यदि हम शुरूआती सिनेमा की ओर नज़र दौड़ाएँ, तो पाते हैं कि इसकी शुरूआत ही पौराणिक साहित्य के सिनेमाई रूपान्तरण से हुई. ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘भक्त प्रह्लाद’, ‘लंका दहन’, ‘कालिय मर्दन’, ‘अयोध्या का राजा’, ‘सैरन्ध्री’ जैसी प्रारंभिक दौर की फिल्में धार्मिक ग्रंथों की कथाओं का अंकन थीं. इन फिल्मों का धार्मिक और आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक उद्देश्य भी था. चौथे दशक से फिल्मों में सामाजिक कथाओं की भी आवश्यकता को महसूस किया जाने लगा और इसके लिए समकालीन साहित्य के रचनाकारों की ओर देखना लाज़मी हो गया. नतीजा यह हुआ कि सिनेमा को मण्टो का साथ लेना पड़ा. मण्टो की लेखनी से ‘किसान कन्या’, ‘मिर्ज़ा गालिब’, ‘बदनाम’ जैसी फि़ल्में निकलीं. प्रेमचंद और अश्क भी इस दौर में सिनेमा से जुड़े और मोहभंग के बाद वापस साहित्य की दुनिया में लौट गए. बाद में ख्वाजा अहमद अब्बास, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, मनोहरश्याम जोशी, अमृतलाल नागर, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, रामवृक्ष बेनीपुरी, भगवतीचरण वर्मा, राही मासूम रज़ा, सुरेन्द्र वर्मा, नीरज, नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप, हरिवंशराय बच्चन, कैफी आज़मी, शैलेन्द्र, मज़रूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूँनी इत्यादि ने भी समय-समय पर हिन्दी सिनेमा में किसी न किसी रूप में अपनी आमद दर्ज कराई. अनेक हिन्दी, उर्दू तथा बांग्ला की कालजई रचनाओं पर भी फिल्में बनाई गईं और उनमें साहित्य की आत्मा डालने की कोशिशें की गईं. वास्तव में आठवें दशक तक सिनेमा ने हिन्दी-उर्दू में कोई फर्क ही नहीं माना. उर्दू के अफसानानिग़ार मण्टों की कहानी पर बनी फिल्म ‘अछूत कन्या’ सुपरहिट साबित हुई.
इन फिल्मों के अर्थ-दृष्टि से सफल होने का बड़ा कारण यह था कि अमिताभ के ‘लार्जर दैन लाइफ’ अवतार में तल्लीन तत्कालीन युवा वर्ग को अपनी समस्याएँ तीन घण्टे के लिए ही सही खत्म होती दीखती थीं. ऐसे में बाकी समाज की उन्हें न तो ज़रूरत थी और न ही उसकी कोई आर्थिक उपयोगिता थी. इस नैराश्यपूर्ण दौर में समाज और साहित्य को तो हाशिए पर रहना ही था. हालांकि अमिताभीय युग में भी सत्यजीत रॉय, मृणाल सेन, कमाल अमरोही, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, श्याम बेनेगल, एम. एस. सत्थू, एन. चंद्रा, मुजफ्फर अली, गोविन्द निहलानी, आदि ने अपने-अपने स्तर से साहित्य, सिनेमा और समाज का त्रयी में सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया लेकिन ये सभी चाहे-अनचाहे ‘आर्ट सिनेमा’ में बँधने को बाध्य हुए.
एक अन्य तथ्य यह भी उल्लेखनीय है कि कई बार गलत पात्र चयन से भी साहित्यिक फिल्मों की आत्मा मर जाया करती है. इसका सबसे सटीक उदाहरण ‘गोदान’ फिल्म का है, जिसमें होरी की भूमिका में अभिनेता राजकुमार को ले लेने से यह फिल्म अविश्वसनीय लगने लगी क्योंकि दमदार डायलॉग बोलने वाले राजकुमार कहीं से भी दीन-हीन होरी के रोल में फिट नहीं थे. इसके अलावा कृति के मुताबिक परिवेश का अंकन भी फिल्मकारों के लिए बड़ी चुनौती होती है. उदाहरण के लिए बंकिमचंद्र की कृति पर बनी ‘आनंदमठ’, विमल मित्र कृत ‘साहब बीबी और गुलाम’, आर. के नारायण के अंग्रेज़ी उपन्यास पर बनी ‘गाइड’, उडि़या लेखक फकीरमोहन सेनापति की रचना पर बनी ‘दो बीघा ज़मीन’ और मिर्ज़ा हादी की उर्दू कृति पर बनी ‘उमराव जान’ फिल्मों की सफलता का सबसे बड़ा कारण परिवेश की समनुरूपता रहा है.
कारण है कि वे सिनेमा में जाने से दूर भागते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उन्हें फिल्म के निर्माता अथवा निर्देशक के दबाव में कहानी में बदलाव करने पड़ सकते हैं. दूसरी समस्या पटकथा लेखकों की है. वे अक्सर अतिनाटकीयता और अतिरंजना को ही फिल्मों की सफलता की एकमेव कसौटी मान लेते हैं. इसका सबसे भोंडा उदाहरण टी.वी. धारावाहिक ‘चन्द्रकान्ता’ का है, जिसमें अतिनाटकीयता और अतिरंजना को बढ़ाने के लिए बाबू देवकीनंदन खत्री के मूल उपन्यास की आत्मा ही नष्ट कर दी गई. एक अन्य बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश साहित्यकार फिल्म निर्माण के विभिन्न तकनीकी पहलुओं से प्रायः अनभिज्ञ होते हैं और वे कैमरे की ज़रूरत के मुताबिक कथ्य दे पाने में असफल हो जाते हैं.
नवें दशक में आई भूपेन हजारिका की फिल्म ‘रूदाली’ ने समाज, साहित्य और सिनेमा की त्रयी को ‘आर्ट सिनेमा’ के सीमित सांचे से बाहर निकालने में अहम् भूमिका निभाई और इस धारणा को पुनः स्थापित किया कि साहित्य से जुड़ी हुई और समाज का वास्तविक अंकन करने वाली फिल्में भी हिट हो सकती हैं बशर्ते उनमें निहित साहित्यिक संवेदनाओं का सिनेमाई रूपांतरण सफलतापूर्वक किया जाए. बाद में ‘परिणीता’ और ‘थ्री ईडिएट’ जैसी फिल्मों ने इसी धारणा को पुष्ट किया. ‘मोहल्ला लाइव’ कार्यक्रम में अनुराग कश्यपजैसे आज के दौर के फिल्मकार तो यह बात कहने में नहीं हिचके कि हिन्दी का अधिकांश लेखन फिल्मों की दृष्टि से अनुपयोगी है और समकालीन लेखक सिनेमा की ज़रूरतों के मुताबिक लेखन कार्य नहीं कर रहे हैं. कमोबेश यही राय निर्देशक सुधीर मिश्रा और फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज की भी है.
हमें ऐसी चुनौतियों को गम्भीरता से लेना होगा और साहित्य जगत को अपने भीतर से ऐसे साहित्यकार पैदा करने होंगे, जो फिल्म लाइन की बारीकियों की जानकारी रखते हों और चित्रपट की आवश्यकताओं के मुताबिक पटकथा लेखन करने में सक्षम हों, वरना हम हॉलीवुड की फिल्मों की घटिया नकल और बासी रीमेक फिल्मों अथवा पुरानी कहानियों की भोंडी पुनर्प्रस्तुतियों को देखने के लिए अभिशप्त रहेंगे.