शहरों को केंद्र में रखकर कविताएँ लिखी जाती रही हैं, नगर की संवेदनात्मक उपस्थिति की पहचान का यह रचनात्मक उपक्रम कला, इतिहास और राजनीति की समझ से निर्मित होता है. पंखुरी सिन्हा की तीन कविताएँ दिल्ली के मौसम, सियासत और इतिहास से उलझती हैं, आकार में बड़ी ये तीनों कविताएँ विचार का भी दीर्घ वृत्त खींचती हैं.
शेष चार कविताएँ बारिश को केंद्र में रखकर लिखी गयीं हैं. बहुत दिनों के बाद प्रकृति का इतना वैविध्यपूर्ण संसार देखने को मिला है. बरसने के ही तमाम ढंग यहाँ हैं, तालाब, जलकुम्भी, जीव – जन्तु, पक्षी और उनके स्वर हैं.
गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाओं के साथ.
पंखुरी सिन्हा की कविताएँ
दिल्ली का मौसम
और इस बार की आखिरी शाम थी
दिल्ली में
क्या हवा थी
क्या रुक रुक कर बारिश
क्या मिजाज़ थे
पत्तों, फूलों के
उनमे भी साजिश थी
दिल्ली अब भी गहरी सियासत का शहर था
जब वह सत्ता पलटने की सियासत नहीं होती थी
जो कि वह अक्सर ही होती थी
और जब वह राजनीति के अखाड़ों में
नहीं होती थी
जहाँ वह अक्सर होती भी थी
और नहीं भी
क्योंकि उसे इतनी जगहों में होना होता था एक साथ
कई जगहों में एक बार
मैं क्या बताऊँ आपको
कि कितना होती थी
वह लोगों के घरों के आस पास
वह उनके बगीचों के फूल पौधों में होती थी
हवा पानी में
बारिश के बरसने में
इस तरह बरसने में
कि अभी फैलाये रस्सी पर कपड़े
और बरसने लगा बादल
बातें करने की तरह
किसी के कुछ कहने की तरह
कहने की तरह
हज़ार बातें सियासती
विरासती
वक़्त को ले जा कर
पीछे भी
झाँसी की सी लड़ाई का घोल कर बारूद हवा में
करके डलहौज़ी की सी चिट्ठी पतरी
रोककर भी बूँदें
उतारते ही मेरे कपड़े
जब ये बात हो चर्चा में
कि सच
मौसम की भी की जा रही है
प्रोग्रामिंग
कि एकदम से आपके निकलते ही बरसने लगे
मूसलाधार
और थम जाए
गंतव्य तक पहुँचते ही
जादू की तरह
बीहड़ बनाने को राह हो मौसम
कभी इनायत भी कर देता है
बरसकर एक एक बूँद ही
फिर से निकलते आपके
बनाये एक चेतवानी
माथे पर लगातार
और अभी जब अर्ध रात्रि के बाद भी
मैं बाँध रही हूँ
सामान ही
घर का भी
इतनी ज़्यादा बिखेर लेने की आदत है
किताबें, अखबार, पत्रिकाएं भी
सब पुलिंदा
और समेटने की जहमत उठाने की फिर
आधा पढ़ा ही
छोड़ देने की आधी, आधी बातें
किताबों के साथ
लौटने को फिर उनमें
पढ़ना किताबें किश्तों में
किश्तों में जीने की तरह
बिना उधार
करके किताबों के छोटे मोटे व्यापार
और पानी है
कि ठीक तभी बरस रहा है
जब हाथ में उठाई है
मैंने वह प्रिय किताब
मोटी, विदेशी, अंग्रेजी
वह जिसका वास्ता है
दूतावासों की सारी राजनीति से
कौन नहीं जानता
और अगर नहीं तो लेखक का वास्ता
कहते हैं
वह पैदा ही दूतावास में हुआ था
और अगर इनमें से
किसी बात का कोई नाता नहीं था
सरकारी दफ्तरों को लिखी मेरी चिट्ठियों से
जबकि उनमे ढेरो बातें थीं सरहदों की
और सरहद और मौसम इन दिनों
एक प्राण दो देह थे
यह युद्ध की भाषा थी
और पानी का बरसना भी
इन दिनों
युद्ध ही था
युद्ध भीतरी भी होते हैं
और राजधानी की सियासत को समझना कभी आसान नहीं होता
अब और मुश्किल था
लेकिन मेरे उठाते ही वह किताब
कैसे आ रहा है
काठी कबाब के एक ठेले से फ़ोन
जिसकी बगल से मैं बांधकर
ले आई हूँ, खाना
अकेले का खाना
अकेले की ज़िन्दगी
अकेले का हर कहीं
आना, जाना
सबकुछ अकेला
बस मौसम फिलहाल दुकेला
हाँ, दुकेला सा ही लग रहा है
जाने दोस्त या दुश्मन के साथ
और मौसम तो कभी नहीं होता
गरीब, अमीर, और पढ़े लिखे मध्य वर्ग के लिए एक सा
लेकिन मौसम बस है
अभी है
रात के पौने तीन बजे
जैसे दिल्ली की सियासत.
