युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित हिन्दी कहानियों के संदर्भ में अक्सर ‘उसने कहा था’ की ही चर्चा होती है. प्रेमचंद युग से लेकर आजतक युद्ध केंद्रित कहानियां लिखने का सिलसिला थमा नहीं है. आलोचक प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने अपने इस शोध आलेख में युद्ध आधारित ऐसी ही कहानियों का अन्वेषण और विवेचन किया हैं, प्रेमचंद द्वारा छद्म नाम से १९०९ में प्रकाशित ‘जोन ऑफ आर्क’की ओर उन्होंने ध्यान खींचा है जो उनके अनुसार ‘कहानी के रूप में देखने पर यह युद्ध पर लिखी हिन्दी की पहली कहानी मानी जा सकती है.’
आलेख प्रस्तुत है.
युद्ध और हिंदी कहानी
गरिमा श्रीवास्तव
जून 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ा, जिसका समर्थन बालगंगाधर तिलक और अन्य राष्ट्रवादी नेताओं ने किया. उनको यह विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार कृतज्ञता का परिचय देगी और भारतीयों को स्व-शासन प्रदान करने की दिशा में आगे बढ़ेगी. ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ़ कामन्स’ में सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ने आश्वासन दिया था कि, ‘भारत में ब्रिटिश नीति का लक्ष्य उत्तरदायी सरकार की स्थापना है’ लेकिन यह आश्वासन खोखला था. इसलिए प्रथम विश्वयुद्ध के समानांतर स्वराज का आन्दोलन भी चलता रहा. पिछले वर्ष प्रथम विश्वयुद्ध को हुए 100 वर्ष बीत चुके हैं. प्रथम विश्वयुद्ध से सीधे-सीधे प्रभावित न होने के बावजूद हिंदी के आरंभिक दौर के कहानीकारों ने जबरन थोपे गए युद्ध और औपनिवेशिक दासता का प्रतिकार अपने-अपने ढंग से किया. हिंदी साहित्य में प्रथम विश्वयुद्ध को आधार बनाकर लिखे जाने वाले कथा-साहित्य की पड़ताल आज ज़रूरी है. औपनिवेशिक मानसिकता से देशी साहित्य को देखना वैसा ही है जैसे दूर के चश्मे से नज़दीक देखने की कोशिश.
विश्वयुद्ध की शतवार्षिकी पर तमाम विश्वविद्यालयों और संस्थाओं में संगोष्ठियाँ आयोजित की गयीं,जिनमें मेरी जानकारी में ऐसी कोई संगोष्ठी नहीं थी जो भारतीय भाषाओँ के साहित्य पर इस सन्दर्भ में कोई प्रामाणिक बात करे. अंग्रेजी के भारतीय विद्वानों ने तो हिन्दी साहित्य को ठस और अवरूद्ध घोषित करते हुए स्थापित कर दिया कि चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के अलावा हिन्दी का कोई रचनाकार विश्वयुद्ध को जान–समझ और अभिव्यक्त कर पाने में अक्षम था, पड़ताल ज़रूरी इसलिए भी कि ‘उसने कहा था’ जैसी कहानी जो प्रेम और त्याग की कहानी के रूप में हिन्दी पाठक और आलोचना के जेहन में बैठी हुई है, आज वह पाठ के विखंडन की मांग करती है.
(दो)
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय किसानों को फ़ौज में जबरन भरती करने की रणनीति पर आलोचकों का ध्यान नहीं गया. इतिहासकार सुमित सरकार (आधुनिक भारत : 1885-1947, राजकमल प्रकाशन, 2009 अनु. सुशीला डोभाल) ने लिखा है कि-
“हजारों भारतीयों को नितांत अपरिचित भूमि पर मरने के लिए भेज दिया जाता था . …सिद्धांत रूप में तो सैनिक-भर्ती स्वैच्छिक थी, किन्तु व्यवहार में यह लगभग ज़ोर-ज़बरदस्ती का रुप धारण कर लेती थी. पंजाब में 1919 के उपद्रवों के पश्चात कांग्रेस द्वारा की गयी जाँच-पड़ताल से ज्ञात होता है कि वहाँ के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकेल ओ डायर के शासन काल में लंबरदारों के माध्यम से जवानों को सेना में भरती होने के लिए बाध्य किया जाता था.”
यह जानकारी, कहानी के पाठ के प्रति पाठक की दृष्टि बदल देती है- प्रेम, बलिदान और त्याग की कहानी औपनिवेशिक गुलामी के समीकरण का एक दूसरा आयाम हमारे सामने खोल देती है. युद्ध में जबरन भर्ती करना, फिर लाम पर भेजना जिसका अर्थ था मौत. उस देश और उस धरती के लिए लड़ना जिससे लड़ने वाले का कोई भावात्मक जुड़ाव ही नहीं है. दूसरी ओर भारतीय परम्परागत स्त्री जिसके लिए पति-पुत्र का अस्तित्व ही सब कुछ है,विधवा जीवन की कल्पना भी उसके लिए भयावह है- वे दोनों भी लाम पर भेजे जा रहे हैं- सूबेदारनी के सामने आशा की एक किरण कौंध जाती है- वह लहनासिंह से कह बैठती है-
“तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था. तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे. आप घोड़े की लातों में चले गए थे. और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था. ऐसे ही इन दोनों को बचाना. यह मेरी भिक्षा है तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ.”
और लहनासिंह प्रेम और कर्तव्य की बलिवेदी पर शहीद हो जाता है. लेकिन ठीक इसी बिंदु पर युद्ध की अमानवीयता अपनी पूरी त्रासदी के साथ उभरती है. पति-पुत्र की मृत्यु के बाद रोने के लिए स्त्रियाँ ही बच रहती हैं. इतिहास गवाह है कि युद्ध का कारण जो भी हो मारी तो स्त्रियाँ ही जाती हैं. सूबेदारनी का यही डर उसे लहनासिंह के सामने कृपा की भीख मांगने पर विवश करता है, साथ ही भारतीय परिवेश में स्त्री की त्रासदी का एक खाका भी प्रस्तुत करता है, जहाँ विधवा या पुत्रहीन स्त्री की कोई वकत नहीं. धर्मवीर भारती ने इस कहानी का नाट्य रूपांतरण करते हुए युद्ध विरोधी संवेदना को रेखांकित किया था. बाद में इसपर फिल्म भी बनी थी-
“यह कहानी मानव हृदय की सबसे पुरानी और सबसे नवीन कहानी है जो सृष्टि के आदि में उलझ गयी थी और आज तक उलझी है. यह कहानी युद्ध के लथपथ मैदानों में, लाशों से पटी हुई खाइयों में, खूंखार श्मशानों में भी सहानुभूति, त्याग और करुणा की पवित्र रागिनी की तरह भटकती रहती है. वह प्रेम जो हिंसा और हत्या के पैशाचिक नग्न नृत्य में भी मनुष्य को पशु होने से रोक लेता है.” (रंग प्रसंग, अंक-35 राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली)
प्रथम विश्वयुद्ध के लिए ब्रिटिश अधिकारियों की पसंद उत्तरी और उत्तर-पश्चिम भारत के सिख, मुसलमान और क्षत्रिय होते थे. ये वीर और रण-बाँकुरे होते थे. ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस ने विश्वयुद्ध में अपने-अपने उपनिवेशों के जितने भी सैनिक झोंके, उनमें ब्रिटेन के भारतीय सैनिकों की संख्या सबसे अधिक थी. भारतीय सैनिकों को आधुनिक हथियारों और बर्फीली ठण्ड में युद्ध की पर्याप्त ट्रेनिंग नहीं थी, इसलिए वे गाजर-मूली की तरह कट गए. फ्रांस में लड़े गए एक तिहाई मोर्चे भारतीयों ने ही संभाले.
हिंदी में युद्ध की पृष्ठभूमि या यों कह लें कि युद्ध के विकट समसामयिक यथार्थ पर रचनात्मक दृष्टिपात का यह पहला प्रयास है. मुकुटधर पाण्डेय ने इस कहानी पर अपनी टिप्पणी में याद किया है-
“लड़ाई यूरोप की भूमि पर लड़ी जा रही थी पर यहाँ भारत में पल-पल युद्ध वार्ता की प्रतीक्षा रहा करती थी. भारतीय सैनिक हज़ारों की संख्या में फ्रांस और बेल्जियम की भूमि पर लड़ रहे थे. हम लोग नक्शा निकाल कर युद्धस्थलों का पता लगाते थे.”
गुलेरी जी ने समसामयिक सरोकार और संबद्धता के इसी भाव के अनुगमन में रमकर इस युद्ध प्रसंग को रचा.
इसी समय जबकि विश्वयुद्ध के प्रभाव से संभवतः किसी भी संवदेनशील रचनाकार की संवेदना अछूती न रह सकी, देश-प्रेम के भाव का जोर पकड़ना और स्वाधीनता आंदोलन के बहुआयामी पक्ष प्रेमचंद जैसे कथाकार की रचनाओं का केन्द्रीय विषय बने. ‘जमाना’ के अप्रैल 1909 के अंक में प्रेमचंद की लिखी हुई जीवनी ‘जोन ऑफ आर्क’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी. इस जीवनी पर पत्रिका के अंक की अनुक्रमणिका में लेखकीय नामोल्लेख ‘दाल-रे अज अम्बाला’ तथा लेख के अन्त में ‘दाल-रे’ के रूप में प्रकाशित हुआ था. (ध्यातव्य है कि यह वह समय था जब ‘सोजे वतन’ से उद्भूत विभागीय प्रतिबन्धों के कारण प्रेमचंद छद्म नामों से लिखने के लिये विवश थे.)
इस जीवनी का अंश यहाँ प्रस्तुत करना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि युद्ध की पृष्ठभूमि का सजीव चित्रण प्रेमचंद की लेखनी से तब उद्भूत हो रहा था जब प्रथम विश्वयुद्ध होना बाकी था- कहानी के रूप में देखने पर यह युद्ध पर लिखी हिन्दी की पहली कहानी मानी जा सकती है –
(तीन)
“जिस समय फ्रांस और इंगलिस्तान उस शतवर्षीय युद्ध में व्यस्त थे जो एडवर्ड तृतीय के युग में सन् 1328 में प्रारम्भ हुआ था और जो सन् 1453 में हेनरी षष्ठ के युग में समाप्त हुआ तो मित्रता, श्रेष्ठता और बड़ाई से चमकते अंग्रेज उस समय आए दिन शहर पर शहर जीतते जाते थे और बड़े-बड़े प्रान्तों और शहरों को अधिकृत कर चुके थे. समस्त बंदरगाह और किले उनके हाथ में आ गए थे. पोर्ट स्मिथ, क्रेसी, कैले, पोर्सट्रिज, पेरिस, रून, पास्टस सब अंग्रेजों के राज्य में सम्मिलित हो चुके थे. दूसरे शब्दों में मानो वे सभी इंग्लैण्ड के प्रान्त बन गए थे.
फ्रांसवासियों की दशा अकथनीय थी. वे आए दिन की पराजयों से दुखी थे. हर लड़ाई में हार ही हार हो रही थी. इंगलिस्तान का उत्कर्ष तथा प्रभुत्व प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गया था, दिलों पर उनका भय छा रहा था. उस समय समूचे योरुप की दृष्टि अंग्रेजों पर लगी हुई थी. लेकिन जय के साथ पराजय फूल में काँटे की भाँति सम्बद्ध होकर साथ-साथ चलती है क्योंकि प्रत्येक उत्थान के बाद पतन आवश्यक है. जब जीत पर जीत प्राप्त करते हुए उन्होंने पाँच वर्ष के अन्दर लगभग समूचा फ्रांस जीतकर अधीन कर लिया और जब ऑर्नलीज की घेराबंदी में सफल होने को ही थे कि अचानक वह आश्चर्यजनक घटना घटी जो विश्व-इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगी. जब फ्रांस की ऐसी गम्भीर दशा थी और समस्याओं तथा कष्टों का सामना करते-करते जनता अन्ततः निराश हो चुकी थी और विदेशी आक्रान्ताओं के निरन्तर आक्रमणों से देश नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था, देश से सुख-शान्ति विदा हो चुकी थी, उस समय जॉन ऑफ आर्क एक देवदूत की भाँति अवतरित हुई जिसे ईश्वर ने फ्रांस की दुर्दशा पर दया करके उसके बचाव और सहायता के लिए भेजा था.
वह डोमरेमी में स्थित लोरीन के एक देहाती मजदूर की लड़की थी. उनके माता-पिता बहुत गरीब थे और झोपड़ी में रहकर मेहनत-मजूरी से अपना पेट पालते थे. अपने घरेलू कार्यों और सीने-पिरोने से निपटकर जॉन ऑफ आर्क खेतों में भेड़ तथा अन्य पशु चराया करती थी. उस समय घर-घर पर अंग्रेजों का आतंक जमा हुआ था. लोग अपने घर-संपदा की सुरक्षा कठिनाई से कर सकते थे. प्रत्येक व्यक्ति के मुंह पर पुरानी भविष्यवाणियाँ थीं. वह काल दुर्भाग्य का काल माना जाता है. ब्रंस नामक एक फ्रांसीसी कवि ने भविष्यवाणी की थी कि लोरीन के बालूत के जंगलों में एक लड़की पैदा होगी, और सौभाग्य से बालूत के जंगल डोमरेमी की पहाड़ियों में ही थे. प्रायः लोग कहा करते थे कि जिस फ्रांस को एक औरत (सम्राज्ञी इसाबेला से आशय है) ने अपने हाथों से खोया है वह एक लड़की के सहारे स्वाधीन होगा. और, यह भी प्रसिद्ध था कि लोरीन की एक उत्साही लड़की फ्रांस को स्वतंत्रता का प्रकाश प्रदान करेगी.
