चर्चित उपन्यासकार रणेन्द्र के दूसरे उपन्यास गायब होता देश की समीक्षा युवा कवि अनुज लुगुन की कलम से..
संकट, संघर्ष और आधुनिकता
अनुज लुगुन
एक समय था जब शहर ,गलियों, गाँवों, चौराहों में जादूगरों की चर्चा खूब होती थी. बच्चे से लेकर बड़े-बूढ़े इसी चर्चा में मशगूल होते थे कि फलां जादूगर ने कल के करतब में फलां को गायब कर दिया. या,फलां जादूगर की जादूगरी के आगे किसी का कुछ नहीं चल सकता ..ऐसे ही बहुत सारे चर्चे ..बहुत सारी किवंदंतियाँ ..इत्यादि-इत्यादि . लेकिन अब वह दौर चला गया अब कोई ही है जो इस तरह की बातें करता हो. ऐसे समय में रणेंद्र का उपन्यास “गायब होता देश” आश्चर्य में डालता है कि क्या इसके माध्यम से वे कोई जादू कथा कहने वाले हैं..!!..या कोई जादुई करतब दिखने वाले हैं .??
निस्संदेह आज जादूगरों की कला नहीं रही, लेकिन यह कहना कि आज जादूगर नहीं हैं यह उचित नहीं है. हो सकता है पी.सी.सरकार की तरह जादू को कला या खेल मानने वाले जादूगर नहीं हों लेकिन जादूगर आज भी हैं . जिस तरह जादू के खेल में जादूगर की कलात्मक सफाई को समझ पाना या पकड़ पाना मुश्किल और समझ से परे होता था उसी तरह आज के जादूगरों को समझ पाना और उनकी कलाकारी को पकड़ पाना मुश्किल है. आज के ये जादूगर कौन हैं..? इनका चेहरा कैसा है? और उनकी पहचान कैसी हो.? और वे किसे गायब कर रहे हैं..? रणेंद्र अपने उपन्यास ‘गायब होता देश’ देश में यही बताने की कोशिश करते हैं.
झारखण्ड के मुंडा आदिवासियों को केंद्र में रख कर लिखा गया यह उपन्यास (गायब होता देश) सम्पूर्ण आदिवासी समाज के संकट की ओर ध्यान खींचता है. पूंजीवादी विकास की दौड़ में शामिल लोग किस तरह घास की तरह एक मानव समुदाय को चरते जा रहे हैं ‘गायब होता देश’ इसी की मार्मिक कहानी है. इस घास को चरने में आज का हर वह मनुष्य शामिल है जो इस पूंजीवादी समाज की आपा-धापी और भागदौड़ में शामिल है. इसमें हम भी हैं आप भी हैं.हम वैचारिक धरातल पर बहस करते हुए बाजारवाद, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का घोर विरोध करते हैं लेकिन विडंबना यह है कि उसी की दाना-पानी से जीवित हैं. इस दौर में अगर कोई इस दाना-पानी से बचा है तो वह है आदिवासी समाज .इसलिए आज आदिवासी समाज को सबसे ज्यादा प्रलोभन देने की कोशिश जा रही है, कि वह भी उस जाल में फंस जाय और उसके पास मौजूद जल, जंगल, जमीन को उन्हें ‘विकास’ के नाम पर सौंप दे. यह ‘विकास’ मछली को फंसाने के लिए इस्तेमाल किये जानेवाली चारे की तरह है. जो इस चारे में नहीं फंसना चाहता है वह ‘विद्रोही’ मान लिया जाता है. उपन्यास में ऐसे भी विद्रोही हैं हैं जिन्हें सरकारी भाषा में ‘नक्सली’ कहा जाता है. एक ओर आदिवासी समाज पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष कर रहा है वहीँ दूसरी ओर बाजारवाद ने अपनी गिरफ्त में बहुत तेजी से आदिवासी समाज के एक हिस्से को भीले लिया है, यह आदिवासी समाज का कुछ पढ़ा-लिखा मध्य वर्ग है और वह अपने हित के लिए बाजार की चका-चौन्द में आदिवासियों को भी घसीट लेना चाहता है. ऐसे विकट समय में जब उससे निर्णायक भूमिका की अपेक्षा थी उस पर वह खरा नहीं उतर रहा है. कुछ मध्यवर्गीय विसंगतियों में फंस गए हैं तो कुछ उससे ही लाभ लेने का अवसर देख रहे हैं. ऐसी परिस्थिति में कुछ ऐसे गैर आदिवासी लोग भी हैं जो आदिवासियों के संघर्ष को पहचानते हैं और उनके साथ शामिल हैं.