दिल्ली की सियासत
और इतने साल बाहर रहने के बाद भी
एक शाम गुज़ार दी जा सकती थी
दिल्ली की सड़क पर चलते
महसूसते, उसकी सदिओं पुरानी ज़मीन
और नयी बनी सड़कें
उनकी सज्जा, कहीं कुछ फूहड़ भी
किनारे के पेड़
पेड़ों के बाद की दुनिया
उसकी नयी बनी मेट्रो लाइन
दिल्ली की लक दक
दिल्ली की शानो शौकत
जिसे देखते खायी जा सकती थी
एक के बाद दूसरी आइसक्रीम
तीसरी भी
कुछ दूर ही चलकर
इंटरनेट का दफ़्तर था
ये मेरा शहर था
और मैं यहाँ आई थी
सालों पहले
और अब ये मेरा शहर था
विदेश से लौटने बाद
और खासकर
विदेश से लौटने के बाद
एक अपना सा लम्हा गुज़ारा जा सकता था
दिल्ली की सड़क पर
इसकी जगमग के आगे
तेज़ रफ़्तार गाड़ियों की बगल में
खड़े होकर खायी जा सकती थी एक आइसक्रीम
समझते, बूझते कि इन चौड़ी सडकों की खूबसूरती
पहुँच सकती थी
भीतर भी
मेरे भी प्रान्त और शहर तक
लेकिन इस शहर के मौसम, मिज़ाज़ और रफ़्तार में फँस कर
मेरी तो ट्रैन भी छूट गयी थी
अब कैसे छूट गयी थी
ये छोड़िये
बस छूट गयी थी
था कुछ ख़ास कहर मौसम का
जो कंपा गया था काफी कुछ
और फिलहाल
दिल्ली की सख्त, सियासती ज़मीन पर
चलते हुए
महसूसा जा सकता था
धरती के धड़कने को
जबकि हर सुनने वाला
कहने को आमादा होगा
फिर से मेरी ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकतों की बात
ये मैं जानती थी
क्योंकि मैं जानती थी
कि वो जानते थे
मेरी ट्रेन का छूट जाना
और नहीं जानते थे क्यों और कैसे
या जोड़ नहीं सकते थे कुछ सीधी बातें
और अभी अभी जबकि दिल्ली की सड़क थी
हर कहीं जाती हुई
वो कहीं नहीं जाती थीं वैसे
जैसे जाती थीं
राजनैतिक पार्टियों के दफ्तर में
जहाँ नेता मुखातिब होते थे प्रेस से
और खेला जाता था
जनतंत्र का एक वृहत नाटक
हज़ार किस्म के लेन देन होते थे वहां
हज़ार किस्म की गतिविधियाँ
हज़ार किस्म के ठहाके छूटते थे वहां
क्या नहीं होता था वहां
सब जानते थे
पर बस दिल्ली में होना
वहां होना था
या फिर नए बने प्राइवेट दफ्तरों में होना
जिनकी अपनी सियासत थी
नयी किस्मो की साँठ गाँठ
नयी नयी सियासतों का शहर था दिल्ली
और एक शाम और आज़माई जा सकती थी
दिल्ली के किसी दूर दराज़ कोने में
टिके हुए, विचारते सियासत के नए तेवर.
