• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मंगलाचार : अंकिता आनंद

मंगलाचार : अंकिता आनंद

पेंटिग : रामकुमार  संभावना शुरुआत की रचनाशीलता के सामर्थ्य से ही अपना पता देने लगती है, उसमें समकाल से अलहदा कोई न कोई ऐसी चीज जरुर होती है जो चमकती है और ध्यान खींचती है. सरोकारों  के वाज़िब दबाव रचनाओं को प्रभावशाली बनाते हैं. अंकिता आनंद की इन कविताओं पर सोचते हुए लगा ‘यही कि […]

by arun dev
July 10, 2014
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें



पेंटिग : रामकुमार 


संभावना शुरुआत की रचनाशीलता के सामर्थ्य से ही अपना पता देने लगती है, उसमें समकाल से अलहदा कोई न कोई ऐसी चीज जरुर होती है जो चमकती है और ध्यान खींचती है. सरोकारों  के वाज़िब दबाव रचनाओं को प्रभावशाली बनाते हैं. अंकिता आनंद की इन कविताओं पर सोचते हुए लगा ‘यही कि कोई उन्हें ना बताए,/ कि हमें चाहिए क्या.’  
_________________________




समय–समय की बात 

क्यों इन्सान को इतना समय लगता है 
अपनी धूल झाड़ खड़े होने में,
जबकि हाथ झाड़ते उसे तनिक देर नहीं लगती?

संशय और सम्पूर्णता 

किसी का होना हम कई वजहों से नकार सकते हैं.  
अपने जीवन में उसकी उपस्थिति स्वीकारने का अर्थ होता है
खुद को हज़ार सफाईयाँ देना, खुद सवाल खड़े करना और फिर जवाबों से मुँह चुराना –
जिस ज़मीर को हाल ही में झाड़–पोंछ, साफ़–पाक़ कर फ़ख्र से घूम रहे थे, 
उस बेचारे दागी को एक नए सिरे से होनेवाली शिनाख्त के लिए भेजना.  
ऐसे में यही हल नज़र आता है कि बार–बार गोल–गोल घूम चक्कर खाने से बेहतर है 
बात को हँसी में उड़ा दें. 
पर फिर उसी का न होना
इतने संशयहीन पैनेपन से भेदता है
जितना संपूर्ण हो सकता है 
सिर्फ किसी गलती का एकाकीपन. 

आत्मीय 

वो तो शुक्र है आज आपने खुलासा कर दिया 
कि आप मेरे आत्मीय हैं
और व्यर्थ की  औपचारिकता छोड़ मुझ पर अपने अधिकार ले लिए.   
वरना कमबख्त ये मेरी आत्मा तो बड़ी घुन्नी निकली,
आज तक मुँह में दही जमाए बैठी थी, बताईए ज़रा! 

व्यतीत 

इंतज़ार करते हुए वक्त नहीं, हम बीतते हैं 
और इंतज़ार करानेवाला सोचता रह जाता है 
कि जितना छोड़ गया था
उससे कम कैसे?

मिस की चेतावनी 

क्या करोगे नहीं पढ़ोगे तो?
रिक्शा चलाओगे?
फेल होके स्कूल से नाम कट जाएगा,
फिर बैठे रहना चरवाहा विद्यालय में.\’
हम डर गए, पढ लिए. 
अब कोई और चलाता है रिक्शा,
कोई और बैठे रहता है चरवाहा विद्यालय में.

आख़िर इन लड़कियों को चाहिए क्या?

यही कि कोई उन्हें ना बताए,
कि उन्हें चाहिए क्या.  

दिल्ली से दरभंगा दूर 

इन रोशनियों से जी ही नहीं भरता,
यूँ चिराग तो हमारे घर भी जलता है. 


कीटाणु 

\’क्या आप जानते हैं?
आपके घर में 
फ़र्श के ऊपर,
कालीन के नीचे,
टॉयलेट के पीछे,
नसों को खींचे, मुट्ठियाँ भींचें, 
आप पर हमला करने को तैयार हैं 
सैकड़ों, लाखों, करोड़ों कीटाणु?\’
जी? जी, नहीं.
अब रेंगते वक्त इन बातों का खयाल ही कहाँ रहता है?

गलती से मिस्टेक 

हम बस ज़रा हट के दिखना चाह रहे थे,
आपने तो हटा ही दिया. 

सौदा 

\’इस बार संतरे हर जगह महंगे हैं.\’
अच्छा, भैया, आप कहते हैं तो मान लेती हूँ. 
नहीं, ऐसी निरी नहीं कि शक ना आया हो मन में,
पर ठगे जाने का डर गौण था 
विश्वास करने की क्षमता को खो देने के भय के सामने.   


तफरी

सड़कों की ख़ाक छानना ज़रूरी है,
ताकि घर को चाय के साथ आपका इंतज़ार करने का मौका मिले. 
_______________________________

अंकिता आनंद आतिश नाट्य समिति और पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स की सदस्य हैं. आतिश का लक्ष्य है नाटक के ज़रिये उन मुद्दों को सामने लाना जो अहम् होते हुए भी मुख्य विचारधारा में स्थान नहीं पाते. इससे पहले उनका जुड़ाव सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान, पेंगुइन बुक्स और समन्वय: भारतीय भाषा महोत्सव से था. यत्र –तत्र कविताएँ प्रकाशित.
anandankita2@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

परिप्रेक्ष्य : फुटबॉल : टेरी ईगलटन

Next Post

मार्खेज़: विशाल पंखों वाला बहुत बूढ़ा आदमी: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

Related Posts

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन
समीक्षा

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी
समीक्षा

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण
संस्मरण

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक