इंगलिस्तान
गोविन्द निषाद
बड़ी तमन्ना लेकर दिल्ली आया था. वैसे मैं हर बार कुछ अच्छा होने की तमन्ना लेकर ही दिल्ली आता हूँ लेकिन तमन्नाओं का क्या है वह हर बार मचल ही जाती हैं. तो इस बार सोच रखा था कि तमन्नाओं को मचलने नहींं दूंगा. संभाल लूंगा जो भी होगा. इस बार एक वर्कशाप में आया था.
दिल्ली की उस दिन की सुबह में ठंडक थी. आसमान में उमड़-घुमड़ कर छाए बादल श्वेत-श्याम की कलाबाजियाँ कर रहे थे. बीच-बीच में बारिश की रिमझिम फुहारें गिरतीं और बंद हो जातीं. हम बाहर निकले तो बारिश की फुहारें पड़ रही थी. जैसे ही बाहर निकलकर रिसेप्शन पर पहुंचे एक महोदय मिल गए. आते ही उन्होंने अपना भौकाल झाड़ा, “आर यू कमिंग फार सीएसडी वर्कशॉप?. मुँह से निकला, “एस”. भाई साहब क्या बताएँ इतना कहने में पूरा दिमाग़ हिल गया. अभी उन्हें पता नहींं चल पाया कि हम हिंदी बोलते हैं कि अंग्रेजी. फिर उन्होंने पूछ दिया, “आर यू नो अबाउट सीएसडी? “नो” हमने सोचा कि काम खत्म लेकिन फिर पूछ बैठा, “आर यू नो हाउ मेनी किमी सीएसडी फ्राम देयर? “नो” कहकर फिर काम चला दिया हमने.
इस बार हम तैयार थे कि अगर इसने पूछा तो इस बकलोल को बोल दूंगा कि भाई इंग्लिश नहींं आती, किसी इंग्लिश जानने वाले से पूछ ले. लेकिन वह चला गया. हमें पता नहींं क्यूं ऐसा लगा कि वह जानता है सीएसडी कहाँ है और हमें बेवकूफ बना रहा है. हम उसके भौकाल के गिरफ्त में आ गए और उसके पीछे चल दिए. कुछ आगे जाकर वह एक बिल्डिंग में गया. गार्ड से पता नहींं क्या बतियाया. हमने उसे गाली दी, “भों..ड़ी वाला, ये हम लोगों से अंग्रेजी में बतिया रहा था अब गार्ड से भी अंग्रेजी में बात कर रहा होगा क्या”.
हमें पता चल चुका था कि उसे भी वर्कशॉप का पता नहींं मालूम. अपनी बेवकूफी पर हम हँस दिए और मुड़कर अपने रास्ते पर चल पड़े जो हम जानते थे. वह भी हमारे पीछे-पीछे आया. हम आटो में बैठे तो हमें बैठता देखकर वह भी आकर बैठ गया. अब वह हिंदी में बोल रहा था. बिहार में बोली जाने वाली हिंदी जिसमें “भ” को “र” बोलते हैं. “आ गए लाइन पर बेटा” मन ही मन मैंने फिर गरियाया, “सरउ, बड़ा आए रहै इंग्लिश बोलैं.”
मेरी धड़कनें बढ़ीं हुईं थीं. इसकी बढ़ी रफ्तार पर लगाम लगाने के लिए मैंने कोशिश की. वैसे डर तो पहले से रहा था. यहाँ आकर और डर गया. मैं इसलिए नहींं डर रहा था कि कोई मेरा कुछ चुरा लेगा बल्कि इसलिए कि मुझे अंग्रेजी नहींं आती थी. देश को लूटने के लिए मैं अंग्रेज़ को उतना दोषी नहींं मानता जितना कि अंग्रेजी थोपने के लिए. आखिर देश तो हूणों से लेकर अहमद शाह अब्दाली तक तो लुटता ही रहा फिर अंग्रेजों ने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया. किसी ने अपनी भाषा या संस्कृति हम पर नहींं थोपी लेकिन अंग्रेजों ने थोप दी. उन्हें पता नहींं क्या कुलबुली मची थी. अरे जैसे और लोग आए और चले गए वैसे तुम भी चले जाते. क्यूं ये भाषा-वाषा के चक्कर में हमारे जैसों की वाट लगा दी.
मुझे हमेशा लगता है कि कोई काला अंग्रेज मेरे सिर पर बैठा मेरे माथे पर हथौड़ा मार रहा है. उसका वार इतना तेज होता है कि लगता है कि मेरे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँ गे. मैं उसे उतार फेंकनें की भरसक कोशिश करता हूँ लेकिन वह है कि बेताल की तरह जैसे ही मैं कुछ बोलता हूँ आकर मेरे सिर पर सवार हथोड़े मारने लगता है. मुझे समझ नहींं आता है कि इसमें मेरी क्या ग़लती है कि मैं अंग्रेज नहींं बन पाया. अब गलती मेरी हो न हो सजा तो मुझे ही भुगतनी है. ऐसी सजा जिसका गुनाहगार मैं नहींं बल्कि अंग्रेज और भारतीय सरकारें हैं. मैं धिक्कारता हूँ दोनों सरकारों को.
एक ने मुझे अंग्रेज नहींं बनाया, दूसरे ने मुझे अंग्रेजी नहींं पढ़ाई. अब दोनों मिलकर मुझे परिधि पर धकेलना चाहते हैं जबकि मैं परिधि पर पहले से हूँ. तो क्या यह मुझे वहाँ भी नहींं देखना चाहते हैं. मुझे बार-बार लगता है कि काश मुहम्मद बिन तुगलक की राजधानी परिवर्तन की परियोजना सफल हो जाती तो सारे बेवकूफ वहाँ चले गए होते. लेकिन उससे क्या होता. वह वहाँ भी तो वही भसड़ मचाए रखते जो यहाँ मचाएँ हुए हैं.
बीए के बाद एमए मैंने अर्थशास्त्र में इसलिए नहींं किया कि मुझे अंग्रेजी नहींं आती थी. फिर मैंने सोचा कि इतिहास में कर लेते हैं लेकिन मैं मुर्ख था या मन को बहकाना चाहता था कि इतिहास पढ़ने के लिए अंग्रेजी आनी उतनी ही ज़रूरी है जितनी कि अर्थशास्त्र में. हिंदी मैं बीए तृतीय वर्ष में छोड़ चुका था. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जिस तरह का माहौल था उसमें कभी जरूरत ही नहींं पड़ी कि अंग्रेजी में पढ़ना पड़े. यहाँ के अध्यापकों ने भी फुसला दिया. अगर वह कह देते कि अंग्रेज बनो तो हम मजबूरी में तो अंग्रेज बन ही जाते. जब एम.फिल. किया तो पहले सेमेस्टर में तो छूट मिली कि मैं अंग्रेजी मिश्रित हिंदी लिख सकता हूँ लेकिन अगले सेमेस्टर में नहींं. अगला सेमेस्टर मेरी अंग्रेजी का इम्तिहान ले उससे पहले कोरोना ने पूरी दुनिया का इम्तिहान लेना शुरू कर दिया. इसमें हमारे इम्तिहान बिना लिखे ही हो गए. आवश्यकता अविष्कार की जननी बनते-बनते रह गई. मैं अंग्रेज होते-होते रहे गया. फिर कोई मौका नहींं मिला अंग्रेजी सीखने का तो बिना अंग्रेजी के ही रह गए.

दो)
मैं विश्वविद्यालय में पढ़ने वाला अपनी पीढ़ी का पहला लड़का था. घर की माली हॉलत में यहाँ रहकर पढ़ना तो एक समय असंभव सा जान पड़ा. पिता रिक्शा चलाते थे. जब मैं यहाँ पढने आया तो रिक्शे के भी दिन लद चुके थे. भाई फर्नीचर का काम करते थे. मुझे पता था कि आग में पाँव रखने जा रहा हूँ, जहाँ जल जाने के मौके ज्यादा हैं. मैं जलना चाहता था. खैर मैं आ गया इलाहाबाद. कैसे आया? अगर मैं यह बताने बैठूँगा तो यह एक अति दीर्घ कहानी में बदल जाएगी. कहानी भी अपनी दिशा से भटक जाएगी. यहाँ आने के बाद जुगाड़ से हास्टल में कमरा मिल गया. तब कमरे जुगाड़ से ही मिला करते थे. मुझे जो कमरा मिला वह शायद हास्टल का सबसे जर्जर कमरा था, लेकिन हास्टल में कमरा मिलना तब अपने आप में बड़ी बात हुआ करती थी.
सब कमरे पुश्तैनी थे. भाई जाता तो छोटे भाई को अलाट करा देता. वह जाता तो फुआ के लड़के को. तो ऐसा था सिस्टम. ऐसे हॉलात में मेरे लिए भागते भूत की लंगोटी ही सही थी. छात्रावास अंग्रेजों के जमाने का था. इसकी खिड़कियों को दीमक चट कर गए थे. मैं रोज उस खिड़की को देखता और सोचता कि एक लात मारूं वह भरभराकर गिर जाये. एक दिन एक लात मारकर गिरा ही दिया.
अब मेरे कमरे में दो दरवाजे थे. एक आगे-एक पीछे. पीछे के दरवाजे से कुछ भी अवांछित तत्व आ सकते थे. इसलिए इस दरवाजे को अंतरिम रूप से बंद करना पड़ा. छत से एक सरिया ऐसे निकला था कि जब मैं सोने जाता तो लगता कि अगर गिरेगा तो सीधा पेट के पार हो जाएगा. मैं रोज सोते समय उसी के बारे में सोचता. पुराने हास्टल की छतें ऊपर होती थीं. मैं सरिया की मजबूती खुद से तय नहींं कर पा रहा था. रोज मैं उसकी मजबूती का आंकलन लगाता. एक दिन झाड़ू मारने आने वाले विजय से मैंने कहा कि पहले वह एक डंडा लाए और सरिया की मजबूती का परीक्षण करे. वह गया झाला मारने का बड़ा सा डंडा लाया. सरिया पर तेजी से मारा. फिर कहा कि मैंने कहा था न सर कि अभी बहुत मजबूत है. मेरी सांस में साँस आई.
कमरे में बिजली के दो तार ऐसे थे जो हमेशा खुले होते. हम उसी में कटिया मारकर हीटर चलातें. बाहर से कभी कोई आता तो खुले तारों में हीटर के तारों को जोड़ने की सहजता देखकर दंग रह जाता कि हम कितनी सहजता से दोनों तारों को आपस में जोड़ देते हैं. नहाने की जो जगह नियत थी. वह पहले बर्तन धोने की जगह थी. बाद में स्नानागार जब खंडहर में तब्दील हो गए तो नहाने की व्यवस्था खुले में बर्तन धोने की जगह हो गई.
इस हास्टल में काम करने वाले कर्मचारियों के पास ढेरों किस्से होते थे. जैसे की फलाने पढ़ते-पढ़ते बूढ़े हो गए तब जाकर नौकरी मिली. एक तो यहीं रह गए. कही गए ही नहींं. यही उनका घर है. हमने कितनों को आईएएस, पीसीएस और जज बनवा दिया. इससे नीचे की नौकरी करने वालों की बात करना उनके लिए तौहीन होती. हमारे कमरे के ठीक बगल में अकरम भाई का आवास था. आवास क्या एक छोटा सा कमरा. वह पहले किसी और छात्रावास में काम किया करते थे बाद में यहाँ आ गये. कपड़े और कम्बल धुलना उनका काम था.
मैं बिलकुल नव प्रवेशी छात्र था. धीरे-धीरे अकरम भाई से मेरा दोस्ताना वाला रिश्ता हो गया. मैं अक्सर खिड़की से उनसे बात करता वह कपड़े प्रेस करते. तब मुझे नहींं पता था कि छात्रावास के कुछ नियम होते हैं जिनका जूनियर को पालन करना अतिआवश्यक था. इसमें यह भी कि आप कर्मचारियों के मुह्ल्गू नहींं बनेंगे. सिर्फ काम से काम.
