अमृत देखा.
खाते हुए, अघाते हुए
मैंने घर के बाहर भूखा देखा.
उसके सूखे होंठ को देखा.
आँखों में उसकी लपटें देखीं.
मैंने इधर देखा, मैंने उधर देखा.
मैंने ख़ुद को नज़र चुराते देखा.

रंग

आग का रंग एक होता है और राख का भी.
राख का रंग एक होता है और उसकी धूल का भी.
धूल का रंग एक होता है और उसे उड़ाने वाली हवा का भी.
हवा का रंग एक होता है और अफ़वाहों का भी.
अफ़वाहों का रंग दहशत में थरथर काँपने वाले लहू जैसा ही होता है.
और उन्माद का रंग बिल्कुल तलवार जैसा होता है.
कत्लेआम का रंग एक होता है और विध्वंस का भी.
और समाप्त भी हर जगह एक जैसा ही होता है.

समा गई पिंकी धरती में

पिंकी चल पड़ी पैदल ही पूरे देश को दुत्कार के.
थूक के सरकार के मुँह पे.
मुँह फेर के उनके वादों से
पिंकी चल पड़ी बारह सौ किलोमीटर दूर अपने देस.
एड़ी फट गई, सड़कें फट गईं.
वह चलती रही और चलती रही.
अंतड़ियाँ चिपक गईं.
चमड़ी सूख गई चिलकती धूप में.
फिर भी वह अपने देस के सपने की तरफ़ बढ़ी जा रही थी निरंतर.
बढ़ी जा रही थी अपने अम्मा-बाबू के सपने की तरफ़.
पर धरती से यह सब सहन न हुआ और वह भी फट गई.
समा गई पिंकी उसकी छाती में.
सपने में अम्मा-बाबू के,
पिंकी ने अपना किवाड़ खटखटाया.
पिंजरे का तोता फड़फड़ाया.

सो गए

वो सरकार की लाज बचाने के लिए
ट्रेन की पटरी पर सो गए और कट गए.
अब कोई भी ये कह सकता है
कि सरकार का इसमें क्या दोष है ?
प्रधानमंत्री अकेला क्या क्या करेगा ?
कुछ रोटियाँ और चटनी
उन्होंने प्रधानमंत्री के खाने के लिए वहीं छोड़ दीं.
“अगर प्रधानमंत्री खाएगा नहीं तो काम कैसे करेगा ?”  
ऐसा उन्होंने सोचा था.
सरकार की लाज बचाने के लिए हर कोई सो रहा है.
हर किसी के लिए एक ट्रेन भी चल पड़ी है
और प्रधानमंत्री उनकी रोटियाँ बटोरने.

लावारिस की मौत

जो मर गया सड़क पर चलते चलते
विश्व के मानचित्र पर वह पहले भी लावारिस ही था.
मौत उसकी स्थिति को बदल नहीं पाई.
यह उस व्यक्ति की कहानी है जिसे बताया गया था
कि भारत माता कोई और नहीं, तुम हो.
यही सोच कर तो उसने अपने कंधों पर पूरा शहर उठा रखा था.
अपने बीवी-बच्चों को भी उसमें लगा रखा था.
अपने गाँव-जवार को बुला रखा था.
उसके ही पैरों पर शहर चलता था.
उसके ही कंधों पर जहाज़ उड़ते थे.
उसी शहर ने, जायदाद लिखवाने के बाद निकाल दिए गए बूढ़ों की तरह
उसको भी कह दिया, जाओ, तुमसे संक्रमण फैलता है.
उसके मुँह के शब्द सूख गए.
उसकी अभिव्यक्ति को काठ मार गया.
अपने बच्चे को क्या मुँह दिखाएगा,
यह सोच कर वह कट गया.

हम भारत के लोग

मैं चूंकि नागरिक हूँ अपने देश का.
मैं देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन हूँ.
मेरा फर्ज़ बनता है कि अपने मातहत काम करने वाले
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना करूँ.
अपने कर्मचारियों की आलोचना से उनकी कार्य कुशलता बनी रहती है.
इसीलिए मैं अपने साथी नागरिकों से भी अपील करता हूँ
कि वे जितना अपने घर में काम करने वाले कर्मचारियों की आलोचना करते हैं,
ताकि रोटियाँ अच्छी पक सकें और घर में साफ़ सफ़ाई बरकरार रहे,
उतनी ही आलोचना राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री
या सर्वोच्च न्यायाधीश की किया करें.
हम भारत के लोग यह वचन लें.
(Salman Toor :Time After Time )


हिरण्यगर्भ

एक गर्भ से निकल कर
दूसरे गर्भ में आना है ज़िंदगी.
दूसरे से किसी तीसरे गर्भ में जाना है मृत्यु.
इनके बीच में जो कुछ है
वो सृष्टि है. वो माया है.
सब धोखा है. सब फ़ानी है.

