ओम निश्चल
भारत जैसे देश के लिए यह महान राष्ट्रीय पर्व है. हमारी लोकतांत्रिक उपलब्धियों का उत्सव है, भौतिक,सामरिक, सामाजिक,सांस्कृतिक और आर्थिक उपलब्धियों का उत्सव है. याद आते हैं वे दिन जब विद्यालयों में पढते हुए हम गणतंत्र दिवस या पंद्रह अगस्त मनाया करते थे. कागज पर तिरंगा बनाते हुए और उसे बांस की टहनियों पर फहरा कर चलते हुए एक रोमांच होता था. तब दूरदर्शन और टीवी चैनल न थे. इंडिया गेट से राष्ट्रपति तक गुजरने वाली रंग बिरंगी झांकियां नहीं देखी जा सकती थीं. पर अब सब कुछ बदल गया है. तकनीकी क्रांति और वैज्ञानिक अनुसंधानों ने देश का नक्शा बदल दिया है. देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हुआ है. भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. हर नागरिक सच्चे मायने में आजाद है,यह वह अनुभव करता है. आज जब अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने वाली कट्टरतावादी ताकतें दुनिया-भर में मौजूद हैं, हमारा संविधान इसका पक्षधर है. कमजोर और पिछड़े वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए संविधान कटिबद्ध है. देखकर आश्वस्ति होती है कि एक समावेशी समाज बनाने के लिए हमारे महापुरुषों ने कितना श्रम किया है.
परहममें से कितने लोग गणतंत्र दिवस के सही मायने समझते हैं. कदाचित् यही कि देश की आजादी के लिए हमारे नेताओं और राष्ट्रभक्त वीरों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी. पर आजादी के फलस्वरूप गणतंत्र का जो गौरव – बोध हमारे भीतर होना चाहिए था क्या उस गौरव का अहसास हमें होता है. कथाकार चित्रा मुदगल 66वें गणतंत्र पर अपने अहसासात व्यक्त करते हुए कहती हैं, \”हम नई उम्मीदों और सपनों से भरे हैं, लेकिन सही अर्थों में हमें गणतंत्र अभी नहीं मिला है. नई सरकार ने हमारी नई पीढ़ी के चेतनासंपन्न सुदृढ़ कंधों पर भरोसा जताया है, ये अच्छी बात है, क्योंकि अब तक नई पीढ़ी को प्राय: अनुभवहीन पीढ़ी के रूप में ही देखा जाता रहा है किंतु कुछ ऐसे ठोस कदम किसानों के लिए उठाए जाने चाहिए कि वे अपने गले में फॉंसी का फंदा लगाने पर विवश न हों. किसानों की ज़मीन अधिग्रहण करने से पहले यह सोचा जाना चाहिए कि उसके बदले उनके लिए क्या बेहतर विकल्प हम दे रहे हैं.\”
आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी गणतंत्र की ताकत और लोकतंत्र की मजबूत परंपरा को लेकर आशावादी दिखते हैं. उनका कहना है कि \”यह भारत का सौभाग्य है कि इसके प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू हुए जो इतिहास के विद्वान थे, जिन्होंने ‘भारत: एक खोज’ जैसी पुस्तक लिखी. उनकी आंखों में सपना था समाजवाद व सेक्यूलरिज्म के सिद्धांतों पर आधारित शासन का. दूसरे सबसे बड़ी बात यह कि हमने अपने यहां लोकतंत्र को सुरक्षित रखा है जो कि दुनिया के तमाम मुल्कों में नहीं है.