ऐसे ही एक दिन मैं अकरम भाई से बात कर रहा था तभी एक सीनियर दे मुझे देख लिया. मुझे बुलाया फिर लगे गाली देने की भो..की के तुम्हें तमीज़ नहींं है. अभी नये आये हो क्या. मैंने हाँ में सिर हिलाया. तभी तुम्हें यहाँ के नियम कायदे नहींं पता हैं. किस नंबर में रहते हो? सर! कमरा नंबर इक्यावन ए. शाम को कमरा नंबर अस्सी में आ जाना. जी सर! कहकर मैं वहाँ से चला गया. फिर लगी रात में हमारी परेड. परेड का वर्णन ज्यादा बीभत्स है. चलिए एक नमूना देकर कहानी के मुख्य मुद्दे पर आते हैं.
एक सीनियर ने कहा कि यह बताओ की ऐसा कौन-सा मोबाइल है जिसने आज तक सेक्स नहींं किया. मैं सेक्स का नाम सुनते ही घबरा गया. गाँव का लड़का क्या जाने सेक्स क्या होता है. सेक्स नहीं जानते हो, अरे यही जो लड़का-लड़की मिलकर करते हैं. अब तो बताओ की कौन-सा मोबाइल है जिसमे कभी सेक्स नहींं किया. मैं चुप, सब ठहाके लगाने लगे. मैं कांपने लगा. फिर एक सीनियर ने मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए कहा कि अबे नोकिया मोबाइल जिसने कभी सेक्स नहीं किया- नो-किया.
कुर्सी पर आसन लगाये हुए एक सीनियर बैठे थे. वह बिलकुल चुप थे. एकदम शांत. ऐसा लग रहा था कि ध्यान की मुद्रा में हैं. वह बस आँखे इधर-उधर करते. उसी में उनका सन्देश होता. मैं इन संदेशों को डिकोड करने में असफल था. उनकी निगाहें ऊपर की तरफ उठीं. सब समझ गए कि क्या करना है सिवाय मुझे छोड़कर. दूसरे सीनियर ने मुझे कहा की भो..डी के चलो उस बल्ब को गाली दो. बल्ब को गाली कैसे दूँ? मुझे चुप देखकर दूसरे सीनियर गुर्राए भो..डी के कहा न कि गाली दो बल्ब को. मैं रुआसा हो गया. मेरे होसो-हवास उड़ चुके थे. फिर उन्होंने मेरे कंधे पर एक हाथ मारा और कहा छोड़ो जाने दो. बाद में मुझे पता चला कि शांत चित्त सीनियर यहाँ के मोस्ट सीनियर हैं जो यहाँ महामंडलेश्वर से कम का ओहदा नहींं रखते हैं.
मोस्ट सीनियर वो होते थे जो नौकरी के मोह से ऊपर उठ चुके होते थे. जिनके घर का कोई पता नहींं होता था. घर वाले भी भूल चुके होते थे कोई लड़का हमारा इलाहाबाद पढने गया था. इसके बाद वो सीनियर आते जिसमें तो कुछ नौकरी की तलाश में होते तो कुछ मोस्ट सीनियर के पद के लिए अपनी दावेदारी ढोक रहे होते. मीटिंग ख़त्म होते ही सारा माहौल बदल गया.
अब हम नवप्रवेशियों की रात बारह बजे परेड लगती. वहाँ हमें सारे नियम कायदों के साथ सिखाया जाता गाली देना वो भी रौब और आत्मविश्वास के साथ. गालियाँ देते हुए हम जोर से चिल्लाते, “हॉलैंड हॉल की घोषणा/ डीजे की माँ की…….. हॉलैंड हॉल चौड़े से बाकी सब…..से. पूरे एक महीने चली हमारी परेड. अब हम कही भी किसी से भिड़ने के लिए तैयार रहते. कक्षा में, दुकान, चौराहों पर, मैदान पर. हम कही भी हमला करके फरार हो सकते थे. हमारे नाम की तूती बोलती कक्षाओं में और कैंपस में. जैसे पता चलता की मैं हॉलैंड हॉल में रहता हूँ, लड़के गुड लगी मक्खी की तरह मेरे आगे पीछे पड़े रहते. अपना जलवा होता. रिक्शे वाला यह सुनकर चलने से मना कर देता कि हॉलैंड हॉल मैं नहींं जाऊंगा. दुकान वाले की हिम्मत नहींं होती कि मैं खड़ा हो जाऊ और वह पहले आये ग्राहकों को सामान दे. चाहे जितनी भीड़ हो सामान मुझे पहले मिलता वरना चौराहे पर दो चार गोले फट सकते थे. पैसा वो तो हमारी मर्जी थी. दे दिया तो ठीक नहीं दिया तो भी ठीक. हमें मात्र एक चीज करने की सख्त मनाही थी वो थी कि हम किसी लड़की को जबरदस्ती तंग नहींं करेंगे. लड़कियों के मामले में पूरी शालीनता बरतना हमें सिखाया जाता.
फिर आती परीक्षा की घडी जिसमे तय होता कि कौन गोले बना सकता है और कौन-कौन गोले मार सकते हैं. इस परिक्षण में शामिल होने के लिए हिम्मत चाहिए होती थी. यह वह काम था जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित किया जाता था. यह कड़ी वर्षो से नहींं टूटी थी. अनवरत चली आ रही थी. इस बार भी हममे से तीन को गोले बनाने का काम सौपा गया. बाकी सभी को सिखाया गया कि गोले मारते कैसे हैं. अब हम सभी परीक्षण को पूरा करके वैध अन्तःवासी बन गए थे. छात्रावास का यह शाश्वत नियम था कि अगर कही भी सीनियर मिलें तो उन्हें प्रणाम करना है. प्रणाम करने का अपना एक ढंग था. पहले सिर झुकाना है, उसके बाद दाहिने हाथ को ह्रदय पर लाना है. फिर कहना है- “सर प्रणाम.” जूनियर के पक्ष में केवल एक नियम था कि अगर किसी भी दुकान पर सीनियर की उपस्थिति में कुछ भी खाता मिल गया तो उसके पैसे सीनियर भरेगा. बिल चाहे जितना हो. सीनियर के पास फूटी कौड़ी भी न हो तब भी.
छात्रावास पर अब ज्यादा जोर डाला तो यह कहानी कही और चली जाएगी जिस तरफ मैं जाना नहींं चाहता. उस तरफ फिर कभी.
छात्रावास इतना जर्जर था कि सभी कमरों की छतें मानसून का भार संभालने में अक्षम थीं. मैं तृतीय वर्ष का छात्र था. एक बार ख़ूब बरसात हुई. उस दिन पानी बहुत बरसा. रूकने का नाम ही नहींं ले रहा था. मेरे कमरे की जर्जर हो चुकी छत से पानी अपना रास्ता तलाशते हुए मेरे बिस्तर पर पसरने लगा. धीरे-धीरे यह बढ़ता गया. इतना कि एक धार की तरह गिरने लगा. मैं नौकर को छत ठीक करने के लिए बुलाने गया तो पता चला कि उसे बुखार है और वह नहीं आ सकता है. तब हास्टल पर से प्रशासन का साया हट चुका था. मैं कहीं नहीं जा सकता था. अब मेरे पास एक ही रास्ता था कि मैं स्वयं जाकर छत को सही करूं.
मैं छत पर पहुंचा. आसमान काले-काले बादलों से भरा हुआ था. मेघ गर्जन कर रहे थे. बिजलियां जब तब गिरतीं हुई धरती से टकरा रही थीं. मैं जैसे ही टैंक के पास पहुंचा मुझे महसूस हुआ कि कोई उसके ऊपर बैठा हुआ है. पहले तो मुझे लगा कि शायद मैं अनायास ही अनुमान लगा रहा हूँ फिर अचानक से मुझे कुछ सुनाई दिया. कोई अंग्रेजी में बोल रहा था. मैं चौंका कि यहाँ कौन अंग्रेजी में बोलने वाला आ गया. अब मेरी हालत पतली हो गई. मैं उलटे पांव सरपट भागा. छत से पानी टपकने को छोड़कर जो भी जगह कमरे में बच गई थी उसमें मैंने अपने सामान को समेटा और वहाँ से चला गया.
दूसरे दिन मुझे विजय के पिता मिलें, जो हमारे पुराने कर्मचारी हुआ करते थे. उन्होंने बताया कि वर्षों से उस जगह कोई नहीं जाता. वहाँ से कुछ अजीब-सी आवाजें आतीं हैं. इतना सुनने के बाद मेरे रोंगटे खड़े हो गए. पहले मेरी धडकने बढ़ी और फिर बढ़ती ही गईं. शाम तक मेरे शरीर का तापमान इतना हो गया कि मैं बुखार से पीड़ित हो गया. मैं डॉ. खालसा के पास गया. वह पंजाबी थे और किसी समय इलाहाबाद आकर बस गए थे. उन्होंने कर्नलगंज की एक गली में एक छोटी-सी क्लीनिक खोल रखी थी. आमतौर पर बुखार वगैरह होने पर हम उन्हीं के पास जाते. मैंने उन्हें दिखाया तो उन्होंने वही नीली-पीली गोलियां दे दी. बुखार नहीं उतरा. अब क्या करे. मेरे एक दोस्त ने कहा कि चलो एएन झा में युनिवर्सिटी वाले डाक्टर को दिखाते हैं. मैं वहाँ गया. उन्होंने भी मुझे वही नीली-पीली गोलियाँ दी. बुखार ने अपनी जड़े जमा ली थीं. हम फिर डॉ खालसा के पास गए अबकी उन्होंने खून की जाँच लिख दी कि कहीं मुझे टायफाइड या मलेरिया तो नहीं हुआ. रिपोर्ट में कुछ नहीं था.
अब मुझे बार-बार विजय के पिता की सुनाई बात याद आती. मैंने उनसे बताया कि बरसात वाली रात मैं वहाँ गया था और मेरे साथ ऐसा हुआ था. उन्होंने यह कहकर मेरा ब्लड प्रेशर और बढ़ा दिया. मुझे लगने लगा कि मुझ पर वह भूत सवार हो गया है. उन्होंने ही बताया कि यह भूत एक मरे हुए अंग्रेज का है जो सालों पहले इलाहाबाद में रहा करता था. एक दिन वह टंकी के पानी में तैरता हुआ पाया गया जो छत के ऊपर बनी हुई थी. कहते हैं कि यह तभी से यहाँ रहता है. अगर ग़लती से भी कोई उधर गया तो समझो वह गया. इसका मतलब मैं, नहीं नहीं, मैं चिल्लाया.
अंत में मैंने यह बात अपनी दीदी को बताई. मेरी दीदी हर मर्ज की दवा का एक ही इलाज जानती हैं, वह है ओझाई. वह तुरन्त ओझा के पास गई. ओझा ने उनसे पहले सारी परिस्थितियों की जानकारी ले ली. जैसा कि मैंने उन्हें बताया था. उसने कहा कि उसे तो वही गोरका भूत पकड़ा है. वह उससे कुछ करवाना चाहता है. क्या करवाना चाहता है मुझे नहींं पता.
फिर ऐसा हुआ कि मेरा बुखार धीरे-धीरे अपने आप उतर गया जब मैंने उस भूत वाली कहानी को गंभीरता से लेना बंद कर दिया और भूल गया. तब मैं हर दूसरे दिन पहले दिन की बातें ऐसे भूल जाता था कि जैसे कल कुछ हुआ ही न हो. तृतीय वर्ष के बाद मैं सिविल की तैयारी करने लगा. दो साल गुजर गए. दो बार प्री भी निकला और एक बार मेंस लिखने का मौका मिला. फिर कुछ नहीं हुआ. धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि सिविल के लिए तो मैं बना ही नहीं हूँ. पहले तो ठीक से पढ़ाई-लिखाई नहींं हुई है. दूसरे अंग्रेजी नहींं आती है. तीसरे, घर की कंगाली हालत में मैं कितने दिन उनके सिर पर बैठकर खाता रहूँ गा. मैंने तय किया कि जे.आर.एफ. निकालूंगा और पीएच.डी. करूंगा. फिर दिमाग ऐसा फिरा कि मैं पीएच.डी. करने चला आया.
