प्रमोद कुमार तिवारी
अगर राजेन्द्र यादव की चलती तो मेरा नाम कुछ और होता और मेरे भीतर का कवि(चाहे वह जैसा भी हो) कभी बाहर न आ पाता क्योंकि पहली कविता हंस में प्रकाशित हुई और उसके बाद इतनी प्रतिक्रियाएं आईं (जिसमें से अधिकांश प्रशंसा भरी थीं)कि मैंने कविता को गंभीरता से लेना शुरू किया. राजेन्द्रजी किसी के जाने के बाद सब कुछ अच्छा मान लेने या कर देने के पक्षधर नहीं थे उन्होंने स्वयं कई रचनाकारों पर ऐसी टिप्पणियां कीं.
‘ऐसी दुनिया और ऐसे समाज पर मैं हजार-हजार लानत भेजता हूं जहां ऐसी प्रथा है कि मरने के बाद हर व्यक्ति का चरित्र और उसका व्यक्तित्व लॉण्ड्री में भेजा जाता है, जहां से साफ़ –सुथरा होकर वह बाहर आता है और फ़रिश्तों की क़तार में ‘खूंटी’ पर टांग दिया जाता है.’’-मंटो (वे देवता नहीं हैं-राजेन्द्र यादव)
ऐसी ही घटना कमलेश्वर जी से जुड़ती है. उन दिनों मैं कमलेश्वर जी के साथ काम कर रहा था तभी अचानक वे 2007 की जनवरी में हमें छोड़ गए. उनकी मृत्यु पर उनके हाथ की लिखी आखिरी पंक्ति बड़ी मिन्नत से राजेन्द्र यादव ने मांगी और बड़े शरारती ढंग से उनकी कई बातों से असहमति जताते हुए आपत्तिजनक संपादकीय लिख डाली, उनकी पत्नी गायत्री कमलेश्वर, दुष्यंत कुमार के बेटे और कमलेश्वरजीके दामाद आलोक जी के साथ बैठ कर मैं भी उन्हें कोसता रहा.
कहा जा सकता है कि राजेन्द्र जी की यह खास अदा थी. 84 साल की उम्र कोई कम नहीं होती, उनका जाना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है. फिर भी कुछ खालीपन सा लग रहा है. आखिर राजेन्द्र यादव के न रहने में ऐसा क्या है जो उनके जाने को इतनी अविश्वसनीयता देता है? मानो एक तरह का धक्का लगा हो. हमारे दुख का कारण कुछ और है. उसका कारण यह है कि राजेन्द्र का होना केवल एक व्यक्ति का होना नहीं था, वह एक प्रतिपक्ष था जिसने कई पक्षों को मायने दिए थे, लड़ने का, झगड़ने का, आक्रमण करने का एक आधार दिया था. शायद उनका होना इतना ज्यादा ‘होना’ था कि उनसे असहमत होते, बहसते, उन पर नाराज़ होते कभी लगा ही नहीं कि एक दिन अचानक वे इस तरह सामने से हट जाएंगे. आप शत्रुघ्न के बगैर, यहां तक कि लक्ष्मण के बगैर रामायण की कल्पना कर सकते हैं परंतु एक बार रावण के बगैर कल्पना कर के देखिए. एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया को एकध्रुवीय बनाने की साजिश रची जा रही हो, किसी दूसरे पक्ष में खड़ा होना बहुत साहस की बात है. यह अनायास नहीं है कि रावण के रूप में राजेन्द्र जी के चित्र सामने आते हैं. यह भी अनायास नहीं है कि इन दिनों महिषासुर और बाणासुर के पक्ष में बात होने लगी है.
राजेन्द्र जी को बकायदा खलनायक, डॉन, साहित्य का सामंत आदि कहा गया, हंस को ‘हंसीनी’ और अश्लील पत्रिका का तमगा दिया गया. पर इसी बात में राजेन्द्र जी का ‘होना’ निहित है. नायकों के साथ एक तरह की हिप्पोक्रेसी भी आती है, साहित्य में एक प्रकार का जो बनावटीपन था, उससे एक खास तरह की उदात्तता, रस, या सौंदर्य की जो अपेक्षा की जाती थी उसे यह व्यक्ति तार-तार कर देता था. मर्यादा और बंधन जैसे शब्द उसके लिए नहीं बने थे. वे एक ऐसे दुश्मन और शीर्षस्थ साहित्यकार थे जिनके सामने बैठकर उनसे असहमत होकर ही नहीं बल्कि उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर बुरा-भला कहते हुए उनसे उम्र में चौथाई होने के बावजूद उनकी थाली से रोटी उड़ाई जा सकती थी और इस गारंटी के साथ विदा लिया जा सकता था कि अगली बार इससे भी तीखे तेवर के साथ आपसे मिलने आऊँगा.