इन किवंदन्तियों ने उस तेरह वर्षीय लड़की के कोमल हृदय को आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित किया. एक दिन उसने यह स्वप्न देखा कि महान् देवदूत जिबराइल उसे धर्मात्मा, आस्थावान, देश के लिये पूर्णतः समर्पित और पवित्र बनने का उपदेश दे रहे हैं. इसके बाद संत कैथेराइन और मार्गरेट प्रकट हुईं और उसे उपदेश देकर लुप्त हो गईं. आध्यात्मिकता अवतरित होने तथा अन्य आम चर्चाएँ होने पर भी जब उसने फ्रांस की ऐसी दुर्दशा देखी कि उसका प्यारा देश विजयी आक्रान्ताओं के आक्रमणों से बरबाद हो चुका है, लोगों का साहस टूट गया है और उत्साह ठंडा हो गया है, हर छोटा-बड़ा अपनी दुर्बलता और निर्धनता के हाथों रो-पीट रहा है, शत्रु के सामने आ डटना सरल कार्य नहीं रह गया है, तब देश के शासन और हानि व दुर्दशा से परिचित होकर वह शोक में डूबी हुई तथा अत्याचारों की तलवार से मारी हुई काँप उठी. और, दूसरी ओर जब उसने अपनी विपत्ति तथा निर्धनता का चिन्तन किया तो अनायास आँसू भरकर कहने लगी –
क्या हाथ उठाऊँ बहरे दुआ सूए आसमाँ
बर आए जो कभी वह मिरी आरजू नहीं
लेकिन फिर उसने अपने शोकाकुल हृदय को ढाढ़स बँधाया और उसके शरीर में एक बिजली सी कौंध गई. राष्ट्रीय स्वतंत्रता का नाम सुनकर उसका खून उबलने लगा. उसने राष्ट्रीय पराधीनता की शर्म अनुभव की. उसका दिल भर आया और उस गुप्त रहस्य तथा आकाशवाणी की याद ने उसके घायल हृदय को चीर दिया. वह देशभक्ति में डूबी बैरागन एक सच्चे संन्यासी की भाँति एक वृक्ष के नीचे अपने परम पिता की गोद में बैठ गई. उसने अपना दायाँ हाथ आकाश की ओर उठाया और बाएँ हाथ में तलवार लेकर सम्पूर्ण समर्पण से प्रार्थनारत हो गई. उसकी आँखों से आँसुओं की बूँदें टप-टप टपक रही थीं, उसके मुंह से ये शब्द निकल रहे थे कि ऐ सृष्टि के रचयिता परमात्मा, ऐ दोनों लोकों के स्वामी और अन्तर्यामी, मेरे देश की दशा पर दया कर, मेरे प्यारे देशवासियों को इस बरबादी और विनाश से मुक्त कर, मुझे शक्ति दे कि मैं देश की सेवा कर सकूँ, मुझे देशभक्ति की क्षमता प्रदान कर, अपनी मातृभूमि से प्यार करने का साहस दे, मेरे भाइयों को विदेशी शासन से बचा, अन्याय-अत्याचार का सामना करने का साहस दे. मेरा शरीर इस देश के जान-माल पर अर्पित है.
ऐ परम पिता! मेरी इस विनम्र प्रार्थना और इच्छा को पूर्ण कर. उसकी प्रार्थना ईश्वर के दरबार में स्वीकार हुई और जब उसने वह आवाज सुनी तो उसका मुरझाया हृदय गुलाब के फूल जैसा खिल गया, उसका अस्तित्व उस चुम्बकीय क्षमता से भर गया जो बाद में उसके जीवन का सर्वश्रेष्ठ गुण सिद्ध हुआ. कहते हैं कि उसकी वाणी में विचित्र प्रभाव था और उसकी उपस्थिति मनुष्य में नवीनता और स्फूर्ति का संचार करती थी. उसके चेहरे से वह शराफत और रौब टपकता था जो मनुष्यों के दिल को जीत लेता है. इस प्रार्थना से उसके हृदय को शक्ति प्राप्त हुई. उसने हाथ में तलवार संभाली, उसे चूमा और आकाश की ओर देखकर संकल्प लिया कि मैं आज से अपना तन-मन देश को समर्पित करती हूँ.
एक चित्रकार ने जॉन का ऐसा चित्र बनाया है जिसमें वह यह कहती हुई दिखाई देती है कि जब तलवार हाथ में है तो फ्रांस को छुड़ाना और स्वाधीन करना क्या बड़ी बात है. इसके बाद वह गाँव के पादरियों और लोगों के कहने के प्रतिकूल कप्तान के पास गई और उससे कहा कि मुझे कैंप में ले चलो. वह वैंकोलीवर में गई, फिर चिम्यान. वहाँ उसने अपने मिशन का वर्णन किया कि मैं एक मूर्ख लड़की हूँ लेकिन परमात्मा ने मुझे आदेश दिया है कि मैं ऑर्लनीज को अंग्रेजों के हाथों से बचाऊँ और फ्रांस के राजा को सिंहासन पर बैठाऊँ. मुझे न प्रशंसा की इच्छा है न पुरस्कार की चिन्ता, न शत्रु का भय न प्रतिद्वंद्वी का डर. मैं केवल ईश्वरीय इच्छा और ईश्वरीय आदेश पूरा करने को आई हूँ.
अलहमीस के बड़े पादरी ने उन ईश्वरीय प्रेरणाओं और खुलासों की चर्चाओं का वर्णन करके सम्राट चार्ल्स को प्रेरणा दी कि वे इस समय उसकी सहायता से लाभ उठाएँ. जिसकी निराशा आशा में बदल गई ऐसे फ्रांस के राजा ने इस अवसर को अच्छा समझकर उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति दे दी. फिर वह जान हथेली पर रखकर सेनापति बन, घोड़े पर सवार हो, जिरह-बख्तर पहन, सिर पर लोहे की टोपी रखकर, हाथ में फ्रांस का शाही झंडा लेकर मौत की हँसी उड़ाने के लिए लड़ाई के मैदान में कूद पड़ी. वह शत्रु-सेना के दस हजार सशस्त्र जवानों पर इस प्रकार टूट पड़ी जैसे कोई बाज अपने शिकार पर बुरी तरह टूटता है. यद्यपि इस लड़ाई में उसे गहरे जख्म लगे लेकिन उसने ऑर्लनीज का घेरा उठवा दिया.
अंग्रेज भयभीत हो गए और फ्रांसीसियों ने उसे दया का दूत माना. जो लड़ाई के अतिरिक्त कुछ भी पसंद नहीं करते थे, उन फ्रांसीसी जनरलों की कोई परवाह न करती हुई वह जीत के बाजे बजाती तथा बधाई और कुशलता की पुकार सुनती हुई 14 जुलाई 1429 को रेम्स में प्रविष्ट हुई और जो भी सामने आता गया, उसे जीतती गई. और, उसने वहाँ पहुँचकर दूसरे दिन 17 जुलाई को बड़े गिरिजाघर में फ्रांस के राजा चार्ल्स के राज्यारोहण की रस्म पूरी की.
उसके बाद पेरिस और कम्पेकिन की घेराबंदी होती रही जहाँ उसकी स्वामीभक्त और उत्साही सेना ने बड़े शानदार महान् कार्य किए. लेकिन अन्तिम शहर की सुरक्षा के समय वह ड्यूक ऑफ बरगंडी के हाथों गिरफ्तार हो गई जिसने उसे बंदी बना लिया और बाद में अंग्रेजों के हाथ बेच दिया. जब उसे युद्धक्षेत्र से बंदीगृह में ले गए, उस समय का दृश्य अत्यन्त हृदय द्रावक है. कड़ी परीक्षा का अवसर था और वह मृत्यु पाश में फँसी पुकार-पुकारकर कह रही थी कि देश के प्रेम में इस सिर पर जो कुछ भी बीते वह कम है.
फिर अहंकारी न्यायालय का द्वार खुला. 3 जनवरी 1431 को उसे न्यायालय के अधिकारियों को सौंप दिया गया जहाँ छह दिनों तक उसकी पेशी होती रही. 24 मार्च को उस पर शत्रु और जादूगरनी होने का आरोप लगाया गया और वह 30 मई 1431 को ‘ऊन’ स्थान में जादूगरनी मानकर जिन्दा ही दहकते अंगारों के हवाले कर दी गई. और, वह पवित्र आत्मा उन मुहब्बत का दम भरने वाले झूठे दोस्तों और अत्याचारपूर्ण व्यवहार करने वाले निर्दयी तथा कातिल शत्रुओं से सदा के लिए उड़कर उस स्थान पर जा पहुँची जहाँ मानव शरीर की बुराई और विश्वासघात कुछ काम नहीं आते और जहाँ थके-हारों को स्थायी सुख-चैन प्राप्त होता है.
जिन फ्रांसवासियों को बचाने के लिए उसने प्रसन्नता से शहादत का जाम पिया और जिन्होंने अपनी मुक्तिदाता को बचाने का तनिक भी प्रयास नहीं किया उनके लिए; और उसकी वीरता पर आश्चर्यचकित होकर उसकी शूर वीरता का लोहा मान चुके लेकिन जिन्होंने अपने शत्रु के सुगुणों का सम्मान न किया, ऐसे अंग्रेजों के लिए अन्ततः यह एक लज्जाजनक कहानी है.
लड़ाई फिर भी चलती रही लेकिन उसके बाद अंग्रेजों के पाँव ऐसे उखड़े कि फिर न जम सके. सफलता की आशा जाती रही क्योंकि ड्यूक ऑफ बरगंडी फ्रांस के राजा की ओर मिल गया. उसके बाद आपस में समझौता हो गया लेकिन चार्ल्स अष्टम ने फिर नोरमेंडी को जीत लिया और चार वर्ष के अन्दर ही वह गाईन और बोड़दो का स्वामी बन गया. और इस प्रकार सन् 1453 में शतवर्षीय युद्ध समाप्त हुआ लेकिन उस समय केवल एक शहर कैले अंग्रेजों के अधिकार में शेष रह गया था.
(प्रेमचंद रचनावली)
(चार)
हिंदी कथा साहित्य को मध्यवर्गीय मानस की अभिव्यक्ति बनाने वाले प्रेमचंद ने ‘नवाबराय’ के नाम से कहानियाँ लिखीं. सरकारी मुलाज़िम के रूप में उनका नाम धनपतराय था. जिस समय गाँधी जी ने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी पहचान बनाई, प्रेमचंद उससे काफी पहले भारतीय समाज और राजनीतिक समीकरण के यथार्थ को पहचान चुके थे और कथा साहित्य के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त कर रहे थे. जहाँ औपनिवेशिक शक्तियों का प्रयास था कि जनता संगठित न हो, वहीं प्रेमचंद रचनात्मकता द्वारा ही औपनिवेशिक शासन और साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध कर रहे थे. यह गौरतलब है कि प्रेमचंद ने सीधे-सीधे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर कहानी नहीं लिखी लेकिन दमनकारी और आतंकी औपनिवेशिक शासन के माहौल में राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’(1907), ‘आहे बेकस’(1911 )जैसी कहानियां लिखीं जो ऊपर से परम्परागत नैतिक बोध की कहानी प्रतीत होती हैं पर सामंती वर्ग के आर्थिक, नैतिक और चारित्रिक खोखलेपन का बेहद व्यंग्यपूर्ण अंकन करती हैं साथ ही साथ अत्याचारी के खिलाफ सत्याग्रह और सविनय-अवज्ञा का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं इसके अतिरिक्त उनकी ‘बाँका जमींदार’, ‘अनाथ लड़की’, ‘शिकारी राजकुमार’ आदि कहानियाँ प्रत्यक्षतः राजपूतों, बुंदेलों, सिखों आदि की वीरता, बलिदान, स्वाभिमान, स्वामीभक्ति, हठधर्मिता आदि का चित्रण करती हैं, लेकिन परोक्ष रूप से वे जन-मानस में उन भावनाओं को जागृत करना चाहती हैं, जो देश को औपनिवेशिक दासता से मुक्त करने के लिए ज़रूरी थीं.
जयशंकर प्रसाद के ‘छाया’ शीर्षक कहानी-संग्रह में ‘शरणागत’ कहानी संकलित है, जिसमें 1857 के विद्रोह को पृष्ठभूमि के तौर पर ग्रहण किया गया, इसमें उन्होंने भारत की महानता के लिए अतीत की रक्षा पर बल दिया. इसी तरह ‘सिकंदर की शपथ’ कहानी में भारतीय वीरों की बहादुरी और सिकंदर के विश्वासघात का चित्रण करने के बहाने उन्होंने भारत के पराभव की करुण संवेदना व्यक्त किया. प्रसाद की कहानियों में राजनीतिक पराधीनता और भारतीयों की दैन्यता का चित्रण है. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की लिखी तीन पूर्ण कहानियाँ मिलती हैं- ‘बुध्दू का काँटा’, ‘सुखमय जीवन’ और ‘उसने कहा था’- इनमें से तीसरी कहानी की प्रशंसा करते हुए रामचंद्र शुक्ल ने कहा था-
“इसके पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है. घटना इसकी ऐसी है, जैसी बराबर हुआ करती है, पर उसमें भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा है- केवल झाँक रहा है निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है. कहानी भर में कहीं प्रेम की निर्लज्जता, प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं है. सुरुचि के सुकुमार से सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचता. इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं.”
इसे हिंदी की पहली कहानी कहा गया जिसमें फ्रांस की ज़मीन पर लड़े जा रहे प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि को ग्रहण किया गया. युद्ध और प्रेम की संवेदना इस कहानी में साथ-साथ चलती है. इसकी केन्द्रीय संवेदना प्रेम होते हुए भी इसका एक पाठ युद्ध विरोधी संवेदना के रूप में भी किया जाना चाहिए. गुलेरी जी ने ‘हीरे का हीरा’ शीर्षक एक अपूर्ण कहानी भी लिखी थी जो अपने अधूरे रूप में ही उपलब्ध है, इसकी पृष्ठभूमि भी युद्ध ही है. ‘उसने कहा था’ का केन्द्रीय पात्र लहनासिंह जो युद्ध में बच गया था, अपनी एक टांग गंवाकर गाँव लौट आया है, वही इस कहानी का केन्द्रीय पात्र प्रतीत होता है. प्रतीक्षारत माँ और पत्नी की भावनाओं का सूक्ष्म अंकन गुलेरी जी ने इसमें किया है. गुलेरी जी की जिस कहानी से हिन्दी में युद्ध-आधारित कहानियों की शुरुआत मानी जाती है,उसी की अगली कड़ी में अधूरी कहानी ‘हीरे का हीरा’ को फिर से देखा जाना ज़रूरी है, ज़रूरी इसलिए कि कहानी के इतने साल बीतने के बाद भी इस कहानी को पूरा करने का काम 1990 ही में सुशीलकुमार फुल्ल ने किया जो दैनिक ट्रिब्यून के 1 अप्रैल के अंक में छपी.