इसे करते हुए एक दिन मैं उसी हास्टल गया जहाँ मैं पहले रहा करता था. रात में वहीं रूका. आधी रात के धुंधलके में जब शौचालय करने गया तो मुझे अचानक से लगा कि कोई मेरे पीछे आ रहा है. मुड़कर देखा तो कोई नहींं था. जैसे ही मैंने सिटकनी लगाई एक आवाज़ हुई, वही आवाज़ जो मैंने तीन साल पहले सुनी थी. इसे सुनते ही मेरी आँखों के सामने सबकुछ हूबहू गुजर गया. इस बार उसने अंग्रेजी में नहींं हिन्दी में बोला था. वह धीरे-धीरे हिंदी सीख गया था क्योंकि अब यह हास्टल हिंदी बोलने वालों से भरा हुआ था. उसने भाषा के साथ भाषा की अश्लीलता भी सीख ली थी. मुझे लगा कि जैसे कोई कह रहा है कि भों..ड़ी के! आ गए न लाइन पर. मैंने जब कहा था तो बड़ा शेख़ीबाज़ बन रहे थे. मैंने करवा लिया न जो करवाना चाहता था. तुम्हारा मोस्ट सीनियर हूँ प्रणाम करो भों.. ड़ी के. मैंने पेशाब को पेंट के भीतर ही समेटा और भागा वहाँ से. कमरे में आया तो पसीना-पसीना हो गया. अगले दिन मैं यह बात भूल गया. लगा कि जैसे कुछ नहींं हुआ हो. बस मेरा वहम था.
तीन)
पीएच.डी. तो मैं करने लगा. पीएच.डी. मुझे दाएँ हाथ का खेल लगती जिसमें खूब मेहनत करनी थी. अपनी मांद में रहकर लगता था कि मैं तीस मार खां हूँ. मुझे ऐसा लगता कि मैं शोध में कोई बहुत बड़ा काम कर रहा हूँ. मैं जो कर रहा हूँ उस पर अभी किसी ने सोचा ही नहींं है. मेरा काम प्रकाशित होते ही मैं छा जाऊंगा. बड़े-बड़े विद्वानों के ई-मेल मुझे आएँगे. बडे़-बडे़ मेरे बारे में बातें करेंगे. विदेशों से व्याख्यान के लिए बुलावा आएगा. यह वहम पाले मैं जीता रहा. मेरा वहम तब टूटा जब मैं पहली बार वर्कशॉप करने बाहर गया. अंग्रेजी न आने का जो सिला मुझे यहाँ मिला, मैं सिहर गया. अब मैं जिस वर्कशॉप में भी जाता वहाँ अंग्रेजी सीखता. दिल्ली में आयोजित वर्कशॉप में शोध प्रविधि सीखने आया था लेकिन फिर से अंग्रेजी सीख रहा था. मुझे बार-बार लगता कि अगर अंग्रेजी न आए तो वर्कशॉप नहींं करनी चाहिए. अगर बोलना नहींं आता तो बिल्कुल नहींं.
मैंने देखा है कि वर्कशॉप में दो तरह के लोग आते हैं. एक अंग्रेजी बोलने वाले, दूसरे सिर्फ अंग्रेजी समझने वाले. वैसे होती तो तीसरी श्रेणी भी है जिनको कुछ नहींं आता. न बोलने न समझने. तीसरी श्रेणी के लोग कतई न आएँ , उन्हें यहाँ बस घंटा मिलेगा. मैं आया हूँ इसलिए कि अंग्रेजी समझ सकता हूँ.
तो हम पहुंच गए सीएसडी. लोगों ने तो हिंदुस्तान के भीतर एक इंग्लिस्तान बना ही रखा है, वह यहाँ भी है. लगभग सभी को हिन्दी आती है लेकिन सभी अंग्रेजी में बोल रहे हैं. जिनको बोलना नहींं आता वह घिघियाकर बस एस-नो कर रहे हैं. मैं उसी में हूँ. मैं बस इतना ही कर सकता हूँ.इसके बाद अगर मैं कुछ भी बोला तो मेरी पोल खुल जाएगी कि मैं द्वितीय श्रेणी का आदमी हूँ. फिर इज्ज़त लुट जाने और दोयम दर्जे का एहसास मुझे फिर से सताने लगेगा. मेरे जैसे द्वितीय श्रेणी के लोग बचे-बचाएँ घूमते हैं कि कही इंग्लिस्तान का कोई आदमी उनसे पूछ न बैठें कि, “हाऊ आर यू?” और वह डर के मारे यह भी न कह पाए कि, “आई एम फाइन” इतना कहने में ही सारी जान निकल जाती है. जबकि वह पूछ सकते हैं कि, और कैसे हैं आप? अगर उन्हें भोजपुरी या कोई और क्षेत्रीय भाषा आती है तो पूछ सकते हैं कि, “और बतावा का हॉल बा” लेकिन नहींं, पूछेंगे तो पहले अंग्रेजी में ही ताकि सामने वाले का स्थिति का अंदाजा लगाया जा सके कि वह कितने पानी में है.
ऐसे बकलोल यह जानते हुए भी कि भाषा से विद्वता का कोई नाता नहींं है लेकिन करेंगे वही काम कि सामने वाला अंग्रेजी बोलता देखकर विद्वान ही समझे. मैं भी क्या दोहरा रहा हूँ यही बात तो हिंदी पखवाड़ा में हमेशा समझाई जाती है. बाद में पखवाड़ा खत्म होते ही सब कुछ पहले जैसा टना-टन. ऐसे लोग नहींं जानते कि अंग्रेजी में बोलते ही वह नंगे हो जाते हैं अपने ही द्वारा. बाद में पता चलता कि इसे बस अंग्रेजी बोलने ही आती है, समझ में उसे भी उतना ही आता है जितना मुझे. कभी-कभी तो जानते भी मुझसे कम हैं.
यहाँ सिर्फ दो श्रेणी वाले लोग ही थे. सब कोई अंग्रेजी में बोल रहा था जबकि हिन्दी सभी को आती है. अपना तो भाई खून जम गया कि कहीं कोई कुछ पूछ न ले. मैं क्या जवाब दूंगा. यहीं सोचकर मैं पसीना-पसीना हुआ जा रहा था. मैंने खुद को बचा लिया. कोई नहींं कुछ पूछ पाया. द्वितीय श्रेणी के भी कुछ लोग थे तो कुछ अपनापन-सा लग रहा था लेकिन कब तक. आखिर एक लड़की ने पूछ लिया जो मुझे पहले से जानती है. मैं उनकी तरफ़ इसलिए ही नहींं देख रहा था कि कहीं वह अंग्रेजी में कुछ पूछ न बैठें. नज़र हैं कब तक बचती आखिर मिल ही गई. “हाय! हाऊ आर यू?” उन्होंने पूछा. “फाइन और बताइए आप कैसी हैं?” मैं दोनों भाषाओं का मिश्रण बनाया और उन्हें पिला दिया. फिर वह आगे कुछ नहींं बोलीं. मैं ख़ुश हो गया कि बच गए. सीढ़ियों से उतरते हुए एक और परिचित मिल गए. उन्होंने वही प्रक्रिया दोहराई. मैंने भी. उससे ज्यादा कुछ बातचीत नहींं हुई हमारी. कैसे होती वह हिंदी में बोलना ही नहींं चाहते और मुझे अंग्रेजी आती नहींं.
वर्कशॉप का पहला सत्र शुरू हुआ. देश के एक बड़े विद्वान प्रोफ़ेसर उद्घाटन सत्र में बोल रहे थे. उन्होंने अंग्रेजी में बताया कि उन्होंने हिंदी साहित्य में एम.ए, किया है और अपनी आत्मकथा अंग्रेजी में लिखी है. यह बात वह गर्व से बताते हुए फूले नहींं समा रहे थे.चलो कुछ आत्मविश्वास बढ़ा कि जब हिंदी का छात्र आज इतनी अच्छी अंग्रेजी बोल रहा है तो मैं भी तो बोल सकता हूँ. उनका व्याख्यान समाप्त हुआ. मेरे दिमाग में तीन सवाल आया लेकिन हिंदी में. मैं सवाल कैसे पूछू अब हिंदी में. अंग्रेजी में हो रहे सवालों की बौछार से मेरा मन बिध गया था. हिम्मत करके पूछने की कोशिश की भी तो हथेलियों में पसीना आने लगा. इतना पसीना कि मैं उससे अपना मुँह साफ कर सकता था. मैं डर गया और सवाल को वहीं छोड़ दिया. चलो यह सवाल मैं आप लोगो के सामने ही रख देता हूँ. यहाँ तो सब हिंदी वाले हैं.
उन्होंने अपने वक्तव्य में एक बार कहा कि आदिवासी एक साथ कई कौशल काम जानता है और दूसरी बात कि आदिवासी प्रकृति पूजक होता हैं. इसी से उपजा मेरा सवाल था कि,
“मेरे बड़े भाई एक साथ कई कौशल रखते हैं. वह मछली मारने में प्रशिक्षित हैं, जाल बुनने में, छप्पर बनाने में, खटिया बीनने में, बांस का सामान बनाने में, गुड बनाने में, तैरने में, टाइल्स लगाने में, राजमिस्त्री के काम में और भी अन्य कौशल में, जबकि वह कभी स्कूल नहींं गए. वही दूसरी तरह मेरे पास बहुत सीमित कौशल हैं सिवाय तैरने के. इसका कारण है कि भाई गांव में रहे, कभी स्कूल नहींं गए. उन्होंने सारे कौशल गांव में सीख लिए, वही मैं स्कूल गया. बाद में उच्च शिक्षा के लिए शहर. इसलिए मैं कोई इस तरह का कौशल नहींं सीख पाया. तो क्या तकनीकी और विकास के कारण आदिवासी समुदाय में इस तरह के परिवर्तन नहींं हो रहे हैं और अगर हो रहे हैं तो क्या प्रभाव पड़ रहा उन चीजों पर जो आपने अभी बताई हैं.”
दूसरा सवाल था कि,
“मैंने अपने नाना को ऐसे कर्मकांड करते देखा है जो आदिवासी समाज में होता है लेकिन बाद में मेरे मामा या भाई ने इसे पूरी तरह तो नहींं लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा छोड़ दिया है. गांव में पहले धरती, पशुओं और पेड़ों की पूजा पर आधारित कई कर्मकांड होते थे. एक तो याद है कि हम एक दिन दूसरे गाँव से भीख मांगकर लाते. जो भीख में मिलता था उसी से उस दिन का खाना बनता. खाना भी बाहर बनता और पशुओं की सुरक्षा के लिए पूजा होती. इसमें कहीं भी ब्राह्मण की जरूरत नहींं पड़ती. ऐसे ही शादी विवाह में जो भी कर्मकांड होते हैं उसमें प्रकृति की ही पूजा होती है किसी देवी-देवता की नहींं. कुआं पूजा जाता है. दूल्हे को जब नहलाया जाता है तो जुआटा पर बैठाया जाता है. बैलों से जुताई में प्रयुक्त होने वाली हरीश को मंडप में गाड़ा जाता है. मंडप भी हरे बांस और कांस और सरपत का बनता है. मूसल, ओखल, मथनी, सूप सबकुछ प्रकृति से जुड़ा था तो क्या सम्पूर्ण समाज कभी आदिवासियत का हिस्सा रहा है जो खेतिहर और कामगार होता गया है लेकिन उसके कर्मकांड अभी भी अवशेष हैं.”
तीसरा सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण था सवाल था कि,
“एक ही विद्वान दो समान चीजों को अलग-अलग क्यों देखता है? उसे आदिवासी समुदाय की प्रकृति पूजा अच्छी लगती है जिसे आदिवासी को करने देना चाहिए लेकिन कामगार, कारीगर, पशुपालक और मछुआरा समुदाय की प्रकृति पूजा ब्राह्मणवादी हैं, जिसे बंद कर देना चाहिए. ऐसा क्यूं?”
मैंने यह सवाल वहीं फूंक मारकर उड़ा दिए. वह पूरे समय वहीं हॉल में बिना पंख उड़ते रहें और मुझे चिढ़ाते रहे.
अंग्रेजी में पूछे जा रहे सवालों को सुन-सुनकर मैं फिर उसी उदास गली में भटकने लगा जिसमें अक्सर भटकता रहता हूँ. क्या अंग्रेजी बोल रहे थे सब एकदम शुद्ध और फर्राटे दार और अपना देखो कुछ भी नहींं आता. “हे भगवान कहाँ फंस गए. हिंदी में ही एमए कर लिया होता तो यह दिन न देखने पड़ते.” यही बार-बार मन में आ रहा था. उस दिन को कोसने लगा जिस दिन मेरा बीए प्रथम वर्ष का परिणाम आया था और मुझे हिंदी साहित्य में सबसे कम अंक मिले थे. ठीक यही द्वितीय वर्ष भी हुआ, तीसरे वर्ष हिंदी ही छोड़ दी. क्या पता था कि जिसमें ज़्यादा अंक मिल रहे हैं, उसमें आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी का आना अनिवार्य हो जाएगा.
