सदाशिव श्रोत्रिय
मुझे अफ़सोस है कि मैं यह लेख दूधनाथ सिंह जी के जीवनकाल में नहीं लिख पाया. मुझे हमेशा यह महसूस होता रहा कि दूधनाथ जी की काव्य-उपलब्धियों पर जितनी चर्चा होनी चाहिए उतनी शायद हुई नहीं. उनकी कुछ कविताएँ मुझे सचमुच बेजोड़ लगती हैं.
दूधनाथ जी से मेरा सम्बन्ध मोटे तौर पर लेखक-पाठक का ही रहा. धर्मयुग में 1964 में प्रकाशित उनकी एक कविता \’युवा खुशबू\’ की कतरन ( clipping) को मैं लम्बे समय तक अपने पास सम्हाल कर रखे रहा. मैं जब भी उनसे पूछता कि वह कविता उनके किस संग्रह में है तो वे उनके 1977 में प्रकाशित उनके काव्य-संग्रह एक और भी आदमी है का नाम लेते थे. पर जब कई वर्षों बाद उसमें भी न पाकर वह कविता मैंने उनके पास भेजी तो वे कहने लगे कि यदि यह बात मैंने उन्हें न बताई होती तो वे उसे किसी अन्य कवि की ही एक उत्कृष्ट प्रेम कविता समझते. उनके रचना-चयन \”अपनी शताब्दी के नाम\” में संकलित है. \’हख् मेरी धरती \’ को भी मैं एक अद्भुत काव्य-रचना पाता हूँ. यही बात मैं उनके काव्य-संग्रह एक और भी आदमी है की तैमूरलंग, कृष्णकान्त की खोज में दिल्ली यात्रा तथा युवा खुशबू और अन्य रचनाएँ में संकलित युवा खुशबू , नौहा, संगम पर गंगा, प्रजाकाम, आत्मा में ,पूर्वज आदि कई अन्य कविताओं के बारे में भी कह सकता हूँ .
अपने जीवन काल में दूधनाथ सिंह जी की पहली प्रतिबद्धता शायद साहित्य के प्रति ही रही. उनके तमाम जीवनानुभव भी शायद उनके लिए साहित्य-लेखन के लिए आवश्यक कच्चा मसाला बन कर रहे. रचनात्मकता के क्षणों में उनकी स्मृति में संचित ये अनुभव ही उन्हें किसी साहित्यिक रचना के लिए आवश्यक सामग्री उपलब्ध करवाते थे. लगता है कई बार अपने इस अनुभव-संसार को अधिक समृद्ध बनाने के लिए वे स्वयं प्रयत्न करते थे और इसके लिए आवश्यक जोखिम भी उठाते थे.
दूधनाथ सिंह की कविता कृष्णकान्त की खोज में दिल्ली-यात्रा को मैं न सिर्फ़ हमारे समय की बेहतरीन लम्बी कविताओं में गिनता हूं बल्कि इसे हिंदी की एक श्रेष्ठ व्यंग्य काव्य–रचना (satire) के रूप में भी देखता हूँ . यदि एलेग्जेंडर पोप की व्यंग्य-रचना रैप ऑफ द लॉक को अंग्रेज़ी साहित्य में एक महत्वपूर्ण रचना समझा जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि दूधनाथ सिंह की इस रचना का शुमार भी हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट व्यंग्य –रचनाओं में न किया जाए. इस कविता का कोई भी पाठक महसूस कर सकता है कि यह कविता अन्तःप्रेरणा के उस तीव्र आवेग में लिखी गई होगी जो किसी भी काव्य–रचना को एक उम्दा रचना बनाता ह. इस कविता के आरंभ से अंत तक यह रचनात्मक आवेग कहीं शिथिल नहीं होता और इसीलिए कविता की दीर्घता के बावजूद इसकी अन्विति पूरी तरह बनी रहती है. इसका कोई भाग बाद में जोड़ा हुआ नहीं लगता और एक बार शुरू करने के बाद आप जब तक इसके अंत तक नहीं पहुँच जाते आपके मन में इसे पूरी करने की इच्छा बनी रहती है. यह अनुभूति किसी अत्यंत रोचक नाटक को मंच पर देखने जैसी है जिसमें दर्शक नाटक के अंत तक अपनी सीट से नहीं हिलता.