दिल्ली का इतिहास
और ये एक और शाम थी
दिल्ली में
जिसके अब भी थे
सियासती मिजाज़
जो अब भी विदेश से लौटने वालों की
लेती थी बखूबी
खोज खबर
उनकी सब करनी धरनी
उनके रहन, सहन
और खासकर
उनके बिल भुगतानों की
बिल भुगतान बड़ी बात थे
बैंक से लोन न लेकर
माँ बाप से क़र्ज़ बड़ी बात
बड़ी बात थी
यों विदेश में स्वायत्तता की तलाश
और दिल्ली लौटने पर ये सवाल था
कि आखिर अधूरी शोध
और विदेशी नौकरी की तलाश
विदेशी वीज़ा
बड़े सपने और माँ बाप से क़र्ज़
और एक कम न होते युद्ध की पृष्ठ भूमि
आखिर आप करती क्या हैं?
वाक़ई जब कि ये दिल्ली कितनी थी
आपकी आँखों से आगे
युद्ध के कुहरे में
अँधेरे गहरे में
कुहासा था कि छंटता ही नहीं था
सूरज मनमौजी
अब भी है
दिल्ली का सूरज मनमौजी
हमेशा से रहा है
अब और भी है मनमौजी
और दिल्ली का इतिहास भी अनोखा है
और कितना रहा है
आँखों के आगे
आता रहा है
आँखों के आगे लगातार
इन बाहर के सालों में
और कितना फरक है उसे विदेश में याद करना
और अब यहाँ दिल्ली में होकर
दिल्ली के सवालों से मुखातिब
कि अहमद शाह अब्दाली ने
१७ बार लूटा दिल्ली को
और कि नादिर शाह उठाकर ले गया
ईरान
मुग़लों का मयूर पंखी तख़्त
फिर अंग्रेज़ों के ज़माने में
राजधानी गयी कलकत्ते
और लौटी दिल्ली
और अंग्रेज़ों से पहले
राजधानी को जो ले गया शहंशाह
दिल्ली से दूर
पागल करार दिया गया
दुनिया इत्तफाकों से भरी है
सियासत भी इत्तफाकों की
और क्या सियासत है दिल्ली की
कत्ले आम भी करती है
कत्ले ख़ास भी
लड़कियों की सुरक्षा भी सियासत है यहाँ
और नहीं भी
एक जुलूस भी निकालना सियासत
शामिल भी होना
तकनीक भी सियासत है
और टेलीफोन भी
दिल्ली में मौसम भी सियासत है
और यातायात भी
इक्के का मिलना भी सियासत
उसका छूट जाना भी
और जुमला नहीं
ट्रेन के नाक के आगे से निकल जाने के बाद
ये बची हुई एक और शाम है दिल्ली में
इसी यात्रा की
समझने को उसकी सारी सियासती दांव पेंच.
