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Home » सबद भेद : आलोक धन्वा की कविता में विस्थापन : कुमार मुकुल

सबद भेद : आलोक धन्वा की कविता में विस्थापन : कुमार मुकुल

हिंदी के वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा (१९४८, मुंगेर) की पहली कविता ‘जनता का आदमी’ १९७२ में ‘वाम’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, ५० साल की अवस्था में उनका पहला (और अब तक अंतिम भी) कविता संग्रह ‘दुनिया रोज़ बनती है’’ १९९८ में प्रकाशित हुआ. इधर पत्रिकाओं में उनकी कुछ नई कविताएँ भी प्रकाशित हुई हैं. […]

by arun dev
June 11, 2014
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हिंदी के वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा (१९४८, मुंगेर) की पहली कविता ‘जनता का आदमी’ १९७२ में ‘वाम’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, ५० साल की अवस्था में उनका पहला (और अब तक अंतिम भी) कविता संग्रह ‘दुनिया रोज़ बनती है’’ १९९८ में प्रकाशित हुआ. इधर पत्रिकाओं में उनकी कुछ नई कविताएँ भी प्रकाशित हुई हैं. इस संग्रह के बहाने कुमार मुकुल ने आलोक धन्वा को समझने की कोशिश की है.

विस्थापितों के दर्द की पुनर्रचनाएँ –        
कुमार मुकुल


‘आम का पेड़’ कविता से आलोक धन्वा के कविता-संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ का आरंभ होता है. पटना में आलोक जहाँ रहते थे, वर्षों से वहाँ घर के ठीक सामने यही दो-तीन साल पहले तक आम के कई पेड़ थे, जो अब नहीं रहे. एक अपार्टमेंट खड़ा हो चुका है वहाँ. दरअसल जब आम के पेड़ का वहाँ होना संभव नहीं रहा, तो वह आलोक की कविता में आ खड़ा हुआ, पहले पन्ने पर. आलोक ना जाने कितनी बार कितने लोगों से उन पेड़ों के नहीं रहने का दुख व्यक्त कर चुके हैं. पेड़ों के रहते वे दिल्ली जाने की सोच भी नहीं पा रहे थे. पर उनके कटने के साथ जैसे उनकी जड़ें कट गईं.
यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि जब-जब किसी समाज, व्यक्ति, प्रकृति या स्थान का उसकी पूरी गरिमा के साथ हमारे समय में होना असंभव हुआ है, आलोक की कविताओं में उनका होना संभव हुआ है. ‘जनता का आदमी’ ‘भागी हुई लड़कियाँ’, ‘ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘पतंग’ से ‘सफेद रात’ तक यही आलोक की कविता का मर्म है. और यह दर्द भी है कवि का. जिस तरह उनकी कविताओं में निर्वासित और नष्ट होती स्थितियों की पुनर्रचना होती है वह खुद के साथ भी घटित होता है. कविता की दुनिया में अपनी सहज लोकप्रियता के बाद भी कवि एक निर्वासन झेलता है. पर वह हारता नहीं, रचना के स्तर पर उसका संघर्ष जारी रहता है. कवि की सहज लोकप्रियता को दशकों तक अनदेखा करने वाले आलोचक नंदकिशोर नवल को भी अपनी अब-तक की नासमझी को मंच से सार्वजनिक करते हुए आलोक के लिए नई परिभाषा गढ़नी पड़ती है. पटना की एक गोष्ठी में नवल जी को इजहार करना पड़ता है कि आलोक की कविता आलोचना से आगे है.
वस्तुतः आलोक की कविता, कविता के साथ समय की आलोचना भी है. जो प्रकारांतर से एक स्पष्ट विचारधारा को सामने लाती है, जिसके तार उनकी सारी कविताओं से जुड़े हैं. ‘अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में ’.
