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Home » मैं और मेरी कविताएँ (६) : संजय कुंदन

मैं और मेरी कविताएँ (६) : संजय कुंदन

“Memory  revises  me.”  Li- Young Lee    समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत ‘आशुतोष दुबे’, ‘अनिरुद्ध उमट’, ‘रुस्तम’, ‘कृष्ण कल्पित’ और ‘अम्बर पाण्डेय’ को आपने पढ़ा. इस अंक में प्रस्तुत हैं संजय कुंदन. संजय कुंदन का चौथा कविता संग्रह ‘तनी हुई रस्सी पर’ अभी हाल ही में ‘सेतु प्रकाशन’ […]

by arun dev
April 3, 2019
in कविता
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“Memory  revises  me.”
 Li- Young Lee
  
समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत ‘आशुतोष दुबे’, ‘अनिरुद्ध उमट’, ‘रुस्तम’, ‘कृष्ण कल्पित’ और ‘अम्बर पाण्डेय’ को आपने पढ़ा. इस अंक में प्रस्तुत हैं संजय कुंदन.
संजय कुंदन का चौथा कविता संग्रह ‘तनी हुई रस्सी पर’ अभी हाल ही में ‘सेतु प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ है. संजय का एक कथा-संग्रह और उपन्यास भी प्रकाशित है. उन्हें कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल सम्मान, हेमंत स्मृति सम्मान, विद्यापति पुरस्कार आदि मिले हैं. कविताओं के अंग्रेजी के अलावा भारतीय भाषाओँ में भी अनुवाद हुए हैं.
संजय साहित्य की दुनिया में एक सहज उपस्थिति हैं, उनकी कविताएँ विद्रूपता, विडम्बना पर अक्सर व्यंग्यात्मक रुख़ अख्तियार करती हैं. समकालीन मनुष्य की विवशता का जिस तरह से दारुण विस्तार हुआ है उसका कुछ पता आपको ये कविताएँ देतीं हैं.
आइये जानते हैं कि संजय कुंदन कविताएँ क्यों लिखते हैं और उनकी कविताएँ क्या करती हैं.     

मैं और मेरी कविताएँ (६) : संजय कुंदन                


मैं क्यों लिखता हूं
वर्णमाला सीखने के साथ ही मेरा लेखन भी शुरू हो गया. शायद इसलिए कि घर का माहौल साहित्यिक था. साहित्य रचना लिखने-पढ़ने का ही हिस्सा था. जिस तरह बच्चे पहाड़ा या कविताएं रटते और सीखते हैं, ठीक उसी तरह मैंने कहानी-कविता लिखना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे यह मेरे स्वभाव का हिस्सा हो गया. साहित्य की स्थिति मेरे जीवन में एक मित्र जैसी हो गई. यह मेरे एकांत का साथी बन गया. यह एक तरह से प्रति संसार बन गया.
मैं अपने मूल जीवन में अपने को थोड़ा मिसफिट मानता रहा. इस जीवन के संघर्ष में लेखन से मुझे ताकत मिली है. लेखन मेरे लिए एक शैडो लाइफ है जहां मैं अपना गुस्सा, अपनी खीझ उतार सकता हूं. मैं ठठाकर हंस सकता हूं उन सब पर, जिन पर वास्तविक जीवन में नहीं हंस पाता, या खुद अपने आप पर. मेरे भीतर बहुत ज्यादा नफरत है, बहुत ज्यादा गुस्सा है. उन सबको लेखन में ही उतारता रहता हूं. अगर ऐसा न करूं तो मेरे भीतर की घृणा मुझे नष्ट कर डालेगी. इसलिए मैं हमेशा रचनारत रहना चाहता हूं. ईमानदार और सहज लोगों के प्रति मेरे मन में गहरा लगाव है. मैं वैसे चरित्रों की रचना कर, उनके संघर्ष की कथा कहकर एक संतोष पाता हूं. 
दरअसल इस तरह मैं अपनी जिंदगी को ही फिर से रचता हूं. यह पुनर्रचना मुझे एक संतोष देती है. मुझे जो कहना होता है वह मैं साफ-साफ कहता हूं. यह वह भाषा है, जिससे मैं खुद से बात करता हूं. मुझे इस बात की परवाह नहीं है कि यह समकालीन कविता की भाषा है या नहीं. मेरी कविताएं, कविता की कसौटी पर खरी उतरती है या नहीं, यह भी मेरे लिए कोई मुद्दा नहीं है. साहित्य से मुझे जो पाना है, उसका संबंध मेरे आंतरिक जीवन से है, बाह्य जीवन से नहीं. साहित्य की वजह से ही मैं जीवित हूं, इससे ज्यादा और क्या चाहिए! 
मेरा सरोकार साहित्य से है, साहित्य संसार से नहीं. हां, यह उत्सुकता मेरे भीतर जरूर रहती है कि यथार्थ की पुनर्रचना के जरिए मैं किसी को अपने समय को समझने में मदद कर पा रहा हूं या नहीं? अगर ऐसा थोड़ा-बहुत भी हो रहा है तो यह मेरे लेखन की सार्थकता है. यानी मेरा लिखना मुझे ही नहीं कुछ और लोगों के भी काम आए. बस इसीलिए मैं अपनी कविताओं के प्रकाशन में रुचि लेता हूं.
राजनीति मेरे लिए बेहद अहम है क्योंकि यह सामाजिक जीवन की जटिलता और विभिन्न स्तरों पर चल रहे संघर्षों को समझने का एक सूत्र देती है. इसी के जरिए मानवीय शोषण के विविध रूपों को भी पहचानने का अवसर मिलता है.  एक बेहतर जीवन की खोज की लड़ाई एक राजनीतिक लड़ाई भी है. इसलिए मेरी कविताएं राजनीति के विविध स्तरों को उद्घाटित करने का भी काम करती हैं. शोषकों को बेनकाब करते हुए मैं शोषित आम आदमी के संघर्ष को आगे बढ़ाने की कोशिस करता हूं. यह काम मैं सामान्य जीवन में नहीं कर पाता. संभव है कभी भविष्य में करूं भी, लेकिन मेरी यह इच्छा फिलहाल कविता के माध्यम से पूरी हो रही है. इस दृष्टि से भी मेरा लेखन मेरे लिए महत्वपूर्ण है.  
क  वि  ता  एँ
___________

मेरा पता

अपना पता कोई ठीक–ठीक कैसे बता सकता है
अब यह पूरी तरह सच थोड़े ही है कि
मैं किसी एक शहर के किसी मोहल्ले के 
किसी फ्लैट में रहता हूं 
और यह भी सच कहां है कि मैं किसी दफ्तर में रहता हूं
आठ से दस घंटे रोजाना
कुछ जगहों पर हमेशा किसी का पाया जाना
वहां उसका रहना नहीं है  
मैं बार–बार वहीं चला जाता हूं 
जहां रहना चाहता हूं 
भले ही कोई मुझे किसी बस स्टैंड पर खड़ा देखे या
किसी बहुमंजिली इमारत की
एक छोटी कोठरी में दूसरे का दिया हुआ काम करते  
अपनी मर्जी की जगह पर रहना 
एक तनी हुई रस्सी पर चलने से कम नहीं है
अगर मैं कहूं कि एक रस्सी है मेरा पता तो 
यह गलत नहीं होगा पर 
ऐसा कौन है जो मुझे वहां मिलेगा 
मिलने वाले सुविधाजनक जगह पर मिलना चाहते हैं 
मैं उनसे कभी नहीं मिलता
जो इसलिए मिलते हैं कि 
मुझसे मिलाकर रख सकें 
उनसे हाथ मिलाते हुए 
असल में मैं उनका हाथ झटक रहा होता हूं
जब वे अपनी बनावटी हंसी 
मेरी ओर फेंक रहे होते हैं
मैं उनसे बहुत दूर निकल चुका होता हूं
अपने अड्डे की ओर.     

दासता

दासता के पक्ष में दलीलें बढ़ती जा रही थीं
अब जोर इस बात पर था कि 
इसे समझदारी, बुद्धिमानी या व्यावहारिकता कहा जाए
जैसे कोई नौजवान अपने नियंता के प्रलाप पर
अभिभूत होकर ताली बजाता था
तो कहा जाता था
लड़का समझदार है
कुछ लोग जब यह लिखकर दे देते थे कि
वे वेतन के लिए काम नहीं करते 
तो उनके इस लिखित झूठ पर कहा जाता था
कि उन्होंने व्यावहारिक कदम उठाया
अब शपथपूर्वक घोषणा की जा रही थी
कि हमने अपनी मर्जी से दासता स्वीकार की है
और यह जो हमारा नियंता है
उसके पास हमीं गए थे कहने कि
हमें मंजूर है दासता
हम खुशी–खुशी दास बनना चाहेंगे
ऐसा लिखवा लेने के बाद
नियंता निश्चिंत हो जाता था और भारमुक्त.
अब बेहतर दास बनने की होड़ लगी थी
एक बार दास बन जाने के बाद भी
कुछ लोग अपने मन के पन्नों पर
कई करार करते रहते थे
जैसे एक बांसुरी वादक तय करता था कि
वह अगले पचास वर्षों के लिए
अपनी बांसुरी किसी तहखाने में छुपा देगा
कई कवि अपनी कविताएं स्थगित कर देते थे
ये लोग समझ नहीं पाते थे कि
आखिर दासता से लड़ाई का इतिहास
क्यों ढोया जा रहा है
और शहीदों की मूर्तियां देखकर
उन्हें हैरत होती थी कि
कोई इतनी सी बात पर जान कैसे दे सकता है!

निवेशक

वह मुझे एक गुल्लक समझता है 
और रोज अपना नमस्कार मुझमें डाल देता है 
वह एक दिन सूद सहित अपने सारे नमस्कार 
मुझसे वसूल लेगा 
उसके लिए अभिवादन भी निवेश है 
और धन्यवाद भी 
किसी के बालों की तारीफ 
वह यूं ही नहीं करता 
किसी की कमीज को अद्भुत बताते हुए
वह अंदाजा लगा  रहा होता है कि
वह कितने लाख का आदमी है
 वह अपनी मुस्कराहट का पूरा हिसाब रखता है 
जब किसी की मिजाजपुर्सी के लिए 
गुलदस्ता और फलों की टोकरी लिए 
वह जा रहा होता है
उसके भीतर अगले पांच वर्षों की योजना 
आकार ले रही होता है 
वह सोच रहा होता है कि इस बीमार व्यक्ति से कहां
कब–कब क्या काम निकाला जा सकता है.

ताकत

ताकत अब और ताकतवर होती जा रही थी
अब वे दिन गए जब एक नंगा फकीर दुत्कार देता था
एक विजेता को
अब विजेता संतों की टोली लेकर साथ चलता था
जो उसकी जय–जयकार करती रहती थी,
विजेता खुद अपने को साधक बताया करता था
अब भूख की ताकत से उसे झुकाना मुश्किल था
उसका उपवास अकसर मुख्य खबर बना करता था
अब त्याग की शक्ति से उसे डराना कठिन था
उसका दावा था
अपना गाहर्स्थ्य सुख छोड़ दिया उसने मानवता की सेवा में
कवियों को गुमान था कि वे नकार सकते हैं सत्ताधीशों को
अपनी कविताओं में उन्हें धूल चटा सकते हैं
पर अब एक तानाशाह भी कवि था
सधे हुए कवियों से कहीं ज्यादा
बिकती थीं उसकी किताबें
ख्यातिप्राप्त आलोचकों ने सिद्ध किया था
उसे अपने समय का एक महत्वपूर्ण कवि
जाने–माने विद्वान अब नौकरी करते थे उसकी.

