इतिहास बनाम एजेंडे का इतिहास फ़रीद ख़ाँ |
दक्षिणपंथी सरकार ने केंद्र में सत्ता संभालते ही ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए जो सबसे बड़ा और लोकप्रियतावादी काम किया, वह है– शहरों के नाम बदलना. जबकि सिर्फ़ नाम बदल कर अच्छे दिन लाने वाली सरकार का छुपा एजेंडा है– मध्यकालीन भारत के इतिहास को हमारी स्मृतियों से मिटाना. यानी वह बताना चाहती है कि भारत का इतिहास या तो प्राचीन काल का इतिहास है या अंग्रेज़ों का इतिहास. उनकी टाइम मशीन से बीच का काल ग़ायब हो चुका है. जबकि किसी भी व्यक्ति या सभ्यता के बीच का काल सबसे महत्त्वपूर्ण होता है.
इसी आलोक में प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर की नई किताब आई है- ‘हमारा इतिहास, उनका इतिहास, किसका इतिहास?’ यह मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई, जिसका हिंदी अनुवाद संजय कुंदन ने किया है. शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें इतिहास लेखन को लेकर उभरे द्वंद्व पर विचार किया गया है. हर दौर में इतिहास लेखन बहस का मुद्दा रहा है, ख़ास कर तब से जब से साक्ष्यों और प्रमाणों को महत्त्व दिया जाने लगा है, क्योंकि पहले इतिहास लेखन में तारीख़ों को क्रमवार रख दिया जाता था और शेष कहानियाँ काल्पनिक या लोक प्रचलित हुआ करती थीं. काल्पनिक या लोक प्रचलित इतिहास को आसानी से तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है. ऐसे इतिहास का निर्माण एक पक्ष को सुख पहुँचाने के लिए किया जाता है. इसलिए प्रोपेगंडा के ज़रिये राजनीति करने वालों को इसकी ज़रूरत पड़ती रहती है. वे इसे आसानी से तोड़-मरोड़ सकते हैं. इतिहास के सिलेबस से ‘तीन सौ रामायण’ हटा कर एक दक्षिणपंथी सरकार स्पष्ट संदेश देना चाहती है कि लोग राम का इतिहास वही जानें जो वह बताना चाहती है.
ऐसे दौर में एक दिन ख़बर आती है कि सरकार ने कोविड की आड़ में एनसीईआरटी की इतिहास पुस्तक से मध्यकाल से संबंधित अध्यायों को हटा दिया है. दिलचस्प यह है कि दक्षिणपंथी राजनीति ने इसे विद्यार्थियों का बोझ हल्का करने के लिए लिया गया फ़ैसला बताया. जबकि रोमिला थापर का कहना है कि
‘बेहतर होता कि विद्यार्थियों को कह दिया जाता कि कुछ अध्यायों से प्रश्न नहीं पूछे जाएंगे. कम से कम पुस्तक में उन अध्यायों के रहने से गंभीर विद्यार्थी उसे पढ़ तो पाएंगे.‘
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि भारत की दक्षिणपंथी विचारधारा या तो प्राचीन भारत के इतिहास को अपना इतिहास बताती है या अंग्रेज़ों के काल के इतिहास को. उसके बीच के काल को ‘देवताओं के अंतर्ध्यान होने की तरह’ ग़ायब कर देती है. क्या इसे इतिहास पर हमला कहा जा सकता है ? इस पर कोई विद्वान ही बोले तो बेहतर है.
यह समझना बहुत ज़रूरी है कि अतीत का हर आख्यान या हर साहित्य इतिहास नहीं होता है. इतिहास सबूतों की मांग करता है. उन सबूतों को तरह-तरह से परखने की मांग करता है. जो लोग बिना सबूतों के इतिहास की बात करते हैं, उनका एक निश्चित राजनीतिक एजेंडा होता है. वे अपने फ़ायदे के लिए अतीत का आविष्कार तक कर लेते हैं और अंततः एक काल्पनिक शत्रु भी बना लेते हैं.
पूरी दुनिया में यह प्रवृत्ति देखी गई है कि दक्षिणपंथी राजनीति अपनी बातों की वैधता के लिए जो कहानी लेकर आती है, उसे प्राचीन इतिहास का नाम दे देती है. मानो अतीत में जो कुछ भी था, सब अच्छा अच्छा ही था, न कोई संघर्ष था न कोई द्वंद्व. यहाँ उस राजनीति के झंडाबरदार यह बताना भूल जाते हैं कि जब अतीत में कोई संघर्ष या द्वंद्व था ही नहीं तो मानव समाज उस अतीत से आगे बढ़ कर यहाँ तक पहुँचा कैसे?
पेशेवर इतिहासकार साक्ष्यों के आधार पर बताते हैं कि हमारी ऐतिहासिक यात्रा में कैसे-कैसे उतार चढ़ाव आये और हम यहाँ तक कैसे पहुंचे. दक्षिणपंथी राजनीति लोगों के अवचेतन में यह हीन भावना भी भरती है कि तुम अतीत में महान थे, पर अभी नहीं हो. अभी तुम निकृष्ट हो. वही तथाकथित निकृष्ट व्यक्ति अपनी महानता सिद्ध करने के लिए एक दिन हिंसक हो जाता है और दक्षिणपंथियों के बताये शत्रुओं का नाश करने निकल पड़ता है. इस तरह दक्षिणपंथी सरकार जनता को ‘काम’ पर लगा कर अपना हित साधती है. यह सिर्फ़ भारत की कहानी नहीं है, यह हर उस जगह की कहानी है, जहाँ दक्षिणपंथ का वर्चस्व है.
ऐसे दौर में विषय से अनजान व्यक्ति के मन में जिज्ञासा हो सकती है कि आख़िर इतिहास क्या है ? तो उसका जवाब रोमिला थापर ने अपनी किताब में इस तरह दिया है –
‘इतिहास न तो तारीख़ों का एक संग्रह मात्र है, न ही उसका मकसद बस कहानी सुनाना है. धर्म और राष्ट्रवाद दोनों का इतिहास पर गहरा असर होता है, लेकिन केवल इसी परिप्रेक्ष्य से इतिहास की पड़ताल करना दरअसल इतिहास को विकृत करना है’.
रोमिला थापर इस किताब में बताती हैं कि आज के भारतीय दक्षिणपंथ की जड़ें कहाँ हैं, जो पूरे भारत के इतिहास को हिन्दू-मुस्लिम के सांप्रदायिक चश्मे से देखता है. असल में 1817 में जेम्स मिल नामक एक इतिहासकार ने बिना भारत को देखे (बिना भारत की यात्रा किये), लंदन में रह कर ही, आधुनिक भारत का इतिहास लिख दिया, जिसमें बताया गया कि भारत में दो राष्ट्र रहते हैं. ध्यान से पढ़िए, दो समुदाय नहीं, दो राष्ट्र. पहला हिन्दू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र. उसका कहना था कि दोनों ही ‘राष्ट्र’ एक दूसरे के विपरीत हैं, इसलिए उनमें निरंतर संघर्ष की स्थिति बनी रहती है. जेम्स मिल की इसी किताब में पहली बार द्विराष्ट्र का सिद्धांत अस्तित्व में आया और यह कोई आश्चर्य नहीं कि ब्रिटेन ने दो जगहों पर इसका प्रयोग कर हमेशा-हमेशा के लिए दुनिया की राजनीति में ज़हर घोल दिया. इसी द्विराष्ट्र के सिद्धांत के नतीजे में पाकिस्तान और इज़राइल जैसे दो देश अस्तित्व में आए.
राष्ट्रवाद पर रोमिला थापर बताती हैं कि भारत की आज़ादी के संघर्ष में स्वाभाविक रूप से उभरा राष्ट्रवाद समावेशी राष्ट्रवाद था, जिसमें भारत के हर नागरिक की पहचान उसका देश था यानी भारतीय. लेकिन दुनिया में कहीं भी दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के उभार का अर्थ होता है उस जगह की बहुसंख्यक आबादी का राष्ट्रवाद. जिसमें शत्रु कोई औपनिवेशिक सत्ता नहीं होती बल्कि देश के नागरिक ही होते हैं जिन्हें ‘अन्य’ की तरह चिह्नित और इंगित किया जाता है. इस तरह हम कह सकते हैं कि जेम्स मिल के द्विराष्ट्र के सिद्धांत ने नफ़रत फैलाने वाली राजनीति को वैधता प्रदान कर दी.