जैसा कि इस कविता के कलेवर और भाषा से प्रकट है यह समूची कविता कवि द्वारा अपने किसी मित्र के प्रति गुस्से के भाव से लिखी गई है. इस कविता में वर्णित कृष्णकान्त कवि का ही कोई ऐसा मित्र लगता है जिसने (कवि के दृष्टिकोण से ) उसके साथ किसी तरह का विश्वासघात किया है .
पाठक जब इस कविता को ध्यान से पढ़ता है तो उसे जल्दी ही इस बात का अनुमान हो जाता है कि इसमें वर्णित कृष्णकांत वास्तव में कौन है क्योंकि उस समय के बहुचर्चित कवि श्रीकांत वर्मा के काव्य-संग्रहों भटका मेघ, दिनारम्भ और मायादर्पण से, जिनका उल्लेख इस कविता में परोक्ष रूप से निम्नांकित पंक्तियों में हुआ है, उस समय का कोई भी काव्य-पाठक अपरिचित नहीं था :
कृष्णकान्त – जो कविता की घाटी में
एक श्यामकर्ण बछेड़े की तरह भटक आया था
जिसका दिनारम्भ चारमीनार के धुएँ से होता था
जो अपने मायादर्पण में घुटता, बुड़बुड़ाता, किटकिटाता था
कृष्णकान्त, जो महिलाओं से क्षमा माँग
सड़क पर नंगा निकल जाता था
…………….
कविता के आरंभ में नॉर्थ एवेन्यू का ज़िक्र भी इस कृष्णकांत की पहचान में मदद करता है क्योंकि श्रीकांत वर्मा का दिल्ली में कुछ समय संसद सदस्या मिनिमाता अगम दास गुरु के नॉर्थ एवेन्यू स्थित फ्लैट में रहते हुए बीता था .
जो लोग श्रीकांत वर्मा के हुलिए से, उनकी कद-काठी से, और उनकी आदतों से परिचित थे उनके लिए भी यह जानना मुश्किल नहीं था कि इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियों में तंज़ किस व्यक्ति पर किया जा रहा है :
चाहे कृष्णकान्त चिंघाड़े भले नहीं
गुर्राता ज़रूर था
झूठ ही सही, पर अपने होने का
उसे कितना ख़ूबसूरत गु़रूर था !
कृष्णकान्त असभ्य था – पर मुझे पसंद था
कृष्णकान्त बौना था – पर कटखौना था
वह सलाम का जवाब न देकर
धुएँ का लम्बा कश् छोड़ता था
लेकिन सामने वाले को जगह-जगह से तोड़ता था .
एक अच्छी व्यंग –रचना के लिए किसी कवि या लेखक का चरित्र-चित्रण में कुशल होना निहायत ज़रूरी है. उसे वर्णित व्यक्ति की ख़ामियों के साथ साथ उसके चरित्र की अन्य रोचक विशेषताओं को देख पाने में भी समर्थ होना चाहिए. व्यंग का पात्र पाठक को विश्वसनीय भी लगना चाहिए ; उसे लगना चाहिए कि हर मनुष्य में अच्छाइयों के साथ कुछ बुराइयाँ भी होती हैं और प्रलोभन व कमज़ोरी के क्षणों में हर आदमी कुछ आलोच्य काम कर सकता है. भावों का वैविध्य भी किसी रचना को एक अच्छी रचना बनाने में रचनाकार की मदद करता है. इस कविता में कवि/पर्सोना का स्वर लम्बे समय तक अपने मित्र के प्रति विश्वास और अविश्वास के बीच झूलता रहता है, और यह इस कविता को काफ़ी नाटकीय बना देता है.