सुदर्शन वसिष्ठ ने गुलेरी जी की कहानियों का पुनर्मूल्यांकन करने के क्रम में इसकी विस्तृत चर्चा करते हुए लिखा
“….उसने कहा था,अमृतसर की गलियों से प्रारंभ होकर युद्ध के वातावरण में समाप्त होती है.. हीरे का हीरा में लहनासिंह अपने परिवार में लौटता है, जो पाठकों के लिए अप्रत्याशित घटना है. आँगन में आते ही लहनासिंह मां से उस चिट्ठी का ज़िक्र करता है, जो उसने अम्बाला छावनी से लिखवाई थी. मां इस बात का उत्तर न देकर झटपट दिया जलाती है. लहनासिंह की वापसी की चमत्कारी घटना वास्तव में एक विचित्र संसार का निर्माण करती है ….तीन वर्ष से पति वियोग और दारिद्र्य को ढोती सास–बहु को ‘दो जाँघों वाले लहनासिंह की आदर्श मूर्ति’ देखने की लालसा में पीपल के नीचे नाग को पञ्च पकवान चढ़ाने की इच्छा का चित्रण अत्यंत मार्मिक है. मां देखती है …और जिन टांगों ने बालकपन में माता की रजाई को पचास दफ़ा उघाड़ दिया था उनमें से एक की जगह चमड़े के तसमों से बंधा हुआ डंडा था. माता रूंधे गले से कुछ कह नहीं पाती और कुछ सोच समझ कर बाहर चली जाती है. उधर गुलाबदेई के सारे अंग में बिजली की धाराएँ दौड़ जाती हैं.”
इस कहानी का अंत है–
“वह रोती गई और रोती गई और फिर रोती गई,क्या यह आश्चर्य की बात है? जहाँ कि स्त्रियाँ पत्र पढ़ना नहीं जानतीं और शुद्ध भाषा में अपने भाव प्रकाश नहीं कर सकतीं और जहाँ उन्हें पति से बात करने का समय भी चोरी से ही मिलता है वहां नित्य अविनाशी प्रेम का प्रवाह क्यों नहीं अश्रुओं की धारा की भाषा में…”
यहीं कहानी रुक गयी है. यह कहा नहीं जा सकता कि यदि गुलेरी जी इसे पूरा कर पाते तो इसकी परिणति क्या होती,लेकिन अधूरी कहानी अपनी पूरी चेतना में पाठक को बार-बार ‘उसने कहा था ‘की याद दिलाती है, पाठक की स्मृति में टंकित ‘सूबेदारनी’ सूबेदार हजारा सिंह और बेटा बोधा सिंह उसे चुनौती देते प्रतीत होते हैं- अधूरी होकर भी यह कहानी पाठकीय संवेदना को प्रभावित किये बिना नहीं रह पाती, और पाठक के मन में कहीं दूर तक असंतोष, युद्ध विरोधी भाव और पात्रों के प्रति करुणा की सृष्टि कर डालती है.
भारत सीधे-सीधे विश्वयुद्ध में शामिल नहीं हुआ था इसके बावजूद प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति होते-होते यहाँ की आम जनता में औपनिवेशिक शासन के प्रति गहरा असंतोष व्याप्त हो गया था. युद्ध के आर्थिक बोझ,कीमतों में वृद्धि,अनाज की कमी ने आम भारतीय को परेशान कर दिया था. युद्ध के व्यापक आर्थिक परिणाम हुए, साथ ही युद्ध में लाखों भारतीय सैनिक मारे गए. जर्मन, आस्ट्रिया और रूस में युद्ध के बाद क्रांतिकारी परिवर्तन एवं जनक्रांतियों ने भारतीय मानस में अपनी पहचान बनायी, जिसमें मुद्रण एवं संचार साधनों, विशेषकर अख़बारों ने बड़ी भूमिका निभाई. अनुमान है कि लगभग दस लाख भारतीय सैनिकों ने यूरोपीय, भूमध्यसागरीय, और मध्यपूर्व के युद्ध क्षेत्रों में अपनी सेवाएँ दी थीं, जिनमें से कुल 62,000 सैनिक मारे गए और लगभग 67,000 सैनिक घायल हो गए. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिक हताहत हुए थे.
इसी समय जबकि विश्वयुद्ध के प्रभाव से संभवतः किसी भी संवदेनशील रचनाकार की संवेदना अछूती न रह सकी, देश प्रेम के भाव का जोर पकड़ना और स्वाधीनता आंदोलन के बहुआयामी पक्ष को प्रेमचंद की रचनाओं में देखा जा सकता है.1917 में ‘वियोग और मिलाप’ शीर्षक कहानी में पहली बार भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का प्रत्यक्ष यथार्थ चित्रण मिलता है. प्रेमचंद कहानियों के शीर्षकों को लेकर चैतन्य थे, जैसे वे हिन्दी में धनपतराय नहीं प्रेमचंद नाम से लिखते थे वैसे ही कहानी के शीर्षक से औपनिवेशिक सत्ता के सामने पशेमां नहीं होना चाहते. इस कहानी में तिलक और ऐनी बेसेंट द्वारा समर्थित ‘होमरूल’ और ‘स्वदेशी आन्दोलन’ का खुला पक्ष लिया गया जो, प्रेमचंद की अपने समय और समाज के प्रति रचनात्मक प्रतिबद्धता को बताती है. ‘होमरूल आन्दोलन’ के दौरान पिता-पुत्र के बदलते संबंध की पड़ताल करती है. 1921 के दशक में लिखी गई हिंदी कहानियों में समकालीन राजनीतिक घटनाओं जैसे ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’, ‘दांडी यात्रा’ की अभिव्यक्ति बड़े जोर-शोर से देखने को मिलती है, 1926 में प्रकाशित ‘प्रेम द्वादशी’ की भूमिका में प्रेमचंद ने लिखा था-
“हम पराधीन हैं, लेकिन हमारी सभ्यता, पाश्चात्य सभ्यता से कहीं ऊँची है. यथार्थ पर निगाह रखने वाला यूरोप हम आदर्श वादियों से जीवन-संग्राम में बाजी भले ही ले जाये, पर हम अपने परम्परागत संस्कारों का आधार नहीं त्याग सकते. साहित्य में भी हमें अपनी आत्मा की रक्षा करनी ही होगी. हमने उपन्यास और गल्प का कलेवर यूरोप से लिया है, लेकिन हमें इसका प्रयत्न करना होगा कि उस कलेवर में भारतीय आत्मा सुरक्षित रहे.”
बौद्धिक साहस के जिन वैचारिक मूल्यों को बालमुकुंद गुप्त ने अपनी पत्रकारिता में प्रतिपादित किया था, उसे 1907 में उनके बाद प्रेमचंद ने पूरी प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ाया. राजभक्ति के प्रति जुड़ाव ख़त्म कर वे उन्होंने अपने लेखन द्वारा देश, समाज, अपनी जनता और विदेशी शासन से मुक्ति के लिए आम आदमी में चेतना जगाने का काम शुरू किया. प्रेमचंद ने अपने देश भक्तिपूर्ण लेखन के सवाल पर सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे डाला. उनकी कहानियों, उपन्यासों, हंस जैसी पत्रिका और निबंधों का केन्द्रीय सरोकार था औपनिवेशिक शासन की आलोचना और भारतीय किसान की पक्षधरता. वे राष्ट्रीय और समाजवादी विचारों के प्रबल पक्षधर थे. ‘हंस’ उनके विचारों का वहन करने वाली पत्रिका थी. काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनने के बाद प्रेमचंद ने अपने अखबार ‘जागरण’ और उसके कार्यालय को इस पार्टी को दे दिया था. राष्ट्रीय भावना के प्रचार- प्रसार में उनके पूरे लेखन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. प्रेमचंद ने सीधे-सीधे न युद्ध की कहानियाँ लिखीं न पत्रों में प्रकाशित विश्वयुद्ध की सूचनाओं का आधार ग्रहण किया, बल्कि 1921 में सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की पृष्ठभूमि ग्रहण कर ‘दुस्साहस’, ‘लाग-डाँट’, ‘विचित्र होली’, ‘आदर्श विरोध’ और ‘लाल फीता’ शीर्षक पाँच कहानियाँ लिखीं.
‘दुस्साहस’ में असहयोग के दौरान शराब की दुकानों पर पिकेटिंग, ‘लाग-डांट’ में स्वतंत्रता आन्दोलन को दो जमींदारों के आपसी संबंधों के माध्यम से व्यक्त किया गया, इसी तरह ‘आदर्श विरोध’ शीर्षक कहानी में वायसराय की कार्यकारिणी सभा में नियुक्त होने वाले भारतीय बुद्धिजीवियों की मानसिकता और अवसरवादिता का यथार्थ विश्लेषण मिलता है. इसी तरह ‘सुहाग की साड़ी’ में सत्याग्रह आन्दोलन और ‘चकमा’ में असहयोग आन्दोलन के उस चरण से पाठक परिचित होता है, जिसमें विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए व्यापारियों और दुकानदारों से शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कराये जाते थे, बहुत से धनाढ्य सेठों की पूंजी इस आन्दोलन के कारण बाधित हुई थी और वे अपना सामान बेचने और पूँजी निकालने का प्रयास करते थे. यहाँ गौरतलब यह है कि प्रेमचंद ऐसे चरित्रों को खल के रूप में प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि मर्ज़ पर उंगली रख यह बताते हैं, कि कैसे स्वदेशी आन्दोलन के प्रति वास्तविक सहानुभूति रखने के पूंजीपतियों के वर्गहित औपनिवेशिक शासन के पक्ष में खड़ा रहने से ही सधते हैं. स्वयं गांधीजी भी पूरे स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध दीखते हैं,‘गाँधी: एक पुनर्मूल्यांकन’ शीर्षक लेख में कात्यायनी का तर्क है कि-
“गाँधी सामंती भूस्वामियों से बलात भू स्वामित्व छीनने के बजाय उन्हें समझा–बुझाकर कायल करने के पक्षधर थे. इसी कारण से,एक ओर तो काश्तकार किसानों की पिछड़ी चेतना वाली, धर्मभीरू और जमीनों की आकांक्षी भारी आबादी गाँधी के पीछे लामबंद हुई, दूसरी ओर किसान विद्रोहों की संभावना से भयभीत सामंतों को भी गांधी का यूटोपिया फिलहाली तौर पर अपने लिए मुफ़ीद जान पड़ा और गांधी उनके खुले विरोध को रोक पाने में काफी हद तक सफल रहे. देश के बहुतेरे सामंत कांग्रेस में शामिल हुए या कम से कम उसका विरोध नहीं किया,क्योंकि उन्हें भरोसा था कि स्वाधीनता यदि गांधीवादी नेतृत्व में हासिल होगी तो बलात उनकी भूसंपत्ति छीनी नहीं जाएगी और यदि भूमि सुधार किसी रूप में होंगे भी तो उनके हितों की हिफाज़त का पूरा ख्याल रखा जायेगा.’(‘आह्वान’ पत्रिका जनवरी 2015 ,पृष्ठ 21)
उस समय देश काल परिस्थिति की सामयिक मांग, जनता की ज़रूरत की समझ ,विभिन्न सामाजिक वर्गों की बुनावट और संघर्ष के मुद्दे और तत्संबंधी वैचारिक-राजनीतिक समझ ही प्रेमचंद को ‘जनता का रचनाकार ‘बनाती है, यहाँ तक कि 1928 में ‘साइमन कमीशन’ के भारत आने पर प्रेमचंद जैसा संवेदनशील कथाकार ही इस ज़रूरत को बहुत गहरे स्तर पर अनुभव करता है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है जो न्यायप्रिय, परोपकारी और संवेदनशील हों–
‘बौड़म’,‘दीक्षा’,‘त्यागी का प्रेम’-इसी भावाभिव्यक्ति की कहानियाँ हैं. ‘परीक्षा’ कहानी में प्रेमचंद ने नादिरशाह के दिल्ली आगमन, कत्लेआम का हुक्म तथा लालकिले में प्रवेश की ऐतिहासिक घटना को आधार बनाया. जिसमें उन्होंने बताया कि किसी भी देश की आज़ादी के लिए उसके निवासियों में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास की जरूरत होती है. औपनिवेशिक शासन के मूल चरित्र का पर्दाफ़ाश करने के लिए प्रेमचंद ने ‘राज्य भक्त’ और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ शीर्षक कहानियाँ लिखीं.‘शतरंज के खिलाड़ी’ में मिर्जा सज्जाद अली और मीर रोशनअली की कहानी है, जिसमें अपने समय का ऐतिहासिक यथार्थ साकार है–
“राज्य में हाहाकार मचा हुआ था. प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी कोई फरियाद सुनने वाला न था. देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची आती थी और वह वेश्याओं में, भाड़ों और विलासिता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी. अंग्रेज कम्पनी का ॠण दिन-दिन बढ़ता जाता था. कमली दिन-दिन भींगकर भारी होती जाती थी …इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी. कम्पनी की फौजें लखनऊ की तरफ बढ़ी चली आती थीं. शहर में हलचल मची हुई थी ….इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिए. वह गोरों की फ़ौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी. फिर …चार का बज़र बज ही रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली. नवाब वाजिद अली पकड़ लिए गए थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी. शहर में कोई हलचल न थी, न मार-काट. एक बूंद भी खून नहीं गिरा था. आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से, इस तरह खून बहे बिना न हुयी होगी. यह वह अहिंसा न थी, जिस पर बड़े-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं. अवध के विशाल देश का नवाब बंदी चला जाता था., और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था. यह राजनीतिक अधःपतन की सीमा थी.”