झपसी लगाना
उन्होंने कहा इसे कहते हैं
झपसी लगाना
यानि मौसम का लगाना पहरा ऐसा
जिसमे आसमान से गिरता रहेगा पानी
होती रहेगी बारिश
दिनों तक लगातार
और वह हो गयी रोमांचित
छा गया बारिश का रूमान
जो अक्सर ही करता रहता था परेशान
पुराना घर जो अब चला गया है नीचे ज़मीन से
बताता है पता शहर की बढ़ती ऊंचाई का
जो घातक है
अमीर ग़रीब सबके लिए
कितनी ही बाढ़ें आयीं
उस पुराने घर के भीतर
सुबह उठे, पाँव नीचे धरा
तो पानी के छपाक में
ज़मीन नहीं थी
कहना बेमानी है
क्योंकि इस शहर ने अभी अभी देखा है भूकंप भी
पर ज़मीन के ऊपर पानी था
जो घुस गया बिस्तर के नीचे रखे बक्सों में
भिंगा दिए सर्टिफिकेट्स
भिंगा दी किताबें
बाद में उन्हें दिनों तक धूप में रखकर सुखाया गया
पानी घुस गया दीवान में
और उसने बर्बाद कर दी
रजाइयाँ, धो डाले कंबल
तब से अबतक कितनी गुना हो गयी है
शहर की आबादी
और कितनी घट गयी है ज़मीन
इतनी घट गयी है ज़मीन
कि भर दिए गए हैं सभी तालाब
और इतनी सूखी है ज़मीन
कि पी जाती है पानी फ़ौरन
लेकिन ईंट बिछी सड़क
और सीमेंट के आहातों
के बने शहर में
जाए तो कहाँ जाए पानी?
टखनों से उठ कर
वह अब घुटनो तक आता है
मौसम कई बार ऐसी झपसी लगाता है
वे फिर कहती हैं
लड़की मचलती है
तूफ़ान का रोमांच उसकी नसों में
हिल स्टेशन की चढ़ाई सा दौड़ता है
जबकि दिल की बस्ती वीरान है
उसके घर की छप्पर क्या टपकेगी?
जिसकी खड़ी ही नहीं होती दरो दीवार
लड़की रोमांचित है
तूफ़ान में माँ के पास आश्रित है
वह चाहती है
और गरजे बरसे पानी
लड़की को कहीं नहीं जाना है
मौसम तो हो ही जाता है हावी
कई कई बार
लेकिन महीनों
हिमपात वाले देश से लौटी लड़की
देख रही है पानी का उत्पात
पति ने बना कर वह घर
जिसका दरवाज़ा खुलता था गराज में
और गराज का दरवाज़ा गाडी के रिमोट से
किये थे इतने सवाल
कि वह भाग गयी थी
मौसम के थपेड़ों में
हिमपात की सतायी वह लड़की
धूप के मारे अपने शहर में
देखना चाहती थी बारिश का उत्पात.
झपसी महतो की चाय दुकान में बारिश का दिन
बारिश के दिन की
अलग अलग खिड़कियां थीं सबकी
अलग अलग थे झरोखे
एक -एक इंच पानी के घटने बढ़ने में
अंटके थे प्राण
शहर डूब गया होगा
सबका सही था अनुमान
बजाकर घंटियां फ़ोन की
लोगों ने कर ली तहकीकात
लाइन चलती थी
फ़ोन बजते थे
इतना था इत्मीनान
दुकानें बंद थीं
बारिश के दूसरे दिन
बस झपसी महतो की चाय दुकान पर
जमा थे मोहल्ले भर के लोग
बकरियां, कुत्ते, विरोधी खेमे
कोस रहे थे नगर निगम को
और वो कुछ लोग
घरों में बैठे याद कर रहे थे
पहले की खाली जगहें
मोहल्ले के नए पुराने मकानों
का इतिहास, बनने की तिथियां
और काफी बहस के बाद
पहुँच गए थे अतीत में
जलकुम्भी से भरे कुछ तालाबों तक
जिसके फूल अब कहीं नहीं दिखते थे
उन्होंने याद कर लिया था
कि कहाँ थे वे तालाब
जिन्हे भर कर बने थे ये घर
पुराने घरों की बगल में
जिनकी सीढ़ियों पर
लपलपा रहा था पानी
चढ़ गया था अंगुल भर फिर से
बाद शाम की बारिश के
ऊँचा ऊँचा होता जाता था शहर
नीची नीची होती जाती थी ज़िन्दगी उसकी
कितने किस्से थे बारिश की शाम के
पुराने बाशिंदे उन्हें उड़ा रहे थे हवा में
बसे और उजड़े घरों की कहानी
ज़िंदा मुर्दा लोग थे
और झपसी महतो की फूस की
चाय दुकान में टपकता पानी
सुलगा रहा था मिटटी के चूल्हे की आग.