\”जहां वे इस दौरान दलित चेतना नारी चेतना बैंकों के राष्ट्रीयकरण, आणविक शक्ति के विकास व खाद्यान्न निर्भरता को सराहते हैं वहीं उन ताकतों की आलोचना करते हैं जो रूढिवादी व अतीतजीवी हैं तथा वैज्ञानिकता व वैचारिकता का विरोध करती हैं. वे कहते हैं , \”इसमें कोई शक नहीं कि देश आगे बढ रहा है पर आज वित्तीय पूंजी व नव साम्राज्यवाद का सबसे बड़ा खतरा हमारी संस्कृति व भाषाओं पर पड रहा है. आधुनिकता को लेकर हमारी धारणा बहुत भ्रामक है. आधुनिक रूस भी है, जापान भी, अमेरिका भी; पर क्या वे अपना स्वत्व भूल चुके हैं. अपनी परंपराएं भूल चुके हैं, राष्ट्रीय अस्मिता भूल चुके हैं. हम देशकाल से संपन्न राष्ट्र हैं, हमारी सांस्कृतिक विरासत है, हमारी औषधियां, जीवन पद्धति, सहिष्णुता अन्यत्र अलभ्य हैं.या जरूरत इस बात की है कि आज आकाश भूमि जल व अग्नि पर पूंजीवाद का आघात गहरा हो रहा है, वर्तमान पीढी को पूरी सक्रियता से इसकी चिंता करनी चाहिए. क्योंकि सक्रियता ही सबसे बड़ा मूलमंत्र है.\”
गणतंत्र का अर्थ केवल अतीत के गौरव को स्मरण करना नहीं बल्कि संविधानप्रदत्त अधिकारों के उपभोग के साथ साथ नागरिकता के दायित्व से जुड़ना है. आजादी से अब तक की यात्रा में देश कई मामलों में खुशहाल हुआ है. आम आदमी के जीवन व रहन सहन में बेहतरी आई है. गांवों तक पक्की सड़कें और बिजली पहुंच चुकी है. बहुत कुछ हुआ है और बहुत कुछ होना बाकी है. गणतंत्र दिवस की जो तस्वीर दिल्ली में इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक गुजरने वाली झांकियो में नजर आती है क्या वह तस्वीर पूरे देश की है. क्या ये झांकियां हमारे संकल्पों प्रतिश्रुतियों व हमारी उपलब्धियों का साक्ष्य हैं. क्याइन झांकियों के बीच क्या वह चेहरा झांकता है जो कहीं देश के उपेक्षित इलाके में भूख की लड़ाई लड़ रहा है? वे बच्चे कहीं इन झांकियों में नजर आते हैं जो किसी होटल पर बर्तन धो रहे हैं,या बारूद और पटाखे बनाते हुए अपनी जान गँवा रहे हैं ?कभी कविवर उमाकांत मालवीय ने कहा था,जिन्हें नसीब न हल्दी उबटन हाथो की अठखेलियां/ फैली हुई हथेलियां. कलम किताब कापियों वाली एक हथेली कोरी/ उसे थमा दी अलमुनियम की पिचकी हुई कटोरी/ भिखमंगन बन डोलें शहजादो की परी सहेलियां/ फैली हुई हथेलियां. लेकिन केवल नौनिहालों की ही नहीं, इस देश की अकिंचन जनता के भी हालात कोई बहुत बेहतर नहीं हैं.
कवि नरेश सक्सेना कहते हैं, \”आजादी के 67 साल बाद भी जिस देश में आधे बच्चे कुपोषित हैं, लाखों बच्चे मानसिक रूप से अक्षम व विकलांग हैं व अंधे हैं, कितने बिना इलाज के मर जाते हैं, बच गए तो उन्हें तालीम नहीं मिलती. तालीम मिलती भी है तो बरावरी वाली तालीम नहीं मिलती. दून स्कूल में एक बच्चे पर एक लाख सालाना खर्च होता है तो कुछ बच्चों पर महज 10000, और कुछ पर तो कुछ भी नहीं . दिल्ली में तो नर्सरी में ही एक बच्चे पर 4 लाख सालाना खर्च आता है. संविधान सबको समानता की गारंटी देता है पर देखिए कि इस देश में 8 करोड़ बच्चे आज भी कुपोषित हैें बच्चे भूखे व मानसिक रूप से अक्षम हैं, बच्चे भूखे हैं तो जाहिर है उनकी मांएं भी भूखी हैं. 50 फीसदी महिलाएं हीमोग्लोबिन की कमी से पीड़ित हैं. इससे बड़ी चिंता यह कि प्रधान मंत्री लाल किले पर भी बोले, कितनी कितनी बार बोले, पर अपने भाषण में भूखे बच्चों के भोजन व तालीम की कोई बात नहीं की.\”