प्रेमचंद ने ऐतिहासिक यथार्थ का चित्रण अत्यंत कलात्मक ढंग से किया है, वे 1924 में औपनिवेशिक शासन के आरम्भ की कहानी लिख रहे थे, जो उससे 58 वर्ष पूर्व अंग्रेजों के छल- छंद और देश की विलासिता, राजनीतिक अधःपतन, गफलत, कर्तव्य-बोध के अभाव आदि के कारण संभव हुआ था. देश का सुविधाभोगी वर्ग जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है, उसका मनो-सामाजिक यथार्थ भी प्रेमचंद ने ही पकड़ा. यद्यपि प्रथम असहयोग आन्दोलन स्थगित हो गया था, पर प्रेमचंद की चेतना में वह लगातार जारी था. ‘सती’ शीर्षक कहानी इसी यथार्थ की अभिव्यक्ति करती है. इसमें एक ऐसी जांबाज लड़की का चित्रण किया गया है जो वीरता, त्याग और देश-प्रेम की प्रतीक है, वह इसे ही जीवन का चरम लक्ष्य मानती है और अपना सब कुछ न्यौछावर कर डालती है. ‘माता का हृदय’ में औपनिवेशिक शासन की कुटिल और हिंसक कार्रवाइयों का चित्रण किया गया है. ‘जुलूस’ (1930) कहानी में स्वतंत्रता- आन्दोलन को जन-आन्दोलन कहते हुए प्रेमचंद लिखते हैं-
“पूर्ण स्वराज्य का जुलूस निकल रहा था. कुछ युवक, कुछ बूढ़े, कुछ बालक झंडियाँ और झण्डे लिए वंदेमातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले. दोनों तरफ़ दर्शकों की दीवारें खड़ी थीं, मानो उन्हें इस लक्ष्य से कोई सरोकार नहीं है, मानो यह कोई तमाशा है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना है.”
प्रेमचंद आम आदमी की तटस्थता व नेतृत्व के राजनीतिक अन्तर्विरोध को कहानी में उजागर करते हैं और बुर्जुआ वर्गहित को प्रमुखता देने वाले,फैशन के तौर पर स्वराज की बात करने वाले, कथनी –करनी के फर्क को तार–तार पकड़ते हैं.
1857 के राष्ट्रीय आन्दोलन या ग़दर (इसके सही विशेषण के सन्दर्भ में अभी भी विद्वानों में मतभेद है,और यह अलग से चर्चा का विषय है) को भी हिंदी कथाकारों ने अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्त किया. पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने इस आन्दोलन को केंद्र में रखकर ‘रेन ऑफ़ टेरर’, ‘नादिरशाही- एक भीषण स्मृति ’‘कालकोठरी’ आदि कहानियाँ लिखी, जिनकी केन्द्रीय संवेदना का आधार है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी को अच्छी तरह मालूम था कि यह उत्तर भारत के किसानों का दुर्बल किन्तु संगठित विद्रोह था; जिनके आमूल-चूल दमन के लिए कम्पनी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी, अन्यथा किसानों या सैनिकों के छोटे से असंगठित झुण्ड (जिसे उन्होंने डाकू कहा) को आतंकित करने के लिए अवध के ग्रामीण किसानों का इतना बर्बर दमन करने की कोई ज़रूरत नहीं थी.
‘नादिरशाही’, ‘रेन ऑफ़ टेरर’ और ‘एक भीषण स्मृति’ में वाराणसी और इलाहाबाद में ब्रिटिश सेना द्वारा साधारण जनता के निर्मम दमन का यथार्थ वर्णन है, जिसके लिए कंपनी ने मान-मर्यादा, सभ्यता और बर्बरता की सारी सीमायें तोड़ दी. निरीह जनता की धन –संपत्ति की लूट,रियासतों के शासकों की निष्क्रियता ‘रेन ऑफ़ टेरर’ में चित्रित हुई है साथ ही असहयोग आन्दोलन में हिस्सा लेने वाले निहत्थे प्रदर्शनकारियों के दमन का चित्र भी प्रस्तुत किया है.
‘उग्र’ ने ‘देशद्रोह’, ‘पंजाब की महारानी’, ‘सिक्ख सरदार’ आदि कहानियों में महारानी जिन्दा के शासनकाल में अंग्रेजों की कूटनीति और मंत्री एवं सेनापति राजा लाल सिंह के अंग्रेजों से मिल जाने के कारण पंजाब के पतन का कथानक बुना है. ‘सिक्ख सरदार’ शीर्षक कहानी में अंतिम सिक्ख युद्ध में सिख सैनिकों की वीरता का अंकन किया गया तो ‘देशद्रोह’ शीर्षक कहानी में लाल सिंह की पोष्य पुत्री जय और लाल सिंह की वृद्धा दासी के पुत्र मोहन सिंह का देश-प्रेम और आत्म बलिदान चित्रित है. लाल सिंह युद्ध भूमि पर अपनी अंतिम साँस लेती हुई पुत्री के पास पहुँचता तो है, लेकिन देश-प्रेम से ओत–प्रोत पुत्री उसका तिरस्कार कर मृत्यु का वरण करती है. यह देश-प्रेम और आत्मबलिदान की कहानी है.
निजी संबंधों से कहीं ऊपर है- देश और उसकी सुरक्षा– यह कहानी इस भाव का वहन करती हुई पाठक के मन को भावुक कर देती है. ‘उग्र’ की ही दूसरी कहानी ‘दोज़ख! नरक!’ में 1922 में चौरीचौरा की घटना के बाद विषाक्त साम्प्रदायिक वातावरण में आदमी की परिवर्तित संवेदना को कहानी का केन्द्रीय विषय बनाया गया. इसी तरह ‘खुदाराम’ शीर्षक कहानी हिन्दू-मुस्लिम एकता का आदर्श प्रस्तुत करने वाली कहानी है. स्वतंत्रता-संग्राम को हिन्दी कहानी का कथ्य और उसके विविध आर्थिक मनो-सामाजिक पहलुओं को कहानी का विषय बनाने वाले रचनाकारों में प्रेमचंद के साथ ‘उग्र’ का नाम इन कहानियों के कारण ही उल्लेखनीय है, जिनके बारे में भवदेव पाण्डेय ने लिखा-
“उन्होंने अपनी रचनात्मक पूर्णता की तलाश कहानी-लेखन द्वारा शुरू की. वे एक कवि के रूप में नवजागरण के राजनीतिक बोध तक सीमित थे, परन्तु कहानियों की रचना द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक जीवन की हर धड़कन से जुड़ गये . … हिन्दू-मुसलमान के झगड़े, वर्ण-वर्ग और जातिगत भेद-भाव, पंडे-पुरोहित, ईश्वर के नाम पर चलने वाले हथकंडे, वासना की बदशक्ल तस्वीरें, साम्राज्यवादी शासन की क्रूरताएँ, सामंती शोषण राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए किए जाने वाले संघर्ष जैसे हजार-हजार दृश्य उनकी आँखों के सामने से गुजरे थे और इन सबकी नाप-जोख उन्होंने अपनी कहानियों की तुला पर की. कहीं जरा भी पासंग नहीं छोड़ा. न कहीं हिचके, न ही डरे. बाहरी यथार्थ के साथ आंतरिक यथार्थ की खोज की और एक ऐसे कहानीकार के रूप में उभरे कि उनका कवि रूप इसके नीचे दब गया.
(भवदेव पाण्डेय, ‘पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’- साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, 2001, पृ. 65 )
(पांच)
1919-22 का समय भारत में सत्याग्रह आन्दोलन का समय था, और जलियांवाला कांड ब्रिटिश सेना द्वारा निरीह जनता के दमन का चरम अमानवीय रूप था, जिससे पूरे देश का जनमानस क्षुब्ध था. कई कहानीकारों ने इस आहत–क्षुब्ध संवेदना को कहानी का केन्द्रीय विषय बनाया, मसलन सुदर्शन के कहानी-संग्रह ‘सुप्रभात’ की दस कहानियों में से छह – ‘सत्यमार्ग’ ‘ऐसा भी हुआ था’, ‘अँधेरे में निवास’, ‘प्रकाश की खोज’, ‘कैदी’ ‘कौन जीता: कौन हारा?’ और ‘अंतिम साधन’, सत्याग्रह आन्दोलन से सम्बद्ध कहानियाँ हैं.
‘ऐसा भी हुआ था ’में ‘जलियांवाला बाग हत्याकांड’ से जुड़े एक मार्मिक प्रसंग का अंकन किया गया है. आचार्य चतुरसेन शास्त्री की ‘सफेद कौआ’, ‘लम्बग्रीव’, ‘मुखबिर’ शीर्षक कहानियाँ अंग्रेजों के आगमन देश के औपनिवेशीकरण, आर्थिक शोषण, भारतीय जीवन में पश्चिमी संस्कृति के प्रवेश और स्वाधीनता संग्राम में महात्मा गाँधी के नेतृत्व पर केन्द्रित हैं. जैनेन्द्र कुमार भी इस समय तक कहानी-लेखन के क्षेत्र में आ चुके थे किन्तु उनकी कहानियों में स्वाधीनता- आन्दोलन की कोई स्पष्ट झलक नहीं दीखती. ‘स्पर्द्धा’ शीर्षक कहानी ही उन्होंने क्रांति की पृष्ठभूमि पर लिखी, जो ‘फाँसी’ (1929) शीर्षक संग्रह में संकलित है. यह इटली की क्रांति की पृष्ठभूमि में लिखी गई विदेशी पात्रों और परिवेश की कहानी है. जिस में मित्रता और कर्तव्य का द्वंद्व चित्रित है. ‘फाँसी’ कहानी के केन्द्रीय पात्र शमशेर को डाकू कहा गया है, क्योंकि औपनिवेशिक सरकार क्रांतिकारियों को डाकू कहकर ही दण्डित और बहिष्कृत करती थी.
यह कहानी क्रांतिकारियों के रूमानी पक्ष की अभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट रूप से द्रष्टव्य है. इस सन्दर्भ में,सन् 1929 में प्रकाशित प्रेमचंद की कहानी ‘फातिहा’ का उल्लेख किया जाना अनिवार्य है जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है. कहानी में ब्रिटिश सेना से लड़ते हुए एक अफ्रिदी दंपत्ति का, माँ की पीठ पर बंधा, बच्चा लड़ाई के मैदान में छूट जाता है. युवा होने पर, सैनिक अस्पताल में पला बच्चा सेना में भरती हो जाता है और बहादुर सैनिक के रूप में नामवरी हासिल कर लेता है. वह अपने पिता को नहीं जानता और युद्ध में अपने ही पिता की हत्या कर डालता है, जिसका शव शहर के चौमुहाने पर रखा हुआ है. कुछ आकस्मिक घटनाओं के बाद कहानी विश्वसनीयता प्राप्त करने में सफल हो जाती है. गोपाल राय ने इसकी कथा की प्रविधि को ‘कादम्बरी’ पर आधारित माना है (हिन्दी कहानी का इतिहास,खंड-1).
यह कहानी युद्ध भूमि के यथार्थ एवं मानवीय संवेदनाओं के सशक्त अंकन के लिए स्मरणीय है.
सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ जो अक्टूबर 1945 तक जारी रहा . 1944 के मध्य तक द्वितीय विश्वयुद्ध यूरोप के पश्चिमी भाग में लड़ा जा रहा था और भारतीय जनता ब्रिटेन के विरुद्ध हो गयी थी . 22 जून 1941 को हिटलर ने रूस और दिसम्बर 1941 में जापान ने दक्षिण-पूर्व एशिया पर आक्रमण कर दिया . इससे स्थिति बिल्कुल बदल गई, अब भारत में ब्रिटेन के साम्राज्य को जापान से खतरा पैदा हो गया . 1944 में सुभाष चंद्र बोस की ‘आज़ाद हिन्द सेना’ आसाम की सीमाओं पर पहुँच गई और भारतीय जनता दबी हुई उत्सुकता के साथ उसके भारत में प्रवेश की प्रतीक्षा करने लगी , पर 1945 में मित्र राष्ट्रों के पक्ष में युद्ध समाप्त हो गया और उधर सुभाषचंद्र बोस के रहस्यात्मक ढंग से गायब होने और बाद में उनके अवसान की सूचना से भारतीय जनता निराश हो गई .
यद्यपि 1944 में कोहिमा-इम्फाल क्षेत्र के अलावा भारत की वास्तविक सैन्य बर्बादी नहीं हुई, परन्तु भारत पर युद्ध के व्यापक और परोक्ष प्रभाव पड़े, मसलन अनियंत्रित-मुद्रा-स्फीति, भ्रष्टाचार, कीमत-वृद्धि, कालाबाजारी, चोर-बाजारी और 1943 में बंगाल का विनाशकारी अकाल. दोनों विश्व युद्ध साम्राज्यवाद के ही घनी भूत होते अन्तरविरोधों के चरम पर पहुँच जाने की अभिव्यक्ति थे. लेनिन ने साम्राज्यवाद के सभी पहलुओं को विस्तार से समझाने के क्रम में कहा था कि–
“साम्राज्यवाद पूँजीवाद की एकविशेष अवस्था है. यह विशिष्ट प्रकृति तीन रूपों में प्रकट होती है: (1) साम्राज्यवाद एकाधिकारी पूँजीवाद है;
(2) साम्राज्यवाद हृासोन्मुख पूँजीवादहै; और
(3) साम्राज्यवाद मरणासन्न पूँजीवाद है.”