तुम्हारे देश के गर्म जल के सोते?
क्या तुम बारिश में भींगी नहीं पहले?
क्या तुमने सुनी नहीं
बादलों की गरगराहट?
क्या तुमने बिजली चमकते नहीं देखी?
क्या वह कडकना
वह तड़कना, तुम्हे याद नहीं?
क्या तुम्हे पिछले साल का आसमान भी याद नहीं?
क्या तुम्हे लय और रौशनी की यात्रा गति का लिहाज़ भी नहीं?
फिर क्यों यों भौंचक खड़ी हो
बांधें दृष्टि आकाशी आँख मिचौली पर?
क्यों छींटों की आवाज़
खींच लायी है बाहर
तुम्हारी बांह पकड़कर?
क्यों खड़ी हो बौछार में नहाती?
किसी अल्हड़ चपल षोडसी सी
झरती हुई कामिनी की पंखुरिओं में मदमाती
पराग की खुशबू से लबरेज़ हवा है
और भी ज़ोर ज़ोर से हिलाती शाखें
तुम क्या करोगी वार्तालाप
इन टहनियों के उलझे जंजाल से?
तुम तो झुककर एक नींबू भी नहीं उठा सकती
अगर मना लिया हो तुमने
उसके फूल से बनने वाले कोलोन इत्र का महोत्स्व
तो चेतो! ऐ विदेश के युद्ध से थक हार कर लौटी लड़की!
तुम क्या सेकोंगी अपने घुटने
ठंढी हवा और गर्म पानी से ?
अब बचे कहाँ हैं
तुम्हारे देश में
गर्म जल के सोते?
सल्फ़र स्प्रिंग्स
खौलते पानी के कुंड?
अपने तीर्थों और पहाड़ो की तस्वीरें देखो लड़की
और राहत की सांस लो
बची हुई मुट्ठी भर हवा से
जो चल निकली है
ज़रा सी बारिश के बाद
मत राह देखो
और मेघ बरसने की
नावें चलने लगती हैं
दिनभर की मूसलाधार में
तुम याद कर लो
इस ज़रा ज़रा सी टिप टिप
और झिहिर झिहिर में
छतो को पीटती हुई
पानी के बरसने की आवाज़?
बारिश के दिन की गोधूलि और ड्रैगन नृत्य
कितने ज़रा से में
बन जाता है जंगल
एक बीजू आम की कलसी
एक जमीरी नीबू
एक कागज़ी की बढ़ती डालों पर
चिर यौवना मालती लता के घुमाव में
गिरते पानी के नीचे अभी अभी
देखा है मैंने
एक जोड़ा जंगली गिरगिट
के प्रणय नृत्य को
प्रणय युद्ध में बदलकर
वापस उसी नृत्य में बदलते
और हरे के घनेपन के इर्द गिर्द
होती ही हैं
कुछ पत्र हीन शाखें
कुछ कम पत्तों वाली
और डंठल दर डंठल
आप उसे उतरते चढ़ते देख सकते थे
सीढ़ियां चढ़ने की कुशल चाल सा
था उसका झुरमुट से निकल कर
लचीली मालती पर डोलना
ज़रा सी दूरी के चुंबकीय आकर्षण में
बंधा चार पंजो वाला
वह प्रेमी युगल
मदमत्त था बारिश की हवा में
उसके विषैले नाखून
जो इंसानी खाल को
खरोंच कर जान ले सकते थे
थाम रहे थे कसकर
पत्तों की किनारी
वह बलखा रहा था पलट रहा था
नाच रहा था
उसके भीतर का
ज़हर भी
और और पैदा करने को
ज़हरीले गिरगिट
और मैं देख रही थी उसे मंत्र मुग्ध
जड़वत
जैसे इंडोनेशिया के कोमोडो ड्रैगन
की हलचल देखी हो
अपने ही फाटक पर
अमूमन शांत रहने वाला
वह विशालकाय जीव
प्रसिद्द है अपनी ज़रा सी
हरकत के लिए
और यहाँ समूचा नृत्य था
सुरीला, ज़हरीला
इतना प्रचंड कि गिरने गिरने को थी मादा
जिसे थी मेरी सारी शुभेच्छाएं
उसके बच्चे काट खाएं
सारे कीट पतंग
फतिंगे जो घुस आते हैं घर के भीतर
नाचते हैं हर जलते बल्ब के ऊपर