दूसरी वक्ता ने हॉलांकि बीच-बीच में हिन्दी बोलकर थोड़ी मदद की उदासी की गली से विश्वास की गली में आने के लिए. इस बार विश्वास बढ़ा था कि सवाल हिंदी में अब पूछ सकता हूँ लेकिन क्या पूछूं समझ नहींं आ रहा था. सिर्फ सवाल पूछने के लिए सवाल करना मुझे बहुत ख़राब लगता है. ऐसा लगता है कि मुझे तैरना आता है और मैं डूबने का नाटक कर रहा हूँ. तो नहींं पूछा सवाल. अचानक में दिमाग़ ने अपना काम किया और कुछ याद आया. याद आएँ वासुदेव शरण अग्रवाल. उनका “फील्ड वर्क” करने पर एक महत्वपूर्ण और भावपूर्ण लेख है. क्या अदा से उन्होंने बताया कि गांवों से आप क्या ले सकते हैं. सोचा कि बोल दूं इसके बारे में. फिर लगा कि अरे कहीं इन अंग्रेजीदा लोगों के बीच में कहीं वासुदेव शरण अग्रवाल के साथ अपनी बेइज्जती न करवा दूं.
जैसे ही व्याख्यान खत्म हुआ उठा और निकल गया लोधी गार्डन. वाह क्या गार्डन हैं. आँखें फटी की फटी रह गई. घुसते ही एक बोर्ड दिखा जिस पर लिखा हुआ था कि, “शाम पाँच बजे से आठ बजे के बीच कुत्तों का टहलना मना है. मतलब कुत्ते भी आते हैं पार्क में. “हाऊ डेयर यू कम इन द गार्डन?” क्या पता कोई पूछ दे लेकिन किसी ने नहींं पूछा. सब अंग्रेज़ी में पता नहींं क्या बड़बड़ा रहे थे. चारों ओर से चिड़ियों की चहचहाहट आ रही थी. सुग्गा तक ख़ूब थे जो कि गाँव तक में आजकल नहींं दिखाई देते. कुत्ते तो थे ही. सब लोग थे केवल नहींं थे तो सुस्ताते मजदूर, काम के बोझ से थके हुए लिथड़े हुए मिट्टी, भीगे हुए पसीने से. वह कहीं नहींं थे जबकि इसी दिल्ली में चारों तरफ़ से मजदूर आकर भरे हुए हैं. मुझसे यह असहाय दृश्य देखा नहींं गया. मैंने ईयरबड्स कान में लगाकर मन्ना डे का गाना लगाया, “तुम बिन जीवन कैसा जीवन/फूल खिले तो दिल मुरझाए.”
वापस लौटे. गेस्ट हाउस के लान में कई यूरोपीय खड़े आपस में बात कर रहे थे. मुझे उनसे कोई डर नहींं लगा. पता था कि वह तो अंग्रेजी में ही बोलेंगे या किसी और यूरोपीय भाषा में. उनकी तो मातृभाषा है अंग्रेजी वह तो बोलेंगे ही. रात के भोजन पर सुबह का लड़का फिर मिल गया. वह भी मेस में खाना खाने आया था. आ गया बकलोल इंग्लिशमैंन. अब इसकी ठोकाई करके देखते हैं कि कुछ जानता भी है कि बस रौब जमाने के लिए अंग्रेजी बोलता है. इस बार मैं तैयार था जैसे ही वह आया, मैंने तड़ाक से पूछा हिंदी में, “ भाई आपका टापिक क्या है?”
“कल्चरल स्टडीज कर रहा हूँ.”
“थोड़ा स्पष्ट करेंगे कि आप किस तरह की कल्चरल स्टडी कर रहे हैं?”
“मैं कम्यूनिटीज के कल्चरल ट्रांसफर्मेशन को देख रहा हूँ.”
“थोड़ा और स्पष्ट करेंगे क्या. किन कम्यूनिटीज को आपने सेलेक्ट किया है?”
“अभी तो यादव के कल्चर को सेलेक्ट किया है आगे दो-तीन और कम्युनिटीज को सेलेक्ट करना है.”
“आपने फील्ड क्या लिया है?”
“भी फ़ील्ड डिसाइड नहींं है लेकिन बिहार में कुछ रहेगा.”
“अब मज़ा आएगा” मैं मन ही मन खुश हुआ. मेरे सवालों के बाण फिर चलने लगे. “तो आपको कुछ सोर्स वगैरह मिलें क्या?”
“मैंने सब पढ़ लिया लेकिन अभी तक मुझे कोई भी काम इस पर नहींं मिला.”
यह सुनते ही मुझे अपने सीनियर की बात याद आ गई कि नये नये शोधार्थी को लगता है कि मैं जो करने जा रहा हूँ उस पर आजतक कोई काम ही नहींं हुआ. अब तो अकादमिया में उसके नाम का डंका बजेगा डंका. उसे पता नहीं होता कि उसके अकादमिक बापों ने सब करके छोड़ दिया है इसी धरती पर.
“वाह क्या बात है. फिर तो बहुत यूनीक काम कर रहे हैं आप. लगे रहिए आप बहुत आगे जाएँ गे”- मैं मुस्कुरा रहा था.
“अच्छा आपने एमए किस सब्जेक्ट से किया है?”
“क्रिएटिव राइटिंग में और इंग्लिश में.”
मैं पहली बार सुना था कि क्रिएटिव राइटिंग में भी एमए होता है. “अच्छा तो आपने कुछ क्रिएटिव लिखा भी होगा तब तो.”
“हाँ लिखा है नान फिक्शन.”
“फिक्शन नहींं लिखा.”
“लिखा है ना शार्ट स्टोरीज.”
“अच्छा फिर एक दो पढ़वाइए.”
“मेरे पास नहींं है. पब्लिशर को दिया है.”
“अरे कुछ तो आपने लिखा होगा जो मोबाइल में हो. और वैसे आपका पब्लिशर कौन है. दिल्ली का ही होगा?”
“नहींं मेरे पास तो नहींं है. मेरा पब्लिशर पुणे का है.”
“कब तक आ जाएगी किताब?”
“नहींं पता. आप जानते होंगे कि पब्लिशर कैसे होते हैं.”
“हाँ-हाँ पब्लिशर होते ही हैं आलसी. कोई नहींं आप कहिए उनसे छापे. जब छप जाए तो मुझे बता दीजिएगा मैं खरीदकर पढ़ लूंगा.”
“आप अपना नान फिक्शन ही बता दीजिए वही साइट से पढ़ लूंगा.”
“अरे जहाँ पब्लिश हुआ है, वह सिर्फ प्रिंट में निकलता है.”
“भाई कुछ तो लिखा होगा जो तुम मुझे पढ़ने के लिए दे सको.”
“अभी तो कुछ नहींं है. चले सिगरेट पीने. आप पीते हैं?”
“ठीक है भाई. जब कुछ भी नहींं है तो क्या ही कर सकते हैं. वैसे सिगरेट मैं पीता हूँ लेकिन दिल्ली में नहींं इलाहाबाद में?”
“ऐसा क्यूं?”
“दिल्ली में वैसे ही इतना धुंआ भरा हुआ है उसमें मैं सिगरेट पीकर क्या इज़ाफ़ा करूं.”
मैं हँस दिया उसकी तरफ़ देखकर. उसकी हँसी गायब थी. अब मेरी समझ में आ गया यह बकलोल ही है बस अंग्रेजी में बोलता है. अरे भाई ऐसा क्या क्रिएटिव लिख मारा है कि कुछ भी तुम्हारे पास नहींं है शेयर करने के लिए. साले कैसे -कैसे लोग हैं. अरे इतना भौकाल न बनाओं कि खुद संभाल न पाओ. जैसे ही उसने सिगरेट समाप्त की. मेरे सवाल फिर शुरू हो गए. “अच्छा कोई यादवों का कल्चरल फोक बताइए जो आपने देखा हो?”
“हाँ एक फोक डांस होता है जो मैंने देखा है.”
“और कुछ?”
“और तो नहींं.”
“आपने दीना भद्री, बिहुला, कमला नाच, बिरहा, विदेशिया, दुलरा दयाल इन सबके बारे में सुना है? यह सब फोक ट्रेडिशन हैं.”
अब वह समझ गया था कि वह अब झूठ नहींं बोल सकता. उसने कहा, “नहींं.”
“फिर आप देखिए इन ट्रेडिशन को. पता कीजिए इनके बारे में.”
अब उसका सिगरेट का नशा उतर गया. वह आगे कुछ नहींं बोला. हमसे आगे बढ़ गया. आगे आगे चलते हुए ही गेस्ट हाउस में घुस गया. मैं फुसफुसाया भों..ड़ी के! आए थे हमारे पास रौब झाड़ने. अब बोलें अंग्रेजी में तो बताता हूँ.
चार)
सुबह इंडियन हैवीवेट सेंटर और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय होते हुए सीएसडी पहुंचा. थोड़ा जल्दी ही पहुंच गए हम. सोचा कि चाय ही पी लेते हैं. जैसे ही दुकान पर पहुंचकर चाय उठाई कि खुले बालों को लहराती हुई दुकान की तरफ़ आते हुए एक लड़की दिखाई दी. सुशील की तरफ़ देखते हुए मैंने कहा कि सुशील! देखो बम बहादुर आ रही है. संभालो उसे. मुझसे अगर उसने अंग्रेजी में कुछ बोल दिया तो मैं खुद को संभाल नहींं पाऊंगा. कल वह हाथ घुमा-घुमाकर जिस तरह अंग्रेजी बोल रही थी. मैं तो घबरा गया था कि कही वह एकाध बम का गोला वही न पटक दे. मैं डरकर आगे चला गया.
“अरे भैया उसका नाम कुछ और है.”
“अरे यार विशेषण भी नहींं समझते.”
“अच्छा-अच्छा समझ गया. ये सिगरेट पीने आ रही है.”
“तब तो पक्का हिंदी में बोलेगी चाय वाली आंटी से. तुम जरा सुनो तो क्या बोलती है?”
सुशील पास में गया. तो उसने हिन्दी में बोलते हुए सिगरेट मांगी. ऐसा सुशील ने बताया. अरे यार कैसे-कैसे लोग हैं इस धरती पर. वैसे “सिगरेट से औरतें के भी फेफड़े ही ख़राब होते हैं चरित्र नहींं” ये वाला पोस्ट तुमने भी फेसबुक पर देखा होगा न. सुनील ने हाँ में सिर हिलाया. अच्छा ये बताओ कि कोई जरूरी है कि लड़कियाँ भी लड़कों से बराबरी के लिए सिगरेट ही पीएँ. बराबरी के लिए और भी तो काम हैं जो किए जा सकते हैं. फिर सिगरेट क्यूँ पीना. अब लड़के मर रहे हैं तो ज़रूरी है कि लड़कियाँ भी मरे सिगरेट पीकर. गाँव में वो लड़ाई होने पर हम लड़के अक्सर किसी के बहकावे में आकर दूसरे से भिड़ जाते थे. और पिट जाते थे. बाद में पता चलता था कि अरे यह तो बेवकूफ बना गया हमें . कब पता चलेगा इन लड़कियों को कि लड़कों से बराबरी के नाम पर वह बेवकूफ बन रहीं हैं. सुनील ने फिर हाँ में सिर हिलाया. हमारे आंकड़े जो उस लड़की के बारे में हमने इकट्ठा किए थे उसके आधार पर निष्कर्ष निकाला कि लड़की कामरेड है.
आज के व्याख्यान में एक आश्चर्यजनक चीज़ हुई. वक्ता ने जब शोध साहित्य समीक्षा के बारे में बताते हुए उपन्यासकार अमिताभ घोष का नाम लिया तो मन थोड़ा प्रसन्न हुआ कि चलों हिंदी न सही अंग्रेजी साहित्यकार का ही वक्ता ने नाम तो लिया. अचानक मुझे महसूस हुआ कि मेरी कुर्सी धम्म से लोधी गार्डन में गिर गई है. उसके चारों ओर दोपहर में काम से थके हुए मजदूर आराम कर रहे हैं. कहीं कोई साफ़ सुथरा आदमी नहींं है. हाँ ज़रूर कहीं कहीं प्रेमी युगल झुरमुटों के बीच बैठे हुए हैं. कितना सुन्दर दृश्य था. आँखें तो तरस गई थी ऐसे दृश्यों के लिए इलाहाबाद से दिल्ली तक.