लेनिन ने साम्राज्यवाद की पाँच बुनियादी विशेषताएँ इस प्रकार गिनायी थीः
“(1) उत्पादन और पूँजी केसंकेन्द्रण का परिमाण इस हद तक विकसित हो जाता है कि आर्थिक जीवन परएकाधिकारी संगठनों का आधिपत्य स्थापित हो जाता है;
(2) बैंकिंग पूँजी औरऔद्योगिक पूँजी एक दूसरे में मिल जाते हैं और इस वित्तीय पूँजी पर एकवित्तीय अल्पतन्त्र का उदय होता है.
(3) मालों के निर्यात से पूर्णतयाभिन्न, पूँजी का निर्यात एक विशेष महत्त्व ग्रहण कर लेता है; (4) अन्तरराष्ट्रीय एकाधिकार संघों का निर्माण होता है;
(5) सर्वाधिक शक्तिशालीपूँजीवादी शक्तियों के बीच पूरी दुनिया का क्षेत्रीय बँटवारा पूरा हो जाताहै.”
इस आलोक में देखें तो युद्धोत्तर भारत में बेकारी, अन्नसंकट, महंगाई और भ्रष्टाचार की विषम समस्याएँ जो उत्पन्न हो गयी थीं, उनके पीछे पूंजीवादी भूख थी.ऐसी परिस्थितियों में पूँजीवाद जनित संकटों का पैदा होना अवश्यम्भावी था और 1929-30 मेंजिस महामन्दी ने पूँजीवाद के दरवाजे़ पर जो दस्तक दी थी वह मन्दी इतिहास कीसबसे ख़तरनाक मन्दी साबित हुई. इससे निजात पाने के लिए साम्राज्यवादियों को एक और भीषण युद्ध की दरकार थी. जापान और जर्मनी का औद्योगिक विकास काफ़ी बड़े पैमाने पर हुआ था. जापान प्रथम विश्व युद्ध में विजयी खेमे के साथ था लेकिन उसे कुछ विशेष हासिल नहीं हुआ था. द्वितीय विश्वयुद्ध ऐसी ही स्थितियों की उपज था,उधर 1942 के अंत तक ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन कुचल दिया था . इस पृष्ठभूमि में हिंदी के बहुत से कहानीकार अपने ढंग से समकालीन समाज और युद्धोत्तर परिस्थितियों को व्यक्त कर रहे थे. पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने ‘अवतार’ शीर्षक कहानी लिखी, जो किसी परतंत्र देश(भारत) के स्वाधीनता – संघर्ष को व्यंजित करती है-इसमें एक चरित्र कहता है-
“जिस देश के अवतार की यह कथा है, उस देश पर उन दिनों विदेशी विजेताओं का शासन था. वे विदेशी नर नहीं नराधम थे- नरपशु थे.”
उग्र के साथ ही विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ ने भी द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में कई कहानियाँ लिखीं जिनमें विश्वयुद्ध से उत्पन्न स्थितियों का अनेक रूपों में चित्रण हुआ है. ‘पेरिस की नर्तकी’ शीर्षक कहानी फ्रांस और जर्मनी के युद्ध की कहानी है. जिसमें नर्तकी ऐंड्री जर्मनी से मिलकर फ्रांस की जनता को अपनी नृत्यकला और प्रभावशाली मृदु व्यक्तित्व से मोहित कर युद्ध- विमुख करने के प्रयास में लगी हुई है. कुछ देश- भक्त साम्यवादी उसे एक जर्मन अधिकारी के घर से निकलते समय पकड़ लेते हैं और अपने शिविर में लाकर आत्महत्या के लिए बाध्य कर देते हैं. कहानी देशप्रेम पर आधारित है. यह कहानी एक स्त्री के स्वयं को होम कर देने की कहानी है जिसकी दृष्टि में देशभक्ति से बड़ा कुछ नहीं, स्वत्व भी नहीं. इसी तरह ‘प्रतिशोधोन्माद’ और ‘प्रति हिंसा’ (1945) शीर्षक कहानियाँ भी देशभक्त फ्रांसीसी युवकों और लड़कियों के साहस तथा बलिदान की कहानियाँ हैं.
‘कौशिक’ जी का फ्रांस की राजनीति और युद्ध विषयक विवरणों का ज्ञान आश्चर्य पैदा करने वाला है. उनके चित्रण स्वानुभूत लगते हैं, जो हिन्दी साहित्यकारों की व्यापक अनुभव सम्पन्नता और उनके विश्वबोध को बताने के लिए पर्याप्त हैं, साथ ही यह भी कि द्वितीय विश्वयुद्ध आते–आते रेडियो जैसे माध्यमों और समाचारपत्रों में प्रकाशित पूरे विश्व की सूचनाएँ भारतीय आम जन को न सिर्फ वैचारिक दृष्टि से समृद्ध और प्रबुद्ध बना रही थीं, बल्कि वैश्विक घटनाओं की साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए प्रेरणा भी दे रही थीं. कौशिक की ‘पूरी कीमत’ शीर्षक कहानी में बर्मा पर जापानियों का अधिकार हो जाने के बाद वहाँ की जनता से जापानी सेनाओं के दुर्व्यवहार और दमन का वर्णन किया गया है. इसी तरह ‘मनुष्य’ कहानी में जापानियों के बर्मा पर आक्रमण के बाद वहाँ से भारतीयों के पलायन का वर्णन किया गया है. संभवतः जो लोग वहां से जान बचाकर भारत आ पाए, ये रचनाकार उनको अपनी पैनी नज़र से देख पा रहे थे, क्योंकि इस कहानी में, बर्मी लड़की, जापानी बलात्कारी के प्राण ले लेती है,पर स्वत्व और आत्मसम्मान की रक्षा में अपने प्राण गंवा देती है.
‘मनुष्यता का दंड’ कौशिक द्वारा लिखित एक उत्कृष्ट कहानी है. युद्ध का मूल स्वभाव हमेशा मानवता विरोधी ही होता है, लेकिन युद्ध की विभीषिका के मध्य भी बच रही मानवीय संवेदना ही मनुष्यता के पुनर्निर्माण की प्रेरणा भी देती है. यह कहानी युद्धोत्तर यूरोपीय कहानियों के अवसाद पूर्ण अंत से अलग निराशा की जगह आशा की राह दिखाने का प्रयास करती है.
स्त्री के स्वत्व से राष्ट्र सम्मान को जोड़ने का विचार पूरे भारतीय नवजागरण के चिंतन का केंद्र बिंदु था. विदेशी पृष्ठभूमि की कहानी कहते हुए भी भारतीय पितृसत्तात्मक मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास इन रचनाकारों को मौलिक बनाता है. इनमें स्वाभिमान की रक्षा करने के साहस का रोमांचक और मार्मिक वर्णन किया गया है.अधिकांश कहानियों में स्त्रियाँ ममता, देश प्रेम के लिए बलिदान हेतु तत्पर, हँसते–हँसते अपने प्राण न्योछावर करने वाली पात्र हैं.
कमी केवल यही है कि जहाँ प्रेमचंद स्त्री पात्रों के मनो-जगत का विश्लेषण उसी संवेदनशीलता और गहराई से करने का प्रयास करते हैं जैसे पुरुष पात्रों का, वहीं कौशिक और ‘उग्र’ जैसे रचनाकारों के स्त्री पात्र लेखकीय सम्मोहन से परिचालित दिखते हैं. ये कहानीकार निहायत पितृसत्तात्मक दृष्टि से युद्ध जैसी विभीषिका की पृष्ठभूमि में भी स्त्री का देवी रूप चित्रित करते हैं क्योंकि उनकी कथा संवेदना को स्त्री का साधारण मानवी रूप अनुकूल नहीं जान पाता. जहाँ भी उन्हें स्त्री के मोहक रूप की कल्पना करने की ज़रूरत होती है, वे कहानी की पृष्ठभूमि विदेशी बना देते हैं. हँसते–हँसते प्राण दे देना, देशभक्त के रूप में सतीत्व के नाश की जगह मृत्यु का वरण कर लेना- थोपी हुई संवेदनाएं प्रतीत होती हैं,जो इनकी कहानियों को यथार्थ से कुछ दूर खड़ा कर देती हैं. ये भी देखने योग्य है कि ये रचनाकार भारतीय स्त्रियों की एक आदर्श छवि स्थापित करने की इच्छा से परिचालित हैं, जो पार्थ चटर्जी की ‘नई स्त्री छवि’ से भी एक कदम आगे है, जो घर से बाहर काम-कर्ता स्त्री है, लेकिन यौन शुचिता और सतीत्व की रक्षा अपनी जान देकर भी करती है.
विश्वयुद्ध ने भारत की आम जनता को आर्थिक तौर पर संकट ग्रस्त कर दिया था. ‘भोला शिकार’ शीर्षक कहानी में आवश्यकता की चीज़ों की अनुपलब्धता का वर्णन किया गया है. जमाखोरी, रिश्वतखोरी के बारे में ‘चौबे से दुबे’ कहानी में व्यंग्य और विनोद की शैली में चुटीली टिप्पणियाँ की गई हैं. विश्वयुद्ध के समय बाज़ार में, कंट्रोल की दुकानों में भी, गेहूँ की अनुपलब्धता पर आधारित यथार्थ और मार्मिक कहानी है ‘पशु वृत्ति’. बीमारी से उठे बच्चे के पथ्य के लिए एक सेर गेहूँ का न मिल पाना,कहानी को कारुणिक बनाता है और लेखक अपने पाठक के हृदय में युद्ध विरोधी संवेदना को उभरने में सक्षम हो जाता है. समय के यथार्थ को निर्ममता पूर्वक उद्घाटित करने वाली इस कहानी का निष्कर्ष है कि ‘पशुओं में फिर भी कुछ मर्यादा है, परन्तु मनुष्य तो पशुओं से भी गया-बीता है.’
‘आर्त’ कहानी में भी युद्ध काल में गरीबों की दुरवस्था वर्णित है, युद्ध की स्थिति में अमीर तो किसी भी तरह जी लेते हैं, लेकिन गरीब लोग-जिनकी नियति है रोज़ कुआँ खोदना और पानी पीना –उनके लिए युद्ध के बाद की स्थितियां भी मारक होती हैं. बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करने वाले बच जाते हैं और गरीब आदमी जो विवशता में छोटी- मोटी चोरी कर लेता है,व्यवस्था उसे कड़ा दंड देती है. लाखों की चोरी करने वाले आराम की जिंदगी बसर करते हैं. निर्धन आदमी की विवशता के यथार्थ और कारुणिक वर्णन में लेखक का मन खूब रमा है.
(छह)
1942 में प्रकाशित उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ की कहानी ‘खटक’ द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण बाज़ार में अनाज की कमी और कालाबाजारी के सच का अंकन करने वाली कहानी है. कहानी का मुख्य पात्र शिवप्रसाद बुद्धिजीवी है और घर में उसकी पत्नी अनाज की जमाखोरी करती है.वह आमसभाओं, बैठकों में जमाखोरी का विरोध करता है लेकिन निजी जीवन में भविष्य की चिंता से आक्रांत पत्नी का विरोध नहीं कर पाता. कथनी और करनी का यह अंतर कहानी में लेखक, बुद्धिजीवी पात्र के माध्यम से उभारने में पूरी तरह सक्षम हुआ है. ‘कैप्टन रशीद’ शीर्षक कहानी युद्ध के माहौल में फ़ौजी तंत्र के भ्रष्टाचार का पर्दाफ़ाश करने वाली है. इसमें सरकारी कार्यालयों और फ़ौजी संगठनों में उच्च पदस्थ अधिकारियों के भ्रष्टाचार को, जो थोड़े लाभ के लिए जान –माल के साथ समझौता करने को तैयार हैं, दिखाया गया है. व्यवस्था की आलोचना इस कहानी का मूल स्वर है.
सन् 1945-46 में रामप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ ने युद्ध की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की.उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत 1927 में कलकत्ता से प्रकाशित ‘सरोज’ पत्रिका में प्रकाशित एक कहानी के साथ की. लगभग 50 वर्ष तक चली इस साहित्य यात्रा में उनके 19 कहानी संग्रह तथा 3 उपन्यास प्रकाशित हुए. जीवन का कठोर यथार्थ उनके कथा साहित्य की भावभूमि रहा. उनकी प्रगतिशील कहानियों की प्रेमचंद तक ने सराहना की थी. बंगाल के अकाल के जीवन्त वर्णन एवं युद्ध एवं पर्वतीय जीवन की विडम्बनाओं के चित्रण में उनका कोई सानी नहीं रहा, उनकी कहानी ‘चीन के आँचल’ में युद्ध विरोधी संवेदना की कहानी है. युद्ध मानवीय संवेदना को कितने गहरे तक प्रभावित कर डालता है, मनुष्य की मनुष्यता पर से कैसे विश्वास उठ जाता है, कहानी का यही अभिप्रेत है.
चीनी लड़की सोया युद्ध में बंदी बनाये गये जापानी जनरल की रक्षा करती है और उसके साथ बतौर प्रेमिका जापानी खेमे में जा पहुँचती है पर वहाँ ‘जापान के प्रति घृणा फ़ैलाने का आरोप लगाया जाता है और मिलता है मृत्यु दंड. जो ‘ट्रिब्यूनल’ उसे सजा सुनाता है, उसमें वह जनरल भी है, जिसकी रक्षा सोया ने की थी. पर उसी रात जनरल भी गायब हो जाता है, फिर लौटता नहीं संभवतः वह आत्महत्या कर लेता है. यह कहानी प्रेम की संवेदना से परिपूर्ण कहानी है, जो युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गयी है. जनरल सबके सामने कह नहीं पाता कि सोया उसकी प्रेमिका है और वह जापानी खेमे में अपने प्रेम के लिए आई है. प्रेम करना और प्रेम की रक्षा का साहस दोनों दो बातें हैं. सोया को मृत्यु दंड सुनाना, कहीं स्वयं को मृत्यु दंड सुनाना ही है.