उपन्यास में किशन विद्रोही ऐसे ही पात्र है. आदिवासी समाज के बुद्धिजीवी के रूप में सोमेश्वर पहान हैं, जो पूंजीवादी व्यस्था के विकल्प के रूप में आदिवासी समाज-व्यवस्था को मजबूत बनाना चाहते हैं. इस दिशा में लेखक की यह खोज बहुत महत्वपूर्ण है कि वह आदिवासी समाज में मौजूद विकल्प को पहचानते हैं और उसके लिए संघर्ष में सोमेश्वर पहान, नीरज , सोनामनी दी और अनुजा पहान के साथ हैं. वर्तमान समाज जिस तरह से संपूर्ण धरती के लिए संकट बना हुआ है ऐसे परिस्तिथियों में एकमात्र आदिवासी समाज के पास ही वे सारे ‘टूल्स’ मौजूद हैं जिससे इस धरती को बचाया जा सकता है. नहीं तो एक दिन इस धरती से नदी, जंगल, पहाड़ पेड़-पौधे सब एकबारगी विलुप्त हो जायेंगे. आदिवासी सामाज की इन विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लेखक कभी भी मुग्ध नहीं होते बल्कि उसके अन्दर मौजूद अंतर्विरोधों को भी खोल कर सामने रखते हैं. आदिवासी समाज के भी अपने सामाजिक अन्तर्विरोध हैं. इन अंतर्विरोधों को उपन्यास की स्त्री-पात्र अनुजा पहान उद्घाटित करती है उससे संघर्ष करती है.लेकिन ऐसा करते वक्त लेखक कभी-कभी अपने बाहरी समाज के प्रभाव में भी होते हैं जिससे कुछ चीजों का अनावश्यक अतिक्रमण होता हुआ भी प्रतीत होता है.
उपन्यास में अनुजा पहान जब स्त्री अधिकार के लिए बहस करती है तो ऐसा ही लगता है कि लेखक वर्तमान स्त्री विमर्श को भी शामिल करना चाहता है. आदिवासी समाज में स्त्रियों की स्थिति पर बात होनी ही चाहिए लेकिन जिस रूप में उपन्यास में स्त्री के सन्दर्भ से बात उठायी गयी है वह पूरी तरह वर्तमान मुख्यधारा की अवधारणा पर आधारित होती है. तब लगता है लेखक आदिवासी समाज को बाहर से देख रहा है और तब वह मुण्डा आदिवासी समाज, स्त्री और संपत्ति के संबंध को व्याख्यायित नहीं कर पाता है. इसी सन्दर्भ में अनुजा पहान कहती है कि – ‘मुंडाओं के जीवन के बारे ‘सेन गे सुसुन .काजी गे दुरंग’ (चलना ही नृत्य, बोलना ही गीत) की बात तो बहुत गर्व से कही जाती है लेकिन उसकी अगली कड़ी ‘दुरी गे दुमंग’ (नितम्ब ही मांदल) को जान बूझकर छोड़ दिया जाता है “ और वह कहती है कि यह अश्लील और स्त्री विरोधी है. जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है ‘दुरी दुमंग’ भी है लेकिन वह अपनी डूरी है न कि किसी दूसरे की या, किसी स्त्री का. और यह कहावत पूरी तरह से आदिवासी समाज के राग-पक्ष को दर्शाता है. यहाँ ‘नितम्ब’ से आशय लेकर पूरी व्याख्या बदल दी गई है. जबकि आमतौर पर आदिवासी समाज में उस रूप का दिखना स्वाभाविक हो जाता है जब गीत गाये जा रहे हों और नृत्य का माहौल बन रहा हो लेकिन वाद्य यंत्र /मांदल की अनुपस्थिति हो. ऐसी स्थिति स्त्री या पुरुष कोई भी मांदल के रूप में अपने शरीर के ही हिस्से को बजाने का स्वांग करता है. इन सबके बावजूद उपन्यासकार ने पूरी कोशिश की है कि आदिवासी जीवन का यथार्थ खुल कर उभर आए .
इक्यावन छोटे-छोटे अध्यायों में विभाजित (और अधिकतर किशन विद्रोही की डायरी की शक्ल में) इस उपन्यास के पहले अध्याय में ही (गायब होता देश ,जिसके नाम से शीर्षक रखा गया है) सूत्र की तरह बात स्पष्ट हो जाती है –
“सरना-वनस्पति जगत गायब हुआ, मरांग-बुरु बोंगा,पहाड़ देवता गायब हुए गीत गाने वाली, धीमे बहने वाली, सोने की चमक बिखेरने वाली, हीरों से भरी सारी नदियाँ जिनमें ‘इकिर बोंगा’- जल देवता का वास था ,गायब हो गई. मुंडाओं की बेटे-बेटियाँ भी गायब होने शुरू हो गये.’ सोना लेकन दिसुम’गायब होने वाले देश में तब्दील हो गया .”
यह पूरे उपन्यास का सूत्र है. मुंडा आदिवासी जीवन पर बाहरी समाज का प्रभाव और उसके बीच मुंडाओं के जीवन का द्वन्द और संघर्ष, उत्पीड़न, इन सबके माध्यम से लेखक उपरोक्त सूत्र की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं. इसके लिए लेखक केवल वर्तमान मुंडा जीवन की ही यात्रा नहीं करते हैं बल्कि मुंडाओं के इतिहास और दर्शन की लम्बी यात्रा के बाद वे उपर्युक्त निष्कर्ष पर पहुँचते हैं. इस यात्रा में लेखक मुंडा जीवन की अनछुई पहलुओं को बहुत ही रोचकता के साथ प्रस्तुत करते हैं .छैला सन्दू जैसे मुंडा लोककथाओं के माध्यम से कहानी और भी पुष्ट होती है. लेखक द्वरा मुंडारी (आदिवासी) चिकित्सा पद्धति “होड़ोपैथी” का खासतौर से उल्लेख करना आदिवासी समाज व्यवस्था के प्रति उनकी जानकारी का संकेत है. वरन, बाहरी समाज तो आदिवासी समाज के बारे टोना-टोटका और जादुई तिलस्मी बातों का ही प्रोपेगंडा करता है, जबकि आदिवासियों की अपनी निश्चित चिकित्सा पद्धति रही है जो किसी भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति से कम नहीं है.
आदिवासियों के अस्वीकार एवं प्रतिरोध को ‘आधुनिकता’ विरोधी कहा जाता है. और जैसे ही ‘आधुनिक’ पद कहीं प्रयुक्त होता है ‘सभ्य-सुशील’(?) लोग अपना ‘कॉलर’ संभालने लगते हैं कि कहीं वे पिछड़े और पुरातन न मानें जाएँ. इस प्रवृत्ति की वजह से वे आदिवासी समाज के साथ खुल कर नहीं आते हैं. जो भी इनके साथ होना चाहते हैं या होते हैं वे अपनी शर्तों और उसुलों के साथ आदिवासियों के साथ होते हैं और उन्हें अपना ही पाठ पढ़ाने लगते हैं. लेकिन रणेंद्र ऐसा नहीं करते बल्कि वे आदिवासी समाज की वैज्ञानिकता और उसकी आधुनिकता को तार्किकता के साथ सामने रखने की कोशिश करते हैं, और जिसे ‘आधुनिक’कहा जाता है उसके अमानवीय कृत्यों को उद्घाटित करते हैं. रणेंद्र मुंडा जीवन के संस्कारों की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए प्राक-इतिहास से भी पूर्व के इतिहास की खोज में जाते हैं और उस समय मौजूद ल्युमेरिया सभ्यता के अवशेषों, उसकी विशेषताओं के साथ मुंडा जीवन की समानता प्रस्तुत करते हुए हमारे सामने मानव इतिहास के विकास को देखने का भिन्न नजरिया प्रस्तुत करते हैं.