यह जो ‘भाषा और लय के बिना’ बुलावा है केवल अर्थ में वह वही व्याकुल पुकार है जो मुक्तिबोध के यहाँ कहीं खो गई है.
मुझे पुकारती हुई
पुकार खो गई कहीं
‘जनता का आदमी’ से ‘आम का पेड़’ और ‘सफेद रात’ तक कहीं भी विचारधारा से विचलित नहीं हुए हैं आलोक धन्वा. आत्मनिर्वासन झेलते हुए एक निर्वासित पीढ़ी का दर्द रचा है कवि ने. यह जो अकेलापन है और भटकाव है और दर्द भरा जीवन है स्त्रियों का, यही आलोक की कविताओं का वैभव है. ‘चौक’ कविता में आलोक लिखते हैं.
उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा
जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया.
स्त्रियों के उस वैभव को ‘सफेद रात’ में याद करते आलोक लिखते हैं –
अब उसे याद करोगे
तो वह याद आएगी
अब तुम्हारी याद ही उसका बगदाद है
तुम्हारी याद ही उसकी गली है उसकी उम्र है
उसका फिरोजी रूमाल है
आलोक धन्वा की कविता एक बड़ी हद तक अंधविश्वासी होते समाज में निर्वासन झेलती एक वैज्ञानिक विचारधारा की भी पुनर्रचना है. ‘जनता का आदमी’ से ‘सफेद रात’ तक यही तो किया है कवि ने. फाँसी के तख्ते की ओर बढ़ते हुए भगत सिंह के सबसे मुश्किल सरोकार पहचाने हैं आलोक धन्वा ने; कभी भी युद्ध सरदारों का न्याय नहीं स्वीकारा है. मुश्किल सरोकारों की यह पहचान आलोक की विचारधारा की भी पहचान है. ‘सफेद रात’ में वे लिखते हैं –
जब भगत सिंह फाँसी के तख्ते की ओर बढ़े
तो अहिंसा ही थी
उनका सबसे मुश्किल सरोकार
अगर उन्हें कबूल होता
युद्ध सरदारों का न्याय
तो वे भी जीवित रह लेते
सोवियत संघ जब टूटा, तो साहित्य में तंबू-कनात समेटकर, मसीजीवियों की जमात ने अपना धर्मांतरण कर डाला और बाजार की ‘परचूनी’ सभ्यता का गीत गाने लगे. हाइटेक पर टिके ग्लोबलाइजेशन के प्रति जो एक अंधविश्वास पिछले सात-आठ सालों से अपनी ‘मन-मोहनी’ छटा दिखा रहा है, उसने आलोक को भी कम विचलित नहीं किया. इसके बावजूद उन्होंने उसे साफ शब्दों में ‘लुटेरों’ के ‘बाजार के शोर’ के रूप में पहचाना.
आलोक की सारी कविताएँ एक वैज्ञानिक विचारधारा के निर्वासन के दर्द की पुनर्रचनाएँ हैं. ‘अमानवीय चमक के विरुद्ध’ वे अपना संघर्ष ‘जनता का आदमी’ कविता से आरंभ करते हैं. इसमें ‘तेज आग और नुकीली चीखों के साथ/जली हुई औरत के पास’ सबसे पहले अपनी कविता के पहुँचने की घोषणा वे करते हैं. 1972 की इस घोषणा के बाद ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और 1989 में ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ में स्त्रिायों की वैसी ही दास्तान वे पुनर्रचित करते हैं. फिर अपनी अंतिम कविता ‘सफेद रात’ में भी वे उसी नष्ट कर दी गई स्त्री की स्मृति रचते हैं.
वे पूछते हैं इस अमानवीय समाज से कि
‘क्या वे एक ऊँट बना सकते हैं? एक सोता
 एक गली और गली में सिर पर एक फिरोजी रूमाल बाँधे एक लड़की
जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी.’
क्या अब भी संदेह रह जाता है कि ‘जनता का आदमी’ की जली औरत से लेकर ‘सफेद रात’ की इस फिर कभी नहीं दिखने वाली लड़की तक आलोक धन्वा दलित, निर्वासित आधी आबादी के संघर्ष की ही पुनर्रचना कर रहे होते हैं. बार-बार हमारे समाज में अपनी घरेलू जिंदगी में ही एक निर्वासन जी रही औरतों को याद करना और उसके बाहर भी उसी की पीड़ा को रेखांकित करना क्या है? ऐसे में जब उन्हीं का एक समकालीन कवि स्त्री को हल्दी और धनिए की गंध से सना महसूसता है, आलोक उसके जलाए जाने से पीडि़त दिशाओं को लेकर परेशान रहते हैं.
विचारधारा की साफगोई के लिए हम उनकी 72 से 97 के बीच की 89 की कविता ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ को ले सकते हैं. यह आलोक की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कविता है. यह कविता श्रम और अभिव्यक्ति के अन्वेषण की स्वतंत्रता को अपना केंद्रीय विषय बनाती है. कविता के शीर्षक में ही सत्य की खोज के लिए दंडित वैज्ञानिक ब्रूनो को आधार बनाया गया है. और कविता का अंत ‘रानियों की स्मृति तक के मिट जाने’ की घोषणा ‘और क्षितिज तक फसल काट रही औरतों’ की अपराजेयता को दर्शाने के साथ होता है.
इस कविता में विचार को लेकर अपनी पक्षधरता को कवि प्रचार की हद तक ले जाता है, फिर भी कविता के कलेवर पर इसका कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता –
वे इतनी सुबह काम पर आती थीं
उनके आँचल भीग जाते थे ओस से
और तुरंत डूबे चाँद से.
वे किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह?
क्या वे सिर्फ मालिकों के लिए
आती थीं इतनी सुबह.
क्या उनका इतनी सुबह आना
सिर्फ अपने परिवारों का पेट पालना था?
कैसे देखते हो तुम इस श्रम को?
‘जनता का आदमी’ में कवि जिस विचारधारा को एक फंतासी की तरह रचता है वह ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ में एक स्पष्ट विचार के रूप में सामने आता है –
कविता की एक महान संभावना है यह
कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को
महसूस करने लगा है
अपनी टाँग पर टिके महानगरों और
अपनी कमर पर टिकी राजधानियों को
महसूस करने लगा है वह
इस तरह यहाँ ‘जनता का आदमी’ में जो महान संभावना है और जिसे शिद्दत से महसूसता है कवि, वह ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ में संभावना से आगे विचार बन चुका होता है और कवि उसे महसूस करने के आगे प्रचार करने की स्थिति तक ले आता है. वह लिखने लगता है –
बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं
एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ
मेरा सब कुछ निर्भर करता है
इस साधारण-सी बात पर!
वह क्या था उनके होने में
जिसे जला कर भी
नष्ट नहीं किया जा सका!
यहाँ स्पष्ट है कि यह जो साधारण-सी बात है, जिसके चलते वे श्रमिक स्त्रिायाँ जला दी जाती हैं, वह ‘श्रम के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत’ के तहत अपना हक माँगने की बात है. आलोक धन्वा पर बोलते हुए नंदकिशोर नवल ने कहा था कि विचारधारा को लेकर अच्छी कविता नहीं लिखी जा सकती. और मुक्तिबोध को उन्होंने एक अपवाद बताया था, जो विचारधारा की स्पष्टता के बावजूद महान कवि हुए. नवल जी आलोक को विचारधारा की प्रमुखता का कवि मानने से इंकार करते हैं. पर मेरा स्पष्ट मत है कि आलोक मुक्तिबोध के बाद दूसरे अपवाद हैं और विनोद कुमार शुक्ल से लेकर ज्ञानेंद्रपति, ऋतुराज, कुमार विकल और वीरेन डंगवाल तक अपवादी कवियों की एक पूरी जमात