पहली बार जब राजेन्द्र जी के बारे में जाना 1996-97 में (तब बीएचयू का विद्यार्थी था, उसी दौरान\’ काशी का अस्सी\’ अपनी गालियों के साथ उसमें धारावाहिक छप रहा था और बनारस में उसे लेकर खासी उत्तेजना थी… कि दोनों सठिया गए हैं, …पगला गए हैं बाद में पता चला कि उसमें बड़े पागल राजेन्द्र जी ही थे. क्योंकि काशीनाथ सिंह ने वह किताब राजेन्द्रजी को समर्पित की.)
राजेन्द्रजी लगभग कविता विरोधी थे. मेरी पहली कविता का प्रकाशन स्वीकृति के एक साल के बाद किया और जब एक बार मैंने इसकी शिकायत की तो उस समय सामने बैठी मैत्रेयी पुष्पा से पूछा कि तुम्हारी कहानी कितने दिनों के बाद प्रकाशित हुई थी और उन्होंने दो साल बताया. कवियों के फोटो क्यों नहीं छापते, पूछने पर अपने ही अंदाज में कहते कि कविता छाप दी यही क्या कम है, कायदे से कवियों को काले पानी की सजा दे देनी चाहिए. कई अंदाज थे उनके… एक से एक निराले.नामवर के लिए ‘मेरे जानी दुश्मन’ कहना और ठहाके लगाना…कई शेड्स के चुटकुले सुनाना…
संपादकीय में लगातार चोट करने वाली आक्रामक शब्दावली, बेलागपन और सहज भाषा का प्रयोग उन्हें खास बना देता था. अमूमन संपादकीय जैसी चीज लोग नहीं पढ़ते परंतु हंस में सबसे पहले वही पढ़ा जाता और सबसे ज्यादा पत्र संपादकीय पर केंद्रित हुआ करते थे. हंस के पत्र बहुत खास हुआ करते थे.कई बार उनका सामूहिक वाचन होता था जिसमें राजेन्द्र जी, गौरीनाथ, वीना उनियाल, मैत्रेयी जी, अर्चना वर्मा आदि होते और कई बार ये पत्र गालियों से लबरेज होते… ऐसे कि पढ़ कर सुनाना मुश्किल होता और एक दूसरे को दे दिया जाता. हनुमान को आतंकवादी कहनेवाले समय में आनेवाले पत्र खास तौर से बहुत आक्रामक होते.
एक संपादकीय में उन्होंने लिखा- ‘वस्तुतः सच्चा भारतीय गहरे में ‘मातृग्रंथी से पीडि़त होता है-जो पश्चिमी लड़कियां भारतीयों से शादी कर लेती हैं वे यही शिकायत करती हैं कि भारतीय पुरुष कभी बड़ा नहीं होता, वह हर जगह मां खोजता है. पुरानी संस्कृति और इतिहास से मुक्त हो सकना उसके लिए ‘खुले में मर जाने’ जैसा भयानक है. वह हर चुनौती या बदलाव यानी खतरे से भागता है. बस आइडिया में ही सब कुछ आइडियल है यानी भावना में ही भव्य.
एक तरह के खिलंदड़ेपन और आत्मीयता के साथ हंसते-हंसते चुभनेवाली बात कह जाना उनकी विशेष अदा थी. खास बात यह थी कि इसकी छूट उन्होंने उम्र के कारण या वरिष्ठ रचनाकार होने के कारण नहीं पायी थी. उस समय मैं ‘द संडे इंडियन’ साप्ताहिक पत्रिका का संपादकीय दल प्रमुख हुआ करता था, भोजपुरी के पहले अंक का लोकार्पण करने एक भूतपूर्व राज्यपाल आए थे, कवि केदारनाथ सिंह से मैंने बात की थी परंतु कार्यक्रम के समय अचानक उन्हें कहीं जाना पड़ गया तो हुआ कि किसी साहित्यकार को बुलाओ मैंने राजेन्द्र जी से बात की और वे हंसते हुए आ गए. आए, देर तक बैठे.पूर्व राज्यपाल ने कुछ भावुकतापूर्ण अतार्किक बातें की राजेन्द्र जी ने वहीं उनकी बातों की धज्जियाँ उड़ा दीं. मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि राजेन्द्र जी को कोसूं या खुश होऊँ.