उपन्यास में सबसे रोमांचक प्रसंग “मेगालिथों” का है. वे मेगालिथ पत्थर से जुड़ी ऐतिहासिकता की बात करते हुए जिन सन्दर्भों को उभारते हैं वह हतप्रभ करने वाला है. मुंडाओं कीं परंपरा और संस्कार में पत्थरों का बहुत अहम योगदान है.बिना पत्थर के मुंडाओं का कोई भी संस्कार संपन्न नहीं होता है चाहे वह जन्म के समय हो या अंतिम समय में मृत्यु के दिनों में.कालांतर में ये पत्थर इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण स्रोत हुए लेकिन आश्चर्य है कि ऐसे किसी भी स्रोत से न आदिवासी जीवन की वैज्ञानिकता साबित हो सकी और न ही उनके जीवन की प्रमाणिकता.और उपन्यास में लेखक का यहीं महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है. वे मेगालिथों के द्वारा आदिवासी जीवन और दर्शन और उनकी वैज्ञानिकता की खोज करते हुए मिस्र के पिरामिडों और इंनका-अज्टेक सभ्यता की बनावट और उसकी संरचना की व्याख्या करते हुए जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं वह अविश्वसनीय प्रतीत होता है लेकिन इसके लिए वे जो तर्क रखते हैं उसे खारिज नहीं किया जा सकता है. वे लिखते हैं- “ हर मेगालिथ –ससनदिरी –विददिरी न मातृ पहाड़ी से बल्कि अन्य दिरी (चट्टान), पवित्र सरना ,जलाशय के साथ अदृश्य संबंधों के आधार पर अपनी ऊर्जा द्विगुणित-चतुर्गुणित करते रहते हैं .इस प्रकार ये दिरी धरती के नाभि क्षेत्र में तब्दील हो जाते हैं ….”
इसी तरह निम्न कथन से यह स्पष्ट होता है कि किस तरह सांस्कृतिक औपनिवेशिकता का दौर भी चला है और सबसे ज्यादा आदिवासी उसके शिकार हुए – “दरअसल मिस्र के पिरामिडों और इंका-अज्टेक के पहाड़ी के सामान ऊंचे पूजा स्थलों की तरह हमारे लेमुरियन पुरखों ने दिरियों की न जाने कितनी अद्भुत संरचनाएं खड़ी की होंगी इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है. क्योंकि यूरोप के कथित सभी लोगों ने अपने मेगालिथ संरचनाओं को नष्ट कर उन्हीं जगहों पर ग्रीक मंदिर बनाए जो समय की धारा में रोमन मंदिरों में तब्दील हुए फिर चर्चों में ….यहाँ हिन्दुस्तान में जहाँ की सहिष्णु सभ्यता के डंके पीटे जाते हैं प्राचीन मेगालिथों की जगह पहले बौद्ध –जैन मंदिर बने फिर वे हिन्दू मंदिर में बदले गये. चाहे वह वेणीसागर-देवघर किचिंग के शिव मंदिर हों या रजरप्पा-तारापीठ के देवी मंदिर.” इस तरह की व्याख्या के द्वारा वे गहरी सांस्कृतिक राजनीति की पड़ताल करते हैं. उपन्यास के पात्र एवं मुंडाओं के बुद्धिजीवी सोमेश्वर पहान इसके बारे में विशेष जानकारी रखते हैं. आदिवासी समाज में वैज्ञानिकता की खोज के मामले में यह भिन्न उपन्यास है.