जनरल ग्लानि से आत्महत्या को प्रवृत्त होता है या प्रेमिका से एकमेव होने के लिए, कहानी यह स्पष्ट नहीं कर पाती. कहानीकार कहीं यह सन्देश देना चाहता है कि दूसरे की रक्षा करके ही खुद की भी रक्षा की जा सकती है, जो दूसरे के पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता उसका अपने पक्ष में भी खड़ा होना संभव नहीं.
‘नया रास्ता’ (1946) शीर्षक कहानी-संग्रह में ‘पहाड़ी’ की द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सामाजिक–आर्थिक प्रभावों का यथार्थ चित्रण करने वाली कई कहानियाँ संकलित हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध में 61 देशों ने हिस्सा लिया, इनमें से भारत समेत अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा. भारत में 1946 तक इन्जीनीयरिंग उद्योग ठीक से विकसित नहीं थे, युद्ध के बाद उत्पादन में निरंतर कमी देखी गयी क्योंकि निवेश के लिए पूंजी का अभाव था. अँगरेज़ सरकार एक टूटी और विभाजित अर्थव्यवस्था अपने पीछे छोड़ कर जाने को तैयार थी. सांप्रदायिक विभेद,राजनीतिक अस्थिरता ने उत्पादन में गिरावट को प्रोत्साहन दिया. ब्रिटिश सरकार ने अपने जाने के पहले हिन्दू–मुसलमान विभेद को चरम सीमा पर पहुंचा दिया, उनके जाने तक पश्चिम बंगाल की जूट-मिलों को पूर्वी बंगाल से कच्चा माल मिलना बंद हो गया,पंजाब और सिंध प्रान्तों की अच्छी उपज के लाभ से देश के अन्य भाग वंचित हो गए, अलग-अलग रियासतें अपनी–अपनी जोड़-तोड़ में लग गयीं. मंडियों की हानि भी भारतीय उद्योगों के लिए गंभीर धक्का साबित हुई. आम जनता की आर्थिक तंगी से चरमराती ज़िन्दगी, दैनिक उपयोग की वस्तुओं की कालाबाजारी, बंगाल का अकाल आदि ऐसी घटनाएँ थीं जो युद्ध के परिणाम के रूप में सामने आयीं और जिन्होंने संवेदनशील मानस को क्षुब्ध किया.
‘अतिथि’ शीर्षक से ‘पहाड़ी’ की 9000 शब्दों की लम्बी कहानी को इस दृष्टि से देखा जा सकता है, जिसमें इन स्थितियों का विश्वसनीय चित्रण किया गया है. ‘क्यू’ शीर्षक कहानी में भी द्वितीय विश्वयुद्ध के समय आवश्यक वस्तुओं की कमी और उनकी प्राप्ति में होने वाली कठिनाइयों का वर्णन किया गया है. ‘तूफान’ कहानी में उन्होंने पर्वतीय-जीवन में युद्ध-जनित संकट का आँखों –देखा चित्रण किया है. नौजवानों के युद्ध में चले जाने के बाद उनकी पत्नियों तथा बेसहारा विधवाओं की दशा का अत्यंत मार्मिक अंकन है. दरअसल ‘पहाड़ी’ पर्वतीय जीवन की पृष्ठभूमि से सम्बद्ध थे, स्वानुभूति को कथा में ढाल देने में उन्हें महारत हासिल थी. ‘नागफाँस’ भी द्वितीय विश्वयुद्ध से सम्बंधित कहानी है, परन्तु लेखक की राजनीतिक समझ बहुत स्पष्ट न होने के कारण कहानी पाठक पर अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ पाती. ‘संक्रांति’ शीर्षक कहानी में द्वितीय विश्वयुद्ध के स्वरूप और राजनीतिक क्रांति के लिए तत्पर एवं सक्रिय युवकों पर सरकार के अत्याचार का वर्णन है.
(सात)
साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित होकर रचना करने वालों में यशपाल प्रमुख थे. यशपाल मार्क्सवादी विचार से प्रभावित थे और उनकी रचनाओं की मूल विषय-वस्तु ही मार्क्सवादी राजनीति और समाज है. यशपाल ने बीसवीं शताब्दी के पाँचवें दशक में युद्ध का परिणाम दिखाने वाली कई कहानियाँ लिखीं. ‘रोटी का मोल’ शीर्षक कहानी में कालाबाजारी की समस्या को केन्द्र में रखा गया है, जो युद्ध के बाद बुरी तरह बढ़ गई थी, ‘महादान’ शीर्षक कहानी, जो बंगाल के अकाल पर केन्द्रित व्यंग्य-प्रधान कहानी है, इसमें सेठ मुनाफे के लिए अन्न को गोदामों में छिपाकर जमा करता है और दूसरी ओर अकाल पीड़ितों को अपनी हवेली में एक-एक मुट्ठी चना देने की व्यवस्था करता है. युद्धोत्तर भारत में सामान्य आदमी की कथनी और करनी के भेद को यह कहानी बताती है.
हिंदी में ‘नयी कहानी’ आन्दोलन में अनुभूति की प्रामाणिकता पर बहुत बल दिया गया. यशपाल की कहानी ‘वान हिंडनवर्ग’ वात्सल्य सम्वेदना की बहुत अच्छी कहानी है, जिसका परिवेश द्वितीय विश्वयुद्ध है, जब कलकत्ता पर जापानियों ने बम गिराए थे- यह कहानी स्वानुभूत न होते हुए भी गहरी संवेदना पर आधारित थी, जिसे ‘नई कहानी’ आन्दोलन में ‘प्रामाणिकता’ के प्रश्न पर आलोचना का शिकार बनना पड़ा. ‘साग’ शीर्षक कहानी क्रांतिकारी जीवन पर आधारित उत्कृष्ट कहानी है, जिसमें विद्रोहियों की कब्र पर उगा साग अंग्रेज साहबों के भोजन के लिए भेजा जाता है, तो कोई भी हिन्दुस्तानी उसका विरोध नहीं कर पाता. कहानीकार के अनुसार,
“आह सबके दिल में थी परन्तु आहें सबकी अलग-अलग बिखरी हुई: निर्जीव श्वासों की भांति उनके ह्रदय से निकल हवा में समाप्त हो रही थीं. एक साथ मिलकर वे आधी भी शक्ति न पा सकती थीं, क्योंकि उन्हें परस्पर का भय था. भय- अपनों से भय, शत्रु से भय, सब ओर भय!”
शासक और दमन से भय और स्वयं की रक्षा की चिंता कैसे अपने देशवासियों की कब्र पर उगे साग की वास्तविकता को बताने का साहस छीन लेती है. कहानी मध्यवर्गीय नपुंसक व्यवहार को बहुत अच्छे ढंग से विवेचित करती है. यहाँ साग ‘क्रान्ति’ का प्रतीक है,जो दमित करने के बाद भी बार-बार उग आता है. ‘जिम्मेवारी’ शीर्षक कहानी में यशपाल ऐसी स्त्री-पात्र को केन्द्रीय चरित्र के रूप में सामने लाते हैं जो परम्परागत रूढ़ियों को तोड़कर सेना में भर्ती होती है और परिश्रम से अपना जीवन मार्ग स्वयं बनाती है.
स्त्री किस तरह पितृसत्ता के मानसिक अनुकूलन का शिकार हो जाती है कि वह नौकरी तो कर लेती है पर लेकिन मुक्त साहचर्य,या सहजीवन की अवधारणा को स्वीकार नहीं कर पाती. माँ बनने का उसका सपना भंग हो जाता है, क्योंकि वह अवैध मातृत्व स्वीकार करने में असमर्थ है.समाज ने उसे यह सिखाया है कि वैवाहिक सम्बन्ध के बिना संतानोत्पत्ति अवैध है. वह एकाकी रह जाती है,क्योंकि विवाह नहीं करती और विवाह-विहीन संतानोत्पत्ति करने का साहस और अनुमति उसके संस्कार नहीं देते. इस कहानी में स्त्री की आंतरिक संवेदना और मानसिक द्वंद्व की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है.
देश विभाजन की पृष्ठभूमि में विष्णु प्रभाकर ने कुछ बहुत ही अच्छी कहानियाँ लिखीं -‘एक पिता की संतान’, ‘रहमान का बेटा’, ‘अधूरी कहानी’, ‘माँ-बाप’, ‘तांगेवाला ‘आखिर क्यों’, ‘उस दिन’, ‘देशद्रोही’, ‘मैं जिन्दा रहूँगा’ जैसी कहानियाँ तत्कालीन सांप्रदायिक स्थितियों और मानवीय संवेदनाओं का चित्रण करने वाली कहानियाँ हैं. इनमें कुछ तो साम्प्रदायिक उन्माद और कुछ साम्प्रदायिक माहौल का यथार्थ चित्रण करती हैं. ‘तांगेवाला’ शीर्षक कहानी सन् 1947 के आसपास दिल्ली की सांप्रदायिक स्थिति पर सचेत टिप्पणी करने वाली कहानी है, जिसका केन्द्रीय पात्र एक गरीब मुसलमान है जो तांगा लेकर दिन भर भटकता है लेकिन बदली परिस्थितियों में हिन्दू मुसलमानों में उपजी पारस्परिक घृणा के माहौल में मरणासन्न बच्चे के लिए वह दवा जुटा नहीं पाता. कल तक जो लोग उसके लिए सवारियां थे और वह उनके लिए तांगेवाला, अब अचानक ही साम्प्रदायिकता के ज़हर ने उसे मुसलमान बना दिया है, जिसके तांगे पर सवारी करने के लिए कोई हिन्दू तैयार नहीं.‘मेरा वतन’ में देश के बंटवारे के बाद दंगों और विस्थापितों की मानसिकता का वर्णन है. धार्मिक उन्माद किस तरह मनुष्य को पशु में रूपांतरित कर देता है, वह मनुष्य न रहकर हिन्दू –मुसलमान हो जाता है. मौकापरस्त नेता सांप्रदायिक उन्माद का ज़हर आम आदमी के भीतर डाल देते हैं. अपने वतन और खेतों से विस्थापित होकर दूसरी जगह जाकर भी उसकी स्मृति में अपना वतन, अपना देश ही रहता है,उसकी मनोदशा हमेशा जमीन से उखड़े हुए शरणार्थी की ही रहती है, इसका बहुत सजीव अंकन इस कहानी में मिलता है .
स्वतंत्रता के बाद भी युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखने वाले कहानीकारों में रामप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ ही प्रमुख हैं उनकी कहानियों में युद्ध विरोधी स्वर की प्रमुखता है. कहानी संग्रह ‘तूफान के बाद’ की शीर्षकहीन भूमिका में पहाड़ी ने लिखा-
“युद्धों ने किस भाँति हमारे जीवन की गति में रूकावट डालकर हमें मानव से हैवान बनाया, इसे कौन नहीं जानता है? फिर उसी युद्ध की आग को पूर्व में अमरीका ने अपने घर से हजारों मील की दूरी पर कोरिया में सुलगाया है. वह आगे नहीं बढ़ी उसका कारण यह है कि दुनिया के अधिक नागरिक शांति चाहते हैं.”
‘तूफान के बाद’ शीर्षक कहानी-संग्रह में पहाड़ी ने राजनीतिक दृष्टि से युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी कहानियाँ रखीं. ‘इतिहास की गति’, ‘समानांतर रेखाएँ’और ‘भेड़िए की माँद’ में युद्ध- जनित महँगाई जमाखोरी, कालाबाजारी, आवश्यक वस्तुओं की अनुपलब्धता आदि का चित्रण किया गया है. युद्ध किस प्रकार पर्वतीय जीवनचर्या को तितर-बितर कर डालता है ,कई पर्वतीय ग्रामों के प्रत्येक परिवार का कोई न कोई सदस्य सेना का अंग है जिसकी कमाई से घर खर्च चलता है ,उसके लौट के न आने या छुट्टी न मिलने से पारिवारिक अर्थ-तंत्र ही प्रभावित नहीं होता, बल्कि खेती-बाड़ी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है और इस में सबसे ज्यादा त्रासद स्थिति का सामना करते हैं – पशु ,बच्चे और औरतें.
ऊपर से देखने पर यह कहानी-संग्रह सरल दिखने वाली कहानियां समेटे हुए है पर इसका पुनर्पाठ समाज का जटिल और संश्लिष्ट रूप सामने लाता है. इनमें व्यक्तिगत, राजनैतिक और सामाजिक जीवन स्थितियां एक गहरे तनाव की तरह घुली मिली हैं– कोई भी जीवन स्थिति अपने में स्वायत्त नहीं है, इनमें आपसी टकराहटों से नई स्थितियों के बनने के साक्ष्य हैं. राजनैतिक और वैश्विक परिदृश्य निजी जीवन को प्रभावित करता है, आपसी सम्बन्ध टूटते हैं– चरित्र नई भूमिकाएं निभाने लगते हैं, और ग्राम की राजनीति बदलने लगती है, स्त्री–पुरुष सम्बन्ध बदलने लगते हैं. लाम पर जाने वाला पुरुष हमेशा पृष्ठभूमि में रहता है, और स्त्री की प्रतीक्षा की परीक्षा चलती रहती है. अर्थ किस तरह मानवीय संबंधों को नए ढंग से परिभाषित करता है,पत्नी सिर्फ विरहिणी रहना ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकती– उसकी प्राथमिकतायें भूख और अभाव बदल डालते हैं.