बड़ी विभत्स होगी सृष्टि
अगर वह होगी
फतिंगे और गिरगिट की शिकार गाथा
लेकिन सबकुछ झिंगुर नहीं होता
जो डुबो देते हैं
अँधेरे को अपने संगीत में
लपेट लेते हैं घर को
अपने गीत में
और हो गए हैं
कुछ चुप से
बादलों के बोलने के बाद से
कितने परदेसी हैं हम
अपनी ही जन्मजात जगहों में
झिंगुर की झंकार का इन्तज़ाए करते
अनजान उसके बसने
उसके भ्रमण की आदतों से
जबकि बुनछेक में
लौट आएं हैं कितने पक्षी
सबसे पहले बोला है पंडुक
और कितने किस्मो की बजी है चह च चाहट
बज रही है
घिरते अँधेरे में
बारिश के बाद की गोधूलि में
हमेशा ही होता है
चिड़ियों का गान
जाने कहाँ है उनका बसेरा
कितने कम दिखते हैं घोंसले
छान भी लेने पर हरियाली के झुरमुट
फिर ये कहाँ की तैयारी है
यहाँ रोज़ आने वाले खगों की ?
भींगे हुए फूल से
शाम का आख़िरी मधुपान कर गयी है
सबसे छोटी हमिंगबर्ड सी चिड़िया
ग़ुलाबी सी रौशनी के
रात में विलय से पहले
लौट आये हैं झिंगुर.
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पंखुरी सिन्हा
18 जून 1975
\’कोई भी दिन\’ , कहानी संग्रह, ज्ञानपीठ, 2006. \’क़िस्सा-ए-कोहिनूर\’, कहानी संग्रह, ज्ञानपीठ, 2008
\’प्रिजन टॉकीज़\’, अंग्रेज़ी में पहला कविता संग्रह, एक्सिलीब्रीस, इंडियाना, 2013, ‘डिअर सुज़ाना’ अंग्रेज़ी में दूसरा कविता संग्रह, एक्सिलीब्रीस, इंडियाना, 2014
\’रक्तिम सन्धियां\’, साहित्य भंडार इलाहाबाद से पहला कविता संग्रह, 2015. २०१७ में बोधि प्रकाशन से दूसरा कविता संग्रह, ‘बहस पार की लंबी धूप’, प्रकाशित
कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का २०१७ का पहला पुरस्कार, राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013 में
पहले कहानी संग्रह, \’कोई भी दिन\’ , को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान. \’कोबरा: गॉड ऐट मर्सी\’, डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यू.जी.सी., फिल्म महोत्सव में, सर्व श्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला.
कवितायेँ मराठी, बांग्ला, पंजाबी, स्पेनिश में अनूदित, कहानी संग्रह के मराठी अनुवाद का कार्य आरम्भ,
उदयन वाजपेयी द्वारा रतन थियम के साक्षात्कार का अनुवाद, रमणिका गुप्ता की कहानियों का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद
सम्प्रति :
पत्रकारिता सम्बन्धी कई किताबों पर काम, माइग्रेशन और स्टूडेंट पॉलिटिक्स को लेकर, ‘ऑन एस्पियोनाज़’, एक किताब एक लाटरी स्कैम को लेकर, कैनाडा में स्पेनिश नाइजीरियन लाटरी स्कैम,
और एक किताब एकेडेमिया की इमीग्रेशन राजनीती को लेकर, ‘एकेडेमियाज़ वार ऑफ़ इमीग्रेशन’,
साथ में, हिंदी और अंग्रेजी में कविता लेखन, सन स्टार एवम दैनिक भास्कर में नियमित स्तम्भ एवम साक्षात्कार
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