न्यायमूर्ति-1

हे न्यायमूर्ति
दूर से देखता रहता हूं आपको
आपके शब्द कानों में गूंजते हैं
आकाशवाणी की तरह
आप हंसते हैं
तो लगता है पत्थर का
कोई देवता मुस्करा उठा हो
आप जब कहते हैं
सबको न्याय देंगे
तो मन भर आता है
कैसे आऊं आप तक हे देव
आप तक आने का रास्ता
इतना आसान नहीं
आपको सबूत चाहिए
और मेरे पास सच के सिवा और कुछ नहीं
सच को सबूत में ढालना
मेरे जैसों के लिए
एक युद्ध से कम नहीं
सच और सबूत के बीच एक
गहरी खाई है श्रीमान
जिसमें उड़ते रहते हैं विशाल डैनों वाले कानून के पहरुए
जो संविधान नहीं, सिक्कों की सेवा में लगे रहते हैं
आए दिन एक लड़की सिर्फ
इसलिए जान दे देती है कि
वह अपने साथ हुए बलात्कार को
बलात्कार नहीं साबित कर पाती
एक आदमी खुलेआम भीड़ के हाथों
मारा जाता है
पर उसकी हत्या
कभी हत्या नहीं साबित हो पाती
मि लॉर्ड, मैं डरता हूं
कि कहीं मेरी बेडौल शक्ल देख
आप पूछ न बैठें
मैं किस देश का वासी हूं
एक बूढ़े पेड़ ने देखा है मेरा बचपन
और एक नदी को मालूम है मेरा पता
पर क्या आप उनकी गवाही मानेंगे?

न्यायमूर्ति-2

हे न्यायमूर्ति
जब आपकी आंखों में आंसू देखे
तो डर गया
लगा कि
किसी ने धक्का
दे दिया हो
एक अंधेरी खाई में
हालांकि आपसे हमारा
सीधा–सीधा कोई वास्ता नहीं
पर आपको देखकर भरोसा बना रहता है
ठीक उसी तरह जैसे सूरज को देखकर
विश्वास बना रहता है कि
हमारे जीवन में थोड़ी रोशनी तो रहेगी
आपको रोते देख
सवाल उठा
आखिर कौन है जो
न्याय को भी बना रहा असहाय
हमारे इलाके में
सब कुछ धीरे–धीरे आता है
यहां देर से पहुंची सड़क
देर से पहुंचे बिजली के खंभे
देर से पहुंचे स्कूल और अस्पताल
लेकिन अब तक नहीं पहुंचा संविधान
कुछ लोग कहते हैं सविधान का रास्ता
रोक दिया गया है
कुछ कहते हैं कि वह आ चुका है
पर हमारी आंखें उसे देख नहीं पा रहीं
हे न्यायमूर्ति
आपकी विकलता देख
बहुत कुछ साफ हो गया
समझ में आ गया कि हमारे जीवन में
अब तक इंद्रधनुष बन क्यों नहीं
उग पाया संविधान.

गऊ जैसी लड़कियां

अब भी कुछ लड़कियां
गऊ जैसी होती थीं
हर बात में हां कहने वाली
मौन रहकर सब कुछ सह लेने वाली
किसी भी खूंटे से चुपचाप बंध जाने वाली
हमारी संस्कृति में
सुशील और संस्कारी कन्याओं के
यही सब गुण बताए गए हैं
गऊ जैसी लड़कियों के मां–बाप
गर्व से बताते थे
कि उनकी बेटी गऊ जैसी है
वे निश्चिंत रहते थे
कि उनकी नाक हमेशा
ऊंची रहेगी
क्योंकि उनकी बेटी गऊ जैसी है
वे गऊ जैसी लड़कियां
इतनी सीधी थीं कि
समझ नहीं पाती थीं कि
उनके घर के ठीक बगल का
एक इज्जतदार आदमी
जिसे वह रोज प्रणाम करती हैं
असल में एक शिकारी हैं
वे तो यह भी नहीं भांप पाती थीं
कि अपने पति की नजर में वे दुधारू नहीं हैं
उनकी दुनिया इतनी छोटी थी
कि उन्हें यह भी नहीं पता होता था
कि गायों की रक्षा के लिए
गली–गली में बन रही हैं सेनाएं
जब उनमें से किसी के चेहरे पर
तेजाब फेंका जाता
या किसी पर किरासन तेल उड़ेला जाता
या किसी के कपड़े फाड़े जाते
तब वह गाय की तरह ही रंभाती थी
बस थोड़ी देर के लिए
गौरक्षकों तक नहीं पहुंच
पाती थी उसकी आवाज.