आज जिस पूंजीवादी आधुनिकता की वकालत की जा रही है वही आज का जादूगर है. उसी के काला जादू का परिणाम है कि आदिवासी समाज तेजी से विलुप्त हो रहा है. वर्चस्व की मानसिकता की वजह से एक ओर तो आदिवासी जीवन–दर्शन और संस्कृति को हमेशा हेय की दृष्टि से देखा गया वहीँ दूसरी ओर उनकी जमींन,उनका जंगल, उनका जीवन सब एक-एक कर “विकास”की भेंट चढ़ा दिया गया. उसकी जमीन पर कल-कारखाने और बड़े उद्योग बन रहे हैं ,बड़े-बड़े चमकदार मॉल बन रहे हैं लेकिन उस जमीन के असली हकदार उसी की चमक में दफ़न हो रहे हैं. और इस आधुनिकता की विडम्बना यह है कि इस पर राष्ट्रीय जश्न मनाया जाता है. इस उपन्यास में राजनीतिक और प्रशासनिक मिली-भगत से किस तरह झारखण्ड में भू-माफियाओं ने आदिवासियों की जमीन को कब्जाया और किस तरह जमीन हाथ से निकलते ही आदिवासियों की पहचान मिट जाती है,इसकाबहुत बारीकी से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है.आदिवासियों की जमीन से बेदखली ,उनकी प्रताड़ना और धार्मिक-सांस्कृतिक रूप से उन्हें उपनिवेश बनाना, इन सभी बिन्दुओं पर लेखक ने न केवल गंभीरता से बहस प्रस्तुत किया है बल्कि आदिवासी जीवन-दर्शन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है.
वर्तमान आदिवासी जीवन अपनी पहचान के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है. वह वैश्वीकरण के नये-साम्राज्यवादी ताकतों का सबसे ज्यादा शिकार है और वही जमीन पर वास्तविक लड़ाई लड़ रहा है.इन सबके मद्देनजर साहित्य और विचार के क्षेत्र में इस प्रकार के चिंतन और बहस से उनके संघर्ष को और बल मिलेगा ,उनका मनोबल बढ़ेगा.ध्यान देने की बात यह है कि यह ऐसी लड़ाई है जिसे अकेले नहीं जीता जा सकता है,तमाम लोकतांत्रिक और जनवादी ताकतों के समन्वय से ही इस चुनौती का सामना किया जा सकता है.अपने पहचान की संकट से जूझ रहे आदिवासी समाज को अपनी इस लड़ाई को बहुत आगे लेकर मानव की मुक्ति का प्रतिनिधि बनना होगा.आदिवासी समाज को चौतरफा संघर्ष करना है.
एक ओर तो उसे उस मानसिकता से टकराना है जो उसे जंगली,असभ्य और नीच कहता है वहीँ दूसरी ओर साम्राज्यवादी ताकतों से. हाल के दिनों में झारखंड के आदिवासियों पर केन्द्रित रचनाओं और उसके रचनाकारों ने इस दिशा में सार्थक पहल की है.उपन्यास के रूप में ’ग्लोबल गाँव के देवता’ ने हजार साल पुरानी ‘असुर’ संबंधी मान्यताओं को तोड़ा है. वहीँ ‘मारंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ ने आदिवासी समाज से संबंधित भिन्न नजरिये को विकसित किया है.इस तरह की रचनाएं बहुत लिखी जा रही है फिर भी अभी बहुत लम्बी यात्रा तय करनी है और यह यात्रा तब तक अधूरी ही होगी जब तक आदिवासी समाज स्वंय इन बौद्धिक और वैचारिक मामलों पर ठोस हस्तक्षेप नहीं करेगा.
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अनुज लुगुन : कविता के लिए २०११ का भारत भूषण अग्रवाल सम्मान
मुंडारी आदिवासी गीतों में आदिम आकांक्षाएं और जीवन-राग पर शोध कार्य
सम्प्रति अध्यापन
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