अरविन्द कुमार के व्यंग्य लेखन ने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ध्यान खींचा है. उनका पहला व्यंग्य संग्रह- ‘राजनीतिक किराना स्टोर’ शीघ्र प्रकाश्य है.
अगर मैं भैंस, तो बाकी सब क्या
अरविन्द कुमार
हमारे स्कूल में एक मास्टर साहब हुआ करते थे. साइंस मास्टर. वैसे तो वे साइंस पढ़ाते थे, पर उनके व्यक्तित्व को देख कर यह बिलकुल नहीं लगता था कि विज्ञान से उनका कोई दूर दूर तक कोई रिश्ता है. वे विज्ञानी कम और महंत ज्यादा लगते थे. बालों के बीच बड़ी सी चुड़की. गले में रुद्राक्ष की माला. माथे पर त्रिपुंड छाप तिलक. और हाँथ की दसों उँगलियों में पत्थर जड़ित अंगूठी.
वे घोर अन्धविश्वासी थे. भूत-प्रेत, आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास करते थे. और बिना पंचांग देखे अपना कोई काम नहीं करते थे. वे जब भी हमारे सामने पड़ते या हमें क्लास में पढ़ाने आते, तो हम सारे खुराफाती छात्र विज्ञान की गुत्थियों को समझने और सुलझाने में दिमाग खपाने के बजाय इस गुत्थी को सुलझाने में जुट जाते थे कि जब इन्होंने अपनी दसों उँगलियों में अंगूठी पहन रखी है, तो सुबह-शाम निवृत होने के बाद ये पवित्र कैसे होते होंगे? और यह कि क्या ये अपनी सारी नित्य क्रियाएं, जिनमें पत्नी के साथ का अन्तरंग सानिद्ध्य भी शामिल था, पंचांग देख कर ही करते हैं? मास्टर साहब बड़े थे और हम छोटे. वे गुरू थे और हम शिष्य. इस पर तुर्रा यह कि वे दुर्वासा ऋषि की तरह क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा प्रकृति और प्रवृत्ति के व्यक्ति थे. इसीलिये निवृत होकर पवित्र होने और पंचांग वाली गुत्थी आज भी हमारे लिए वारामूडा ट्रेंगल के रहस्य की तरह एक रहस्य ही बनी हुयी है.
मास्टर साहब की एक ख़ास आदत थी. वे चाहे गुस्से में हों या खुश, कभी भी हमें हमारे नाम से नहीं, अपने द्वारा दिए गए किसी न किसी जानवर के नाम से पुकारते थे. किसी को गधा. किसी को कुत्ता. किसी को बिल्ली. किसी को सूअर. किसी को बकरी. और किसी को बन्दर. मुझे तो वे भैंस कह कर पुकारते थे. हालांकि न तो मैं मोटा था और न ही काला. और दूध देने का तो सवाल ही नहीं उठता था. इसी तरह कुत्ता, बिल्ली, सूअर, बकरी, मगरमच्छ और भालू आदि भी कहीं से भी वो नहीं लगते थे, जिस नाम से मास्टर साहब उनको पुकारा करते थे.
हम समझ नहीं पाते थे कि ऐसा करके वे जानवरों का मान बढ़ाते थे या कि हमें ज़लील करते थे. पर इस बात से हम किलसते ज़रूर थे. लेकिन इसका भी उनके पास एक विचित्र सा तर्क था. वे कहा करते थे कि विज्ञान तो कहता है कि हम सब बंदरों या चिम्पैंजियों की संतान हैं. पर चौरासी लाख योनिओं के सिद्धांत के अनुसार हमारे इस जन्म में भी पिछले जन्म का बहुत ज्यादा असर मौजूद रहता है, जो गौर से देखने पर साफ़-साफ़ पता चलता है. इसलिए वे हमारे हाव-भाव और बात-व्यवहार को देख कर फ़ौरन समझ जाते हैं कि अपने पिछले जन्म में हम क्या थे? तो क्या मैं पिछले जन्म में भैंस था? और क्या इस जन्म में मेरे हाव-भाव और बात-व्यवहार से ऐसा ही प्रतीत होता है?