आज भारत को सार्वभौम गणतंत्र हुए 66 साल हो गए. कितनी परियोजनाएं आईं और गयीं. विकास के कितने शिखर बने और कितने ढहे. समाजसेवा सियासत के तालाब में लिथड़ कर मैली हो गयी. उसके संकल्प और प्रतिश्रुतियां धरी रह गयीं. गैर सरकारी संगठन कमाई और अनुदान पचाने के संसाधन और स्रोतों में बदल गए. साधन और साध्य की पवित्र संकल्पना कहीं बिला गयी. एक ऐसे गणतंत्र की छत्रछाया में आज हम हैं जहां हर तरफ कट्टरता का बोलबाला है. हिंदू कट्टरता-मुस्लिम कट्टरता. धार्मिक आतंकवाद. जातीय विद्वेष,धर्म परिवर्तन किंवा घर वापसी अभियान,आदमी आदमी को बांटने की मुहिम जारी है. धार्मिक सहिष्णुता का पाठ अवश्य हर धर्म में पढाया जाता है. किन्तु आचरण में इस सहिष्णुता का कितना अंश उतर पाता है,कहना कठिन है.
कैसा है हमारा गणतंत्र पूछने पर साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष एवं सुपरिचत लेखक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कहते हैं, \”पीछे मुड़कर देखता हूँ तो भारतीय गणतंत्र को देखकर संतोष किया जा सकता है. बदलाव हर क्षेत्र में हुआ, मगर उसकी गति धीमी रही. विकास की गति भी धीमी रही. ख़ुशी इस बात की है कि लोकतंत्र की जड़ें देश में बहुत गहरी हैं. बीच में आपातकाल से एक झटका लगा था परंतु फिर से हमारा लोकतंत्र पटरी पर आ गया. तमाम देश जो हमारे साथ आज़ाद हुए, जिनकी स्वाधीनता ख़तरे में पड़ गई और वहॉं तानाशाही व्यवस्थाएं लागू हो गईं, उन्हें देखते हुए हम अपने गणतंत्र पर संतोष कर सकते हैं.\” देश में तमाम क्षेत्रों में बुनियादी संसाधनों का अभूतपूर्व विकास हुआ. भले ही देर से,पर हमारे देश ने भी तकनीकी तरक्की की है. हम तकनीक के शिखर पर हैं. सिलीकोन वैली से लेकर दुनिया के तमाम मुल्कों में यहां के नौजवान और तकनीकयाफ्ता लोग कार्यरत हैं. पर आज भी इस मुल्क में पिछड़े गरीब यतीम और खुली सड़क पर ठिठुरती ठंड में रात बिताने वालों की संख्या कम नही है. ऐसे गरीब, पिछड़े यतीम और अकिंचन लोगों के चेहरे गणतंत्र दिवस की परेड में नजर नही आते. वे झांकियों के ऐश्वर्य पर थिगड़े की तरह हैं. वे शोभा बढ़ाने के लिए नहीं,श्रम और पसीना बहाने के काम आते हैं. देखते देखते हमारा गणतंत्र अधेड़ हो गया. पर इस गणतंत्र से हमें क्या मिला, इस सवाल पर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कहते हैं, \”जैसा कि मैंने कहा, विकास की गति धीमी है तो इसलिए कि भारत के किसानों पर ध्यान नहीं दिया गया. हिंद स्वराज में गांधी जी ने भारतीय किसानों के प्रति गहरा विश्वास व्यक्त किया था. आज़ादी के बाद की सरकारों में इसे मुख्य धारा में लाने की कोशिश नहीं की. इस देश के किसान सभ्यता, संस्कृति और विकास की रीढ़ हैं. आज भी जो भूमि अधिग्रहण का मुद्दा चल रहा है, वह किसानों के हित में नहीं है. इसलिए हमारा गणतंत्र तभी पुष्ट माना जाएगा, जब गण का विकास हो.\”