तभी अचानक किसी के गिलास रखने की आवाज हुई. देखा तो व्याख्यान चल रहा है. आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हो गया. तो मामला यह था कि वक्ता ने श्रीलाल शुक्ल और रागदरबारी का नाम लिया था. अंग्रेजी में एक प्रसंग भी उसका सुनाया कि कैसे रोज-रोज चार बजे आ रही ट्रेन तीन बजे ही चली गई तो यात्रियों ने स्टेशन मास्टर को घेर लिया कि कैसे ट्रेन पहले ही चली गई. उसके लिए यात्रियों को समझा पाना ही मुश्किल था कि ट्रेन का समय तीन बजे ही है भले वह चार बजे आती रही हो. किस सिद्धांत या अवधारणा को समझाने के लिए उन्होंने यह प्रकरण सुनाया था. मुझे समझ ही नहींं आया. बाद में जब उन्होंने वासुदेवशरण अग्रवाल, गोविंद चन्द्र पाण्डेय, राहुल सांकृत्यायन, कबीर, रैदास आदि भारतीय विद्वानों का नाम लिया तो मन गदगद हो गया. मन उछल-उछल कर लोधी गार्डन में गिरता रहा. लेकिन मुझे क्या पता था कि यह खुशी बस दो पल की है.
पेशाब करने पहुंचा. बगल में एक इंग्लिस्तान का लड़का आ गया. उसने फिर आज वही पूछा, “हाउ आर यू?”
“फाइन एँड यू?”
“आई एम आलसो फाइन.”
“व्हाट योर फ़ील्ड एरिया.”
मैं सकपका गया. मेरे मुँह से निकल गया- “हिस्ट्री”
“व्हाट आर योर फ़ील्ड एरिया?”
“ओह सारी, इलाहाबाद”
तभी पता नहींं कहाँ से क्रियेटिव राइटिंग वाला लड़का आ गया. वह बगल में खड़ा पेशाब करने लगा. पेशाब करने के बने बेसिन में दो के बीच इतनी कम जगह थी कि अगर कोई थोड़ा भी शर्मीला होतो उसकी पेशाब ही न उतरे कि बगल वाला कहीं देख तो नहींं रहा है. उसने मुझसे पूछा, आर यू फ्राम जीबी पंत?”
“यस”
“आर यू आलसो फ्राम इलाहाबाद?”
“यस”
दोनों खिलखिला कर हँस पड़े. मेरा तो मुँह शरम के मारे लाल हो गया. उनकी हँसी में कुछ ऐसा था कि मुझे बर्दाश्त नहींं हुई. उनकी हँसी में मेरी अंग्रेजी का मजाक था. मेरे शहर का मजाक़ था. मेरे संस्थान का मजाक़ था. उनकी हँसी में सामंतवाद की बू थी जो मानती थी कि अंग्रेजी बोलने वाले सर्वश्रेष्ठ हैं. देश के उच्च शिक्षण संस्थान में पढ़ने वाले सर्वश्रेष्ठ हैं. लोधी गार्डन में टहलने वाले सर्वश्रेष्ठ हैं. उनकी हँसी में एक अछूतपन था जो जातियों से निकलकर शिक्षा संस्थानों में आ गया था जहाँ जाति ही नहींं शिक्षण संस्थानों की श्रेणीक्रम के आधार पर भेदभाव और छूआछूत होता है.
मुझसे बर्दाश्त नहींं हुआ. मैंने बहुत ही ख़राब गाली उन्हें दी मन में. मन किया कि जी भर इलाहाबादी शैली में गरियाऊं इन्हें. लेकिन नहींं गरिया पाया. सबसे ज्यादा कोफ्त इस बात कि हुई कि पूछ भी नहींं पाया कि मेरी बात पर उन्हें हँसी क्यूं आई. बाहर निकला तो पछताने लगा कि मैंने क्यूं यह अपमान बर्दाश्त किया. मुझे तुरंत इसका प्रतिउत्तर देना था. मेरे मुँह से कुछ निकला क्यूं नहींं.
मैं हर बार क्यूं डर जाता हूँ. क्यूं नहींं कह पाता कि तुम्हारी अंग्रेजी से मुझे डर नहींं लगता. मेरा हॉलैंड हॉल इस समय पता नहीं कहाँ चला जाता है. वह थोड़ी देर के लिए भी मेरे भीतर आ जाये तो मैं इनकी खटिया खड़ी कर दूँ. तुम भले ही देश के बड़े विश्वविद्यालय में पढ़ते हो लेकिन हो एक नंबर के बकलोल और बकलोल ही रह जाओगे. रास्ते भर सोचता रहा कि हो सकता है कि वह प्रतिशोध की अग्नि में जल रहा हो और कल का बदला लिया हो मुझसे. हो सकता है कल उसे अच्छा न लगा हो यह देखकर कि उसकी तो पोल ही खुल गई इसलिए उसने आज मौका देखकर मेरा मजाक़ बना दिया.
बार-बार दिमाग़ में वही चलता रहा. “सुशील मैं जाते जाते इसे जरूर गरियाऊंगा और कल से अंग्रेजी में बोलना है ओके. हम दोनों भी आपस में अंग्रेजी में बात करेंगे ओके.” मैंने सुशील से ज्यादा यह बात अपने आप से कहीं थी. सुशील ने कहा- “ओके भैया”. फिर कहा- “ लेट्स गो फार डिनर भैया”
“एस एस”
दोनों खिलखिला कर हँस पड़े. इस हँसी में सौ फीसदी रुलाई थी. मैं लौट रहा था. बारिश सड़क के ताप को ठंडा कर चुकी थी लेकिन मेरा हृदय अपमान से जल रहा था. पांव डगमगा रहे थे. मेरा मन टूट गया था. सोच रहा था कि कहाँ पीएच.डी. के चक्कर में फंस गया. ठीक भला था कि कोई प्रतियोगी परीक्षा पास करके नौकरी करते. अब रोने से रूलाई भी नहींं आ रही थी. मन बार-बार करता कि यहाँ से भाग जाऊं और फिर कभी न लौटूं इस तरफ़. हम पैदल ही इंडिया हैबीटेट सेंटर होते हुए वापस लौट रहे थे. गेस्ट हाऊस के पास में ही रैन बसेरा में लोग कुछ सोए और कुछ ऊंघ रहे थे.
पालीथीन से लिपटी छोटी-छोटी झोपड़ियों में बैठी महिलाएँ आपस में खुसुर फुसुर पता नहींं क्या बतिया रहीं थीं. बाहर दो लड़कियाँ एक-दूसरे पर भौंक रही थीं. बगल में दो कुत्ते एक-दूसरे से झगड़ रहे थें. पास के कूड़ाघर से एक कूड़ा बीनने वाला लड़का कुछ छांट कर अलग कर रहा था. कूड़ाघर की बदबू मेरे दिमाग में भर जाती हैं. भागकर बचना चाहता हूँ तो लगता है कि इससे ज्यादा बदबू तो जीवन में फैली हुई है. गेस्ट हाउस के पास नशेड़ियों का मजमा लगा हुआ था. वे बड़े आराम से वहाँ बैठे पी रहे थें. सैलून वाला वैसे ही बाल काटे जा रहा था जैसे सुबह काट रहा था. हम सबको देखते हुए गेस्ट हाउस में प्रवेश करते हैं.
सीढ़ियों के पास विदेशी लड़कियां बैठी हुईं थीं. बगल में विदेशियों का एक झुंड था. हमें आते देख वह लड़की खड़ी होकर हट गई. उसने हमें देखते ही कहा, गुड इवनिंग.” मैंने उदास मन से उसे कहा, “गुड इवनिंग.” फिर उनको अपने काम में व्यस्त देख कुछ कहे बिना ही मैं लिफ्ट होते हुए कमरे में आ गया. सुबह नाश्ते पर जाते समय सीढियों पर मुझे वही विदेशी लड़की फिर मिल गई. मेरे भीतर कल के अपमान की ज्वाला जल रही थी. मैं खाने के लिए मेस की तरफ गया. वह बेसिन में अपना हाथ धुल रही थी. मैं पहुंचा. मैं भी हाथ धुलने के लिए बेसिन के पास खड़ा हो गया.
उसने नजरें मेरी तरफ़ फेरी और कहा, “गुड मॉर्निंग”, बदले में मैंने अपनी तरफ से एक प्यारी मुस्कान बिखेरते हुए दोहराया, “गुड मॉर्निंग”. हम साथ-साथ सीढ़ियों से नीचे उतरे. मैं उससे कुछ बोल नहींं पा रहा था. किसी तरह हिम्मत करके मैंने अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में उससे बात करनी शुरू की. बातों का सिलसिला चल निकला. मैं जो कहता वह समझ जाती. उसे मेरी टूटी-फूटी अंग्रेजी से लग गया कि मैं अंग्रेजी नहींं बोलता हूँ. फिर भी उसने मेरी ख़राब अंग्रेजी के लिए मुझे जरा भी शर्मिंदा नहींं किया न ही कोई रौब जमाया उत्तर भारत के इंग्लिस्तानों की तरह. कितनी प्यारी लग रही थी वह, जैसे उसके मुँह से अंग्रेजी. उसकी मातृभाषा जो है. वही उत्तर भारत के लोग उसे ऐसे बोलते हैं कि कर्कश और कसैली हो जाती है.
मैंने अंग्रेजी में जो बात की वह बहुत सामान्य बातचीत थी जिसके लिए मैं रोज अभ्यास करता था. फिर पता नहींं कहाँ से जादू हुआ कि मैं अधिकतम शब्द अंग्रेजी में ही बोलता रहा. हम बात करते-करते नीचे मेस हॉल में आ गए. उसने बताया कि उसका नाम जेना है. वह इंडिया हैबिटेट सेंटर में एक स्टार्टअप का विचार साझा करने आई है. उसके साथ में और लोग भी हैं. हमने साथ में ही खाना खाया उस दिन. इसके साथ हुई बातचीत ने मुझ पर जादू कर दिया. ऐसा लगा कि मैं यूरोप के किसी देश में खड़ा हूँ. मेरा आत्मविश्वास आज सातवें आसमान पर था. नाश्ता करने के बाद मैं वर्कशाप के लिए निकल गया.
गेस्ट हाऊस ऐसी जगह पर था जहाँ से दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन और नई दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की सीमा अलग होती है. यहाँ से दिल्ली दो भागों में बंट जाती हैं. एक वह जिनके पास सबकुछ है, दूसरे वह जिनके पास होकर भी कुछ नहींं है. जैन मंदिर से आगे इंडिया हैबीटेट सेंटर के आगे दीवान चंद्र राय स्कूल पहुंचा. नई दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की तरफ़ से आ रही गाड़ी ने मोटरसाइकिल वाले को ठोक दिया. गाड़ी वाला उतरा भी ही नहींं यह देखने कि मोटरसाइकिल वाले को कहीं चोट तो नहींं आई. वह वैसे ही निकल गया. उसके पीछे आ रहीं गाडियां भी उसी रफ्तार से आगे निकल गई. दूर मोटरसाइकिल से जा रहे दो-तीन लोग उसे उठाने आए जो दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की तरफ़ से आ रहे थे.
दिल्ली में संवेदना भी वर्ग आधारित है. मतलब गाड़ी वाले को चोट लगी तो गाड़ी वाला ही आएगा और मोटरसाइकिल वाले को चोट लगी तो मोटरसाइकिल वाला. सबकी संवेदना उन्हीं के साथ हैं जो उन्हें अपने समकक्ष लगते हैं. ठीक वैसे ही जैसे वर्कशॉप के बाद जब हम चाय या भोजन के लिए बाहर जाते हैं तो अंग्रेजी वाले एक साथ हो जाते हैं और हिंदी वाले एक साथ. आज का दिन मैं इस तरह नहींं गुजारना चाहता था. मैं दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की सीमा को लांघकर नई दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की सीमा में आना चाहता था. यह आसान नहींं हो रहा था. सभी को पता चल चुका था कि मुझे अंग्रेजी नहींं आती. ऐसे में हर कोई मुझे बकलोल ही समझता. फिर भी आज इतने दिनों से कमाए गए आत्मविश्वास को खोना नहींं चाहता था.