ताली

एक ताली हमारी नाकामी के लिए.
माफ़ कीजिये, एक ताली हमारी नाकामी को ढँकने के लिए.
जैसे मुँह ढँकते हैं मास्क लगा कर, वैसे ही.
फिर एक ताली उन मज़दूरों के लिए जो ट्रेन से कट गए
यहाँ फिर से एक बार माफ़ी,
यह वाली ताली उनकी याद मिटाने के लिए बजाएँ
और उस औरत की भी याद मिटाने के लिए
जो रास्ते भर प्रसव पीड़ा में रही
और अंत में जन्म दिया एक बच्चे को जो मर गया.
मन में कोई नकारात्मक विचार नहीं होना चाहिए.
हज़ार हज़ार किलोमीटर दूर पैदल चलने वालों की तस्वीर
मन में अवसाद भरती है और हमें अवसाद से ही लड़ना है.
इसलिए एक ताली उन तस्वीरों के लिए
जिनमें फूल खिलते हैं और परिंदे कलरव करते हैं
और उन तस्वीरों को खींचने वालों के लिए भी एक ताली
जिसने महामारी में भी वक़्त निकाला हमारे लिए. 
हम थाली बजा कर भी अपना मनोबल बनाए रख सकते हैं
या मोमबत्ती जला कर इस देश को श्रद्धांजलि भी दे सकते हैं.

मुझे औरतों की बातें सुनाई नहीं देतीं

मुझे पत्नी की बातें सुनाई नहीं देतीं.
कई बार ऐसा होता है कि जो कान से न सुनाई दे
उसे आँखों से सुन सकते हैं.
या आँखों से भी न सुनाई दे तो स्पर्श से सुन सकते हैं.
सूंघ कर या चख कर भी सुनी जा सकती हैं बहुत सारी बातें.
अतः अपनी तमाम इन्द्रियों का ज़ोर लगा देता हूँ सुनने में
पर मुझे पत्नी की बात सुनाई नहीं देती.
अपनी याददाश्त पर थोड़ा ज़ोर लगा कर सोचा
कि मुझे माँ की बात कब कब सुनाई दी है ?
मुझे नानी-दादी की बात ही कब सुनाई दी ?
जिनके पलंग में घुस कर अक्सर सो जाता था.
मुझे ठीक से याद नहीं कि अपनी बहन की कोई बात सुनी हो.
“खाना पक गया, चलो खा लो”.
इससे ज़्यादा मुझे याद नहीं कि मैंने कभी कुछ उनसे सुना हो.
कान बिल्कुल ठीक है, ऐसा कान के डॉक्टर ने कहा है.
फिर भी मुझे औरतों की बातें सुनाई नहीं देतीं.

मादक और सारहीन

तुम्हारी हर अंगड़ाई पर झरती है सोआ की गंध.
तुम्हारी साँसों से आती है रोटी की भाप, हींग की महक.
छौंके की छन होती है तुम्हारी हर बात.
तुम आई, जैसे बंजर ज़मीन पर उग आई हो कोई घास.
जीवन बन गया जैसे उसना फरहर भात.
पर यहाँ तक लिखते लिखते थक जाते हैं हाथ.
मादक और सारहीन हो जाते हैं शब्द.
अपनी संस्कारगत अभिव्यक्ति पर कर-कर के कुठाराघात
बड़ी मुश्किल से गढ़ता हूँ तुम्हारे लिए एक स्थान.
पर अभी भी तुम्हें रसोई की उपमाओं से बाहर नहीं देखा.
नहीं दिखा मुझे तुम्हारी तनी हुई मुट्ठी में इंकलाब.
नहीं दिखी तुम्हारी हिस्सेदारी.
नहीं सुन पाया अभी तक तुम्हारा कदमताल.
तुम जेल में हो और पल रहा है तुम्हारे गर्भ में एक तूफ़ान.
मैं सन्नाटे में खड़ा हूँ हाथ में लिए अभी भी
तुम्हारे काकुलों की महक, चूड़ियों की खनक.   
_________________________________________

फ़रीद ख़ाँ मुंबई में रहते हैं और टीवी तथा सिनेमा के लिए पट कथाएं आदि लिखते हैं. उनकी कविताएँ सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं हैं. 
kfaridbaba@gmail.com
Tags: कविताएँ
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