अपने मित्र पर इस व्यंग-कविता के लिए दूधनाथ सिंह एक नकल (mock) यात्रा का रूपाकार (form) चुनते हैं. इसका पर्सोना ग्रामीण परिवेश से आया कोई ऐसा व्यक्ति है जो मैत्री, विश्वसनीयता, आतिथ्य जैसे हमारे पारंपरिक मूल्यों में आस्था रखता है. दिल्ली के नॉर्थ एवेन्यू में रहने वाले अपने एक मित्र से उसके यहाँ टिकने का ठिकाना मिलने का भरोसा पाकर ही शायद वह दुबारा दिल्ली आया है. अपने इस मित्र को पिछली बार दिल्ली की सर्दी में ठिठुरते देख कर वह उसके लिए इस बार गाढ़े की एक नई रज़ाई भी ले कर लाया है जिसे उसने शायद एक लट्ठ से बांध कर अपने कंधे पर टांग लिया है. अपने मित्र को खुश करने के लिए वह उसकी पसंद की चारमीनार सिगरेट का एक पैकेट भी खरीद कर लाया है. पर वह अपने इस दोस्त के यहाँ पहुंचने पर पाता है कि उसका दोस्त बगैर उसे कोई सूचना दिए यह घर छोड़ कहीं अन्यत्र चला गया है :
कुछ दिनों बाद जब दोबारा मैं नॉर्थ एवेन्यू गया
मेरी जेब में चारमीनार का एक पैकेट था
और कंधे पर गाढ़े की नयी रज़ाई थी.
लेकिन कृष्णकान्त वहाँ नहीं था.
अचानक एक औरत हरजाई
झुटपुटे में
आँख मार
बगल से निकल गई .
उपर्युक्त पंक्तियों में एक हरजाई औरत के झुटपुटे में आंख मार कर बगल से निकल जाने का ज़िक्र संभव है कविता की रोचकता एवं नाटकीयता में कुछ वृद्धि के लिए ही किया गया हो.
अपने मित्र के बगैर किसी सूचना के इस तरह अचानक गायब हो जाने से कवि/पर्सोना का विचलित होना स्वाभाविक है क्योंकि शाम का वक़्त है और लगता है कवि के लिए दिल्ली में अपने टिकने के लिए इस मित्र के अलावा कोई अन्य ठिकाना नहीं है :
वह खिड़की बंद थी
जिसकी सलाखों के बीच से
कृष्णकान्त थूकता था ;
वह बरामदा सन्नाता था
जिसमें गड़ा हुआ-वह
अपना दिल
फूंकता था .
मैंने सोचा –कहाँ गई
कृष्णकान्त की वह टेलचट् रज़ाई
जिसकी रूई का फाहा
वह दुनिया के घावों पर रखता था
( जब –जब उसका नन्हाँ माथा दुखता था )
कहाँ गया चारमीनार का वह ख़ाली पैकेट
जिसमें वह अपनी बीमार नफ़रत
की राख़
झाड़ता था .
कृष्णकांत के हालात का यह वर्णन उसकी मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि और उसके ग़रीबों और वंचितों का पक्षधर होने का आभास देता है. किन्तु उसके इस तरह बिना सूचना इस तरह अचानक गायब हो जाने ने पर्सोना को परेशानी में डाल दिया है और इसीलिए उसका स्वर कृष्णकांत के प्रति तीखा होता जाता है :
कहाँ चला गया कृष्णकान्त !
दिल्ली के चमकते नाबदान
से बाहर- वह
आखिर कहाँ
चला गया !
तार-तार फटी रज़ाई में
दिल की थिगलियाँ लगाता
चिमनी की तरह दिन-रात
धुआँ उगलता
सनसनाता
वह किन आसमानों में
जाकर अचानक
फट गया
कवि के मन का उद्वेग जैसे जैसे बढ़ता है वैसे वैसे ही उसका स्वर और अधिक क्रोधपूर्ण और बेधक हो जाता है :
कृष्णकान्त –जिसकी आँखों में तेज़ाब था
जो सारे दोस्तों पर शक की पेशाब करता था
और पैन्ट के बटन तक नहीं बंद करता था
कृष्णकान्त- जो सूअर की चर्बी की तरह
गर्मियों में टिघलता था
और सर्दियों में मैल की तरह गुड़ी-मुड़ी
दिल्ली की आँतों में जम जाता था
पर जैसे जैसे रात गहराने लगती है कविता के पर्सोना का गुस्सा निराशा, अनिश्चितता और भय में तब्दील होने लगता है :
तभी सड़कें रोशनी के पानी में डबडबाने लगीं
दिल्ली के जगमगाते अँधेरे का खेल शुरू हो गया
अपनी सदियों की नैतिक गठरी उठाए – थका
मैं उदास हो गया .