पाँच)
मैं एक लड़की ढूंढ रहा था जिससे साथ इस कड़ी को जोड़े रख सकूं. आपको लग रहा होगा कि मैं इस बहाने लड़की पर डोरे डालना चाहता हूँ. ऐसा बिल्कुल नहींं है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ अगर उसने मुझ पर रौब झाड़ने या मुझे नीचा दिखाने की कोई कोशिश की तो मैं इज्जत बेइज्जत देखकर हट जाऊंगा लेकिन अगर यही काम किसी लड़के ने किया तो मैं उसे इलाहाबादी गालियों से नवाज दूंगा. इसलिए लड़के से बात करने में रिस्क था जो मैं लेना नहींं चाहता था. कोई नहींं मिला मुझे. नई दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन से बाहर दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन में कौन आना चाहता. इसलिए मैं किसी के पास भी जाने की कोशिश करता वह मुझसे दूर खिसक जाता. वो लोग शायद मुझे अछूत समझ रहे थे.
मैं वापस लौट रहा था. आज भी कल जैसा ही था. मेरा आत्मविश्वास फिर से रसातल में चला गया था. वापस लौटा तो वही विदेशी लड़की जेना सीढ़ियों के पास बैठी मिली. मुझे देखते ही उसने गुड इवनिंग कहा. मेरी आवाज़ को लकवा मार गया था. मुँह से कुछ न निकला. जैसे कि मुझे कुछ सुनाई ही न दिया हो. वह जिद्दी थी उसे न जाने क्या सूझा कि उसने दोबारा से गुड इवनिंग किया. इस बार मेरी आँखें उससे जा मिली. मैंने न चाहते हुए भी गुड इवनिंग कहते हुए उसकी हॉल-चाल पूछी तो बदले में उसने भी मेरा हॉल-चाल पूछा. फिर वह लगातार मेरे बारे में पूछने लगी. पहले तो मुझे डर लगा कि अब कैसे फिर से बात करूं इससे.
वह पता नहींं कैसे मेरी परेशानी समझ गई. उसने कहा कि अगर उसे अंग्रेजी नहींं आती तो इसमें शर्मिंदगी जैसी कोई बात नहींं है. भाषा ही तो है. कुछ दिन में सीख जाओगे. अब मैं उसे कैसे बताऊं कि मैं पिछले सालों से यही तो कोशिश करता रहा हूँ लेकिन नतीजा सिफर ही रहा है. मैं उदास हो गया. उसने अपना हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और कहा कि वह यहाँ अभी पाँच दिन रहने वाली है. वह हर शाम यहाँ मिलेंगे और बस बातें करेंगे. सिखाने के नाम पर उसने कहा कि उसे भी वह सिखा देगी. उस दिन के बाद वह रोज मुझसे गेस्ट हाउस की सीढ़ियों के पास मिलती
हमने तय किया कि हम दिल्ली की अलग-अलग जगहों पर घूमेंगे. हम शाम को निकलते और देर रात तक दिल्ली की गलियों में यूं ही भटकते रहते. मैंने हुमायूं के मकबरे, निजामुद्दीन की दरगाह, मिर्ज़ा ग़ालिब की मजार, लालकिला, जामा मस्जिद और तमाम जगहों पर उसे घुमाया. घुमाते समय मैं उसे इन जगहों का इतिहास बताना नहींं भूलता. वह मेरे इतिहास के ज्ञान से आश्चर्यचकित थी लेकिन उसे क्या पता कि मैं भी बस थोड़ा बहुत ही जानता हूँ.
अब मैं वर्कशाप की कक्षाओं के बस खत्म होने का बेसब्री से इंतजार करता. जैसे ही कक्षाएँ छूटती मैं बस भागता जैसे भूखा खाने की तरफ़ भागता है. उस दिन भी मैं भागते हुए आया था. मुझे देखकर वह हँसने लगी कि इतनी भी क्या जल्दी है. मैं उसे कैसे बताऊं कि मैं बस बैठे हुए शाम होने का इंतजार करता हूँ. वह भी तैयार बैठी थी. हम आज हुमायूं के मकबरे पर जाने वाले थे. बिल्कुल पास होने के कारण हमने पैदल ही जाने का निश्चय किया. हम पहुंचे तो सूरज धीरे-धीरे पश्चिम की तरफ़ लुढ़क रहा था. हम मकबरे की पहली मंजिल पर थे. मैं पहुंचते ही उसका गाइड बन गया और लगा हुमायूं का इतिहास बताने. वह उकता गई थी मेरे इतिहास को सुन-सुनकर. आज उसने कहा कि मैं कुछ अपना इतिहास बताऊं. जब मैंने उसे अपना पारिवारिक इतिहास बताया तो वह मंत्रमुग्ध होकर सुनती रही. जब मैंने उसे अपनी राम कहानी सुनाई तो मेरा भी साक्षात्कारकर्ता बाहर आ गया.
मैंने एक-एक कर उससे सवाल की झड़ी लगा दी. उसने बताया कि उसके बाबा भारत आए थे तब देश में उसकी औपनिवेशिक सरकार हुआ करती थी. वह भारत की विविधता से प्रभावित थे. वह अंग्रेजी शासन को अच्छा नहींं मानते थे. यहाँ चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित थे. जब वह यहाँ आए तो उनको दो चीजों ने बहुत परेशान किया- साम्प्रदायिकता और ग़रीबी. वह चाहते थे कि यह सब खत्म हो. इसके लिए उनके पास काम करने के कई तरीके थे. उन्होंने पत्रकारिता को चुना. वह इलाहाबाद में चलने वाले एक अंग्रेजी अखबार में संवाददाता का काम करने लगे. उनका बहुत मन था भारत में ग़रीबी के उन्मूलन की दिशा में कुछ ठोस कार्य करने की. एक दिन वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग गए. वहाँ विभागाध्यक्ष से जब उन्होंने अपनी इच्छा जाहिर की तो बहुत खुश हुए और उन्होंने रजामंदी दे दी.
8 अगस्त 1942 की उत्साहित सुबह थी. देश में गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की घोषणा कर दी थी. पूरा देश ही अंग्रेजी शासन को उखाड़ने में जुट गया. सुबह ही इलाहाबाद में लोगों का जुलूस विश्वविद्यालय के छात्रसंघ से और चौक से कचहरी पर भारतीय तिरंगा फहराने के लिए आगे बढ़ता जा रहा था कि पुलिस अधीक्षक ने उन पर गोलियाँ चलवा दी. कई लोग मारे गए. पूरे शहर में धारा 144 पहले से लागू थी. अब कर्फ्यू भी लगा दिया गया. शाम हो गई थी. मेरे बाबा आंदोलन को कवर कर रहे थे. रात में सिविल लाइंस से देर रात अपने आवास जो एलनगंज में हुआ करता था, पैदल उसी रास्ते से लौट रहे थे जिस रास्ते से आन्दोलनकारियों का जुलूस निकला था और रास्ते में ही पदमधर समेत तीन और लोग गोली चलने से मारे गए थे. वह कर्नलगंज पहुंचे ही थे कि लोगों के एक उग्र समूह ने उन्हें घेर लिया. उसके बाद अगले दिन उनकी लाश हास्टल की टंकी में पाई गई. उसके बाबा जो तब बीस साल के हो चुके थे, वह इंग्लैंड वापस आ गए.
इतना कहकर वह चुप हो गई. उसकी आँखों में आंसू आ गए. मुझे काटो तो खून नहींं. मुझे वह बातें याद आ गई जो मैंने टंकी पर जाते समय सुनी थी. मैं समझ गया कि वह और कोई नहींं, उसके बाबा ही थे. मेरी समझ नहींं आ रहा था कि मैं उसे क्या बताऊं. तभी अचानक मेरी सांसें फूलने लगी. हाथों और पैरों में पसीना भर गया. आँखें लाल हो गई मेरी. मेरा यह रूप देखकर वह घबरा गई. उसने मुझे वहीं लिटा दिया और हवा करने लगी जबकि हवा का रूख पहले से तेज था
धीरे-धीरे मैं सामान्य स्थिति में आ गया. उसे पूरी बात बताई तो उसे विश्वास ही नहींं हुआ कि मैंने उसके बाबा से बात की है. मैं उन्हें जानता हूँ. उसे विश्वास कैसे दिलाऊं. मेरे पास तो कोई सबूत नहींं था. फिर उसनें बताया कि उसके बाबा की एक डायरी उसके पास थी, जिसे उसने पढ़ा है. उसने कहा कि अगर वह अब के इलाहाबाद का विवरण उसे बताये और वह विवरण का कुछ हिस्सा भी डायरी में समान रूप से मिल जाये तो उसे मेरी बातों पर विश्वास न करने का कोई कारण नहींं होगा. मैंने एलनगंज से लेकर यूनिवर्सिटी, कटरा, सिविल लाइन्स, चौक के साथ ढेर सारे विवरण उसके सामने रखे. डायरी की बातो में बहुत साडी जगहों के नाम हूबहू दर्ज थे. मेरे विश्वास की डोर अब इतनी मजबूत हो गई थी कि उसे मेरी बातो पर विश्वास करना ही पड़ा. उसे मेरी बातें सुनकर ऐसा रोना आया कि रूकने का नाम भी नहींं ले रही थी. मैं क्या करूं. मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिए और तब तक वैसे ही खड़ा रहा जब तक उसने अपने आँसुओं को सुखाकर अपना चेहरा ऊपर नहींं उठाया.
उसने मुझे लौटकर अपने बाबा की डायरी की स्कैन कापी भेजने का वादा किया जो उसके बाबा साथ लेकर आयें थे. मैंने उसके कंधे से अपना हाथ हटाया. वह चुपचाप मेरी ओर देखती रही. उसने मुझे बताया कि उसके बाबा कि इच्छा थी कि वह एक अच्छी पीएच.डी. करें. यह बात उन्होंने अपनी डायरी में लिखी है. मुझे सात साल पहले की उस रात की यादें ताजा हो गई. मुझे वो शब्द आज समझ आये थे कि वह कहना क्या चाहते थे मुझसे. मैंने टंकी के पास सुना था कि मुझे पीएच.डी. करनी है. मैं उस रात का मतलब समझ चुका था. जेना के बाबा पीएच.डी. करने की आशा में अभी भी टंकी पर बैठे रहते थे. उस रात भी वह बैठे थे. उस दिन वह मुझे एक माध्यम बनाना चाहते थे अपने काम के लिए. मुझे आज समझ आ चुका था. मैंने जेना से वादा किया कि मैं उसके बाबा के लिए पीएच.डी. करूंगा. जेना ने वादा किया कि वह एक दिन इलाहाबाद जरूर आएगी. इस वादे के साथ हम वापस लौटे.
इन पाँच दिनों में उसने मेरे आत्मविश्वास को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया. अगले दिन वह अपने समूह के साथ जाने वाली थी. उसकी फ्लाइट दोपहर की थी. मुझे आज कक्षा बंक मारनी पड़ी. मैं पहुंचा तो वह सामान को लेकर बस निकलने वाली थी. आज हमने कुछ नहींं बतियाया. बस एक-दूसरे को देखते रहे. आँखें दोनों की भीग गई थीं. उसने आगे बढ़कर जब मुझे गले लगाया तो लगा कि कोई अपना बहुत सगा छोड़कर बहुत दूर जा रहा है. बाहर टैक्सी खड़ी थी. वह बैठी और चली गई. मैं उसे जाते हुए देखता रहा. उस दिन का खालीपन मुझे भीतर तक कई दिनों तक छेदता रहा.
अगले दिन मुझे लगा कि मैं स्वयं से कह सकता हूँ कि मैं इंग्लिस्तान में आ गया हूँ. मैं बदल चुका था. मैं अब दूसरों को दिखाने और रौब झाड़ने के मूड़ में आ गया. मैं किसी से भी बोलने की कोशिश करता और जब अंग्रेजी में बात करता तो लोग आश्चर्य से भर जाते. ऐसे कैसे हो गया. यह तो निपट हिंदी बोलता था. फिर कैसे हुआ यह सब.
