योगिता यादव
वेद राही शिल्प के जादूगर हैं. यह रात फिर न आएगी, पवित्र पापी, संन्यासी, बेईमान, कठपुतली, पराया धन, चरस और पहचान जैसी फिल्मों के पटकथा लेखक रहे वेद राही के पास पटकथा लेखन का लंबा अनुभव है. इधर वह कहानियों और उपन्यास में भी लगातार सक्रिय हैं. \’चुप्प रैहिये प्रार्थना कर’ जैसा कविता संग्रह देकर उन्होंने अपने भीतर मौजूद आध्यात्मिक अनुभूतियों का भी परिचय दिया है.
इस समय मेरे हाथ में जो पुस्तक है वह स्मृति कथाओं और अध्यात्म में डुबकियां लगाने का मौका एक साथ देती है. शैव दर्शन की आदि भक्त कवयित्री ललद्यद के जीवन पर लिखे गए इस उपन्यास की भूमिका में वह स्वयं कहते हैं–
\’कश्मीरी भाषा की आदि कवयित्री ललद्दय की कविता में जो गहराई और उत्कर्ष है, वहां तक पहुंचने के लिए आज भी कश्मीरी के बड़े-बड़े कवि तरसते हैं. उस शिखर तक लपकते तो सब हैं, परंतु वहां तक पहुंचने का सपना अभी किसी का पूरा नहीं हुआ है.’
संभवत: यही उत्कर्ष और गहराई ही इस उपन्यास की भी सीमा बन गई है. जहां वेद राही का पटकथा लेखक पूरी प्रखरता से उभर कर आता है, वहीं लल की वाख की मार्फत जब बाहर से भीतर की ओर दाखिल होने की बात होती है तो लेखक कामिल और पागल के बीच का भेद नहीं बतला पाता. समग्रता में यह एक उत्कृष्ट रचना है.
कवि के इतने शेड्स होते हैं कि वह स्वयं भी अपने सब शेड्स की माप नहीं कर पाता. फिर यह तो रहस्यवाद और शैव दर्शन की आदि कवयित्री ललद्यद हैं. जो अपनी वाख में निराकार की ओर बढ़ते रहने का निनाद करती हैं. उन्हें उपन्यास के आकार में बांध पाना निश्चित ही जटिल कार्य रहा होगा. लेखक की मानें तो उन्हें इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया में आठ वर्ष का लंबा समय लगा. मूलत: यह उपन्यास डोगरी में लिखा गया, जिसका बाद में स्वयं लेखक ने उर्दू और हिंदी में अनुवाद किया. इसके अलावा सिंधी और उड़िया सहित कई अन्य भाषाओं में भी इस उपन्यास का अनुवाद हुआ है. पाठकों को भक्ति काव्य में कबीर और मीरा से भी पहले के भक्ति स्वर को सुनने के लिए भी इस उपन्यास को पढ़ना चाहिए.
सदियों से चले आ रहे स्मृति- इतिहास के आधार पर कहा जाता है कि लल का जन्म 1320 में कश्मीर के पांद्रेठन गांव में हुआ, जो श्रीनगर से दक्षिण पूर्व में लगभग साढ़े चार मील की दूरी पर स्थित है. यह वह दौर था जिसे यूरोप में \’रिनैसां अर्थात पुनर्जागरण काल के रूप में याद किया जाता है. जब पुरानी सभ्यताएं ढह रहीं थी और नई सभ्यताओं का विकास हो रहा था. यह सांस्कृतिक इतिहास और बौद्धिक आंदोलन का काल है. इस काल को जब हम लिखित इतिहास में पढ़ते हैं तो पाते हैं कि पुनर्जागरण काल की शुरूआत इटली से हुई, वहां प्रसिद्ध कवि दांते हैं. रिनैसां का उद्देश्य पूर्ण मानव मात्र को प्रस्तुत करना था और माना जाता है कि सबसे पहले यह भाव दांते की कविताओं में नजर आए.
दांते ने रोमन कवि वर्जिल को अपना गुरू माना, किंतु साहित्य सृजन के लिए लेटिन की बजाए इटालियन भाषा को चुनकर उसे साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित करने की कवायद की. इसी समय में कश्मीर के पांद्रेठन गांव के एक साधारण परिवार की लल्लेश्वरी संस्कृत ग्रंथ पढ़ते हुए बड़ी होती है. गीता को वह कई बार पढ़ती है, अपने गुरू सिद्धमौल से बहुत प्रभावित है. उनसे बार-बार मिलने का अनुनय करती है, ताकि वे जब भी आएं उसके लिए कुछ और संस्कृत ग्रंथ ले आएं, जिनका वह पाठ कर सके. इसके बावजूद कविता रचने के लिए वह अपनी मातृ भाषा कश्मीरी का चयन करती है.
