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समालोचन

Home » दयाशंकर शरण की कविताएँ

दयाशंकर शरण की कविताएँ

चित्र : steve mccurry     हिंदी कविता में रिटायर्ड व्यक्ति की छवियां देखने को कम मिलती हैं. दयाशंकर शरण की इन कविताओं में इन्हें आप प्रमुखता से देख सकते  हैं,  पुराने मकान,  बिछड़े मित्र और स्मृतियों से ये कविताएँ मार्मिक प्रभाव पैदा करती हैं.  उम्र का उत्तर भी जीवन ही है. कविताएँ यहाँ भी पैदा […]

by arun dev
October 10, 2020
in कविता
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चित्र : steve mccurry
 

 

हिंदी कविता में रिटायर्ड व्यक्ति की छवियां देखने को कम मिलती हैं. दयाशंकर शरण की इन कविताओं में इन्हें आप प्रमुखता से देख सकते  हैं,  पुराने मकान,  बिछड़े मित्र और स्मृतियों से ये कविताएँ मार्मिक प्रभाव पैदा करती हैं. 

उम्र का उत्तर भी जीवन ही है. कविताएँ यहाँ भी पैदा होती हैं. धूसर और उदास भी तो आखिरकार रंग ही होते हैं.  

कविताएँ प्रस्तुत हैं.

 

 

दयाशंकर शरण की कविताएँ

(१)


कोरोना काल

लोग लौट रहे हैं जड़ों की तरफ
हकासे-प्यासे लोग-बाग
सबके माथे पर एक ही भूत सवार
चाहे जो हो लौटना है हर हाल
आ रहे हैं स्वर्गवासी पिता
सपनों में
सपनों में आ रही है दिवंगत माँ
सबों की एक राय एक ही नसीहत
किसी भी तरह लौटो मेरे बच्चों ! अपनी जड़ों तक
बहुत खुश होंगे ग्राम देवता
तुम्हें देखकर सही सलामत
मौत के जबड़ों से निकलो मेरे बच्चों !
तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा में देखो
ग्राम-वासिनी कई रातों से सोयी नहीं है.

(२)


किराये का मकान

यह मकान तब ऐसा नहीं था
जैसा दीख रहा है अब
अपनी जीर्ण-शीर्ण काया में
एक मरीज की तरह

लगता है एक अरसे से यह खाली पड़ा है
क्या पता कितने बरसों से हो सकता है हम ही रहे हों इसके आखिरी किरायेदार

सोचता हूँ
आज सैंतालीस बरसों बाद
क्या मुझे पहचान पायेगा कोई
किराये के मकान वाली इस गली में ?

मकान के सामने खपरैल के छप्परवाले घर में
ठेठ गॅवई अंदाज़ में रहनेवाले अधेड़ उम्र के धोती-कुर्ता पहने शर्मा जी
क्या अबतक जी रहे होंगे ?
बगल का बंगाली परिवार क्या अब भी रहता है ?
लेकिन किधर है शर्मा जी का घर ?
वहाँ तो खड़ा है एक बहुमंजिला मकान
खुदा का शुक्र है कि अभी भी बचा है
बंगाली मोशाय का घर
जी होता है एकबार पुकारूँ
और पूछ लूँ उनका हाल
उनकी बेटी जो अक्सर बीमार रहती थी
अब किस हाल में है वो
क्या अब भी उसे पड़ते हैं बेहोशी के दौरे
पड़ोस के शर्मा जी अब हैं या नहीं रहे

जी होता है छू लूँ
अपने ही बंद मकान का किवाड़
जिसे कभी खोलती थी माँ
जब हम आते थे थके-हारे स्कूल से
या कभी खोलता था मैं ही
जब एक हाथ में सब्जियों का झोला
और दूसरे में जलेबियों का ठोंगा लिए
बाहर खड़े रहते थे पिता

कह दूँ गली से गुजरते हर आदमी से
आज से कई बरस पहले
मैं ही रहता था इस मकान में.