आज मेरा आत्मविश्वास ऊंचा था. सोच लिया कि सामने शशि थरूर भी आएँ तो पीछे नहींं हटूंगा. फिर यह छोटे-छोटे जीव क्या चीज़ हैं. हम पहुंचे. सामने जो भी मिलता उसे “हाउ आर यू” जरूर कहते. आज मैं टकराने को तैयार थे तूफानों से सीना तान कर. सब लोग “फाइन एँड यू?” कहकर निकल जाते. आज कोई बात ही नहींं कर रहा था. जैसे लग रहा था सब लोगों को पता चल गया था कि हम आज योजनाबद्ध तरीके से उनसे भिड़ने आए हैं. कोई भी शिकार न पाकर हम निराश थे. सबसे ज्यादा निराशा मुझे थी.
सुशील बारहवीं तक तो अंग्रेजी मीडियम में ही पढ़ा था वह तो भूल से इलाहाबाद विश्वविद्यालय पढ़ने आ गया तो भूल गया अंग्रेजी भी. मेरी तो कोई पढ़ाई अंग्रेजी में नहींं हुई. ऊपर से मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ गया. करेला ऊपर से नीम चढ़ा वाली कहावत याद हो आई. कहाँ अंग्रेजी सीखनी थी कहाँ इलाहाबाद की बकैती सीख ली तो हिंदी भी आती थी उसका भी सत्यानाश कर लिया. अंग्रेजी को कौन कहे. लेकिन हाँ “यूनिवर्सिटी” को जब “इनवसिटी” कहना सीख लिए तो लगा कि वाह क्या अंग्रेजी बोल रहा हूँ. अब लगती थी यूनिवर्सिटी अपनी. जब तक यूनिवर्सिटी को यूनिवर्सिटी बोलता रहा वह अपनापन नहींं आया, जिस दिन से उसे इनवसिटी कहना खा उस दिन से इसे दोहरा-दोहराकर ख़ूब चटखारे लेता. “भाई इनवसिटी गेट पर उतार देना” कहने में जो मज़ा आता है न वह अंग्रेजी बोलने में क्या आएगा.
तो हम शिकार ढूंढ रहे थे लेकिन यह तो हमारा वहम था शिकार तो हमी थे और खुद बलि का बकरा बनने आए थे. हम मेमने शेरों को ललकार रहे थे लेकिन कोई शेर आ नहींं रहा था. हम उदास अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे. यह क्या आज तो वक्ता भी अंग्रेजी में हिंदी का मिश्रण लगाकर बोल रहा था. यह भी नहींं चाहता कि हम अंग्रेजी बोलना सीखे. आज सबकुछ हमारे खिलाफ़ था. वो कहते हैं ना कि भगवान के घर देर है अँधेर नहींं. एक लड़की चलती हुई मेरे तरफ़ आई. भगवान ने मेरा शिकार भेज दिया था-
“यू आर फ्राम जी.बी. पंत इंस्टीट्यूट?”
“यस यस” मेरी तो आँखें खुली की खुली रह गई. इस बार मैं तैयार था कि कोई भी मौका नहींं चूकना है. जैसे ही कोई प्रश्न पूछे उत्तर देने के साथ ही उससे भी प्रश्न पूछ ही लेना है. लोग दो-तीन प्रश्न पूछने और मेरे हर बार एस एस कहने पर समझ जाते हैं कि यह तो बकलोल है इसे अंग्रेजी नहींं आती. फिर वह मुँह बनाते और हँसते हुए मुझसे दूर चले जाते. मैंने उत्तर देने के साथ प्रश्न पूछ लिया-
“एँड यू?”
“आई एम फ्राम आंध्र यूनिवर्सिटी.”
“ओके, व्हाट इज योर सब्जेक्ट एँड पीएच.डी. टापिक?”
“माई सब्जेक्ट इज सोशियोलॉजी एँड पीएच.डी. टापिक इज ए सोशियोलॉजिकल स्टडी आफ रजक कम्यूनिटी इन तेलंगाना.”
“नाइस टापिक.”
आपको अंदाजा नहींं होगा कि मेरी खुशी का ठिकाना क्या था. इतनी खुशी तो मुझे अपनी प्रेमिका के पहली बार होंठ चूमने पर भी नहींं हुई थी. मैं सातवें आसमान पर था. अब मैं रूकना नहींं चाहता था. मैं चाहता था मेरी अंग्रेजी का घोड़ा इसी रफ़्तार से दौड़ता रहें.
“व्हाट इज योर सब्जेक्ट एँड टापिक?”
“माई सब्जेक्ट इज हिस्ट्री एँड टापिक इज रिशेपिंग आफ कास्ट इन कोलोनियल नार्थ इंडिया.”
“वाव, इंट्स इंटरेस्टिंग.”
“यू कैन टेल मी अबाउट रजक कम्यूनिटी?”
“रजक कम्यूनिटी इज अ ओबीसी कास्ट इन तेलंगाना एँड दे आए वेरी डेपराइव्ड.”
“बट रजक कम्यूनिटी इन उत्तर प्रदेश आर एससी ह्वाई इन तेलंगाना दे आर ओबीसी?”
“यस आई एम थिंकिंग दैट इट व्हाट हैपेन्ड.”
“यू नो इन हरियाणा दे आर ओबीसी.”
“नो, बट इट्स अमैंजिंग.”
“यू नो व़ोट्समैंन कम्यूनिटी आर लिस्टेट ओबीसी इन उत्तर प्रदेश बट इन देलही एँड बंगाल दे आर लिस्टेड इन एससी.”
मैं कुछ भी बात करके बात को आगे बढ़ाना चाहता था. लेकिन अगले वक्ता का वक्त हो चला था इसलिए हमारी बात अधूरी रह गई. जीवन की सारी सफलताओं पर भारी पड़ गई थी यह बातचीत. हो भी क्यूं न मैं पूरी केवटहिया का पहला लड़का होऊंगा जो अंग्रेजी में इतनी देर बात कर सका नहींं तो ठीक ठाक हिंदी भी कम ही लोग बोल पाते हैं. मेरी आँखें भर आईं. जैसे लग रहा था कि मेरे ऊपर फूल झर रहे हैं. ये फूल कोई नहींं मेरे पुरखे बरसा रहे हैं. अचानक बाहर काले बादलों का साया चारों तरफ़ छा गया. मूसलाधार बारिश. मुझे लगा कि यह बारिश नहींं हो रही है बल्कि मेरे पुरखें खुशी के मारे रो रहे हैं. वह रोते ही जा रहे हैं. वह इतना रोये कि दिल्ली की सड़कें पानी से भर गई. आश्चर्य कि यह पानी बस लोधी गार्डन के आसपास के इलाकों में नहीं था.
यह कीर्तिनगर की चूना भट्ठी में बरसा पानी लोधी स्टेट की गलियों में बह रहा था. इतनी बारिश हुई कि लोधी स्टेट पानी से भर गया. चारों तरफ़ पानी ही पानी. सबसे पहले पानी संसद भवन में भरा फिर शिक्षा मंत्रालय में फिर दूसरे मंत्रालयों और सचिवालय में. फिर पानी सांसदों और अधिकारियों के घरों में घुस गया. फिर दिल्ली विश्वविद्यालय होते हुए जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय पहुंचा. सबकुछ डूब गया. नहींं डूबा था तो राष्ट्रीय अभिलेखागार वहाँ मेरे दादा से संबंधित कागजात थे जिसमें उनका नाम था जब वह द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सेना में भर्ती हुए थे लेकिन पता नहींं किस मोर्चे पर मारे गए थे. उनकी लाश तक हमें नहींं मिली थी. पानी बहुत धीरे-धीरे उनके पास पहुंचा. जैसे लग रहा था वह उन्हीं से मिलने आया था जो कई सालों पहले उन्हें छोड़कर चला गया था और वह नदी छोड़कर गांव में हलवाही करने आ गए थे. जैसे ही पानी दादा से मिला पूरी दिल्ली भर-भरा कर गिर गई. तभी सुशील ने आकर गर्दन हिलाई-
“भैया आपकी आँखें लाल क्यूं हो गई”
“अरे कुछ नहींं ऐसे ही”
“तो इंग्लिस्तान में आपका स्वागत हैं.”
“अरे भाई अभी तो शुरुआत है देखो आगे क्या होता है?”
वर्कशॉप खत्म हो गई. हम वापस लौट रहे थे. मैं गेस्ट हाउस के रिसेप्शन के पास पहुंचा. वहाँ वही आदमी बैठा था जिसने हमें उस दिन कमरा दिखाया था. उसने आते ही अंग्रेजी में हमारा स्वागत किया था. आज मैं उसे अंग्रेजी में विदा कहना चाहता था. मैं अंदर ही अंदर यह भी सोच के कसमसा रहा था कि काश हमारे साथ वर्कशॉप के सिलसिले में गेस्ट हाउस में ठहरने वाली लड़कियाँ मुझे दिख जाएँ तो मैं उन्हें भी एक छोटा सा अंग्रेजी में भाषण सुना दूं या इलाहाबाद बकैती का मुज़ाहरा पेश कर दूं. वह नजर नहींं आईं. उस दिन मैंने शर्ट को पेंट के अंदर किया था. मेरा चमड़े का जूता जो बैग में पड़ा हुआ था उसे पहना. चश्मा लगाया काला. बाहर आदमी हमें भौंचक्का निहार रहा था. लड़कियों को न पाकर सारा ज्ञान आदमी पर उतार दिया. हम मुसकुराते हुए बाहर आ गए. आटो वाले के पास पहुंचे. योजना बना रखी थी कि आटो वाले पर अंग्रेजी का रौब झाड़ेंगे-
“आर यू ड्राप वी मेट्रो स्टेशन?”
“आटो वाले ने पहले तो हमारा मुँह देखा. फिर सामने वाले आटो वाले की तरफ़ देखकर फुसफुसाया-
“अरे भाई देखा त इ साले का कहत ह” दोनों हँसने लगे. हमारी आँखें गुस्से से लाल हो गयीं. हमारा गुस्सा देखकर उनकी हँसी गायब हो गई. उन्हें लग गया कि हमें पता चल गया है. वह माफ़ी मांगने लगा-
“भइया जी माफ कर दीजिए. मैंने कुछ नहींं कहा. वो तो आप अंग्रेजी में बोले तो कुछ समझ नहींं आया. माफ कर दीजिए.”
हमने एक-दूसरे को देखा. हमने अपनी हँसी दबा रखी थी लेकिन छूट गई. हम ठहाके मारकर हँसने लगे. उसे कुछ समझ ही नहींं आया कि क्या हुआ है. मैंने उनकी तरह देखते हुए कहा-
“अरे भइया कउनो बात ना बा. इ सब होत रहै ला. लेकिन अगर कौनो अंग्रेजी में बोलै रौब जमावै खातिन त अंग्रेजी बौले तो ऐसे ही बोलिहा.”
हम हँस रहे थे. वह भी हँसने लगा. उसने आटो मेट्रो स्टेशन की तरह जाने वाली सड़क पर दौड़ा दी.