कृष्णकान्त को ढूँढना असंभव है
रास्ते अपरिचित हैं – ठण्ड है
हर जगह आदमी के गह्वर हैं
आखिर कहाँ चला गया यह साला कृष्णकान्त !
कविता के इस बिंदु से कवि इसमें फैंटेसी का एक नया तत्व जोड़ देता है जो इसे यथार्थ से ऊपर उठा कर स्वप्न और कल्पना की सुर्रेअलिस्टिक दुनिया में ले जाता है :
सड़क-दर-सड़क रोशनी के फफूँद हटाता उदास
मैं चला जा रहा था कि तभी –अचानक
वह आदमी दिखा –
संसद –भवन का तेज़ – तेज़ चक्कर लगाता हुआ
मैंने पुकारा –‘कृष्णकान्त, कृष्णकान्त, कृष्णकान्त’
वह घूमा और फिल्ल- से हँस दिया .
मैंने कहा, ‘क्षमा करें, ग़लती हुई ,आप
कृष्णकान्त नहीं हैं .’
फैंटेसी का यह नया तत्व कविता की अगली पंक्तियों में और अधिक गहरा हो जाता है :
…उस आदमी ने कहा – ‘मैं
कृष्णकांत को जानता हूँ – पर उसे
संसद-भवन के आसपास ढूँढना बेकार है .’
‘ क्यों ‘, मैंने कहा .
उसने कहा – ‘आज इतवार है .’
मैंने कहा ,‘आइए , फिर सोमवार तक यहीं इंतजार करें .’
लेकिन तभी मैंने सोचा वह सोमवार ! मान लो अगर
न आये , अगर कभी न आये
और हम अपने खोये हुए भाई के लिए
चोर की तरह यहाँ मडरायें
दिल्ली के पत्थर-दिल में
सेंध लगायें , और धर लिये जायँ ….
नहीं ,यहाँ नहीं – यहाँ एक अमूर्त पहरा है
समय यहाँ गूंगा है – बहरा है .
चलिए उसे कहीं और ढूंढें –
कहाँ घुस गया वह !
इतनी हवा क्यों पी ली
उस दुनिया के दुश्मन और ब्रह्माण्ड के दोस्त ने
कि गुब्बारे की तरह फुस्स हो गया !
|
श्रीकांत वर्मा |
मित्र की इस दगाबाज़ी के बावजूद पर्सोना का उसमें विश्वास कविता के इस बिंदु तक पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है. उसे लगता है उसका भटका हुआ दोस्त उसे अंततः वापस मिल जाएगा. पर्सोना और कृष्णकान्त के मित्रों के बीच हुए संवाद की विचित्र प्रकृति से स्वप्नलोक और फैंटेसी के प्रभाव को जारी रखते हुए कवि इस कविता को कुशलता से आगे बढ़ाता है और साथ ही परोक्ष रूप से उस आत्मकेंद्रितता, अवसरवादिता और साथियों के हालात के प्रति उदासीनता पर भी व्यंग करता है जो किसी महानगर में कैरियर तलाशते व्यक्तियों में आम तौर पर देखी जा सकती है :
हमने योगेश गुप्त से पूछा , ‘कृष्णकांत कहाँ है ?’
‘मेरी आँतों में अल्सर है .’
हमने राजीव सक्सेना से पूछा , ‘कृष्णकांत कहाँ है ?’
‘कोई भी यहाँ क्या अनश्वर है ?’