संस्थाओं को लेकर वे बहुत आक्रामक थे. उनकी जड़ता को तोड़ने के लिए अपने ही अंदाज में चोट करते रहते थे. एक बार लिखा-
‘‘मैं शुरू से मानता हूं कि विश्वविद्यालय ज्ञान के कब्रिस्तान हैं. जहां सिर्फ पचास वर्ष पूर्व मरे हुए लोगों का ही अभिनंदन होता है. जीवित और जीवंत लोग उनके गले कभी नहीं उतरते. समाज और राजनीति के दूसरे प्रश्नों से जूझने वाले लेखक विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों के लिए सबसे बड़े ‘आउटसाइडर’ होते हैं. उनके हिसाब से सु (साहित्यकार वह है जो चैबीसों घंटे रीतिकाल, भक्तिकाल और छायावाद ही घोटता रहता है और प्रगतिवाद तक आते-आते उसकी सांस फूल जाती है. उनके लिए केवल कलावादी और कवि ही साहित्यकार होते हैं. अपने गुरुदेवों से उन्होंने जो पढ़ा था उसे ही वे आज भी छात्रों के कान में उगलते रहते हैं. अभी इन्होंने जयंतियों के नाम पर केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, नागार्जुन जैसों की कैसी मट्टी पलीद की है. शायद ही कोई अध्यापक हो जिसकी कलम के शिकार ये गरीब रचनाकार नहीं हुए हों…’’
हंस एक साहित्यिक पत्रिका थी परंतु जिस तरह से उस मंच का इस्तेमाल उन्होंने साहित्य और समाज के बीच की खाई को पाटने के लिए किया वह उनकी सबसे बड़ी देन कही जाएगी. जब भी हंस कार्यालय से फोन आता मैं समझ जाता कि कुछ अकादमिक काम होगा, दिन-रात हिंदी की दुनिया में रहनेवाले मेरे जैसे व्यक्तिने हंस के लिए जीपी देशपांडे, आनंद कुमार, तुलसीराम, अरूण कुमार जैसे लोगों का साक्षात्कार लिया, बल्कि कहूं कि इन लोगों से परिचय हंस के कारण हुआ. निश्चित रूप से हिंदी के छात्र समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान, भूगोल आदि से काफी कटे हुए रहते हैं जिसके कारण वे हिंदी साहित्य को भी ढंग से समझ नहीं पाते. इस दृष्टि से राजेन्द्र यादव जैसे कई संपादकों की जरूरत हिंदी को है.
जाने क्यों राजेन्द्रजी के प्रसंग में मुझे बार बार गालिब याद आते हैं, वही गालिब जो शराब पीते थे, जुआ खेलते थे, कभी-कभार शायद कोठे पर भी जाते थे, जो अपने समय में ठीक-ठाक विवादित थे और ‘आदमी तो अच्छा है पर बदनाम बहुत है’ का तंज सुनते रहते थे. गालिब का यह शेर जब भी याद आता है तो राजेन्द्रजी का चेहरा अनायास सामने आ जाता है-
‘नाकर्दा गुनाहों की भी हसरत कि मिले दाद
यारब अगर इन कर्दा गुनाहों की सजा है’
लगता है कि राजेन्द्रजी फिर से उठ पड़ेंगे और अपने ठेठ अंदाज में बहुत सारी बहसों के लिए जमीन तैयार करने के लिए योजना बनाने लगेंगे, अभी कहेंगे कि हिंदी और उसके अकादमिक जगत की जड़ता को तोड़ने के लिए बहुत कुछ करना है. गुनाहों की सजा से कौन डरता है और फिर गुनाह करते जाने का भी तो अपना लुत्फ है. मानो अभी कहेंगे कि अरे यार तुम अपना नाम ‘प्रमोद कुमार तिवारी’ की बजाय कुछ और रख लो बहुत कंफ्यूजन होता है.
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कविता संग्रह सितुही भर समय प्रकाशनाधीन.
हिंदी और भोजपुरी में संपादन का अनुभव
नवोदित लेखक सम्मान .
निबंध लेखन के लिए संस्कृति मंत्रालय द्वारा प्रथम पुरस्कार
काव्य लेखन के लिए दिल्ली सरकार द्वारा पुरस्कृत.
संप्रति- गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में असिस्टेन्ट प्रोफेसर
मो. 09868097199, 09228213554