भारत में ‘द्विराष्ट्र’ के अनुयायी इसीलिए ‘हिन्दू इतिहास’ और ‘मुस्लिम इतिहास’ के खांचे में इतिहास को रखते हैं ताकि देश हमेशा गृह युद्ध की कगार पर खड़ा रहे. एक बड़ी आबादी को दक्षिणपंथी राजनीति ने इतिहास का बदला अपने ‘अन्य’ नागरिकों से लेने के लिए उकसा रखा है.
रोमिला थापर ने इस विषय में गहरे उतरने के पहले यह बताने की कोशिश की है कि न तो हिन्दू समुदाय कोई एक इकाई है न मुस्लिम समुदाय कोई एक इकाई है. विशेषकर मुसलमानों के बारे में यह ग़लतफ़हमी पैदा की जाती है कि पूरा समुदाय एक है. इसलिए थापर बताती हैं कि मुसलमानों में सर्वप्रथम शिया, सुन्नी ही सबसे बड़े संप्रदाय के रूप में बंटे हुए है. फिर उन दोनों संप्रदायों में भी अनेक उप-संप्रदाय हैं. मुहावरे के तौर पर स्वयं मुसलमान भी कहते हैं कि वे बहत्तर फ़िरके में बंटे हैं. पर अनुमानतः बहत्तर से भी ज़्यादा फ़िरके हैं मुसलमानों के. यानी उनके आपसी मतभेद की संख्या बहत्तर से ज़्यादा है. रोमिला थापर इसलिए यह सब कुछ बता रही हैं कि पूरी दुनिया की राजनीति ख़ास कर मध्य एशिया की राजनीति के चश्मे से भारत के मुसलमानों को नहीं देखा जाना चाहिए. उसी तरह जिस समूची आबादी को हिन्दू कह कर पहचाना जाता है वह भी कोई एक इकाई नहीं है. उसमें भी अनेक भेदभाव, मतभेद और परस्पर वैचारिक संघर्ष दिखाई पड़ते हैं.
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि प्राचीन भारत में जातिगत भेदभाव अपनी चरम अवस्था में थे, जो निरंतर कम होते रहे पर यह भी सच है कि अभी तक ख़त्म नहीं हुए. इसलिए प्राचीन भारत में सब कुछ अच्छा था, यह दावा कोरी कल्पना के अलावा कुछ नहीं है. उसी तरह इतिहास के मध्यकाल में यह जातिगत भेदभाव मुसलमानों में भी रहा. मेहतर का काम करने वाले हलाल खोर या लाल बेगी उसी तरह समाज में बहिष्कृत रहे जैसे हिन्दुओं के बीच. यह प्राचीन भारत के ‘अच्छे दिनों’ की ही देन है कि जो एक बार निम्न जाति में पैदा हो गया वह फिर कभी अपनी सामाजिक स्थिति सुधार नहीं सकता. उत्पीड़न का यह रूप अघोषित नहीं था, बल्कि घोषित और लिखित व्यवस्था के अंतर्गत होता था.
प्राचीन भारत में स्थापित अशोक स्तंभ के हवाले से लेखक ने बताया है कि उस दौर में भी सांप्रदायिक हिंसा हुआ करती थी. यह तब की बात है जब इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था. अशोक स्तंभ में अशोक ने कहा है कि न केवल ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच बल्कि सभी संप्रदायों के बीच सहिष्णुता होनी चाहिए. संस्कृत के महान व्याकरणाचार्य पतंजलि ने ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच के संबंध को साँप और नेवले की तरह बताया है.
सातवीं शताब्दी में भारत आये चीनी यात्री ने अपने यात्रा-वृत्तांत में भारत में बौद्ध भिक्षुओं की हत्या और उनके मठों के उजाड़े जाने का उल्लेख किया है और इस क्रम में उसने पूर्वी भारत के राजा शशांक की हिंसक कार्रवाइयों का भी ज़िक्र किया है जिसे बौद्धों का शत्रु माना जाता था.