मैंने सोचा. मुझे बहुत बुरा लगा. मैं दुखी हो गया. और रोने लगा. रोते-रोते अम्मा के पास गया. और उनको अपने रोने का कारण बताया. अम्मा ने सुना, तो हंसने लगीं—“तो इसमें रोने की क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मास्टर साहब ने तुमको भैंस कहा है. गधा, सूअर या कुत्ता नहीं.”
“पर क्या मैं भैंस की तरह भद्दा लगता हूँ?”
“नहीं बेटा, तुम तो दुनिया में सबसे सुन्दर हो.”
“तो फिर?”
“भैंस बहुत अच्छी होती है. गाय की बहन. गाय की तरह वह भी हमें दूध देती है. हमें पालती है. अगर गाय हमारी माँ है, तो भैंस हमारी मौसी.”
“पर हम लोग तो गाय की पूजा करते हैं. भैंस की पूजा क्यों नहीं करते? गाय का गोबर तो बहुत पवित्र माना जाता है, भैंस का क्यों नहीं माना जाता? गोमूत्र तो पंचामृत और न जाने कितनी दवाइयों में डाला जाता है, पर भैंस का क्यों नहीं? और तो और लोग-बाग़ तो हमेशा गौ रक्षा-गौ रक्षा की बातें करते हैं, पर भैंस रक्षा की बातें कोई क्यों नहीं करता? क्या जानवरों के बीच भी कोई वर्ण या जाति व्यवस्था लागू होती है?”
“बेटा, मैं यह सब नहीं जानती. यह सब धर्म और राजनीति की बड़ी और ऊंची बाते हैं. मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ कि जिस तरह गाय हमारे लिए ज़रूरी है, उसी तरह से भैंस भी ज़रूरी है.”
“पर माँ, लोग भैंस को लेकर मजाक उड़ाते हैं. उस पर मुहावरे छोड़ते हैं. जैसे-‘भैंस के आगे बीन बजायो, भैंस रही पगुराय’, ‘गयी भैंसिया पानी में’ और ‘मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा’ आदि-आदि.”
“पता नहीं. हो सकता है कि चूंकि भैंस सीधी होती है. नाजुक होती है. ज्यादा डिमांडिंग नहीं होती. और ढेर सारा दूध देती है. इसीलिये.”
“पर माँ…”
“पर वर छोड़ो. और अपने मास्टर साहब की तरह मौज लेना सीखो. हर आदमी के हाव-भाव और बात-व्यवहार को देख कर मन ही मन सोचो कि अपने पिछले जन्म में वह कौन सा जानवर था? कल्पना करो और मजे लो.”
माँ की आज्ञानुसार मैं आज भी लोगों के चेहरे-मोहरे, बोल-चाल और कथनी-करनी को बहुत ही गौर से देखता हूँ. उनका विश्लेषण करता हूँ. और कल्पना के घोड़ों को बेलगाम छोड़ कर अंदाज़ा लगाता हूँ कि वे लोग अपने पिछले जन्म में कौन से जानवर रहे होंगे? बड़ा मज़ा आता है.
आप भी यही कीजिये. अपने आस-पास देखिये. और सोचिये कि फलां भ्रष्ट अधिकारी कैसा लगता है? पैसे लेकर प्रैक्टिकल में अच्छे नंबर दिलवाने वाला मास्टर किस जानवर की तरह दीखता है? अखबार में छपी किसी चोर, डकैत, डाकू और बलात्कारी की शक्ल को देख कर आपको किस जानवर का ख्याल आता है? बलात्कार की रिपोर्ट न लिखने वाला थानेदार या फिर बलात्कार के मामलों में बलात्कारी टाईप का बयान देने वाले नेता, मंत्री और अधिकारी की शक्ल आपको किस जानवर से मिलती जुलती प्रतीत होती है? टीवी का कोई बिका हुआ एंकर और जनता को बेवक़ूफ़ बना कर और उनके बीच फूट डाल कर सत्ता हथियाने वाले वोट खाऊ नेताओं की शक्ल से आपको किस-किस जानवर की याद आती है? खूब कल्पना कीजिये. और खूब मज़े लीजिये.