(३)


बेटियाँ

उसके जन्म लेते ही
हम कुछ गुमसुम से थे
पिता को चिंता थी वंश-वृक्ष की और मुझे अपनी खस्ता हालत की
माँ बेटियों के बारे में
कुछ इस अंदाज में कहा करती थी
जैसे ग़ालिब कहा करते थे-
दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है

कुछ घिसे शब्दों को वह सामने कर देती
खासकर उन क्षणों में
जब मैं अवसाद से घिरा होता
ये साक्षात लक्ष्मी हैं
सब अपना-अपना भाग्य लेकर आती हैं

कुछ समय बाद
देखते-देखते बदल गया सबकुछ
माँ और पिता नहीं रहे
कुछ समय बाद
वे भी चली गयी एक-एक कर
पृथ्वी की अलग-अलग जगहों पर
अपनी दुनिया में
फिर से जड़ें जमातीं


अब मुझे कोई चिंता नहीं
सब सलट ही गया
इधर-उधर से ले दे कर
बस कभी-कभी वे याद आती हैं
किसी उमस भरे मौसम में
या खाने की थाली में जब कोई स्वाद न हो

क्या उन्हें अब भी आती है
इस घर की याद ?


माँ एक बात और कहती थी
ये जंगली फूलों की तरह कहीं भी खिल जाती हैं.

 (४)


सेवा-निवृत्त होने पर

डायरी के अगले पन्ने पर लिखता हूँ
पिछला हिसाब
अपनी असफलताओं का लेखा-जोखा,
अपनी कमजोरियों का कच्चा चिट्ठा खोलता हूँ
और संकल्प लेता हूँ
पिछली गलतियों से सीखकर
तय करनी है आगे की यात्रा
पर अपने इस मन का क्या करूँ
कहाँ छोड़ आऊँ
कायदे से कुछ भी करने नहीं देता
फिर वही-वही गलतियाँ दुहराता हूँ

भीतर इतना विष भरा है अब भी
कि जरा-सी चोट लगी नहीं कि यह फूँफकार उठता है
फिर भी, एक अरसे बाद
गहरी नींद सोकर उठा हूँ
जैसे कोई लौटा हो
एक लंबी थकान भरी यात्रा से.





 (५)


एक मित्र से मुलाकात


आज एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई यों ही अचानक
लगभग चालीस बरस बाद
ट्रेन के एक ही डब्बे में
आमने-सामने
चेहरा कुछ पहचाना-सा लगा
थोड़ी असमंजस की स्थिति में
पहचान लिया हमने एक दूसरे को
चालीस बरस आखिर कम तो नहीं होते
मन-ही-मन सोचा
दस बरस में तो क्या-से-क्या हो जाता है

फिर तो हमें होश ही न रहा
हम लौट चुके थे अपने दिनों में
मैंने बताया अपने बारे में
रिटायर हुआ हूँ अभी पिछले ही साल बैंक से
बहुत खुशकिस्मत हूँ
अब बहुत कठिन हो रहा था काम करना

उसने हँसकर कहा बहुत समय से हो

वह भी बेदाग
मेरे भी रह गये हैं कुल गिन-गुथकर छह महीने
पर लगता है अभी छह बरस हैं और
कोरोना का यह आलम है
किसी की नौकरी जा सकती है कभी भी
जबसे गये तुम फिर भेंट कहाँ हुई तुमसे
वह वहीं की एक लेदर फैक्टरी में सीनियर अधिकारी था
मैंने भी एक गहरी साँस छोड़कर कहा
सबकी हालत खस्ता है ऊपर से चाहे जितना हँस लें