उसी तरह सातवीं शताब्दी के एक राजा पल्लव महेंद्रवर्मन ने एक शैव शिक्षक की हत्या के आरोप में आठ हज़ार जैन मुनियों को सूली पर लटका दिया था. जैनियों की बड़ी संख्या गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु में थी, उन क्षेत्रों की अभिलेखों से उनके उत्पीड़न का पता चलता है.
उसी तरह बारहवीं शताब्दी में कश्मीर का इतिहास लिखने वाले कल्हण ने भी गांधार के ब्राह्मणों के प्रति तिरस्कार का भाव केवल इसलिए दिखाया है कि उन ब्राह्मणों ने उन शैव राजाओं से भूमि दान स्वीकार किया, जिनकी अगुआई में बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करवाई गई थी. कल्हण ने यह भी दर्ज किया है कि पहली सहस्राब्दी के उत्तरार्ध में हिन्दू राजाओं ने कितनी बार मंदिरों की ढेरों संपत्ति लूटी. ग्यारहवीं सदी में कश्मीर के राजा हर्षदेव का ज़िक्र करके कल्हण बताते हैं कि उन्होंने लूट की संपत्ति की देख रेख के लिए विशेष अधिकारियों की नियुक्ति कर रखी थी जिन्हें– देवोत्पतन नायक– कहा जाता था यानी देवताओं को उखाड़ फेंकने के काम के नायक अथवा प्रभारी. अर्थात राजा चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, उसे जब धन की ज़रूरत पड़ती थी तो वह जनता को लूटता था, इस लूट में वह मंदिर-मस्जिद का भेद नहीं करता था.
मध्य काल के इतिहास को विस्मृत करने का अर्थ है भक्ति आन्दोलन को विस्मृत कर देना जो तथाकथित मुस्लिम काल में निर्बाध गति से चल रहा था. इसी काल में कबीर मुस्लिम हो कर रामानंद के शिष्य हुए और निर्गुण राम के भक्त भी तो दूसरी तरफ़ रसखान एक मुस्लिम ज़मींदार के पुत्र थे और कृष्ण के अनन्य भक्त. अगर मुस्लिम शासक हिन्दुओं का उत्पीड़न करते थे तो कबीर और रसखान जैसी अनेक विभूतियाँ कैसे पैदा हो रहीं थी, वह कौन सा वातावरण था जो तत्कालीन शासन व्यवस्था उपलब्ध करवा रही थी ? ध्यान रहे, देश चलाने वाले शासक ही देश का वातावरण अथवा सामाजिक सद्भाव का वातावरण तैयार करते हैं. इसी काल में तुलसीदास रामचरितमानस की रचना अवधी में कर रहे थे. इसी काल में सबसे ज़्यादा लोक भाषाओं अथवा अपभ्रंश में साहित्य की रचना की जा रही थी, इसे कैसे भुलाया किया जा सकता है ? इस अर्थ में सोलहवीं से अठारहवीं सदी तक के मुग़ल काल को भारत के इतिहास का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है जिसे पाठ्य पुस्तकों से और हमारी स्मृतियों से मिटाने की सरकार द्वारा प्रायोजित कोशिश की जा रही है.
उसी तरह इतिहास को तोड़- मरोड़ कर पेश करने वाले अक्सर कहते पाए जाते हैं कि सती प्रथा की शुरुआत मुस्लिम आक्रमणकारियों के कारण हुई. जबकि इस पुस्तक की लेखक रोमिला थापर पृष्ठ संख्या 74 पर बताती हैं कि इसका संकेत ऋग्वेद में भी मिलता है, जिसमें कहा गया है कि एक महिला को अपने मृत पति के साथ अंतिम संस्कार की चिता पर लेटना चाहिए, लेकिन चिता जलने के पहले उसे छोड़ देना चाहिए. उसी तरह महाभारत में भी इसके पर्याप्त संकेत मिलते हैं जब पांडु की मृत्यु पर बहस होती है कि माद्री को उसके साथ आत्मदाह करना चाहिए कि नहीं. इस संबंध में बाण भट्ट की दो रचनाओं में अलग-अलग मत हैं. जहाँ एक तरफ़ ‘हर्षचरित’ में सती प्रथा का वर्णन है, वहीं दूसरी तरफ़ ‘कादम्बरी’ में इसका विरोध है. लेखिका के अनुसार हमारे देश में प्राचीन सती स्मारक भी मिल जाते हैं.