एक दौर था राष्ट्रीयकरण का जज्बा देश में था. आज सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम और सरकारी नियंत्रण् से चलने वाले संस्थान रुग्णता का शिकार हो रहे हैं. विनिवेश के जरिए उनके निजीकरण का रास्ता प्रशस्त किया जा रहा है . बैंकों का राष्ट्रीयकरण इस उद्देश्य से किया गया था कि बैंक देश की आर्थिक प्रगति के नियामक बनें. बैंकों के जरिए गांवों से लेकर शहर तक विकास की आबोहवा तो बदली किन्तु बहुत जल्दी ही सरकारी ऋण लेकर उसे न चुकाने वालों और सरकारी पैसे पर ऐश करने वालों की तादाद भी बढ़ती गयी. किसानों को मामूली ब्याज पर ऋण देने की सरकार की उदार संकल्पना का भी कोई बहुत लाभ नही हुआ. क्योंकि ज्यादातर पैसा बिचौलियों की भेंट चढ़ जाता था. आज तकनीकी आर्थिक और औद्योगिक तरक्की के बावजूद हमारे निर्यात-व्यापार की कमर ढीली है. चीन जैसी अर्थ व्यवस्थाओं ने पूरी दुनिया को चुनौती दी है. वह आज सुई से लेकर बड़ी से बड़ी चीजें सस्ते दामों और विश्वसनीय गुणवत्ता के साथ बना और बेच रहा है. हम चीन जैसी शक्तियों को लेकर आलोचना का रुख भले अपनाएं किन्तु कहीं न कहीं हमारी योजनाओं में ऐसी कमी रही कि हम इस मामले में पिछड़े बने रहे. मंहगाई से त्रस्त चित्रा मुदगल कहती हैं, \”आज एक तरफ मारक और अनियंत्रित होती महंगाई है, दूसरी तरफ हमारे सपने हैं. आधी आबादी की सुरक्षा भी चिंता का विषय है. मेरी दृष्टि में जब तक स्त्रियों को समता, शिक्षा, स्वावलंबनऔर स्वाधार से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक स्त्रियों के हालात नहीं बदल सकते. यदि वे आत्मनिर्भर बनकर भी कहीं अकेले में आ-जा नहीं सकतीं तो इस बहुप्रचारित सशक्तीकरण का क्या फायदा?’’
हमने आजादी और गणतंत्र के वैभव का गान बहुत किया है. देखते देखते आजादी के तराने अप्रासंगिक हो गए. वे केवल इसी दिन याद आते हैं. गणतंत्र दिवस के भव्य परेड में हमारे सम्मुख भले ही देश का सामरिक ओद्योगिक सांस्कृतिक आर्थिक विकास बेहतर नजर आता हो, कहीं न कहीं देश का हर आम आदमी बदहाली से परेशान है. हर हाथ मे मोबाइल होने का अर्थ विकास के पैरामीटर पर विकसित होना नही है. आज भी हर आदमी की प्रतिव्यक्ति आय बहुत ही दयनीय है तथा विकसित देशों के मुकाबले बहुत कम है. आज भी विदर्भ के किसान आत्महत्या करने को विवश हैं. आज भी आदिवासियों को नक्सली करार देकर उनका दमन किया जाता है. नक्सल समस्या को हमने शासन की चाबुक से दूर करने की राह अपनाई जिसके दुष्परिणामों से हम आए दिन गुजरते हैं. कभी सुपरिचित साहित्यकार अज्ञेय ने लिखा था : \”मिला बहुत कुछ : सब बेपेंदी का. शिक्षा मिली;उसकी नींव,भाषा,नहीं मिली. आजादी मिली,उसकी नींव आत्म गौरव नहीं मिला. राष्ट्रीयता मिली,उसकी नींव अपनी ऐतिहासिक पहचान नहीं मिली. यानी आजादी में जन्में,पले मुझको—आजादी के आदि पुरुष को —चेहरा मिला,व्यक्तित्व नहींमिला. ओर विना व्यक्तित्व के चेहरा क्या होता है? स्पष्ट है –वह फ़कत चेहरा होता है. पहन लो,उतार लो, उस पर अलकतरा पोत दो,चूना लगा दो—और यही सब तो हम कर रहे हैं—हर कोई कर रहा है.\’\’ चित्रा जी कहती हैं सरकार आदिवासियों को माओवादियों के हवाले न करके उनके असंतोष को पहचाने और उनका समाधान करे. विकास का अर्थ यह नही है कि गली गली राजनीतिक गुंडो के कटआउट लगें बल्कि होना तो यह चाहिए कि गलियों व सड़कों के नाम दार्शनिकों चिंतकों व लेखकों के नाम पर क्यों न रखे जाएं और राज्यों के हवाई अड्डों के नाम वहां के लेखकों पर क्यों न हों.