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tkarvind@yahoo.com
हमारे स्कूल में एक मास्टर साहब हुआ करते थे. साइंस मास्टर. वैसे तो वे साइंस पढ़ाते थे, पर उनके व्यक्तित्व को देख कर यह बिलकुल नहीं लगता था कि विज्ञान से उनका कोई दूर दूर तक कोई रिश्ता है. वे विज्ञानी कम और महंत ज्यादा लगते थे. बालों के बीच बड़ी सी चुड़की. गले में रुद्राक्ष की माला. माथे पर त्रिपुंड छाप तिलक. और हाँथ की दसों उँगलियों में पत्थर जड़ित अंगूठी.
वे घोर अन्धविश्वासी थे. भूत-प्रेत, आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास करते थे. और बिना पंचांग देखे अपना कोई काम नहीं करते थे. वे जब भी हमारे सामने पड़ते या हमें क्लास में पढ़ाने आते, तो हम सारे खुराफाती छात्र विज्ञान की गुत्थियों को समझने और सुलझाने में दिमाग खपाने के बजाय इस गुत्थी को सुलझाने में जुट जाते थे कि जब इन्होंने अपनी दसों उँगलियों में अंगूठी पहन रखी है, तो सुबह-शाम निवृत होने के बाद ये पवित्र कैसे होते होंगे? और यह कि क्या ये अपनी सारी नित्य क्रियाएं, जिनमें पत्नी के साथ का अन्तरंग सानिद्ध्य भी शामिल था, पंचांग देख कर ही करते हैं? मास्टर साहब बड़े थे और हम छोटे. वे गुरू थे और हम शिष्य. इस पर तुर्रा यह कि वे दुर्वासा ऋषि की तरह क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा प्रकृति और प्रवृत्ति के व्यक्ति थे. इसीलिये निवृत होकर पवित्र होने और पंचांग वाली गुत्थी आज भी हमारे लिए वारामूडा ट्रेंगल के रहस्य की तरह एक रहस्य ही बनी हुयी है.
मास्टर साहब की एक ख़ास आदत थी. वे चाहे गुस्से में हों या खुश, कभी भी हमें हमारे नाम से नहीं, अपने द्वारा दिए गए किसी न किसी जानवर के नाम से पुकारते थे. किसी को गधा. किसी को कुत्ता. किसी को बिल्ली. किसी को सूअर. किसी को बकरी. और किसी को बन्दर. मुझे तो वे भैंस कह कर पुकारते थे. हालांकि न तो मैं मोटा था और न ही काला. और दूध देने का तो सवाल ही नहीं उठता था. इसी तरह कुत्ता, बिल्ली, सूअर, बकरी, मगरमच्छ और भालू आदि भी कहीं से भी वो नहीं लगते थे, जिस नाम से मास्टर साहब उनको पुकारा करते थे.
हम समझ नहीं पाते थे कि ऐसा करके वे जानवरों का मान बढ़ाते थे या कि हमें ज़लील करते थे. पर इस बात से हम किलसते ज़रूर थे. लेकिन इसका भी उनके पास एक विचित्र सा तर्क था. वे कहा करते थे कि विज्ञान तो कहता है कि हम सब बंदरों या चिम्पैंजियों की संतान हैं. पर चौरासी लाख योनिओं के सिद्धांत के अनुसार हमारे इस जन्म में भी पिछले जन्म का बहुत ज्यादा असर मौजूद रहता है, जो गौर से देखने पर साफ़-साफ़ पता चलता है. इसलिए वे हमारे हाव-भाव और बात-व्यवहार को देख कर फ़ौरन समझ जाते हैं कि अपने पिछले जन्म में हम क्या थे? तो क्या मैं पिछले जन्म में भैंस था? और क्या इस जन्म में मेरे हाव-भाव और बात-व्यवहार से ऐसा ही प्रतीत होता है?