इतिहास इतना स्याह-सफ़ेद नहीं होता जितना ‘व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी’ में बताया जा रहा है. जैसे पूरे मुग़ल साम्राज्य में हिन्दू राजा भरे पड़े थे. उन्हें महाराजाधिराज की उपाधियाँ दी जाती थीं और कई राजाओं को ‘हिन्दूराय – सुरत्राण’ यानी हिन्दू राजा सुलतान की उपाधियाँ भी दी जाती थीं. कछवाहा राजपूत मुग़लों के सबसे करीबी माने जाते थे इसीलिए वे मुग़ल सेना का नेतृत्व भी करते थे. जबकि अनेक दूसरे राजपूत या अन्य जो मुग़लों से लड़ रहे थे, उनका साथ अफ़गानी मुसलमान दे रहे थे. तो क्या हम उन लड़ाइयों को हिन्दू- मुस्लिम लड़ाई कह सकते हैं ? हरगिज़ नहीं, वे सब वर्चस्व की राजनीतिक लड़ाइयां थीं. उसी तरह मुग़ल काल में शहरी व्यापार में हिन्दू व्यापारियों की एक अनिवार्य भूमिका थी. जिसका ज़िक्र अकबर के समय के एक जौहरी बनारसीदास की पुस्तक ‘अर्धकथानक’, जो आत्मकथात्मक कविता है, में मिलती है.
कथित रूप से ‘मुस्लिम काल’ के संबंध में लेखिका लिखती हैं–
“आक्रमण और विनाश के निरंतर उल्लेख ने इन शताब्दियों के अन्य महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक बदलावों को चर्चा में आने ही नहीं दिया.”
पृष्ठ संख्या 108 पर रोमिला थापर लिखती हैं,
‘इतिहास के विश्लेषण के क्रम में इस बात की पड़ताल की जाती है कि क्या किसी संघर्ष के पीछे महज़ धार्मिक कारण है, क्योंकि जब भी अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच टकराव देखा जाता है, तो उसे धार्मिक संघर्ष बता दिया जाता है. टकराहट की कई वजहें हो सकतीं हैं और इसे इस रूप में देखने की ज़रूरत है कि इसके क्या मुख्य कारण हो सकते हैं और क्या गौण.‘
वास्तविकता यह है कि हमारे देश की दक्षिणपंथी राजनीति औपनिवेशिक इतिहासकारों का अनुसरण करते हुए निरंतर ‘द्विराष्ट्र’ जैसे नफ़रती सिद्धांत के नज़रिए से ही पूरे इतिहास को देखती है जिसमें एक समुदाय हमेशा उसे शत्रु नज़र आता है. इस सन्दर्भ में रोमिला थापर की यह किताब बहुत ही सहज और सरल भाषा में बताती है कि इतिहास क्या है और एजेंडे के तहत की गई कल्पना क्या है. इस किताब को अनिवार्य रूप से पढ़ा जाना चाहिए.
![]() फ़रीद ख़ाँ मुंबई में रहते हैं और टीवी तथा सिनेमा के लिए पट कथाएं आदि लिखते हैं. ‘गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’ (कविता-संग्रह); ‘मास्टर शॉट’ (कहानी-संग्रह); ‘अपनों के बीच अजनबी’ (कथेतर गद्य) आदि प्रकाशित. kfaridbaba@gmail.com
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संजय कुंदन ने इस किताब का अनुवाद करके महत्वपूर्ण कार्य किया है। इतिहास के नाम पर आजकल जो तमाशा चल रहा है, उसके बीच यह किताब इतिहास को पढ़ने के लिए एक दृष्टि देती है। फ़रीद ख़ाँ ने अच्छी समीक्षा की है।
फरीद खां की यह समीक्षा किताब के प्रति उत्सुकता जगाती है.सफ़ेद और स्याह के खाके से इतिहास को देखना एक बड़ी गफलत पैदा करता है.अतीत का महिमामंडन और खंडन दोनों स्थितियां वर्तमान के लिए घातक है.एक मुश्किल समय में एक जरुरी किताब से परिचित कराने के लिए फरीद भाई का आभार.