हमने मोहन राकेश से पूछा , ‘कृष्णकांत कहाँ है ?’
‘छोड़ यार, होगा रघुवीर सहाय की कार में !’
हमने रघुवीर सहाय से पूछा – ‘कृष्णकांत कहाँ है ?’
‘ भारत जी के साथ मझधार में ’
………..
किसी ने कहा –अकबर रोड –फिर औरंगज़ेब
फिर पंचशील फिर बहादुरशाह ज़फर मार्ग ,
फिर चाणक्यपुरी, कुतुबमीनार –
बाप रे बाप –इतिहास में इस तरह
आगे और पीछे और आगे और पीछे और आगे
शंटिंग – दर –शंटिंग –दर –शंटिंग –दर –शंटिंग
धुँआए हुए काले इंजन की तरह हमारा कृष्णकांत
दिल्ली के किस तहख़ाने के
किस काले यार्ड में चुपचाप
खड़ा होगा ?
प्रेरणा और रचनात्मकता के क्षणों में कोई कवि अपने पास के कच्चे मसाले को किस तरह एक रोचक कविता की रचना के लिए इस्तेमाल करता है इसे उपर्युक्त पंक्तियों में भली भांति देखा जा सकता है. विश्वास, अविश्वास, संदेह, चिंता, अनिश्चितता, भय ,उद्वेग आदि अनेक भावों का खेल इनमें और कविता की अगली कुछ पंक्तियों में देखा जा सकता है. कवि/पर्सोना को अब भी विश्वास है कि उसका मित्र उसके साथ धोका नहीं कर सकता. उसे अब भी अपने इस मित्र की सुरक्षा की चिंता है. उसे लगता है किसी ने उसके दोस्त को बरगला दिया है और उसे ग़लत किस्म की विचारधारा और जीवन –मूल्यों को स्वीकार करने के लिए राज़ी कर लिया है .
नहीं , ये सब लोग हमें टरका रहे हैं
किसी रहस्यमय सत्य को ताश के पत्तों की तरह
सड़क-दर-सड़क-मकान-दर –मकान
चिकने शब्दों में सरका रहे हैं
जैसे भाई से भाई के मौत की दारुण खबर
नहीं ,कृष्णकांत को इस तरह का
नृत्य-नाट्य कभी नहीं आया
उसने दूसरों का दिल और दिमाग कभी नहीं चबाया
वह तो रोज़ –रोज़ अपने को खाता था
और घायल सिपाही की तरह एक खंदक से कूदकर
दूसरी खंदक तक जाता था .
…………
वह भूख लग आने पर डंड पेलता था
और सिग्रेट ख़त्म होने पर नज़फ़गढ़ का नाला हेलता था .
नहीं ,कृष्णकांत ऐसी जगहों में नहीं होगा
वह – वहीं कहीं , वहीं कहीं ,वहीं कहीं होगा
जहाँ वह पहले था – सही –सलामत .
कुढ़ता ,तड़पता ,लजाता ,बुदबुदाता
दिल्ली के सड़े तालाब में
झख् मारता .
दूधनाथ सिंह को शायद कविता में वर्णित अपने अनुभवों के इस मोड़ पर पहुँचने तक भी यह विश्वास नहीं हुआ होगा कि अब तक साहित्य,दर्शन और प्रगतिशील विचारधारा का दम भरने वाला उनका दोस्त श्रीकांत अब राजनीतिक दृष्टि से किसी दूसरी ही विचारधारा के खेमे में चला गया है :
मैंने उस आदमी से कहा , ‘सुनिए, मुझे मालूम है
मैं अपने भाई की आदतों से बचपन से परिचित हूँ –
वह पराठेवाली गली में होगा
वह जहाँ भी होगा , एक दार्शनिक चलाचली में होगा
वह जमुना के कगार पर होगा
या ग़ालिब की मज़ार पर होगा
कृष्णकांत रोशनारा रोड के कबाड़ख़ाने में होगा
या जी० बी० रोड के सड़े जनानखाने में होगा
वह जामा मस्जिद के पीछे कबाब खा रहा होगा
और कुल्हड़ में सौंफिया पी रहा होगा
कृष्णकांत सरदार जी के होटल में आग ताप रहा होगा
और मैली रज़ाई में थर-थर काँप रहा होगा
…………
वह त्रिवेणी –कला –संगम की घास पर ऐंठा होगा
वह सप्रू –हाउस के कैन्टीन में होगा
और मुक्तिबोध की अंतरात्मा की गहरी छानबीन में होगा
…………….