जंगलात में पत्ते इकट्ठे करने का काम,ठेकेदारों द्वारा देह–शोषण, और घर चलाने का उत्तरदायित्व स्त्री के व्यक्तिगत संबंधों को बदलते हैं,उसकी अस्मिता पर प्रहार के नए हथकंडे पर्वतीय ग्रामों में पितृसत्तात्मक छल–छद्म का आईना दिखाते हैं, जिनसे मैदानी इलाके के पाठक अक्सर अपरिचित ही रह जाते हैं.इनका चित्रण पहाड़ी की कहानियों का वैशिष्ट्य है. ‘तूफ़ान के बाद’, ‘कुछ पुरानी सी बात’, ‘नयी कहानी का प्लाट’, ‘नारी की आकांक्षा’ आदि कहानियों को कथ्य के वैशिष्ट्य की दृष्टि से देखा जाना चाहिए. ‘पहाड़ी’ ने ‘उसका सुहाग’, ‘देश की बात’, ‘मुरीला’ आदि कहानियाँ क्रांतिकारी जीवन पर भी लिखीं हैं- जो लेखक के अनुभव क्षेत्र से दूर होने के कारण पाठक पर अपेक्षित प्रभाव नहीं डाल पातीं. ‘मुरीला’ कहानी व्यक्तिगत और राष्ट्रप्रेम के द्वंद्व की कहानी है, जिसमें जापान द्वारा चीन पर आक्रमण के समय चीनी क्रांतिकारी दल की गतिविधियों का चित्रण है. चीन की युवती मुरीला देश-प्रेम में अपने जापानी पति और बच्चों की हत्या करने से भी नहीं चूकती. जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है,इन लेखकों के लिए स्त्री-चरित्र कठपुतली जैसे हैं,जिसकी आंतरिक संवेदना को उभारने में पहाड़ी जैसे लेखकों की रचनात्मक और अनुभवात्मक संवेदना की सीमायें दीख जाती हैं. सम्वेदनाओं के द्वंद्व को प्रभावी ढंग से उकेर न पाने के कारण यह कहानी पाठक पर कोई विशिष्ट प्रभाव नहीं छोड़ती .
(आठ)
युद्ध की पृष्ठभूमि पर कहानी लिखने वाले स्वातंत्र्योत्तर रचनाकारों में सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ प्रमुख हैं. स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हिन्दी कहानी के जिन रचनाकारों ने कहानी को लेकर बहुत अधिक वैविध्यपूर्ण ठोस चिन्तन किया है,उनमें वे प्रमुख हैं. अंग्रेजी में एम्.ए. करने के दौरान क्रांतिकारी आन्दोलन में सक्रिय हुए. क्रांतिकारी दल में सम्मिलित होकर चंद्रशेखर आजाद तथा यशपाल, प्रकाशवती के साथ भूमिगत रूप से कार्य किया. 1930 में इन्हें ब्रिटिश-शासन ने गिरफ्तार कर लिया. चार वर्ष के बंदी जीवन तथा दो वर्ष की नज़रबंदी ने उनकी रचनाओं को स्वानुभूति की प्रखरता प्रदान की.
अज्ञेय ने विभिन्न क्षेत्रों में कार्य किया – मेरठ के किसान आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया और 1943-1946 में फासीवादी विचारधारा के विरोध में ब्रिटिश-सेना में भरती होकर सैनिक जीवन जिया. सन 1955 में यूरोप, जापान और पूर्वी एशिया घूमे. युद्धोत्तर यूरोप और एशिया को उन्होंने अपनी आँखों से देखा और घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण किसी एक जगह टिके नहीं, जिस से इनकी रचनाओं में वैविद्ध्य आया. कुछ समय तक उन्होंने 1946 में सेना की नौकरी छोड़ दी थी और 1947 में, इलाहाबाद प्रवास के दौरान एक साल के भीतर ‘हीली-बोन् की बत्तखें’, ‘मेजर चौधरी की वापसी,‘लेटर बाक्स’, ‘शरणदाता’, ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई’ ‘रमन्ते तत्र देवता’, ‘बदला’ शीर्षक सात कहानियाँ लिखीं थीं, जिनमें से पहली दो सैनिक जीवन से और अंतिम पाँच भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय हिन्दू-मुस्लिम दंगों की विभिन्न मनोदशाओं से सम्बद्ध हैं. अपनी कथा दृष्टि के सन्दर्भ में उनकी टिप्पणी है –
‘थोड़ी और स्पष्ट बात यह होगी कि मेरी जिज्ञासा और दिलचस्पी आदर्शपरक रचना से बढ़ती हुई क्रमशः यथार्थोन्मुख होती गयी. और भी स्पष्ट यह कि जिस यथार्थ की ओर मैं अधिकाधिक बढ़ा, वह ‘बाह्य’ या ‘भौतिक’ या सामाजिक’ यथार्थ से पहले आभ्यन्तर, मानस अथवा मनोवैज्ञानिक यथार्थ था.’ ‘मेजर चौधरी की वापसी’, ‘जयदोल’, ‘नगा पर्वत की एक घटना’ इन तीन कहानियों की पृष्ठभूमि इतिहास और युद्ध से प्रेरित है. ’अज्ञेय’ का क्रान्तिकारी मानस आरम्भ की कहानियों की प्रेरणा बना और क्रान्तिकारी जीवन का आत्मकथ्य उनमें जब्त होता गया. ‘अज्ञेय’ का क्रान्तिकारी और विद्रोही रचना-मानस और मनोवैज्ञानिक यथार्थ के प्रति रुझान ने उनसे इन कहानियों की रचना करवाई. ‘मेजर चौधरी की वापसी’ युद्ध समाप्ति के बाद सैनिकों की मन स्थिति की कहानी है. इसमें युद्ध में घायल युवक जो संतानोत्पत्ति में असमर्थ हो गया है- उसकी मनोदशा का चित्रण हुआ है, ‘अज्ञेय’ ने इस कहानी के सन्दर्भ में टिप्पणी करते हुए लिखा है–
“यौन सम्भोग के सन्दर्भ में नामर्दी की कहानियाँ मिल जाएंगी. वैसी स्थिति में पुरुष की यन्त्रणा और ‘सन्त्रास’ का चित्र भी मिल जाएगा, (यह तो आज का सामाजिक यथार्थ है!) पर युद्ध में आहत होकर सन्तानोत्पत्ति के लिए असमर्थ हो गये युवा पति की मनोव्यथा का चित्र कहाँ है? (और मनोव्यथा केवल ‘अपना’ दर्द नहीं होती, अपने कारण दूसरे को मिलने वाले दर्द की पहचान भी होती है, प्रेमी की संवेदना का यह विस्तार भी एक मूल्य है!) और कौन-सा दूसरा तर्ज़े-बयां उसके लिए अधिक उपयुक्त होता?”(अज्ञेय-रचनावली की भूमिका,संपादन कृष्णदत्त पालीवाल)
‘नगा पर्वत की एक घटना’ में युद्ध संहिता की नैतिकता पर बौद्धिक विमर्श है. ‘हीली-बोन् की बत्तखें’ शीर्षक कहानी की पृष्ठभूमि में सैनिक जीवन है और उसमें अंकित संवेदना स्त्री की संतानहीनता की मनोवैज्ञानिक स्थिति से सम्बद्ध है. 1947 में अज्ञेय ने भारत-विभाजन की त्रासदी पर पाँच कहानियाँ -‘लेटर बाक्स’, ‘शरणदाता’, ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई’ ‘रमन्ते तत्र देवता’, ‘बदला ’शीर्षक से लिखीं. सन्1947 में देश विभाजन की त्रासदी पर आधारित एक और कहानी ‘नारंगियाँ’ की रचना की, जिनके बारे में स्वयं ‘अज्ञेय’ का कहना है-
“मैं युद्ध का समर्थक न था, न हूँ; पर यह तर्क मुझे ग्राह्य नहीं लगता था कि भारत क्योंकि पराधीन है इसलिए शत्रु से उसकी रक्षा हमारा काम नहीं है. नहीं मनोवृत्ति मैं किसी भी काम के बारे में अपना सका हूँ कि ‘यह बुरा अथवा गन्दा काम है, इसलिए मैं नहीं करूँगा- पर आवश्यक है इसलिए तुम मेरे लिए कर दो!’ आज भी मैं नहीं मानता कि विगत महायुद्ध में यदि जापान की विजय हुई होती और भारत उनके हाथ चला गया होता तो हमारे लिए अच्छा हुआ होता या हमें इससे जल्दी या इससे अच्छी आज़ादी मिली होती इसके बावजूद कि जो आज़ादी मिली वह अभी तक वैसी सम्पूर्णता नहीं पा सकी जैसी मैं चाहता हूँ. इसके बाद कहानियों का एक और समूह है जिसे चौथी खेप भी कहा जा सकता है: ये कहानियाँ भारत-विभाजन के विभ्राट और उससे जुड़ी हुई मनः स्थितियों की कहानियाँ हैं. एक बार फिर ये कहानियाँ आहत मानवीय संवेदन की और मानव-मूल्यों के आग्रह की कहानियाँ हैं और मैं अभी तक आश्वस्त हूँ कि जिन मूल्यों पर मैंने बल दिया था, जिनके घर्षण के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त करना चाहा था, वे सही मूल्य थे और उनकी प्रतिष्ठा आज भी हमें उन्नततर बना सकती है. निःसन्देह मेरा यह मानवतावाद फिर एक प्रकार का आदर्शवाद है, जिसके लिए मैं लज्जित नहीं हूँ न दीन होने का कोई कारण देखता हूँ. आज का फ़ैशन मूल्यों का अस्तित्व भी मानने का नहीं है; पर मेरी समझ में यह कहना कि आज हम एक सम्पूर्णतः मूल्य-विरहित समाज में जीते हैं, उतना ही बड़ा पा खण्ड है, जितना यह मानना कि हमारे समाज में सब शाश्वत मूल्य प्रतिष्ठित हैं. उतना ही बड़ा पाखण्ड; अगर प्रतिकूल दिशा का तो कह लीजिए प्रति-पाखण्ड. मैं नहीं मानता कि मानव-समाज मूल्यों के बिना जी सकता है, अस्तित्व रख सकता है. जिस समाज में मूल्य नहीं हैं वह समाज नहीं है; मानव-समाज होना दूर की बात. मूल्य मानव की रचना हैं और मूल्य-रचना ही उसका मानवत्व है. मूल्य बदलते अवश्य हैं; एक मूल्य-समूह निर्जीव हो जाता है और उसके बदले एक-दूसरे समूह की प्राण-प्रतिष्ठा होती है-कभी ऐसा भी होता है कि कोई समाज जड़ मूल्यों से चिपटना चाहता है और नये मूल्यों के समर्थकों को कुछ उखाड़-पछाड़ भी करनी पड़ती है. पर मूल्य-संक्रमण के युग भी मूल्य-हीनता के युग नहीं होते. कभी-कभी अल्प अवधि की मूल्य-हीनता दिख सकती है. उदाहरण के लिए युद्धान्त के काल में (देश-विभाजन का काल भी एक उदाहरण था) पर ऐसा काल फिर पशुत्व की विजय का भी काल होता है, उसके दौरान मानवता कलुष के एक बोझ के नीचे दबी हुई होती है- एक तरह से ‘स्थगित’ होती है…”(अज्ञेय रचनावली )
(नौ)
भैरव प्रसाद गुप्त स्वातंत्र्य के लिए आतुर भारत के ऐसे कहानीकार के रूप में सामने आए, जिन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान बलिया में ब्रिटिश सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर किए गए दमन की घटना से संवेदित होकर तीन कहानियाँ -‘बिगड़े हुए दिमाग’, ‘कोड़ों की बौछार में’ और ‘स्मारक’ लिखीं . ये तीनों कहानियाँ ‘बिगड़े हुए दिमाग’ शीर्षक संग्रह में संकलित हैं. इस घटना के वे प्रत्यक्ष भोक्ता थे, अत: उनकी इन कहानियों में स्वानुभूति की प्रामाणिकता दीखती है. उन्होंने ‘इन्सान’(1950) ‘सितार के तार’(1951)‘महफ़िल’ और ‘सपने का अंत’(1961) शीर्षक कहानियाँ भी लिखीं जो युद्ध और किसान मजदूर-संघर्ष पर आधारित हैं .इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं– ‘मुहब्बत की राहें, ‘फरिश्ता’, ‘बिगड़े हुए दिमाग’, ‘इंसान’, ‘सितार का तार’, ‘बलिदान कीकहानियाँ’, ‘मंज़िल’, ‘आँखों का सवाल’, ‘महफिल, ‘सपने का अन्त’, ‘मंगली की टिकुली’, ‘आप क्या कर रहे हैं’.
सन् 1954 में प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘वापसी’ में चन्द्रगुप्त विद्यालंकार की सांप्रदायिक उन्माद के यथार्थ को चित्रित करने वाली कुछ कहानियाँ संकलित हैं. ‘मास्टर साहब’, ‘पतझड़’ ‘खन्ने का कुआँ’- शीर्षक कहानियाँ सांप्रदायिक उन्माद के विरोध में लिखित कहानियाँ हैं. सन 1947 में देश की आज़ादी और विभाजन के फलस्वरूप मनुष्यता को कठघरे में खड़ा करने वाले साम्प्रदायिक उन्माद का जो माहौल पैदा हुआ उसने लेखक की संवेदना को झकझोर दिया. ‘पतझड़’ कहानी में पंजाब से दिल्ली आए वृद्ध-शरणार्थियों की मानसिकता का अंकन किया गया है. इसी तरह ‘खन्ने का कुआँ’ में अंग्रेजों के आने के पहले हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की मधुरता का चित्रण है. ‘वापसी’ शीर्षक कहानी में द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी पर रुसी फौज़ों की विजय पर आधारित एक प्रसंग का चित्रण है. युद्ध किस प्रकार मानवीय संवेदनाओं का ह्रास कर देता है यह कई कहानियों में बार–बार दोहराया जाने वाला कथ्य है ,इस कहानी में यही बात यूरोपीय परिवेश में चित्रित की गयी है.