उस दौर में जब कश्मीर संस्कृत साहित्य का गढ़ माना जाता था. उस दौर में जब अभिनव गुप्त, क्षेमेंद्र, उत्पल देव जैसे सिद्ध कवि-लेखक संस्कृत में रचना कर रहे थे वह अपनी आम जन द्वारा बोली जाने वाली भाषा कश्मीरी में रचना करती हैं. आज वही रचनाएं कश्मीरी साहित्य का आधार स्तंभ मानी जाती हैं.
ललद्यद अर्थात लल्लेश्वरी चौदहवीं सदी की संत कवयित्री हैं. लिखित इतिहास के समानांतर मौखिक अथवा स्मृतियों के इतिहास ने उन्हें जन मन में द्यद अर्थात बड़ी बहन का स्थान दिया है. एक तरह से कश्मीरी साहित्य को दिशा देने वाली वह बड़ी बहन कही जा सकती हैं. शेख नूरूद्दीन नूरानी की दूध मां भी इन्हें कहा जाता है. इसलिए हिन्दू समाज में ही नहीं, बल्कि मुस्लिम समाज में भी लला को बहुत सम्मान दिया गया है. आज भी वह अपनी बेटियों की प्रशंसा में जब बहुत कुछ कहना चाहते हैं, तो कहते हैं ये बिल्कुल ललद्यद सी है. रूपा भवानी, हब्बा खातून, अरण्यमाल सहित कश्मीरी में कई कवयित्रियां हुईं हैं, लेकिन किसी की भी रचना लल के वाख की गहराई और ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाती.
‘वाख’ कश्मीरी भाषा का एक छंद है, जिसमें चार पंक्तियों में कवि अपनी बात कहता है. लल अपनी एक वाख में कहती हैं, \’मैंने अपने गुरू से सिर्फ एक ही पाठ सीखा है, कि बाहर से भीतर की ओर देखो. आत्म साक्षात्कार का पाठ.’
उनके सभी वाख आत्म साक्षात्कार के मार्ग पर अग्रसर होने को प्रेरित करते हैं. ऐसी महान संत कवयित्री के जीवन को उपन्यास में बांध पाना निश्चित ही एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा होगा. इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने जैसे स्मृतियों को ही आकार देने का काम किया है. उन्होंने सुनी हुई कहानियों में मौजूद समाज को इतिहास में वर्णित देश काल में गूंथते हुए एक नए अद्भुत संसार की कल्पना की है.
जीवनी परक उपन्यास लिखते हुए कई चुनौतियों का लेखक को सामना करना पड़ता है. स्वभाविक है लल्लेश्वरी को चुनना तो और भी चुनौतीपूर्ण रहा होगा. उनके बारे में जानने के स्रोत के तौर पर लेखक के पास सिर्फ वे वाख ही हैं, जिन्हें कवयित्री ने कहा है, लिखा नहीं है. संभवत: कालांतर में इनके मूल रूप में बदलाव भी आया होगा. लला से बात करना सहज नहीं हैं. वह कवयित्री जिसने तत्कालीन समाज के किसी भी बंधन को स्वीकार न किया हो, वह किस तरह के संवाद बोलती होगी, इस गुत्थी को सुलझाने के लिए लेखक ने लल के वाखों का ही सहारा लिया है. वाख के रूप में मौजूद इन चंद टुकड़ों को जोड़ते हुए ही इस उपन्यास की पूरी कथा बुनी गई है.