अज्ञेय ने हमारे राष्ट्रचिह्न यानी सारनाथ की सिंहत्रयी पर भी टिप्पणी की है. वे कहते हैं, ‘कभी सिंहत्रयी के ऊपर धर्मचक्र भी था—पर वह प्रतीकपूजा भर थी न,तभी तो धर्मचक्र टूट कर गिर गया और पीठिका की सिंहत्रयी भर राष्ट्र का नया गौरव चिह्न बन गयी! \’सत्यमेव जयते\’ —-हां जरूर,लेकिन किस अर्थ में सत्य जयी होता है,इसे जो ठीक ठीक देखते वे इस वाक्य की मुहर लाल फीते पर लगाते हुए थोड़ा तो हिचकते.‘’एक वक्त गांधीवादी आदर्शों के अनुगायक रामराज का सपना देखा करते थे. पर कविवर केदारनाथ अग्रवाल ने बहुत पहले ही एक कविता लिख कर इसे खारिज कर दिया था: आग लगे इस रामराज में/ ढोलक मढ़ती है अमीर की/ चमड़ी बजती है गरीब की. खून बहा है रामराज में/ आग लगे इस राम राज में. कहना न होगा कि रामराज भले उन अर्थों में कभी न आया हो,सियासत में राम नाम का दबदबा कायम रहा है. किन्तु कानून व्यवस्था जस की तस है.
चित्रा मुदगल कहती हैं, \”आज निरंतर लचर होती कानून व्यवस्था और भोगवादी जीवन शैली की मुखरता के बीच गलियों, चौराहों में कितने सीसी टीवी लगा लो, वे हिंसा रोक पाने में कामयाब न होंगे. इसलिए कोशिश हो कि विद्यार्थी रोबोट बनकर न रह जाएं. विदेशी असर में आप भले ही शहरों को शंघाई बनाने का दावा करें पर जब तक पाश्चात्य संस्कृति की नकल हम करते रहेंगे सेंसर बोर्ड विदेशी फिल्मों के मद्देनजर फिल्मों को सर्टिफिकेट देता रहेगा, तब तक अपसंस्कृति पर हम अंकुश नहीं लगा सकते. वे कहती हैं, बिल्डर्स लाँवी ने हमारे देश में एक विदेश रोप दिया है. नई सरकार ने स्वच्छता अभियान का नारा दिया है पर चुनाव के पहले ही मेट्रो के पिलर सत्तारूढ दल के पोस्टरों से पट गए हैं. यह कैसा स्वच्छता अभियान है. सरकार के स्वच्छता मिशन पर सवाल उठाते हुए नरेश सक्सेना कहते हैं, \”गंगा की सफाई पहले क्यों, यमुना की क्यों नहीं, जो अपना मैला गंगा में गिराती है, उसमें में भी जो मैला बेतवा और चंबल जैसी छोटी नदियों से बह कर आता है, उनकी सफाई उससे भी पहले क्यों नहीं. तो हमारे प्रधान मंत्री का ध्यान छोटी-छोटी बातों पर नहीं है, उनका ध्यान ओबामा पर है, ब्रिटेन व आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों पर है. वे अपने बच्चों की चिंता करेंगे आपके बच्चो की चिंता उन्हें क्योंकर होगी. विडंबना है कि इस देश की राजधानी दिल्ली में चलती गाड़ियों में बलात्कार होता है, हर साल लाखों बच्चे गायब होते हैं. जिस गणतंत्र की फलश्रुति यह हो उसे क्या कहा जाए.\”
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