हत्यारे

हत्यारों को इतना सम्मान
पहले कभी नहीं मिला था
प्रकाशक उतावले थे कि
हत्यारे कुछ लिखें
आत्मकथा ही सही
उनकी किताबें बेस्टसेलर हो रही थीं
उनकी किताब के लोकार्पण में
वे नामचीन आलोचक भी पहुंच जाया करते थे
जिन्हें अपने आयोजन में बुलाने के लिए
तरस जाते थे कविगण
हत्यारे किसी हड़बड़ी में नहीं रहते थे
वे हमेशा दिखते थे
विनम्र और प्रसन्न
वे गली–मोहल्लों में आराम से घूमते रहते
कभी भु्ट्टा खाते
कभी पतंग उड़ाते
बच्चों के साथ छुपन–छपाई खेलते
होली दशहरा ईद जैसे पर्वों में
वे अक्सर सड़क पर झाड़ू लगाते
या पानी का छिड़काव करते दिख जाते
अब हत्यारे
हत्या करने के बाद छुपते नहीं थे
वे निकलते थे अगले दिन झुंड में
मोमबत्तियां लिए हाथ में
हत्या के विरोध में नारे लगाते हुए
जब मारे गए लोगों की
निकल रही होती शवयात्रा
हत्यारे दिख जाते
आगे–आगे चलते हुए
अर्थी को कंधा दिए 
उन्हें हत्यारा कहने की भूल न करें
आपसे इसका सबूत मांगा जा सकता है
आप मु्श्किल में पड़ सकते हैं. 

बोलती हुई चीजें

अब चीजें आदमी से ज्यादा
मुखर और सक्रिय थीं
वे इंसान से एक कदम आगे बढ़कर
फैसले कर रही थीं
हो सकता है आप किसी व्यक्ति से मिलने जाएं तो
अपने स्वागत में मेजबान से पहले
उसके घर के सोफे को हिलता हुआ पाएं
इस बात की पूरी गुंजाइश है कि वह सोफा ही तय करे कि
आपको मुलाकात के लिए कितना वक्त दिया जाए
और दीवार पर टंगी एक घड़ी यह फैसला करे
कि आपको चाय मिले या पानी पर ही टरकाया जाए
यह काम मेजबान की कमीज भी कर सकती है
आपकी कमीज का ढंग से मुआयना करने के बाद
वैसे उस व्यक्ति से मिलकर जाने के बाद भी
यह भ्रम बना रह सकता है
कि उसी से मुलाकात हुई
या उसके मोबाइल से.

टूटते घर

बेघर तो खैर बेघर थे ही
जिनके घर थे
उनमें से भी कई
अपने घर को घर नहीं मानते थे
कोई कहता था
वह घर नहीं
पागलखाना है पागलखाना
किसी को अपना घर मरुस्थल की तरह लगता था
जिसमें कुछ छायाएं कभी–कभार डोलती नजर आती थीं
अब घरों में सुकून नहीं था
नींद नहीं थी
एक आदमी नींद की तलाश में
घर से निकलकर एक पेड़ के नीचे लेट जाता था
घर में रोना तक मुश्किल था
सिर्फ रोने के लिए एक स्त्री
सड़क के एक खंभे से सटकर खड़ी हो जाती थी
जो घर बाहर से दिखते थे
चमकदार, सुसज्जित
वे अंदर से झुलसे हुए थे
एक धक्के से गिर सकती थी उनकी दीवारें
घर टूट रहे थे
पर कोई उन्हें बचाने नहीं आ रहा था
कोई औरत घर बचाने के लिए
अपनी हड्डी गलाने को तैयार नहीं थी
अपने सपने को तंबू की तरह तानकर रहना उसे मंजूर था
पर घर में रहकर बार–बार छला जाना नहीं
घर तहस–नहस हो रहे थे
और बस भी रहे थे 
नया घर बसाने वाले भी आश्वस्त नहीं थे
कि उनका घर कितने दिनों तक घर बना रहेगा
उन्हें अपनी–अपनी उड़ान की चिंता थी
वे जमीन में पैर धंसाकर रहने को तैयार नहीं थे.
___________


संजय कुंदन

जन्म: 7 दिसंबर, 1969, पटना में
पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए.

संप्रति: हिंदी दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’, नई दिल्ली में सहायक संपादक

संपर्क: सी-301, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर-9, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012(उप्र)
मोबाइल: 09910257915
ईमेल: sanjaykundan2@gmail.com

Tags: कवितासंजय कुंदन)
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