उपन्यास गुरु सिद्धमौल के जंगल से पांद्रेठन गांव पहुंचने से शुरू होता है. उस दौरान पूरे कश्मीर में भयंकर उथल पुथल मची हुई है. आम जन इस सत्ता परिवर्तन से खुश हैं, परंतु गुरु सिद्धमौल इस परिवर्तन में अनिष्ट की आशंका को महसूस कर रहे हैं. उन्हें तकलीफ दे रहा है वीर सम्राज्ञी कोटा रानी का आत्महत्या कर लेना. वह इस पूरे माहौल से खिन्न हैं और कश्मीर छोड़कर काशी चले जाना चाहते हैं. अपनी इसी उद्विग्नता को वह मल्लाह से भी कहते हैं और यंद्राबट से भी. यंद्राबट से बात करते हुए उन्हें लल की याद आती है. और तब मालूम होता है कि वह कुछ अजीब सी बातें करती हैं. उसके इसी आचरण को लेकर उसके माता-पिता बहुत परेशान हैं और वह जल्दी ही उसका ब्याह कर देना चाहते हैं. सिद्धमौल उन्हें ऐसा करने से मना करते हैं. वह कहते हैं कि लल कोई साधारण बालिका नहीं है, उसके भाव और व्यवहार असाधारण हैं. उनके पास इतना भी समय नहीं है कि वह लल के घर लौटने की प्रतीक्षा करें.
वह स्वयं ही उसे खोजते हुए मंदिर की ओर चल पड़ते हैं. इसके बाद कथा कश्मीर की उथल पुथल से अलग होकर पूरी तरह लल और उसके व्यवहार पर केंद्रित हो जाती है. लल अपने गुरु के इस तरह जल्दी लौट जाने पर रुष्ट हैं, किंतु वह कुछ और किताबें पढ़ना चाहती है. इस बातचीत में मालूम होता है कि लल ने कई वेद और शास्त्र पढ़ लिए हैं. अब वह कुछ और किताबें पढ़ना चाहती है. उसे लोगों से ज्यादा किताबें ही अपनी प्रिय लगती हैं.
गुरु सिद्धमौल कुछ और किताबें भिजवाने का वादा कर काशी के लिए निकल पड़ते हैं. और इधर लला का ब्याह पद्मपुर अर्थात पंपोर के एक युवक से कर दिया जाता है. ब्याह के बाद शुरू होता है लल की यंत्रणाओं का सफर. इन यातनाओं को लेखक लल की रहस्यमयी बातों से सहारा देते हुए जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं. लल पर न केवल गृहस्थी का बोझ डाल दिया जाता है, बल्कि व्यसनों में डूबे पति के अत्याचार भी लला को सहन करने पड़ते हैं. उस पर सास के अनेक ताने-उलाहने भी. इन तमाम यातनाओं के बीच भी लल अपनी ज्ञान की प्यास बनाए रखती है. उसके भीतर और बाहर की दुनिया उसे लगातार कष्ट पहुंचाती है. पर वह इस कष्ट, इस यातना को भी शिव का प्रसाद समझकर उसे पाने की राह पर आगे बढ़ती रहती है. उसका केवल एक ही लक्ष्य है अपने गुरू, अपने शिव महाराज जिन्हें उसने अपना सर्वस्व सौंप दिया है, को स्वयं को समर्पित कर देना. तभी वह स्वयं को आदि कुंवारी कहती है और खुद को शिव को समर्पित करना चाहती है.
जम्मू-कश्मीर के लोक समाज में लल को लेकर कई मिथक हैं. किसी की बेटी बहुत अच्छी हो तो कहते हैं कि बिल्कुल ललद्यद जैसी है और किसी की सास बहुत बुरी हो तो भी कहते हैं कि ललद्यद जैसी है. थाली में कम भोजन हो तो कहेंगे कि लल की थाल है और पश्मीना बहुत महीन कता हो तो भी मानते हैं कि जैसे लल ने काता है. इनमें से अधिकांश को लेखक ने बहुत खूबसूरती से कथा में बुना है. परंतु कहीं-कहीं उनका पटकथा लेखक उन पर हावी हो जाता है. इस नाटकीयता में लल का पति सुरा-सुंदरी का पान करने वाला एक व्यसनी खलनायक सा जान पड़ता है. लेखक का मूल डोगरी भाषी होना भी कश्मीरी समाज का डोगरीकरण सा प्रतीत होता है.
मान्यताओं के द्वंद्व भी लगातार लेखक के सामने खड़े हैं. वह उनके बीच भी साम्य स्थापित करते चलते हैं. कश्मीरी हिन्दू परंपराओं के मुताबिक नुंद ऋषि जिन्हें मुसलमान शेख नूरूद्दीन नूरानी कहते हैं, लला को उनकी दूध मां कहा जाता है. मुस्लिम मान्यता है कि वह असाधारण तेज वाला बालक अपने जन्म के कई दिनों बाद तक भी मां का दूध नहीं पी रहा था, तब ललद्यद ने उन्हें अपना दूध पिलाया था. जबकि हिंदू मान्यता है कि दूध केवल प्रतीक है. लल ने अपनी सांस्कृतिक विरासत नुंद ऋषि को सौंपी थी.
इन दोनों ही मान्यताओं को लेखक ने अपनी कथा में सम्मानजनक स्थान दिया है. एक और उद्धरण है जिस पर विवाद होता है कि लल निर्वस्त्र रहती थीं और जब शाह हमदानी आ रहे थे तो वह उन्हें देखकर तंदूर के पीछे छिप गईं. विवाद में पड़ने की बजाए लेखक ने इसे कथा को आगे बढ़ाने के माध्यम के रूप में चुना है. लल की रहस्यमयिता के प्रति पाठक का कौतुहल बना रहे इस उद्देश्य से वे लगातार चमत्कार करवाते चलते हैं. लौकिक-अलौकिक-पारलौकिक संसार को एकमेव करते हुए वह उपन्यास का अंत एक चमत्कार की तरह लल के शून्य में विलीन हो जाने पर करते हैं.
भले ही प्रस्तुत उपन्यास में कश्मीरी समाज उस तरह परिलक्षित नहीं हो पाता, किंतु फिर भी कश्मीरी की आदि कवयित्री ललद्यद की जीवन कथा को पीर पंजाल की पहाड़ियाँ\’ पार करवाने का श्रेय वेद राही को ही जाता है. सरस कथा, खूबसूरत संवाद और तनिक नाटकीयता पाठक को अपने साथ बांधे रखती है. फिर भी जैसा मैंने पहले भी कहा कि यह उपन्यास उस गहराई तक नहीं पहुंच पाया, जिस गहराई में लल की वाख उतरती हैं. आप स्वयं पद्मपुर की पद्मावती, नुंद ऋषि की लला आरिफा, कश्मीरी साहित्य की लल दिद्दा और हम सब की लल्लेश्वरी के कुछ वाख का रसास्वादन करें –
लल बो द्रायस कपसि पोशचि सेत्चेय.
कॉडय ते दून्य केरनम यचय लथ.
तेयि येलि खॉरनम जॉविजॅ तेये.
वोवेर्य वाने गयेम अलान्जेय लथ..
मैं लला कपास के फूल की तरह एक शाख पर उगी थी. पर माली ने मुझे तोड़ा और मुझे इस बेदर्दी से झाड़ा कि कपास पर लगी सारी गर्त झड़ गई. उस स्त्री ने अपने चरखे की महीन सूईं में पिरोकर मेरी आत्मा को तब तक काता जब तक वह महीन धागे में न बदल गई. और धागा उठाकर बुनकर ले चला अपने करघे की ओर. जिस पर चढ़ा कर उसने यह कपड़ा तैयार किया है.
दोब्य येलि छॉवनस दोब्य कनि प्यठेय.
सज ते साबन मेछनम येचेय.
सेच्य यलि फिरनम हनि हनि कॉचेय.
अदे ललि म्य प्रॉवेम परमे गथ..
मुझ पर साबुन लगा कर धोबी ने घाट के पत्थर पर बहुत बेदर्दी से पटका. दर्जी ने पहले मुझे अपनी कैंची से टुकड़े-टुकड़े कर दिया और फिर तीखी सूईं से मेरे टुकड़ों को अपनी मर्जी से सी दिया. ये सब मैं चुपचाप देखती रही, भोगती रही और अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गई हूं. अब मैं अपने परमेश्वर में पूरी तरह विलीन हो रही हूं.
सरस सैत्य्य सोदाह कोरूम.
हरस केरेम गोढ सीवय.
शेरस प्येठ किन्य नचान डयूंठुम.
गछान डयूंठु आयम पछ़..
मैंने उससे सौदा किया है कि मैं पूरे मनोयोग से, अपनी भावनाओं की पराकाष्ठा तक उसकी सेवा करूंगी. मैं महसूस कर रही हूं कि ईश्वर मेरे मस्तिष्क के शून्य चक्र में नृत्य कर रहे हैं. किसी भी भक्त के लिए इससे बड़ी प्राप्ति क्या होगी.
(हिंदी कीबोर्ड में कुछ कश्मीरी स्वर नहीं मिल पाते, जिनके लिए वाख में ऐ की मात्रा का प्रयोग किया गया है.)
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योगिता यादव
कहानी संग्रह : क्लीन चिट,
उपन्यास : ख्वाहिशों के खांडववन
भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार, हंस कथा सम्मान
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