वह शहडोल में डोल रहा होगा
या दमोह के मोह में नर्मदा को घँघोल रहा होगा .
सुनिए – कृष्णकांत वहीं कहीं , वहीं कहीं
अपने पुराने हौज़ –ख़ास से निकलकर
रहीम ख़ानख़ाना के मक़बरे के आसपास
कहीं अपना दुख
सूखे पत्थरों की तह में
दबा रहा होगा
और आत्महीन दिल्ली को –
आत्मा का रहस्य
बता रहा होगा .
हम अनेक कविताओं को इस वजह से याद करते हैं कि तीव्र रचनात्मकता के क्षणों में उन कविताओं को रचते हुए एक से एक अद्भुत किन्तु एक दूसरे से परस्पर संयुक्त अनेक बिम्ब उनके रचनाकारों के मन में एक साथ उभरे थे. यह बात यदि नज़ीर अकबराबादी की सुप्रसिद्ध नज़्म बन्जारानामा पर लागू होती है तो भवानीप्रसाद मिश्र की सतपुड़ा के घने जंगल और अज्ञेय की असाध्य वीणा पर भी. दूधनाथ सिंह की इस कविता में भी परस्पर जुड़े हुए बिम्बों का इस तरह का संयोजन उपर्युक्त पंक्तियों में देखते ही बनता है.
कविता में इस बिंदु से एक नया मोड़ आता है जो इसे भ्रमनिवृत्ति ( disillusionment), निराशा और दुःखान्तिका (tragedy) की दिशा में ले जाता है :
मेरे इस हठ से वह साथ का आदमी चकराया
फिर हँस दिया . ‘महाशय , आप किस ख़ब्त में हैं
आपका भाई कहाँ है और आप किस वक़्त में हैं
लट्ठ में रज़ाई टाँगे आप दिल्ली हेल रहे हैं !
आपके वक्तव्यों से लगता है – आप
इंडिया-गेट पर गुल्ली-डंडा खेल रहे हैं .
बताइए , आपकी यात्रा का उद्देश्य क्या है ?
दिल्ली लोग यों ही नहीं आते
कि आयें और बेलगाम सच्चाई का हठ दिखलायें
और अपनी नैतिकता का कूड़ा जहाँ-तहाँ
खोलकर सरे-राह पसर जायें…
आप क्यों नहीं समझते
दिल्ली दरअसल एक ख़ूनी दरवाज़ा है
दिल्ली वक़्त की प्रेतात्मा है
दिल्ली मृतात्माओं की चमकती सल्तनत है .
इसी चमकती सल्तनत में बैठा है आपका
वह –कृष्णकांत !
हम कल्पना कर सकते हैं कि 1976 में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ कर जब श्रीकांत वर्मा राज्य सभा के सदस्य बने होंगे तो इस बात ने वामपंथी सोच वाले दूधनाथ सिंह जैसे उनके साथियों को काफ़ी निराश किया होगा. इन साथियों को कभी यह उम्मीद नहीं रही होगी कि सत्ता का लोभ श्रीकांत जी को एक ऐसे राजनीतिक दल का प्रवक्ता बना देगा जिसकी नीतियों में उनकी अब तक कोई आस्था नहीं रही थी. उनका ऐसा करना कवि के लिए किसी वैचारिक विश्वासघात से कम नहीं रहा होगा .