है. और, संभव है वह अपवादी जमात ही भविष्य में दूसरी परंपरा को सामने लाए. यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि विचारधारा से मेरा मानी किसी पार्टी लाइन से नहीं, बल्कि जीवन को अनुशासित करने वाली विवेकपूर्ण दृष्टि से है. इस माने में महान पुर्तगाली कवि ‘फरनान्दो पैसोआ’ की परिभाषा बहुत साफ है. वे लिखते हैं, ‘‘मैं तो कहूँगा कविता विचारों से, और इसलिए शब्दों से बना संगीत है. सोचकर देखो. भावों के विपरीत विचारों से संगीत बनाना कैसा होगा? भावों से सिर्फ संगीत बन सकता है. उन भावों से जो विचारों की ओर मुड़ जाएँ, उन्हें इकट्ठा परिभाषित करने के प्रयास से गीत बनाए जाते हैं. खालिस विचारों से, जिनमें न्यूनतम (यानी कि जितने आवश्यक रूप से होते हैं.) भाव हों, कविताएँ बनती हैं. कविता जितनी भावहीन होती है उतनी सच्ची होती है.’’ आत्म परिचय में भी पैसोआ लिखते हैं, ‘‘कविता के अनैच्छिक मुखौटों के पीछे मैं एक विचारशील व्यक्ति हूँ.’’
मैं यह नहीं कहता कि विचारधारा कविता का प्राण होती है. पर उसकी रीढ़ जरूर होती है, जिसकी बिना पर वह जीवित होने से आगे चल सकती है. कविता को उसकी जड़ सौंदर्याभिरुचि से आगे विचारधारा ही ले चलती है. भाव कविता के प्राण होते हैं, पर उन पर आप अपना ‘‘सबकुछ निर्भर नहीं कर सकते’’. भाव संचरणशील होते हैं उनकी टेक विचारधारा ही बनती है.
व्यक्ति आत्महत्या तब करता है, जब उसका दिमाग और विचारधारा बाधित होती है और वह दिल के आवेग के वश में आ जाता है. आलोक चेतावनी देते हैं कि कवि के बारे में यह भ्रांति नहीं रहे. अगर कभी अघट घटे, तो उसकी दिल से जोड़कर भावुक व्याख्या ना हो. लगता है कवि को मायकोवस्की से मारीना तक की आत्महत्याओं ने परेशान किया होगा. अपने कमजोर से कमजोर क्षण में ही तब उसने ‘फर्क’ जैसी कविता लिखी होगी –
तुम यह मत सोचना
कि मेरे दिमाग की मौत हुई होगी
हत्याएँ और आत्महत्याएँ
एक जैसी रख दी गई हैं
इस आधे अंधेरे समय में
फर्क कर लेना साथी!
यहाँ कवि दिमाग की मौत पर विश्वास नहीं करने की बात करता है. यहाँ दिमाग विचारधारा का पर्याय है. जो लोग आलोक को क्रांतिकारी रोमानियत का कवि बताना चाहते हैं उनके लिए यह दिमाग चेतावनी है. कवि मरने के बाद अपनी समझदारी के स्तर पर कोई छूट नहीं देना चाहता व्याख्याकारों को. इसलिए वह अपने दिमाग के विचार के साथियों को सचेत करता है कि ऐसे किसी धोखे के प्रति, जो चाहे कवि को माध्यम बनाकर या उसकी मौत का सहारा लेकर ही आएँ उसके फेरे में नहीं पड़ें. दिमाग के अलावे दिल की बात भी करते हैं आलोक. रोमान है वहाँ, पर उसकी सीमा है. रोमान उन्हें अच्छा लगता है, पर उसमें वे ‘अपना सब कुछ निर्भर’ नहीं करते. आलोक लिखते हैं –
मीर पर बातें करो
तो वे बातें भी उतनी ही अच्छी लगती हैं
जितने मीर
और तुम्हारा वह कहना सब
दीवानगी की सादगी में
दिल-दिल करना
यहाँ दीवानगी है पर उसकी सादगी भी है, जो उसके रोमानी पहलू की जगह जहनपरक सच्ची तबीयत की वकालत करती है. मीरकी यह तबीयत ही गालिब के यहाँ उनका अंदाजे-बयाँ है, जिसके तहत गालिब अपनी प्रेयसी के पाँव चूमते-चूमते रुक जाते हैं –
ले तो लूं सोते में उसके पाँव के बोसे मगर
ऐसी बातों से, वह काफिर बदगुमाँ हो जाएगा

यहाँ गालिब का दिमाग दिल की कार्यवाइयों के प्रति सचेत है. एक अन्य शेर में गालिब लिखते हैं –

रोने से और इश्क में बेबाक हो गए
धोये गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
आलोक के यहाँ गालिब की, मीर की यही दीवानगी की सादगी है, जो (पारम्परिक उर्दू शायरी की तरह खाक नहीं) पाक करती है. ‘भागी हुई लड़कियाँ’ में आलोक भी लिखते हैं,‘‘तुम नहीं रोए किसी स्त्री के सीने से लगकर’’ ‘कामायनी: एक पुनर्विचार’ में मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘‘यह बहुत ही संभव है कि यथार्थवादी शिल्प के विपरीत जो भाववादी शिल्प है, उस शिल्प के अंतर्गत जीवन को समझने की दृष्टि यथार्थवादी हो.’’ आलोक धन्वा के साथ ऐसा ही है. आलोक के पहले केदारनाथ सिंह के यहाँ भी भाव और यथार्थ का ऐसा संतुलन मिलता है. केवल ‘बाघ’ में वे यह संतुलन नहीं साध पाते. विचारधारा की टेक भी केदारजी के यहाँ गायब-सी है. छोटी कविताओं में तो केदार जी इसके बिना काम चला ले जाते हैं, पर ‘बाघ’ के सारे खंड इस लय को नहीं पैदा कर पाते जो केदार जी की पहचान है. आलोक भी अपनी कविता ‘पानी’ में ‘बाघ’ वाली गलती दुहराने की कोशिश करते हैं. वे संतुलन नहीं साध पाते, इसलिए अगर ‘बाघ’ में ट्रैक्टर मटर का दाना लगता है तो ‘पानी’ में आलोक पानी को आदमी की तरह बसाना चाहते हैं, पर आलोक की अधिकांश कविताओं में यह संतुलन अपूर्व है.
आलोक के समकालीनों में यह संतुलन ‘पाश’ के यहाँ मिलता है, पर पाश का शिल्प उनकी दृष्टि पर हावी है. हिन्दी में कुमार विकल के यहाँ यह शैली है. संग्रह की दूसरी कविता ‘नदियाँ’ की है. इसमें नदियों का नाम गिनाते कवि अपनी तकलीफ बताता है कि कैसे जीवन की ये धाराएँ समय की आपाधापी में कवि के परिवेश से दूर-दूर चली गई हैं. कभी उनसे मुलाकात भी होती है राह चलते, तो सहजता से जुड़ नहीं पाता कवि और वह स्वीकारता है कि उसका दिमाग तो भरा रहता है लुटेरों के बाजार के शोर से. बाजार की पहचान तो है पर, उससे लड़ने की उस इच्छाशक्ति का अभाव है कवि में, जो ऐसे मामलों में उसके अग्रज कवि विनोद कुमार शुक्ल में दिखाई पड़ती है. अपनी एक कविता में शुक्ल लिखते हैं –