भारत-विभाजन की त्रासदी पर आधारित ‘टोबा टेकसिंह’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘नंगी आवाजें’, ‘गुरमुख सिंह की वसीयत’, ‘यजीद’, ‘खोल दो’ जैसी कई कहानियां मंटो ने लिखीं. ‘टिटवाल का कुत्ता’ की पृष्ठभूमि में भी युद्ध है जहाँ कुत्ता गहरे प्रतीकार्थ से युक्त है. कहानी में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सेनाएँ आमने-सामने मोर्चा संभाले खड़ी हैं. युद्ध से पहले के दृश्य को कलम से आंकते हुए मंटो लिखते हैं–
“जब गोलियाँ चलने पर पहाडिय़ों में आवाज़ गूँजती और चहचहाती हुई चिडिय़ाँ चौंककर उडऩे लगतीं, मानो किसी का हाथ साज के गलत तार से जा टकराया हो और उनके कानों को ठेस पहुँची हो. सितम्बर का अन्त अक्तूबर की शुरूआत से बड़े गुलाबी ढंग से गले मिल रहा था. ऐसा लगता था कि जाड़े और गर्मी में सुलह-सफाई हो रही है. नीले-नीले आसमान पर धुनी हुई रुई जैसे, पतले-पतले और हल्के-हल्के बादल यों तैरते थे, जैसे अपने सफेद बजरों में नदी की सैर कर रहे हैं.
पहाड़ी मोर्चों पर दोनों ओर से सिपाही कई दिनों से बड़ी ऊब महसूस कर रहे थे कि कोई निर्णयात्मक बात क्यों नहीं होती. ऊबकर उनका जी चाहता कि मौका-बे-मौका एक-दूसरे को शेर सुनाएँ. कोई न सुने तो ऐसे ही गुनगुनाते रहें. वे पथरीली ज़मीन पर औंधे या सीधे लेटे रहते और जब हुक्म मिलता, एक-दो फायर कर देते.”
कहानी में मंटो ने लिखा है कि एक कुत्ता हिंदुस्तान–पाकिस्तान की सीमा पर आ जाता है. हिन्दुस्तानी सैनिकों को शक है कि कुत्ता पाकिस्तानी है जबकि उधर के लोगों को शक है कि कुत्ता हिन्दुस्तानी है. इसी दौरान दोनों तरफ़ की गोलियों से छलनी होकर कुत्ता दम तोड़ देता है. एक जवान बूट की एड़ी से जमीन खोदते हुए कहता है-
“अब कुत्तों को भी या तो हिन्दुस्तानी होना पड़ेगा या पाकिस्तानी.”
इस कहानी में भटका हुआ कुत्ता आम आदमी का प्रतीक है.
श्रीमती चन्द्रकिरण सौनरेक्सा ने 1946 से 1950 से बीच युद्ध और साम्प्रदायिकता को आधार बनाकर कई कहानियाँ लिखीं. ‘देश की मौत’ शीर्षक कहानी में उन हिन्दू स्त्रियों की त्रासदी की अभिव्यक्ति है जो दंगों में मुसलमानों के बलात्कार का शिकार बनीं पुलिस द्वारा उद्धार किए जाने पर भी उनके जीवन की विडम्बना यह थी कि उनके अपने परिवारों ने उन्हें स्वीकारने से इनकार कर दिया. इसी तरह ‘धर्म मरा, राष्ट्र जिया’ शीर्षक कहानी में भी ऐसी स्त्री का चित्रण किया गया है, जिसके परिवार के सदस्य अपहरण के बाद उसे अपनाने को तैयार नहीं हैं, लेकिन पति माता-पिता से विद्रोह करके अपना लेता है और कहता है-
“जो धर्म निर्बल को सताने का हामी है, उसे मैं दूर से सलाम करता हूँ.”
इसी तरह सांप्रदायिक प्रतिशोध से उत्पन्न वहशीपन के दौर में भी मानवीय संवेदना की थरथराहट का चित्रण ‘दो राष्ट्र और एक इन्सान’ शीर्षक कहानी में हुआ है. देश-विभाजन की पृष्ठभूमि में लिखी गई यह एक महत्वपूर्ण कहानी है. चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की कहानी ‘सबोटाज़’ भारत को आज़ादी मिलने के ठीक पहले की कहानी है. इसमें निम्न वर्ग की दयनीय आर्थिक स्थिति के साथ युद्ध काल में खाद्य वस्तुओं की कमी और सर्वहारा के आक्रोश और हिंसक प्रतिशोध का मार्मिक चित्रण है. ‘दहकते कोयले’ आज़ादी के तुरंत बाद की कहानी है, जिसमें एक दलित पात्र की आर्थिक और मानसिक स्थिति का चित्रण किया गया है जो युद्ध और आज़ाद भारत की पहली सरकार की नाकामी का परिणाम है. कहानी की एक स्त्री पात्र, सुखदेई कहती है-
“एक लाला हो तो उसके हाथ-पाँव तोड़ दें. यहाँ तो जितने हैं, सभी गरीबों को चूसने को हैं. अकेले कोयले का रोना तो नहीं है, गेहूँ, चीनी, चावल, कपड़ा, क्या चीज सस्ती है? काहे पर ब्लैक नहीं देना पड़ता? लड़ाई खतम होते तीन बरस होने आ गये और महँगाई सुरसा की तरह मुंह फैलाये जा रही है. कहते हैं, आज़ादी मिल ग . क्या जाने बाबा, मैं तो जानूं, गरीबों को भूखे मरने की आज़ादी मिल गई और अमीरों को दिन-दिन मोटे होने की.”
इसका समर्थन करते हुए दूसरा पात्र कहता है-
“मासी बात तो तैने पते की कही . ………….काहे का सुराज और काहे की आज़ादी. जब सुराज में भी पेट से भूखे और तन से नंगे रहें, तो उसे लेकर ओढ़ें कि बिछावें.”
(दस)
भारत को जो आज़ादी मिली थी वह ऐतिहासिक होने पर भी अधूरी थी- विभाजन पर आधारित ये कहानियाँ औपनिवेशिक शासन के बाद के भारतीय परिवेश पर सार्थक टिप्पणी करती दिखती हैं, जिस परम्परा में आगे चलकर राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और कृष्णा सोबती (सिक्का बदल गया) जैसे कहानीकारों की लम्बी सूची है.
पहला विश्वयुद्ध 28 जुलाई, 1914 को हुआ था और भारत-चीन के बीच तिब्बत सीमा-विवाद 3 जुलाई,1914 को अस्तित्व में आया. इन सौ वर्षों में कई त्रासदियाँ गुजरी जिनमें विभाजन, निर्वासन, नरसंहार और यातना-शिविरों में क्रूर और हिंसक वारदातों में मनुष्यता तार-तार हुई, मनुष्य का मनुष्य पर से भरोसा टूटा. प्रथम विश्वयुद्ध से मनुष्य ने यदि कोई सीख ली होती तो द्वितीय विश्वयुद्ध नहीं होता. विश्वबंधुत्व और विश्व शांति के प्रश्न आज भी यथावत हैं. बीसवीं शताब्दी के इन युद्धों ने पूरे विश्व पर अपना प्रभाव किसी न किसी रूप में अवश्य डाला लेकिन आज भी शीतयुद्ध की तमाम आशंकाएँ अपनी जगह हैं. शक्तिशाली देश अपनी सरहदों की सीमा बढ़ाने की फ़िराक में हैं, और शांति के प्रश्न क्रमशः गौण होते जा रहे हैं. यह सर्वमान्य तथ्य है कि युद्ध की चेतना युद्ध को, और हिंसा की चेतना हिंसा को आकृष्ट करती है.इसे परिवर्तन के मार्ग पर ज़िम्मेदार नागरिक और बौद्धिक समाज ही मोड़ सकता है. साहित्य और कलाओं के अन्य रूप चेतना-निर्माण का काम ही कर सकते हैं. हिंदी कहानी ने युद्ध और शांति के प्रश्न पर अपना सार्थक हस्तक्षेप समय-समय पर किया है. लक्ष्मीचंद्र जैन ने 1965 में ‘ज्ञानोदय’ के सम्पादकीय में लिखा था
“राष्ट्र युद्ध करते हैं,एक दूसरे को विनष्ट करते हैं, युद्ध से त्रस्त होते हैं, भयग्रस्त होकर शांतिवार्ता की ओर बढ़ते हैं, शांति होने भी नहीं पाती कि शक्ति के लिए होड़ शुरू हो जाती है, होड़ में हार–जीत की बाज़ी लगती है, हार –जीत के निर्णय के लिए युद्ध होते हैं, युद्ध होने पर विनाश, त्रास, शांति के लिए विकलता, शांति होने पर शक्ति की परीक्षा ..फिर वही क्रम प्रारंभ हो जाता है. मानव–जाति की नियति ही ऐसी है.”
साहित्य और अन्य कला–विधाएं मनुष्य चेतना और संवेदना का निर्माण एवं पुनर्सृजन करने की क्षमता रखती हैं. हिन्दी कथा-साहित्य अपनी पूरी सीमाओं और संभावनाओं के साथ युद्ध और शांति के सरोकारों को समय–समय पर व्यक्त करता रहा है. ’उसने कहा था’, ’हीरे का हीरा ‘(गुलेरी) से लेकर ‘पाली’, ’सरदारनी’, ’ज़हूरबक्श’, ’अमृतसर आ गया है’ (भीष्म साहनी) ’शेरजिगर औरतें’(वंदनाशुक्ला), ’जन्मभूमि’(देवेन्द्र सत्यार्थी), सरहद के इस पार (नासिरा शर्मा), अर्धांगिनी (शैलेश मटियानी),शहादत (वंदना राग), पुतला (संजय खाती), ’लाडली’ (रमेश बत्रा), ’उस शहर में चार लोग रहते थे’ (नीलाक्षी सिंह), ‘छावनी में बेघर’(अल्पना मिश्र) जैसी अधुनातन कहानियों को देखा जा सकता है.)
‘छावनी में बेघर’ कारगिल युद्ध में गए फौजी अफसरों की अनुपस्थिति में तंत्र का फौज़ियो के परिवारों के साथ ट्रीटमेंट का खुलासा करने वाली उल्लेखनीय कहानी है. फौजी जीवन से सम्बद्ध होने के कारण अल्पना मिश्र के चित्रण में, स्वानुभूति की गहराई के साथ पीछे छूटे परिवार की जीवन स्थितियों का यथार्थ अंकन है. जिसमें पति की उपस्थिति तक तो स्थितियां नियंत्रण में रहती हैं, सीमा पर भेजे जाते ही परिवार के लिए फौजी परिसर में ठहरने की व्यवस्था का अभाव और साथ ही सारी जिम्मेदारियां पत्नी पर आ जाती हैं-
“फौज में पति के बाद औरतों को नौकरी नहीं दी जाती. यही. यही कि उन्हें पति के बदले कुछ पैसे दिए जाते हैं. अफसरों को कुछ ज्यादा, जवानों को कम. वह भी किसे मिलते हैं? जिनके घरवाले दौड़-भाग कर ले जाते हैं. उन्हें ही न. जब हमारा ये हाल है तो जवानों के परिवारों का क्या हाल होगा? किसके लिए हैं ये युद्ध? किसके लिए लड़ रहे हैं ये लोग? किसके लाभ के लिए? किसकी शांति के लिए? क्या निकल रहा है इनका परिणाम? क्या हो रहा है पीछे छूट गए परिवारों का?
पता नहीं कितने घरों में सिर्फ एक लड़के को नौकरी मिल पाई थी, अब वह भी गया.
इससे पहले तक कभी इतनी विचलित नहीं हुई मैं. इससे पहले तक युद्ध से जुड़े अपने भविष्य के बारे में भी नहीं सोचा था. सोचती थी, युद्ध की जब कभी आवश्यकता पड़ेगी, लेकिन यहाँ तो रोज युद्ध हैं, रोज युद्धबंदी हैं, रोज हताहत हैं, रोज शहीद हैं.”
‘उसने कहा था’ से लेकर ‘छावनी में बेघर’ तक की हिन्दी कहानियां युद्ध के विविध पक्षों को अपने-अपने ढंग से चित्रित करती हैं. ये कहानियां कथ्य में वैविध्य लिए हुए हैं और युद्ध की विभीषिका,युद्धोत्तर परिस्थितियों का बारीक विश्लेषण और युद्ध की निंदा करती हैं. अपने कथ्य में प्रेम, रोमांस, मनुष्यता, राजनीतिक एवं नैतिक पतन, भ्रष्टाचार, निर्धनता, विस्थापन,एकाकीपन आदि समस्याओं और जीवन के विविध- आयामी पक्षों को उभारती दीखती हैं. इन कहानियों के अतिरिक्त हिन्दी में युद्ध आधारित उपन्यासों की रचना भी हुई,जिनमें ‘धूप-छाहीं रंग’ (1970-गिरीश अस्थाना) प्रमुख है, दूसरे विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखे इस उपन्यास के अलावा जगदीश चन्द्र के युद्ध–आधारित तीन उपन्यासों- ‘आधा पुल(1973)’,टुंडा लाट,(1978)’और ‘लाट की वापसी (2000),विवेकी राय के 1962 में भारत पर हुए चीन- आक्रमण और 1965 में भारत –पाकिस्तान युद्ध को आधार बनाकर लिखे ‘मंगल भवन’ तथा 1971 में बांग्लादेश में मुक्तिसेनाओं के दमन पर केन्द्रित महुआ माज़ी के ‘मैं बोरिशाइल्ला’ को देखा जाना चाहिए.
इतिहास के अति-संवेदनशील दौर को अभिव्यक्त करने का रचनात्मक प्रयास हिन्दी की कहानियों और उपन्यासों में दिखाई देता है- युद्ध कहीं प्रेम, कहीं संबंधों की जटिलता, कहीं अकेलेपन,कहीं भ्रष्टाचार और गरीबी और कहीं विस्थापन का पर्याय बनकर इन रचनाओं में आया है- लेकिन मूलस्वर अशांति की जगह शांति, अमानवीयता की जगह मानवीयता को स्थापित करने का ही है-
“इस निवेदन पर ग़ौर करें
कि आपके देश की सरहद
माँगती है दुनिया के लिए
आपका साथ
शांति के पक्ष में
आपका हस्तक्षेप
आपका शब्द-निवेश”
(कविता-लीलाधर मंडलोई)
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गरिमा श्रीवास्तव
प्रोफ़ेसर,भारतीय भाषा केंद्र
जे एन यू, नई दिल्ली.