मैंने सोचा. मुझे बहुत बुरा लगा. मैं दुखी हो गया. और रोने लगा. रोते-रोते अम्मा के पास गया. और उनको अपने रोने का कारण बताया. अम्मा ने सुना, तो हंसने लगीं—“तो इसमें रोने की क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मास्टर साहब ने तुमको भैंस कहा है. गधा, सूअर या कुत्ता नहीं.”
“पर क्या मैं भैंस की तरह भद्दा लगता हूँ?”
“नहीं बेटा, तुम तो दुनिया में सबसे सुन्दर हो.”
“तो फिर?”
“भैंस बहुत अच्छी होती है. गाय की बहन. गाय की तरह वह भी हमें दूध देती है. हमें पालती है. अगर गाय हमारी माँ है, तो भैंस हमारी मौसी.”
“पर हम लोग तो गाय की पूजा करते हैं. भैंस की पूजा क्यों नहीं करते? गाय का गोबर तो बहुत पवित्र माना जाता है, भैंस का क्यों नहीं माना जाता? गोमूत्र तो पंचामृत और न जाने कितनी दवाइयों में डाला जाता है, पर भैंस का क्यों नहीं? और तो और लोग-बाग़ तो हमेशा गौ रक्षा-गौ रक्षा की बातें करते हैं, पर भैंस रक्षा की बातें कोई क्यों नहीं करता? क्या जानवरों के बीच भी कोई वर्ण या जाति व्यवस्था लागू होती है?”
“बेटा, मैं यह सब नहीं जानती. यह सब धर्म और राजनीति की बड़ी और ऊंची बाते हैं. मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ कि जिस तरह गाय हमारे लिए ज़रूरी है, उसी तरह से भैंस भी ज़रूरी है.”
“पर माँ, लोग भैंस को लेकर मजाक उड़ाते हैं. उस पर मुहावरे छोड़ते हैं. जैसे-‘भैंस के आगे बीन बजायो, भैंस रही पगुराय’, ‘गयी भैंसिया पानी में’ और ‘मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा’ आदि-आदि.”
“पता नहीं. हो सकता है कि चूंकि भैंस सीधी होती है. नाजुक होती है. ज्यादा डिमांडिंग नहीं होती. और ढेर सारा दूध देती है. इसीलिये.”
“पर माँ…”
“पर वर छोड़ो. और अपने मास्टर साहब की तरह मौज लेना सीखो. हर आदमी के हाव-भाव और बात-व्यवहार को देख कर मन ही मन सोचो कि अपने पिछले जन्म में वह कौन सा जानवर था? कल्पना करो और मजे लो.”
माँ की आज्ञानुसार मैं आज भी लोगों के चेहरे-मोहरे, बोल-चाल और कथनी-करनी को बहुत ही गौर से देखता हूँ. उनका विश्लेषण करता हूँ. और कल्पना के घोड़ों को बेलगाम छोड़ कर अंदाज़ा लगाता हूँ कि वे लोग अपने पिछले जन्म में कौन से जानवर रहे होंगे? बड़ा मज़ा आता है.
आप भी यही कीजिये. अपने आस-पास देखिये. और सोचिये कि फलां भ्रष्ट अधिकारी कैसा लगता है? पैसे लेकर प्रैक्टिकल में अच्छे नंबर दिलवाने वाला मास्टर किस जानवर की तरह दीखता है? अखबार में छपी किसी चोर, डकैत, डाकू और बलात्कारी की शक्ल को देख कर आपको किस जानवर का ख्याल आता है? बलात्कार की रिपोर्ट न लिखने वाला थानेदार या फिर बलात्कार के मामलों में बलात्कारी टाईप का बयान देने वाले नेता, मंत्री और अधिकारी की शक्ल आपको किस जानवर से मिलती जुलती प्रतीत होती है? टीवी का कोई बिका हुआ एंकर और जनता को बेवक़ूफ़ बना कर और उनके बीच फूट डाल कर सत्ता हथियाने वाले वोट खाऊ नेताओं की शक्ल से आपको किस-किस जानवर की याद आती है? खूब कल्पना कीजिये. और खूब मज़े लीजिये.
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tkarvind@yahoo.com