‘‘जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास जाऊँगा
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे पास
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊँगा’’
यहाँ विचारधारा की जैसी भी पहचान है शुक्ल जी के यहाँ उसके प्रति प्रतिबद्धता उससे ज्यादा है और अपना कवियोचित अहम त्याग कर शुक्ल जिस तरह जनता के साथ खुद को एक करते हैं वही उन्हें हिंदी कविता की पहली पंक्ति में खड़ा कर देता है. निर्वासन के दर्द की पुनर्रचना के साथ जो आलोक की सबसे बड़ी खूबी है वह दृश्यों का उसके लय-रूप-गंध-स्पर्श के साथ बहुआयामी अंकन है. ‘पतंग’ और ‘सफेद रात’ कविता में कवि की यह बहुआयामी कला प्रखर रूप में है –
‘धूप गरूड़ की तरह ऊपर उड़ रही हो या
फल की तरह बहुत पास लटक रही हो
हलचल से भरे नींबू की तरह समय हरदम
उनकी जीभ पर रस छोड़ता रहता है’’
‘पतंग’ की इन कविताओं में कवि की बहुतलस्पर्शी और वैज्ञानिक दृश्यांकन क्षमता को उसकी पूरी सजीवता में अभिव्यक्ति पाते देखा जा सकता है. आखिर उड़ता गरूड़ और लटकते फल सूर्य की ऊर्जा के ही अन्य गतिशील स्वरूप हैं. नींबू में भी सूर्य रश्मियों की ही हलचल भरी है और बच्चे भी उसी ऊर्जा के स्रोत हैं, जिससे हमारा जीवन जीवंत होता है. ‘पतंग’ में जहाँ बाजार और विज्ञान के हाइटेक के दबाव में लगातार जीवन से निर्वासित होते बच्चों की जिजीविषा और प्रस्फुटन का अंकन है, वहीं ‘सफेद रात’ में ग्लोबलाइजेशन की छद्म आधुनिकता के जंजाल में मरते, निर्वासित होते दुनिया के गाँवों, कस्बों, नगरों और मुल्कों की पीड़ा है –
क्या वे सभी अभी तक बचे हुए हैं
पीली मिट्टी के रास्ते और खरहे
महोगनी के घने पेड़
तेज महक वाली कड़ी घास
देर तक गोधूलि ओस
रखवारे की झोंपड़ी और
उसके ऊपर सात तारे…
सबसे अधिक खींचते हैं फुटपाथ
खाली खुले आधी रात के बाद के फुटपाथ
जैसे आँगन छाए रहे मुझमें बचपन से ही…
शहर में बसने का क्या मतलब है
शहर में ही खत्म हो जाना?
एक विशाल शरणार्थी शिविर के दृश्य
हर कहीं उनके भविष्यहीन तम्बू
हम कैसे सफर में शामिल हैं
कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी
सिर्फ कहने के लिए कोई अपना शहर है
कोई अपना घर है
इसके भीतर भी हम भटकते ही रहते हैं
केदारनाथ सिंह, आलोक धन्वा विस्थापन का दर्द झेलते हुए अपनी संवेदना का आधार गाँवों और बचपन की स्मृतियों को बनाने वाले कवि हैं. दूसरी ओर उनके ही समकालीनों में रघुवीर सहाय की कविता पीढ़ी है, असद जैदी की, जो इन स्मृतियों से वंचित नागरी संवेदना के कवि हैं. आलोक धन्वा के संग्रह की इस अंतिम कविता ‘सफेद रात’ में विस्थापन और निर्वासन की पीड़ा अपनी पूरी द्वंद्वात्मकता के साथ है. यह बहुसंख्यक आबादी की पीड़ा है. पर सवाल है कि इस राह माँगने को हमें कौन प्रवृत्त करता है. कौन हमें हमारी जड़ों से काटता है. यह भी हम ही हैं. यही तो द्वंद्व है कि, ‘‘हम कैसे सफर में शामिल हैं?’’ यह आत्मनिर्वासन की भी पीड़ा है. प्रेम में भी करीब ऐसा ही निर्वासन हमारी सभ्यता हमें देती है, जिसके दर्द से उर्दू शायरी का पूरा मिजाज बना है. ‘सफेद रात’ अपनी धरती, अपने वतन से बलपूर्वक बेदखल और निर्वासित कर दिए गए लोगों की भी पीड़ा है. उस पीड़ा के तार भारत-पाक-बंगलादेश के बंटवारे से भी जुड़ते हैं. कवि का युद्ध आत्मनिर्वासन को परनिर्वासन में बदल डालने वाले स्वयंभू युद्ध सरदारों से भी है. जो अपनी कुंठा की रौ में पूरी दुनिया को गारत करने पर तुले हैं –
क्या है इस पूरे चाँद के उजाले में
इस बिखरती हुई आधी रात में
जो मेरी साँस
लाहौर और करांची और सिंध तक उलझती है?
पूछो युद्ध सरदारों से
इस सफेद हो रही रात में
क्या वे बगदाद को फिर से बना सकते हैं?
क्या कल भारत-पाक भी बगदाद में तब्दील नहीं होने जा रहे हैं, इन युद्ध सरदारों के न्याय के चलते. आलोक धन्वा की छोटी-सी एक कविता है ‘हसरत’, जिसे पढ़ते अज्ञेय की कविता ‘हम नदी के साथ-साथ’ याद आती है. आलोक लिखते हैं –
जहाँ नदियाँ समुद्र से मिलती हैं
वहाँ मेरा क्या है
मैं नहीं जानता
लेकिन एक दिन जाना है उधर…
उस ओर किसी को जाते देख
कैसी हसरत भड़कती है!
दूसरी ओर ‘हम नदी के साथ-साथ’ कविता में अज्ञेय लिखते हैं –
हम नदी के साथ-साथ
सागर की ओर गए
पर नदी सागर में मिली
हम छोर रहे
नदी की नाव
न जाने कब खुल गई
नदी ही सागर में घुल गई
हमारी ही गाँठ न खुली
हम फिर लेट कर गली-गली
अपनी पुरानी आस्ति की टोह में भरमाते रहे.

अज्ञेय अपनी कविता में आलोक वाली हसरत पूरी भी कर लेते हैं तो क्या? उनकी गाँठ कहाँ खुलती है? आलोक को वहाँ अपना कुछ लगता है. यह दरअसल मानव रक्त में बसी आदिम प्राकृत चेतना है. आदमी मछली से विकसित हुआ है और पानी-नदी-समुद्र से उसका लगाव उसी आदिम सुसुप्त स्मृति की फासिल पुनर्रचना है. जैसे पहाड़ों में डायनासोर के फासिल मिलते हैं, उसी तरह ये आदिम लगाव हमारी स्मृतियों के फासिल हैं, जिनका होना हममें जिज्ञासा पैदा करता रहता है.
________

कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस हिन्‍दी दैनिक में स्‍थानीय संपादक
Mail- kumarmukul07@gmail.com

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