हमने कुछ पुराने दोस्तों को याद किया
पता नहीं कहाँ होंगे सब
उसने विनय के न होने के बारे में खबर दी
कुछ गमगीन होकर कहा
इस जमाने में इतना पढ़ लिखकर भी कोई कायदे की नौकरी नहीं मिलती
बहुत पीने लगा था बाद में
प्राइवेट कालेज में होना भी कितना दुर्भाग्यपूर्ण है
और वो विनीता भी तो नहीं रही
मैं स्तब्ध मानो मुझमें हजार वाट का करेंट सट गया हो
शकुन्तला के किरदार में कालेज के रंगमंच पर उसका अभिनय मेरी यादों में आज भी जिंदा है
उसने उदास और नम आँखों से देखकर कहा
आत्महत्या कर ली
एक दबंग विधायक के बेटे से शादी हुई थी

फिर माहौल गमगीन देख उसने धीरे से बात पलट दी
बाकी सब-के-सब ठीक हैं अपनी-अपनी जगह
रजिस्ट्री का किरानी होकर भी आलोक ने काफी कुछ अरज लिया है
असीम भी सेल्स टैक्स में था रिटायर हुआ है पिछले महीने इफरात पैसा है उसके पास भी
अशोक का बहुत दिनों से कोई सुराग नहीं
किसी नक्सली गुट से जुड़कर भूमिगत है शायद
भगवान जाने सच क्या है तुम्हें तो मालूम है वह शुरू से ही थोड़ा अलग था

गाड़ी की रफ्तार धीरे-धीरे कम होने लगी थी
मेरा स्टेशन आने ही वाला था
मालूम हुआ
वह एक लंबे सफर पर था
सर्विस के अंतिम लिव ट्रेवल कनशेसन पर

जबकि मुझे उतरना था
बस अगले ही पड़ाव
मैंने जल्दी-जल्दी में उसका नंबर लिया
और विदा में अपना हाथ लहराया.


(६)


विदा होने से पहले
(एक दिवंगत मित्र की याद में)

उम्र की दहलीज पर

जिन्दगी बस थोड़ी सी बची है
और बहुत कुछ बाकी है जो अब तक नहीं कर पाया मन माफिक
एकबार जाना है उस शहर में
उस पुराने मकान में जो अब खंडहर बन चुका है अपना बचपन वहीं छोड़कर हम चले गये थे जाना है हर उस जगह

हर उस मुकाम पर जहाँ कभी रहा था किसी से ताल्लुक

कालेज के अहाते में खड़े होकर
उन दिनों को देखना है फिर से
दोस्त जो अब न जाने कहाँ होंगे
क्या पता अब होंगे भी या नहीं
विदा होने से पहले एकबार मिलना है उनसे
बहुत दिनों बाद आज एक पुराने दोस्त से मिला हूँ
हमने उन दिनों को याद किया
जब कालेज के अहाते में गुलमोहर के तले
जाड़े की धूप में घण्टों बोलते-बतियाते
भविष्य के सपने बुनते रहते थे
अब तो बेहद मुश्किल है उस जगह की शिनाख्त
सबकुछ बदल गया है
घने दरख्तों और परिचित चेहरों के नामों-निशान तक नहीं हैं
यह कितना हैरतअंगेज है
कि जिन्दगी का उम्र से कोई लेना-देना नहीं

रमेश आजकल कहाँ है ?
तुम्हें मालूम नहीं?
ही इज नो मोर !..
चलो अच्छा है जो
उसे अपनी जिंदगी में बहुत कुछ अप्रिय देखना नहीं पड़ा
कम उम्र में हँसते-खेलते चले जाना ही अच्छा है भगवान न करें किसी की उम्र बहुत लम्बी हो
हमारे बीच एक खामोशी सी पसर गयी थी
काश ! एकबार मिल लिया होता
विदा होने से पहले.

_________________


दयाशंकर शरण

(१० सितम्बर, १९५९ सीवान) 

नब्बे के दशक से साहित्य लेखन  और पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित. मैनेजर पाण्डेय द्वारा संपादित \’सीवान की कविता\’ में कविताएँ संकलित. एक दशक तक \’अद्यतन\’ पत्रिका में सक्रिय रचनात्मक सहयोग. 

पता :

राजवंशी नगर

पो./जिला-सीवान (बिहार)841226
9430480879

Tags: कविताएँ
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