पर दिल्ली सल्तनत का इतिहास सत्ता के लिए अपनों के साथ विश्वासघात की अनेक घटनाओं से भरा पड़ा है, अतः कवि के लिए इस विश्वासघात को भी उसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करना इस कविता को अपने स्वाभाविक अंजाम की ओर ले जाने जैसा था. कविता के अंत में पर्सोना का साथी उससे कहता है :
कृष्णकांत शासन के
कामता प्रसाद गुरु का नया व्याकरण है
कृष्णकांत , सत्ता के दिनकर का गुटका संस्करण है
देखिये – अपने कृष्णकांत को ध्यान से देखिये –
गर्दन अब नहीं है
चेहरा अब पीठ की तरफ़ घूम गया है .
अतः अब हमेशा वह
उल्टी दिशा में चलता है
अपने नक़ली तख्ते-ताऊस पर बैठा
हवा में नंगी तलवार भाँजता है
अपने भाइयों को क़त्ल करता है
और अपने को शहंशाह
कहता है .’
दूधनाथ सिंह ने इस कविता द्वारा श्रीकांत वर्मा पर जिस तरह का व्यंग किया उसने निश्चय रूप से श्रीकांतजी की छवि को उनके साहित्यप्रेमियों के बीच काफ़ी ख़राब किया होगा. संभव है अपने पूर्व मित्र के प्रति उनके इस अनियंत्रित क्रोध और बेरहमी ने स्वयं दूधनाथ जी की छवि को उनके कुछ मित्रों के लिए काफ़ी भयजनक बना दिया हो. पर दूधनाथ सिंह की एक लेखकीय विशेषता शायद यह भी थी कि क्रोध की स्थिति में उनकी रचनात्मक प्रतिभा औसत से अधिक तीव्र और सक्रिय हो उठती थी.
संभव है दूधनाथ सिंह को कभी आगे चल कर स्वयं अपने इस आक्रोश के लिए किसी किस्म का पछतावा रहा हो. इस सन्दर्भ में मैं उनके काव्य-संग्रह युवा खुशबू और अन्य कविताएँ की अंतिम कविता १ जनवरी ,२००१ (पृष्ठ 120) से कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा :
अभी कुछ दिन और रहूँगा तुम्हारे साथ, तुम्हारी ख़बरों के साथ
अभी कुछ दिन और बूढ़ा और धूमिल होऊँगा
अभी इधर के उजाले को ओट देकर देखना पड़ेगा
अभी और इंतज़ार करना होगा , नफ़रत को झेलना
और गुस्से को दबाने की कला सीखनी होगी .
………………
कुछ लोगों से कहना होगा , आपको पहचानता हूँ मैं थोड़ा-थोड़ा
दुनिया से दुनिया का अर्थ पूछना पड़ेगा
श्रीकांत वर्मा से बात करनी होगी .
श्रीकांत वर्मा की मृत्यु , जैसा सभी जानते हैं , 1986 में हो चुकी थी . अतः अब, जबकि दूधनाथ सिंह भी श्रीकांत वर्मा के पीछे पीछे इस दुनिया से जा चुके हैं , संभव है उन्होंने अपने इस पुराने मित्र से इस कविता के बारे में भी कुछ बात कर ही ली हो.
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सदाशिव श्रोत्रिय
(12 दिसम्बर 1941 को बिजयनगर, अजमेर)
एंग्लो-वेल्श कवि आर. एस. टॉमस के लेखन पर शोध कार्य.
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नाथद्वारा के प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त (1999)
1989 में प्रथम काव्य-संग्रह \’प्रथमा\’ तथा 2015 में दूसरा काव्य-संग्रह \’बावन कविताएं\’ प्रकाशित
2011 में लेख संग्रह ‘मूल्य संक्रमण के दौर में’ तथा 2013 में दूसरा निबंध संग्रह ‘सतत विचार की ज़रूरत’ प्रकाशित.
2014 में आचार्य निरंजननाथ विशिष्ट साहित्यकार सम्मान
स्पिक मैके से लगभग 15 वर्षों से जुड़े हुए हैं आदि
सम्पर्क:
आनन्द कुटीर, नई हवेली, नाथद्वारा –313301
मोबाइल:8290479063, 9352723690/ ईमेल: sadashivshrotriya1941@gmail