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गोविन्द निषाद विभिन्न पत्र-प्रत्रिकाओ में कवितायेँ और लेख प्रकाशित
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पठनीय और रोचक ..व्यंग्य की तासीर में अनुभव का संवेदनशील वृत्तांत ।लेकिन इसे कहानी कहना कहीं से भी उपयुक्त नहीं लगता।इसका रूप विन्यास संस्मरण के निकट है जिसे आत्मकथात्मक शैली में बुना गया है ।
एक दम बढ़िया कहानी। मुझे कहानियाँ पढ़ते हुए गूगल पर नक्शा ताक लेने की आदत है तो इस कहानी में दिल्ली वाली एक एक ईट पत्थर मेरा देखा हुआ है बल्कि हर हफ्ते महीने देखता हूँ। कथानक में जो भी काल्पनिकता हो होती रहे, स्थान वर्णन में पूरी वास्तविकता है। इस गेस्ट हाउस 100 मीटर के अंदर आप देश के देश के उच्चतम और निम्नतम को देख सकते है। जिसे बहुत खूबी से देखा है गोविंद निषाद ने। बहुत बधाई।
पढ़ा। बहुत दिलचस्प और शानदार। कई जगह सोचने पर मजबूर किया तो कई जगह हँंसी भी आई। मगर यह कहानी नहीं है। यह आत्मकथ्य रूप में लिखा गया संस्मरण है।
समालोचन पर ही कथा विज्ञान पर एक लेख हैं जिसमें लेखक ने माना है कि “कथाकार अपने बारे में कथा (कहानी) कहता है। यह प्रथम पुरुष (समरूपी) कथाकहन है. हम इसे व्यक्तिगत अनुभव की कथा भी कह सकते हैं।” इसी में आगे लिखा गया है कि, ” कथावाचक दो तरह के होते हैं समरूपी कथावाचक और विषमरूपी कथावाचक। समरूपी कथावाचक अपने व्यक्तिगत अनुभव की कथा कहता है जबकि विषम रूपी कथावाचक अन्य लोगों के अनुभव की कथा कहता है।” तो मेरे भाई कहानी एकवचन में लिख देने से कहानी संस्मरण नहीं हो जाती है। थोड़ा सा पढ़ लिया करो यार। पिछले दशकों में समरूपी कथाकारों ने कई कहानियां लिखीं हैं जिन्हें सराहा गया है। अगर आप इसे संस्मरण कहते हैं तो फिर आज के कई कहानीकारों को कहानीकारों की श्रेणी से बाहर करना पड़ेगा।
और मैंने आपके संग्रह को पढ़ा है। कहने को मैं भी कह सकता हूं कि वह बस अखबारी रिपोर्ट हैं सिवाय बकरी वाली कहानी को छोड़कर लेकिन नहीं कहूंगा।
कहानी बढ़िया लगी गोविंद भाई
इसे कहानी कहें या संस्मरण यह चर्चा काफी लम्बी हो सकती है । किन्तु यह कहना भी गलत नहीं है कि इसे पढ़ते हुए पाठक को इसके संस्मरण के अधिक निकट होने का आभास होता है । खैर जो भी हो गोविंद जी ने अपने जीवन के यथार्थ को बहुत अच्छे शब्दों से संजोया है । रचना बहुत अच्छी है ।
यह न जाने कितने युवाओं की दास्तान है जो अंग्रेजी की लात खाकर अपना आत्मविश्वास खो बैठते हैं। यह संस्मरण के विन्यास में कही गई कहानी ही है। कहानी का दूसरा हिस्सा, जब कथाकार हालैंड हाल के किस्से बयान कर रहा था तो वह अतिरिक्त लग रहे थे पर बाद में कहानी जहाँ पहुँची उनकी संगति समझ में आई। न जाने कितनों की भुगती हुई इस कहानी को कहने का अंदाज एक सहज हास्य-बोध के साथ और भी रोचक औरप्रभावी हो गया है। कहानीकार को बधाई।
पिछले दशकों में ऐसी कहानियों की भरमार रही है जो आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है। आप नए पीढ़ी के सभी कहानीकारों को पढ़िए, वह आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई हैं। वह भी ठीक संस्मरण प्रतीत होती है। फिर यह कहानी को ऐसे क्यूं कहा जा रहा है कि कहानी नहीं संस्मरण है। ऐसे तो मनोज कुमार पांडेय, चंदन पांडेय, शशिभूषण द्विवेदी और तमाम बड़े कथाकारों ने इसी शैली में लिखा है, तो उनके लेखन को भी संस्मरण कहना चाहिए। लेकिन आपको वह कहानी लगती है वह भी बेजोड़ कहानी।
अगर कहानीकार ‘मैं’ को ‘वह’ को लिख देता तो तब आप इसे कहानी कहते।
इस कहानी की आलोचना के कई दूसरे पहलू हैं जिस पर बात की जा सकती है। जैसे कि हास्टल के विवरण को लंबा खींचना और मुख्य कहानी पर देरी से आना। और भी तमाम पहलू हैं जहां इसकी आलोचना हो सकती है। लेकिन इसे संस्मरण कहना तमाम उन तमाम कहानीकारों को खारिज करना होगा जो आत्मकथात्मक शैली में लिखते हैं।
एक बाद समझ ये आयी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का हॉस्टल चाहे जो हो..
हॉलैंड हाल, SSL ,PCB ,DJ कोई भी..अगर उसमें आप प्रवेश लेते हैं तो आपको बल्ब को गाली जरूर देना पड़ेगा और तब तक जब तक बल्ब फुट न जाए।कुछ नारे जरूर ही लगाने पड़ेंगे जैसे..फलाने (होस्टल) चौड़े से बाकी सब ….से।
अब समझ ये नही आता कि सभी हॉस्टल के सीनियर इंट्रो के नाम पर यही रटी रटाई बातें बताते आ रहें हैं। जमाना इतनी तेज़ी से बदल रहा उसी के साथ खुद और गालियों को थोड़ा मोडिफाई करो भाई ये कब तक चलेगा। ये वही बातें है जो 10 साल पहले किसी सीनियर ने जूनियर्स को बतायी थी और 10 साल वाद भी कोई सीनियर जूनियर्स को वही बातें बता रहा है। वैसे तो सभी हॉस्टल एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी और अलग दिखने की होड़ में लगे रहतें हैं । अपने को अलग बताते हैं। लेकिन उन्हें नही पता यहां आकर वे एक हो ही जातें हैं। चाहे वह सिनीयर जूनियर संवाद(इंट्रो) हो, सांस्कृतिक आदान प्रदान की गलियां लड़ाई होने के बाद गोला(इलाहाबादी अमरूद) बनाना और चलाना हों, बीमार होने पर ख़ालसा क्लिनिक से नीली-पीली गोलियां खाना हो बग़ैरह-बग़ैरह।शरीर सबका अलग-अलग लेकिन आत्मा सबकी एक सी ही है।सबकी मंजिल भी।
ये तो रही हॉस्टल की बात अब आते हैं कहानी पर – कहानी को पढ़ते हुए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का ही नही बल्कि हिंदी पट्टी के अधिकतर लड़के (सबकी बात नही कर रहा कुछ लोग हैं हमारे भी बीच जो अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ रखतें हैं ) यही सोचेंगे की ये उन्ही की कहानी है।अंग्रेजी से ख़ौफ़ खाने और हिंदी से शर्मिंदा होने की कहानी है। ये एक ही देश में दो देश-एक इंडिया एक भारत की कहानी है। ये कहानी है इंगलिस्तान की।
शिल्प की दृष्ति से देखें तो भी ये कहानी काफी उत्कृष्ट है कहानी की शुरुआत वर्णन से शुरू होती है फिर कुछ रहस्यमयी सी घटनाओं की कल्पना करके उसको ऐतिहासिक बनाते हुए वर्तमान का यथार्थ बनते देखना अच्छा लगता है।और सबसे जरूरी बात कहानी अपने मूल उद्देश्य को कभी भी छोड़ती सी नही दिखती।
कुल मिला जुला बात बस इतनी सी कहनी है-Govind Nishad भैया सच में शानदार लगी मुझे मैं ये केवल प्रसंसा के लिए प्रसंसा नहीं कर रहा क्योंकि मैं भी आपकी तरह केवल सवाल पूछने के लिये सवाल नही पूछता।
इंग्लिस्तान,दरअसल अंग्रेजी समाज में हिंदी पृष्ठिभूमि से आए हुए शोध छात्र के अंग्रेजी बोलने के आत्मविश्वास की कहानी है।
अभी हाल ही में गोविंद सर की समालोचन पर उनकी पहली कहानी ‘इंग्लिस्तान’ प्रकाशित हुई है । उनकी माने तो अंकुरण ही है परन्तु ऐसा नहीं है। यह कहानी अपने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय और शहर को समेटे हुए है तो वहीं दिल्ली के ऐतिहासिक स्थलों को भी। हॉलैंड हॉल छात्रावास (लाल – हवेली) के जूनियर – सीनियर की परंपरा, मोस्ट सीनियर और सीनियर की परिभाषा तो वहीं विश्वविद्यालय में इस हॉस्टल के दबदबे को। लेखक इलाहाबाद की चर्चा ही चर्चा में कब दिल्ली पहुंच गया मुझे खुद नहीं पता चला, शायद आपको भी पढ़ते हुए डूब जाएंगे।
लेखक का अंग्रेजी में हाथ तंग है और वहां दिल्ली में व्याख्यान चारों तरफ तथाकथित अंग्रेजीदा लोगों से घिरा है। धीरे-धीरे अंग्रेजी बोलने का प्रयास होता है लेकिन असफल प्रयास । वहीं फिर गेस्ट हाउस में दोस्ती होती है विदेश से आई हुई जेना से और उनसे अंग्रेजी में बात करते हुए दो से तीन दिन में जो आत्मविशास आता है कि फिर नहीं जाता और अच्छे अच्छे अंग्रेजी बोलने वालों की हेकड़ी निकल जाती है और लेखक आत्मविश्वास से भर जाता है।
शुरुआत में यह कहानी थोड़ी बोरियत भरी लगी लेकिन जब उसका ताना बाना आगे के खंड से जुड़ा तो फिर रुचिकर होती चली गई। भाषा सरल है अंग्रेजी के शब्द भी प्रयोग हुए हैं तो वहीं पूर्वांचल और इलाहाबाद भी मौजूद है। दिल्ली की दोस्त जेना के बाबा का संबंध जब हॉस्टल से जुड़ता है वह काफी रोचक है। अंत में आते – आते ये कहानी सिर्फ़ लेखक की न रहकर हर उस आदमी की हो जाती हो जो कहीं न कहीं विश्वविद्यालयों में शोधरत है।
कहानी 09/05/2025 को ही पढ़ लिया था लिखने में थोड़ा देर हुआ।
कई सारे प्रसंग आपको कहानी पढ़ते हुए मिलेंगे। आप सब को कहानी ज़रूर पढ़नी चाहिए।
यह कहानी समाजविज्ञान के भीतर मौजूद हिंदी बनाम अंग्रेजी की बहस को एक आयाम देती है. समाज विज्ञान के भीतर मौजूद भाषागत परिस्थितियों को उजागर करती है. यह कहानी इस विमर्श नये सिरे से देखने की कोशिश करती है कि कैसे भारतीय समाज में मौजूद जाति और अछूतपण जैसे चीजे भारतीय शिक्षा संस्थानों में श्रेणीक्रम के आधार पर की हैं. जैसे समाज विज्ञान के क्षेत्र में देखें तो जेएनयू में पढने वाला छात्र किसी छोटे शहर या कॉलेज में पढने वाले छात्रो को अपने से श्रेष्ट मानता है. ऐसे ही शिक्षा के अन्य संस्थानों के साथ है. इस पर कोई बात नहीं होती. यह मेरा भोग हुआ सच है. मैंने देखा है कि जेएनयू में पढने वाले छात्रों का व्यवहार कितना सामन्ती, मठाधीसी, श्रेष्ठताबोध से ग्रस्त होता है.
यह कहानी इस विमर्श को आरम्भ करती है कि जब देश में जाति आधारित भेदभाव और गरीबी को ख़त्म किया जा रहा है, जैसा की लोग और राज्य दावे करते हैं तो इस देश में शिक्षा के क्षेत्र में इतना श्रेणीक्रम क्यूँ. है और इसके आधार पर किसी का ज्ञान बड़ा और किसी का ज्ञान छोटा क्यूँ हो जाता है. यह कहानी भारतीय अकादमिक जगत में विद्यमान कई विसंतियों को उगागर करती है. जिस पर बात की जानी चाहिए.
यह अपने आप में एक अनूठी कहानी है जिसे नये विमर्शों की कहानी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए.
गोविन्द की कविताएँ मुझे बहुत पसंद है| यह उनकी पहली कहानी है और उस लिहाज से काफी सशक्त है| कहानी का मुख्य किरदार हाशिये के समाज का युवा है जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहा है| पर यहाँ उसका आत्मविश्वास तोड़ने के लिए अंग्रेजी का दिखावा करने वाले कई लोग मौजूद हैं| ‘कोई अंग्रेजी बोल रहा है तो बुद्धिजीवी ही होगा’ जैसा भ्रम अंग्रेजी बोलने और नहीं बोलने वाले दोनों तरह के लोग पोषित करते हैं| कहानी का नायक इस भ्रम को तोड़ता है और अपना आत्मविश्वास खोने नहीं देता| कहानी बहुस्तरीय है| वर्ग संघर्ष, साम्प्रदायिकता, गरीबी, अकादमिक दिखावा जैसे कई पक्ष कहानी को मजबूत करते हैं| पहली कहानी के लिए बधाई लेकिन गोविन्द की क्षमता को देखते हुए कहानी और बेहतर हो सकती थी और कई जगह अतिशय विस्तार से बचा जा सकता था|