‘अपनी मर्जी की जगह पर रहना
किसी व्यक्ति का किसी जगह पर होने का अर्थ यह नहीं कि यह उसके रहने की भी जगह है. रहने की जगह ही अगर उसका पता है तो बाशिंदे की दिक्कत यह है कि वह किसी भी जगह को अपना पता नहीं बता सकता. होने और रहने के बीच की यह फाँक आधुनिक नागर जीवन की विडंबना है, साथ ही यह अलगाव सामुदायिक जीवन के विखण्डन के अलावा व्यक्ति के स्तर पर आत्मच्युति का प्रमाण भी है. यह स्थिति उस व्यक्ति की स्वायत्तता के संकटग्रस्त होने का संकेत भी है जिसका महात्म्य आधुनिकता के मूल्यों और आदर्शों ने खड़ा तो किया लेकिन उसे संभाल नहीं सके. वास्तव में व्यक्ति की स्वायत्तता का अतिक्रमण दोनों ही व्यवस्थाओं में होता आया है- पूंजीवादी (या लोकतांत्रिक, राजनीतिक अर्थों में) व्यवस्था में भी और समाजवादी तंत्र में भी. अगर पहली व्यवस्था में अपार धनोन्मुखता, प्रतियोगिता, शोषण, रोजगार संबंधी अनिश्चितता और तदर्थवाद व्यक्ति को असहाय और अकेला बनाते हैं तो वहीं दूसरी व्यवस्था में व्यक्ति की स्वायत्तता पार्टी में समाहित हो जाती है, वह समाजवादी तंत्र का कल-पुर्जा बन जाता है. इसलिए वास्तव में कवि संजय कुंदन की ये काव्य पंक्तियां आधुनिक व्यक्ति की सार्वदेशिक-सार्वभौमिक अभिव्यक्ति हैं.
‘जनता के साथ मजाक कोई अपराध नहीं है हमारी व्यवस्था में
तनी हुई रस्सी पर चलते हुए कवि संजय कुंदन इस मनुष्य विरोधी और प्रकृति द्रोही व्यवस्था, इसके ताने-बाने और इसकी संस्थाओं को निशाने पर लेते हैं- चाहे वह राज व्यवस्था हो, अर्थतंत्र हो,न्याय-व्यवस्था हो, बाजारवाद हो या धर्म. चरम भोगवाद और वस्तुकरण के दौर में वे बेहद मामूली चीजों को बचाने के लिए सन्नद्ध होते हैं , क्योंकि उन्हें मालूम है, इन्हीं साधारण चीजों से जीव संवेदी दुनिया बनी है, इन्हीं के भरोसे इस विराट प्रकृति का कारोबार चल रहा है. इसलिए जब नियमगिरी के पहाड़ों को समतल करने को मुआवजा हाथ में लिए अर्थ-यूथ सामने आ जाएं तो नियमगिरी की संतानों को पूरा जोर लगाकर पूछना ही होगा-
‘क्या हर नुकसान की भरपाई संभव है?
‘हम मुनिगुड़ा आते हैं
कवि यदि नियमगिरी को बचा लेना चाहता है तो उसकी चिंता संबंधों को बचा लेने की भी है (दो भाई, बहन की याद, गृहस्थी). वह गृहस्थी में सबसे ज्यादा स्थगित प्रेम को पुनः स्थापित करना चाहता है-
उसे अपनी बहन की याद आती है जिसका दुख उसे साल रहा है-
‘जिस वक्त मैंने सपनों के आकाश में
उसी समय कतरे गए तुम्हारे पंख
संग्रह में दो और स्त्रीविषयक कविताएं हैं जो समर्थ होती स्त्री का चित्र उकेरती हैं –
संजय कुंदन जनपक्षीय सरोकारों को लेकर मुखर हैं ,लाऊड हैं, लेकिन यह उनकी कुल जमापूंजी नहीं है. वे गहन भावबोध के भी कवि हैं और अपने शिल्प को लेकर पर्याप्त सचेत भी हैं. सोशल मीडिया की ये पंक्तियां देखिएः
‘शब्दों का जीवन
’शब्दों के मलबे में विचारक की उक्ति फुसफुसाहट में तब्दील हो जाती है. यह कटूक्ति शब्दों की दुनिया में रहने वालों को हिलाकर रख देती है .शब्द से अर्थ झड़ चुके हैं या झड़ रहे हैं, अर्थहीन शब्दों का रेला-मेला है, और इन्हीं में ज्ञानीजन अमरत्व की राह तलाश रहे हैं. दशकों पहले की पढ़ी संभवतः राही मासूम रजा की पंक्तियां याद आ गईं-
‘आओ मथें
संजय कुंदन समकालीन हिंदी कविता के एक स्थापित व महत्वपूर्ण कवि हैं. जिस मुहावरे की बात की जाती है, वह इनका पहले संग्रह में ही तैयार दिखता था. तब से लेकर आज तक व्यंजना इनकी कविता की मूल शक्ति है जिसका उपयोग वे विडंबनाओं और विद्रूपों को उजागर करने में भी करते हैं और छल-छद्म को भेदने में भी. कहीं-कहीं तो त्रासदियों पर भी इनकी व्यंजक टीपें दिखाई देती हैं. इस मामले में यह संग्रह कुछ अलग नहीं है, लेकिन विषयों के चुनाव और पैने अन्वीक्षण ने इन्हें एक समर्थ, युगचेतस कवि के रूप में प्रतिष्ठापित किया है. इस संग्रह में, उन कविताओं में जिनमें पॉलिटकल ओवरटोन है, और जिनमें आमजन के संत्रास को दर्शाया गया है, कवि अपनी बात भूतकाल में कहता है, ऐसे कि मानो वह भविष्य में जाकर आज को, वर्तमान को देख रहा है. कहीं-कहीं इससे कविता का प्रभाव बढ़ा है, तो कहीं-कहीं आशय पूरी तरह खुल नहीं पाया. ‘अकेली लड़कियां’ एक अच्छी कविता है लेकिन इसे यदि वर्तमान काल में कहा जाता तो इसकी प्रभावान्विति कुछ और ही हो सकती थी. लेकिन कवि ही यह तय कर सकता है कि उसे क्या लिखना है और कैसे लिखना है.

संग्रह की कुछ कविताएं अलग से प्रभावित करती हैंः ‘नियमगिरी, ‘मेरा पता’ और ‘शिलान्यास का पत्थर’ के अलावा ‘सबसे बड़ा युद्ध’, ‘सोचना चाहता हूं’, ‘गलती से’, ‘आपकी परिभाषा’ और ‘दासता’. ‘अधूरी कविता’ कलेवर में छोटी लेकिन गठन में और अर्थसमृद्धि की दृष्टि से एक अद्भुत कविता है. इस कविता में मानो कवि (अधूरी) कविता को अपना संपूर्ण विश्वास सौंपता है, उसकी शक्ति के आगे नतमस्तक होता है. यही उसकी मर्जी की जगह है(जहां पर रहना एक तनी हुई रस्सी पर रहने से कम नहीं है)!
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